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24- कर्दम मुनि और देवहूति का विवाह और भगवान कपिल का जन्म

Sep 28th, 2024 | 11 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 3 अध्याय: 21 से 24

जब विदुरजी ने मनु के वंश, उनके पुत्रों और उनकी पुत्रियों द्वारा प्रजा की वृद्धि के संबंध में प्रश्न पूछा, तब मैत्रेयजी ने इस प्रकार उत्तर दिया- ब्रह्माजी ने अपनी छाया से उत्पन्न हुए कर्दम मुनि को संतान उत्पन्न करने का आदेश दिया। इस आदेश का पालन करते हुए, कर्दम मुनि ने सरस्वती नदी के तट पर 10,000 वर्षों तक कठोर तप किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर सत्ययुग के प्रारंभ में श्री हरि कर्दम मुनि के समक्ष प्रकट हुए। जहाँ मुनि तपस्या कर रहे थे, वहाँ सरस्वती नदी के निर्मल जल से एक शांत सरोवर बना हुआ था। कर्दम मुनि की अटूट तपस्या से भगवान इतने भावविभोर हो गए कि उनकी आँखों से करुणा के आँसू छलक पड़े। इन दिव्य आँसुओं ने उस सरोवर को पवित्र कर दिया, जिससे वह बिंदुसर तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हो गया।

श्री हरि को अपने समक्ष देख कर्दमजी ने उनकी निष्कपटभावसे स्तुति किया जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने उनसे अमृतमयी वाणीसे कहा, “जिसके लिये तुमने आत्मसंयमादिके द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे हृदयके उस भावको जानकर मैंने पहलेसे ही उसकी व्यवस्था कर दी है। मेरी आराधना तो कभी भी निष्फल नहीं होती; फिर जिनका चित्त निरन्तर एकान्तरूपसे मुझमें ही लगा रहता है, उन तुम-जैसे महात्माओंके द्वारा की हुई उपासनाका तो और भी अधिक फल होता है। सम्राट् स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्तमें रहकर सात समुद्रवाली सारी पृथ्वीका शासन करते हैं। वे महारानी शतरूपाके साथ तुमसे मिलनेके लिये परसों यहाँ आयेंगे। उनकी एक रूप-यौवन, शील और गुणोंसे सम्पन्न कन्या इस समय विवाहके योग्य है। तुम सर्वथा उसके योग्य हो, इसलिये वे तुम्हींको वह कन्या अर्पण करेंगे। तुम उस कन्या को स्वीकार करो। वह नौ कन्याओं को जन्म देगी, और उनसे मरीचि आदि ऋषि संतान उत्पन्न करेंगे। मैं भी तुम्हारे पुत्र के रूप में अपनी अंश कला से जन्म लूंगा और फिर सांख्य शास्त्र की रचना करूंगा।" यह कहकर श्री हरि अपने लोक चले गए।

कर्दम मुनि श्री भगवान के निर्देशानुसार बिंदु सरोवर पर ही रहे। जैसा कि श्री हरि ने कहा था, मनु और शतरूपा कर्दमजी के पास आए। मनु ने संकोचपूर्वक कर्दम ऋषि से कहा - "यह मेरी कन्या-जो प्रियव्रत और उत्तानपादकी बहिन है -अवस्था, शील और गुण आदिमें अपने योग्य पतिको पानेकी इच्छा रखती है। जबसे इसने नारदजीके मुखसे आपके शील, विद्या, रूप, आयु और गुणोंका वर्णन सुना है तभीसे यह आपको अपना पति बनानेका निश्चय कर चुकी है। मैं अपनी बेटी को आपको अर्पित करता हूं, कृपया इसे स्वीकार करें।"

कर्दमजी ने कहा - "मैं इस कन्या को वेदों के अनुसार विवाह करके स्वीकार करूंगा। कौन आपकी इतनी सुंदर कन्या को अस्वीकार कर सकता है? एक बार वह अपने महल की छत पर गेंद खेल रही थी। उस समय उसे देखकर विश्वावसु गंधर्व अपने विमान से गिर पड़ा था। वही कन्या मुझसे निवेदन कर रही है कि मैं उसे स्वीकार करूं। ऐसे में कौन है जो उसे स्वीकार नहीं करेगा? मैं अवश्य ही इसे स्वीकार करूंगा, लेकिन एक शर्त पर – मैं इसके साथ केवल तब तक रहूंगा जब तक इसकी संतान नहीं हो जाती, और उसके बाद मैं सन्यास के लिए चला जाऊंगा।" मनु, शतरूपा और देवहूति ने इस शर्त को सहर्ष स्वीकार किया और देवहूति का विवाह कर्दम मुनि से कर दिया। 

