श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 1 अध्याय: 15 से 17
भगवान श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन के पश्चात महाराज युधिष्ठिरसे कलियुगका फैलना छिपा न रहा। उन्होंने देखा की देश, नगर, घरो और प्राणियोंमें लोभ, असत्य, छल, हिंसा आदि अधर्मोंकी बढ़ती हो गयी है। तब उन्होंने महाप्रस्थानका निश्चय किया। उन्होंने अपने पौत्र परीक्षित्को हस्तिनापुर का एवं मथुरामें अनिरुद्धके पुत्र वज्रका अभिषेक किया। इसके बाद युधिष्ठिरने प्राजापत्य यज्ञ करके गृहस्थाश्रमके धर्मसे मुक्त होकर संन्यास ग्रहण किया। उन्होंने अपने सब वस्त्राभूषण आदि वहीं छोड़ दिये एवं ममता और अहंकारसे रहित होकर समस्त बन्धन काट डाले। इसके पश्चात् उन्होंने शरीरपर चीर-वस्त्र धारण कर लिया, अन्न-जलका त्याग कर दिया, मौन ले लिया और केश खोलकर बिखेर लिये। फिर वे बिना किसीकी बाट देखे तथा बहरेकी तरह बिना किसीकी बात सुने, घरसे निकल पड़े। हृदयमें श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए उन्होंने उत्तर दिशाकी यात्रा की।
भीमसेन, अर्जुन आदि युधिष्ठिरके छोटे भाइयोंने भी देखा कि अब पृथ्वीमें सभी लोगोंको कलियुगने प्रभावित कर डाला है; इसलिये वे भी श्रीकृष्णचरणोंकी प्राप्तिका दृढ़ निश्चय करके अपने बड़े भाईके पीछे-पीछे चल पड़े। उन्होंने जीवनके सभी लाभ भलीभाँति प्राप्त कर लिये थे; इसलिये यह निश्चय करके कि भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमल ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं, उन्होंने उन्हें हृदयमें धारण किया । पाण्डवोंके हृदयमें भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंके ध्यानसे भक्ति-भाव उमड़ आया, उनकी बुद्धि श्रीकृष्ण में अनन्यभावसे स्थिर हो गयी। फलतः उन्होंने वह गति प्राप्त की, जो विषयासक्त दुष्ट मनुष्योंको कभी प्राप्त नहीं हो सकती। विदुरजीने भी अपने शरीरको प्रभासक्षेत्रमें त्याग दिया। उस समय उन्हें लेनेके लिये आये हुए पितरोंके साथ वे अपने लोक (यमलोक)-को चले गये ।
जग छोड़ना ही होगा गोविंद राधे। पहले ही छोड़ी मन हरि में लगा दे।।
सूतजी कहते हैं—शौनकजी! पाण्डवोंके महाप्रयाणके पश्चात् राजा परीक्षित् पृथ्वीका शासन करने लगे। उन्होंने उत्तरकी पुत्री इरावतीसे विवाह किया। उससे उन्होंने जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न किये तथा कृपाचार्यको आचार्य बनाकर उन्होंने गंगाके तटपर तीन अश्वमेधयज्ञ किये। उन यज्ञोंमें देवताओंने प्रत्यक्षरूपमें प्रकट होकर अपना भाग ग्रहण किया था ।
शौनकजीने पूछा की दिग्विजयके समय महाराज परीक्षित्ने कलियुगको दण्ड देकर ही क्यों छोड़ दिया, मार क्यों नहीं डाला? सूतजी ने आगे कहा की जिस समय राजा परीक्षित् ने सुना कि मेरी सेनाद्वारा सुरक्षित साम्राज्यमें कलियुगका प्रवेश हो गया है। इस समाचारसे उन्हें दुःख तो अवश्य हुआ; परन्तु यह सोचकर कि युद्ध करनेका अवसर हाथ लगा, वे उतने दुःखी नहीं हुए। इसके बाद परीक्षित्ने धनुष हाथमें ले लिया और दिग्विजय करनेके लिये नगरसे बाहर निकल पड़े।
उन्होंने मार्ग में बहुत से राजाओंसे भेंट ली और उन्हें उन देशोंमें सर्वत्र अपने पूर्वजओं का सुयश सुननेको मिला। उस यशोगानसे पद-पदपर भगवान् श्रीकृष्णकी महिमा प्रकट होती थी । इसके साथ ही उन्हें यह भी सुननेको मिलता था कि भगवान श्रीकृष्णने अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रकी ज्वालासे किस प्रकार उनकी रक्षा की थी, यदुवंशी और पाण्डवोंमें परस्पर कितना प्रेम था तथा पाण्डवोंकी भगवान श्रीकृष्णमें कितनी भक्ति थी। अपने पूर्वजों एवं श्रीकृष्ण की कथा सुनके परीक्षित्की भक्ति भगवान श्रीकृष्णके चरणकमलों में और भी बढ़ जाती। उन्हीं दिनों उनके शिविरसे थोड़ी ही दूरपर एक आश्चर्यजनक घटना घटी।
धर्म-पृथ्वी संवाद
धर्म बैलका रूप धारण करके एक पैरसे घूम रहा था। एक स्थानपर उसे गायके रूपमें पृथ्वी मिली। उसके नेत्रोंसे आँसु झर रहे थे। उसका शरीर श्रीहीन हो गया था। धर्म पृथ्वीसे पूछने लगा, “तुम कुशलसे तो हो न? तुम्हारा मुख कुछ-कुछ मलिन हो रहा है। तुम श्रीहीन हो रही हो, मालूम होता है तुम्हारे हृदयमें कुछ-न-कुछ दुःख अवश्य है। कहीं तुम मेरी तो चिन्ता नहीं कर रही हो कि अब इसके तीन पैर टूट गये, एक ही पैर रह गया है? तुम्हें इन देवताओंके लिये भी खेद हो सकता है, जिन्हें अब यज्ञोंमें आहुति नहीं दी जाती, अथवा उस प्रजाके लिये भी, जो वर्षा न होनेके कारण अकाल से पीड़ित हो रही है।” धर्म ने आगे पूछा की क्या तुम राक्षस-सरीखे मनुष्योंके द्वारा सतायी हुई स्त्रियों एवं बालकोंके लिये शोक कर रही हो? आजके नाममात्रके राजा तो सोलहों आने कलियुगी हो गये हैं, उन्होंने बड़े-बड़े देशोंको भी उजाड़ डाला है। क्या तुम उन राजाओं या देशोंके लिये शोक कर रही हो? आजकी जनता खान-पान, वस्त्र, स्नान और स्त्री-सहवास आदिमें शास्त्रीय नियमोंका पालन न करके स्वेच्छाचार कर रही है; क्या इसके लिये तुम दुःखी हो?