वहां से लौटते समय मनुजी बहुत ही दुःखी होकर रोए, लेकिन फिर वे बार्हिष्मती नगरी लौट गए, जहां वराह भगवान ने पृथ्वी को उठाते समय अपने शरीर को झटकने पर अपने रोम गिराए थे। मनुजी के महल में प्रतिदिन सुबह गंधर्व गान किया करते थे, लेकिन मनुजी केवल श्री हरि की कथा ही सुनते थे। वे सांसारिक सुखों का अनुभव तो करते थे, परंतु वे कभी भी उन्हें धर्म के मार्ग से विचलित नहीं कर सके। इसी प्रकार उन्होंने 71 चतुर्युगी का समय पूरा किया। जो पुरुष श्रीहरिके आश्रित रहता है उसे शारीरिक, मानसिक, दैविक, मानुषिक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार कष्ट पहुँचा सकते हैं।मनुजी निरन्तर समस्त प्राणियोंके हितमें लगे रहते थे। मुनियोंके पूछनेपर उन्होंने मनुष्योंके तथा समस्त वर्ण और आश्रमोंके अनेक प्रकारके मंगलमय धर्मोंका भी वर्णन किया जो मनुसंहिताके रूपमें अब भी उपलब्ध है। मैत्रेयजी ने कहा कि जगतके सर्वप्रथम सम्राट महाराज मनु वास्तवमें कीर्तनके योग्य थे। यह मैंने उनके अद्भुत चरित्रका वर्णन किया, अब उनकी कन्या देवहूतिका प्रभाव सुनो।

माता-पिता के जाने के बाद देवहूति ने कर्दम मुनि को भगवान से भी ऊपर मानते हुए सदैव बड़े आदर के साथ उनकी सेवा की। उन्होंने अपनी सेवा में इतनी निष्ठा दिखाई कि अपने शरीर की देखभाल करना भी भूल गईं। कुछ समय पश्चात कर्दम मुनि उनकी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी तपस्या और योग से प्राप्त सभी शक्तियां उन्हें प्रदान कर दीं। उन्होंने देवहूति को दिव्य दृष्टि भी दी जिससे वे उन्हें देख सकें। कर्दमजी ने कहा कि अन्य जितने भी भोग हैं, वे तो भगवान् श्रीहरिके भ्रुकुटि विलासमात्रसे नष्ट हो जाते हैं; अतः वे इनके आगे कुछ भी नहीं हैं। अपने पातिव्रत-धर्मका पालन करनेसे तुम्हें ये दिव्य भोग प्राप्त हो गये हैं, तुम इन्हें भोग सकती हो। देवहूति भी अपनी सेवा के फल से बहुत प्रसन्न हुईं। तब उन्होंने कर्दमजी के समक्ष संतान प्राप्ति की इच्छा व्यक्त की। कर्दमजी ने तब एक सात मंजिला सुंदर विमान का निर्माण किया, जिसमें सभी प्रकार के भोग-विलास के साधन मौजूद थे। जब देवहूति ने उसे देखकर कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई, तो कर्दमजी ने उन्हें बिंदु सरोवर में स्नान करने के लिए कहा। 

जब देवहूति बिंदु सरोवर में स्नान करने के लिए उतरीं, उस समय उनके वस्त्र बहुत मैले थे, उनके बाल चिपके हुए थे और उनका शरीर भी गंदा था। लेकिन जैसे ही उन्होंने उस जल में डुबकी लगाई, उन्हें सरोवर में एक हज़ार दासियां उनकी प्रतीक्षा करती हुई मिलीं। उन दासियों ने देवहूति को स्नान कराने, उन्हें वस्त्र पहनाने और आभूषण आदि धारण कराने में सहायता की। इसके बाद उन्होंने देवहूति को तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन और पेय पदार्थ भी दिए। जब देवहूति ने आईने में अपना चेहरा देखा, तो उन्होंने स्वयं को अत्यंत सुंदर पाया। और जैसे ही उन्होंने कर्दम मुनि के बारे में सोचा, उन्होंने अपने आप को उनके साथ पाया। इस दृश्य को देखकर वे अत्यंत आश्चर्यचकित हो गईं। कर्दमजी ने पहले देवहूति को विमान में बिठाया और फिर स्वयं भी उसमें चढ़ गए। इसके बाद वे कई वर्षों तक विमान में घूमते रहे। वे कई वर्षों तक कुबेर के मेरु पर्वत की घाटियों में भी रहे। फिर अंततः वे अपने आश्रम वापस लौट आए।

आत्मज्ञानी कर्दमजी सब प्रकारके संकल्पोंको जानते थे; अतः देवहूतिको सन्तानप्राप्तिके लिये उत्सुक देख तथा भगवान्के आदेशको स्मरणकर उन्होंने अपने स्वरूपके नौ विभाग किये तथा कन्याओंकी उत्पत्तिके लिये देवहूति के गर्भ में अपने वीर्य को स्थापित किया। इससे देवहूतिके एक ही साथ नौ कन्याएँ पैदा हुईं। इसी समय देवहूतिने देखा कि पूर्व प्रतिज्ञाके अनुसार उसके पतिदेव संन्यासाश्रम ग्रहण करके वनको जाना चाहते हैं तो उसने अपने आँसुओंको रोककर ऊपरसे मुसकराते हुए व्याकुल एवं संतप्त हृदयसे कहा - "भगवान, आपने अपना वचन पूरा किया है, फिर भी मैं आपकी शरण में हूं, इसलिए मुझे निर्भय बनाएं। आप जा रहे हैं, मुझे इन कन्याओं के लिए वर खोजने होंगे। इसके अलावा, जब ये सभी कन्याएं अपने पतियों के घर चली जाएंगी, तब मेरी देखभाल कौन करेगा? कृपया मेरे लिए भी कुछ व्यवस्था कर दें। अब तक जो भी समय मैंने व्यतीत किया, वह सब व्यर्थ ही गया। मुझे लगता है कि मैं ठगी गई हूं, क्योंकि आपको पति के रूप में पाकर भी मैंने संसार से मुक्ति पाने की इच्छा नहीं की। अबतक परमात्मासे विमुख रहकर मेरा जो समय इन्द्रियसुख भोगनेमें बीता है, वह तो निरर्थक ही गया। आपके परम प्रभावको न जाननेके कारण ही मैंने इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहकर आपसे अनुराग किया तथापि यह भी मेरे संसार-भयको दूर करनेवाला ही होना चाहिये। अज्ञानवश असत्पुरुषोंके साथ किया हुआ जो संग संसार-बन्धनका कारण होता है, वही सत्पुरुषोंके साथ किये जानेपर असंगता प्रदान करता है।”
नेह यत्कर्म धर्माय न विरागाय कल्पते ।
न तीर्थपदसेवायै जीवन्नपि मृतो हि सः ॥
संसारमें जिस पुरुषके कर्मोंसे न तो धर्मका सम्पादन होता है, न वैराग्य उत्पन्न होता है और न भगवान्की सेवा ही सम्पन्न होती है वह पुरुष जीते ही मुर्देके समान है । (भगवत 3.23.56)
देवहूति ने कहा की अवश्य ही मैं भगवान्की मायासे बहुत ठगी गयी, जो आप-जैसे मुक्तिदाता पतिदेवको पाकर भी मैंने संसार-बन्धनसे छूटनेकी इच्छा नहीं की। जब कर्दमजी ने देवहूति की बात सुनी, तो उन्हें भगवान के वचनों की याद आई। उन्होंने देवहूति से कहा - "सुमुखी, तुम इसकी चिंता मत करो। अब तुम संयम, नियम, तप और दानादि करती हई श्रद्धापूर्वक भगवानका भजन करो। इस प्रकार आराधना करनेपर श्रीहरि तुम्हारे गर्भसे अवतीर्ण होकर मेरा यश बढ़ावेंगे और ब्रह्मज्ञानका उपदेश करके तुम्हारे हृदयकी अहंकारमयी ग्रन्थिका छेदन करेंगे। 