धर्म ने कहा, “माँ पृथ्वी! हो-न-हो तुम्हें श्रीकृष्णकी याद आ रही होगी; क्योंकि उन्होंने तुम्हारा भार उतारनेके लिये ही अवतार लिया था और अनेक लीलाएँ की थीं। अब उनके लीला-संवरण कर लेनेपर तुम दुःखी हो रही हो । देवि! तुम तो धन-रत्नोंकी खान हो। तुम अपने क्लेशका कारण मुझे बतलाओ।”
पृथ्वीने कहा, “धर्म! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब स्वयं जानते हो। जिन भगवान्के सहारे तुम अपने चारों चरणोंसे युक्त थे। उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णने इस समय इस लोकसे अपनी लीला संवरण कर ली और यह संसार पापमय कलियुगकी कुदृष्टिका शिकार हो गया। यही देखकर मुझे बड़ा शोक हो रहा है। जिनका कृपा प्राप्त करनेके लिये ब्रह्मा आदि देवता भगवान्के शरणागत होकर बहुत दिनोंतक तपस्या करते रहे, उन्हीं भगवान्के कमल, वज्र, अंकुश, ध्वजा आदि चिह्नोंसे युक्त श्रीचरणोंसे विभूषित होनेके कारण मुझे महान् वैभव प्राप्त हुआ था और मेरी तीनों लोकोंसे बढ़कर शोभा हुई थी; परन्तु मेरे सौभाग्यका अब अन्त हो गया। भगवान्ने मुझ अभागिनीको छोड़ दिया। मालूम होता है मुझे अपने सौभाग्यपर गर्व हो गया था, इसीलिये उन्होंने मुझे यह दण्ड दिया है।”
रुनुक झुन, धुन नूपुर नन्दलाल।
जिनके चरण-कमल नहीं आवत, शंभु-समाधिहुँ हाल।
उनके चरण-कमल पर राजत, नूपुर नित्य रसाल।
धर्म और पृथ्वी इस प्रकार आपसमें बातचीत कर ही रहे थे कि उसी समय परीक्षित् सरस्वतीके तटपर आ पहुँचे। वहाँ पहुँचकर राजा परीक्षित्ने देखा कि एक राजवेषधारी हाथमें डंडा लिये हुए है और गाय-बैलके एक जोड़ेको इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो। वह सफ़ेद बैल एक पैरसे खड़ा काँप रहा था तथा ताड़नासे पीड़ित और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था । गाय भी बार-बार उस व्यक्ति के पैरोंकी ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी। एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दूसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखोंसे आँसू बहते जा रहे थे।
राजा परीक्षित्ने अपना धनुष चढ़ाकर मेघके समान गम्भीर वाणीसे उसको ललकारा, “हमारे दादा अर्जुनके साथ भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इस प्रकार निर्जन स्थानमें निरपराधोंपर प्रहार करनेवाला तू अपराधी है, अतः वधके योग्य है।” इसके पश्चात उन्होंने धर्मसे पूछा की तीन पैर न होनेपर भी आप एक ही पैरसे चलते-फिरते हैं। यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैलके रूपमें कोई देवता हैं? अभी यह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियोंके बाहुबलसे सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणीकी आँखोंसे शोकके आँसू बहते मैंने नहीं देखे। आप दोनों ना रोएँ में इस दुष्ट को दंड दूँगा।
धर्म के चार चरण
परीक्षित के पूछने से धर्म ने कहा:
- कहीं लोग अपने-आपको ही अपने दुःखका कारण बतलाते हैं।
- कोई प्रारब्धको कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्मको।
- कुछ लोग स्वभावको, तो कुछ लोग ईश्वरको दुःखका कारण मानते हैं ।
- कुछ लोग मानते हैं कि दुःखका कारण न तो तर्कके द्वारा जाना जा सकता है और न वाणीके द्वारा बतलाया जा सकता है।
अब इनमें कौन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धिसे ही विचार लीजिये । धर्मका यह प्रवचन सुनकर परीक्षित् बहुत प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्तचित्त होकर उनसे कहा, “धर्मका तत्त्व जाननेवाले वृषभदेव! आप धर्मका उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभके रूपमें स्वयं धर्म हैं। आपने अपनेको दुःख देनेवालेका नाम इसलिये नहीं बताया है कि अधर्म करनेवालेको जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करनेवालेको भी मिलते हैं ।”
सत्ययुगमें धर्म के चार चरण थे:
- तप