भगवान कपिल ने देवहूति और कर्दम के पुत्र रूप में लिया अवतार 

कर्दमके आदेश पर देवहूतिने पूर्ण विश्वास किया और वह निर्विकार, जगद्गुरु भगवान् श्रीपुरुषोत्तमकी आराधना करने लगी। इस प्रकार बहुत समय बीत जानेपर भगवान् मधुसूदन कर्दमजीके वीर्यका आश्रय ले उसके गर्भसे इस प्रकार प्रकट हुए, जैसे काष्ठमेंसे अग्नि। उस समय आकाशमें मेघ जल बरसाते हुए गरज-गरजकर बाजे बजाने लगे, गन्धर्वगण गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दित होकर नाचने लगीं। आकाशसे देवताओंके बरसाये हुए दिव्य पुष्पोंकी वर्षा होने लगी; सब दिशाओंमें आनन्द छा गया, जलाशयोंका जल निर्मल हो गया और सभी जीवोंके मन प्रसन्न हो गये।
इसी समय सरस्वती नदीसे घिरे हुए कर्दमजीके उस आश्रममें मरीचि आदि मुनियोंके सहित श्रीब्रह्माजी आये। ब्रह्माजीको यह मालूम हो गया था कि साक्षात् परब्रह्म भगवान् विष्णु सांख्यशास्त्रका उपदेश करनेके लिये अपने विशुद्ध सत्त्वमय अंशसे अवतीर्ण हुए हैं। ब्रह्माजी ने कहा- तुम्हारी ये सुन्दरी कन्याएँ अपने वंशोंद्वारा इस सृष्टिको अनेक प्रकारसे बढ़ावेंगी।अब तुम इन मरीचि आदि मुनिवरोंको इनके स्वभाव और रुचिके अनुसार अपनी कन्याएँ समर्पित करो और संसारमें अपना सुयश फैलाओ। मैं जानता हूँ, जो सम्पूर्ण प्राणियोंकी निधि हैं उनके अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं, वे आदिपुरुष श्रीनारायण ही अपनी योगमायासे कपिलके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं।
ज्ञानविज्ञानयोगेन कर्मणां उद्धरन्जटाः ।
हिरण्यकेशः पद्माक्षः पद्ममुद्रापदाम्बुजः ॥

एष मानवि ते गर्भं प्रविष्टः कैटभार्दनः ।
अविद्यासंशयग्रन्थिं छित्त्वा गां विचरिष्यति ॥
[फिर देवहूतिसे बोले-] राजकुमारी! सुनहरे बाल, कमल-जैसे विशाल नेत्र और कमलांकित चरण-कमलोंवाले शिशुके रूपमें कैटभासुरको मारनेवाले साक्षात् श्रीहरिने ही, ज्ञान-विज्ञानद्वारा कर्मोकी वासनाओंका मलोच्छेदन करनेके लिये, तेरे गर्भमें प्रवेश किया है। ये अविद्याजनित मोहकी ग्रन्थियोंको काटकर पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचरेंगे। (भगवत 3.24.17-18)
अयं सिद्धगणाधीशः साङ्ख्याचार्यैः सुसम्मतः ।
लोके कपिल इत्याख्यां गन्ता ते कीर्तिवर्धनः ॥
ये सिद्धगणोंके स्वामी और सांख्याचार्योंके भी माननीय होंगे। लोकमें तेरी कीर्तिका विस्तार करेंगे और ‘कपिल’ नामसे विख्यात होंगे। (भगवत 3.24.19)

किन ऋषियों का किनके साथ विवाह हुआ है?