- पवित्रता
- दया
- सत्य
इस समय अधर्मके अंश गर्व, आसक्ति और मदसे तीन चरण नष्ट हो चुके हैं । अब धर्म का चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसीके बलपर वह जी रहे हैं। असत्यसे पुष्ट हुआ अधर्मरूप कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है।
परीक्षित ने आगे कहा की यह गौ माता साक्षात् पृथ्वी हैं। भगवान्ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके चरणचिह्नोंसे सर्वत्र उत्सवमयी हो गयी थीं । अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं। वे यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजाका स्वाँग बनाकर विधर्मी मुझे भोगेंगे। परीक्षित्ने इस प्रकार धर्म और पृथ्वीको सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्मके कारणरूप कलियुगको मारनेके लिये तलवार उठायी। कलियुग ताड़ गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं; अतः झटपट भयविह्वल होकर उनके चरणोंमें अपना सिर रख दिया ।
कलियुग को रहने के लिए परीक्षित ने दिया पाँच स्थान
परीक्षित् बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुगको अपने पैरोंपर पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं, अपितु हँसते हुए-से उससे कहा, “जब तू हाथ जोड़कर शरण आ गया, तब अर्जुनके यशस्वी वंशमें उत्पन्न हुए किसी भी वीरसे तुझे कोई भय नहीं है। परन्तु तू अधर्मका सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्यमें बिलकुल नहीं रहना चाहिये। तेरे राजाओंके शरीरमें रहनेसे ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्म-त्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापोंकी बढ़ती हो रही है । अतः इस ब्रह्मावर्तमें तू एक क्षणके लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्यका निवासस्थान है। इस देशमें भगवान् श्रीहरि यज्ञोंके रूपमें निवास करते हैं, यज्ञोंके द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालोंका कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान् वायुकी भाँति समस्त चराचर जीवोंके भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओंको पूर्ण करते रहते हैं।”
परीक्षित्की यह आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराजके समान मारनेके लिये उद्यत, हाथमें तलवार लिये हुए परीक्षित्से वह बोला, “आपकी आज्ञासे जहाँ कहीं भी मैं रहनेका विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुषपर बाण चढ़ाये खड़े हैं । आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ।”
अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ । द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः ।।
पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः । ततोऽनृतं मदं२ कामं रजो वैरं च पञ्चमम् ।।
कलियुगकी प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित्ने उसे चार स्थान दिये—द्यूत, मद्यपान, स्त्री-संग और हिंसा। इन स्थानोंमें क्रमशः असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता—ये चार प्रकारके अधर्म निवास करते हैं। उसने और भी स्थान माँगे। तब समर्थ परीक्षित्ने उसे रहनेके लिये एक और स्थान—‘सुवर्ण’ (धन)—दिया। इस प्रकार कलियुगके पाँच स्थान हो गये—झूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण। (भागवत 1-17-38-39)
परीक्षित इस प्रकार कलियुग को रहने के लिए पाँच स्थान देते हैं:
- द्यूत (जुआघर) जहाँ असत्य व्याप्त होता है।
- मद्यपान (शराबखाना) जहाँ नशा या मोह व्याप्त होता है।
- अवैध स्त्री-संयोग (वेश्यालय) जहाँ काम वासना व्याप्त होता है।
- हिंसा (बूचड़खाना) जहाँ वैर एवं क्रूरता व्याप्त होता है।
- सोना या धन (जो जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक हो, उससे अधिक संग्रह किया हुआ) जहाँ रजोगुण व्याप्त होता है।
परीक्षित्के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानोंमें अधर्मका मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओंका पालन करता हुआ निवास करने लगा । इसलिये आत्मकल्याण चाहनेवाले मनुष्य को इन पाँचों स्थानोंका सेवन कभी नहीं करना चाहिये। राजा परीक्षित्ने इसके बाद वृषभरूप धर्मके तीनों चरण—तपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वीका संवर्धन किया ।
Summary: JKYog India Online Class- Shreemad Bhagavat Katha [Hindi]- 22.07.2024