इसके बाद ब्रह्माजी चले गए। ब्रह्माजीके चले जानेपर कर्दमजीने उनके आज्ञानुसार मरीचि आदि प्रजापतियों के साथ अपनी कन्याओंका विधिपूर्वक विवाह कर दिया।
मरीचये कलां प्रादाद् अनसूयां अथात्रये ।
श्रद्धां अङ्‌गिरसेऽयच्छत् पुलस्त्याय हविर्भुवम् ॥
उन्होंने अपनी कला नामकी कन्या मरीचिको, अनसूया अत्रिको, श्रद्धा अंगिराको और हविर्भू पुलस्त्यको समर्पित की। (भागवत 3.24.22)
पुलहाय गतिं युक्तां क्रतवे च क्रियां सतीम् ।
ख्यातिं च भृगवेऽयच्छद् वसिष्ठायाप्यरुन्धतीम् ॥
पुलहको उनके अनुरूप गति नामकी कन्या दी, क्रतुके साथ परम साध्वी क्रियाका विवाह किया, भृगुजीको ख्याति और वसिष्ठजीको अरुन्धती समर्पित की। (भागवत 3.24.23)
अथर्वणेऽददाच्छान्तिं यया यज्ञो वितन्यते ।
विप्रर्षभान् कृतोद्वाहान् सदारान् समलालयत् ॥
अथर्वा ऋषिको शान्ति नामकी कन्या दी, जिससे यज्ञकर्मका विस्तार किया जाता है। कर्दमजीने उन विवाहित ऋषियोंका उनकी पत्नियोंके सहित खूब सत्कार किया। (भागवत 3.24.24)
  1. मरीचि-कला 
  2. अत्रि- अनसूया 
  3. अंगिरा- श्रद्धा 
  4. पुलस्त्य- हविर्भू 
  5. पुलह- गती 
  6. क्रतु-क्रिया 
  7. भृगु-ख्याति
  8. वशिष्ठ- अरुन्धती 
  9. अथर्व- शांति 

भगवान कपिल का कर्दम मुनि को आज्ञा

कर्दमजी ने देखा कि उनके घर में स्वयं श्रीहरि का अवतार हुआ है, तो वे एकांत में उनके पास गए और प्रणाम कर यह कहने लगे:"आप जिन्हें योगीजन अनेकों जन्मों की साधना और दृढ़ समाधि के द्वारा एकांत में देखने का प्रयास करते हैं आज हमारे घर अवतरित हुए हैं। आपने अपने वचनों को सत्य करने और सांख्य योग का उपदेश देने के लिए ही मेरे यहां अवतार लिया है। मैं अब तीनों ऋणों (देव, पितृ, और ऋषि) से मुक्त हो चुका हूं, इसलिए मैं संन्यास लेना चाहता हूं।"

भगवान ने कहा -  चाहे वैदिक कर्म हो या सांसारिक कर्म, मेरे वचन ही मानक हैं। इसलिए जब मैंने कहा था कि 'मैं तुम्हारे घर में अवतार लूंगा', तो मैं यहां जन्मा हूं।  इस लोकमें मेरा यह जन्म मुक्ति की इच्छावाले मुनियोंके लिये आत्मदर्शनमें उपयोगी प्रकृति आदि तत्त्वोंका विवेचन करनेके लिये ही हुआ है। आत्मज्ञानका यह सूक्ष्म मार्ग बहुत समयसे लुप्त हो गया है। इसे फिरसे प्रवर्तित करनेके लिये ही मैंने यह शरीर ग्रहण किया है। मैं आज्ञा देता हूँ, तुम इच्छानुसार जाओ और अपने सम्पूर्ण कर्म मुझे अर्पण करते हुए दुर्जय मृत्युको जीतकर मोक्षपद प्राप्त करनेके लिये मेरा भजन करो।
मामात्मानं स्वयंज्योतिः सर्वभूतगुहाशयम्।
आत्मन्येवात्मना वीक्ष्य विशोकोऽभयमृच्छसि ॥
मैं स्वयंप्रकाश और सम्पूर्ण जीवोंके अन्तःकरणोंमें रहनेवाला परमात्मा ही हूँ। अतः जब तुम विशुद्ध बुद्धिके द्वारा अपने अन्तःकरणमें मेरा साक्षात्कार कर लोगे तब सब प्रकारके शोकोंसे छूटकर निर्भय पद (मोक्ष) प्राप्त कर लोगे। (भागवत 3.24.39)
भगवान कपिल ने पिता से आगे कहा की माता देवहूतिको भी वह सम्पूर्ण कर्मोंसे छुड़ानेवाला आत्मज्ञान प्रदान करेंगे जिससे यह संसाररूप भयसे पार हो जायगी। 

मैत्रेयजी कहते हैं भगवान् कपिलके इस प्रकार कहनेपर कर्दमजी उनकी परिक्रमा कर प्रसन्नतापूर्वक वनको चले गये। उन्होंने संन्यास धर्म का पालन करते अपना मन भगवान में लगा दिया और अंत में इच्छा और द्वेष से रहित, सर्वत्र समबुद्धि और भगवद्भक्ति से पूर्ण होकर कर्दमजी ने भगवान का परमपद प्राप्त कर लिया।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 27.09.2024