श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 5 अध्याय: 15-17
भरत महाराज का वंश वर्णन
भरत → पुत्र सुमति (ऋषभदेवजी के मार्ग पर चले)
सुमति → पत्नी वृद्धसेना से पुत्र देवताजित्
देवताजित् → पत्नी असुरी से पुत्र देवद्युम्न
देवद्युम्न → पत्नी धेनुमती से पुत्र परमेष्ठी
परमेष्ठी → पत्नी सुवर्चला से पुत्र प्रतीह (आत्मविद्या का उपदेशक और श्रीनारायण के भक्त)
प्रतीह → पत्नी सुवर्चला से तीन पुत्र- प्रतिहर्ता, प्रस्तोता, उद्गाता
प्रतिहर्ता → पत्नी स्तुति से दो पुत्र- अज और भूमा
भूमा → पत्नी ऋषिकुल्या से पुत्र उद्गीथ। पत्नी देवकुल्या से पुत्र प्रस्ताव।
प्रस्ताव → पत्नी नियुत्सा से पुत्र विभु।
विभु → पत्नी रति से पुत्र पृथुषेण।
पृथुषेण → पत्नी आकूति से पुत्र नक्त।
नक्त → पत्नी द्रुति से पुत्र उदारकीर्ति।
उदारकीर्ति (राजर्षि गय) → भगवद्भक्ति और प्रजापालन में निपुण।
गयन्ती से पुत्र- चित्ररथ, सुगति, और अवरोधन।
चित्ररथ → पत्नी ऊर्णा से पुत्र सम्राट्।
सम्राट् → पत्नी उत्कला से पुत्र मरीचि।
मरीचि → पत्नी बिन्दुमती से पुत्र बिन्दुमान्।
बिन्दुमान् → पत्नी सरघा से पुत्र मधु।
मधु → पत्नी सुमना से पुत्र वीरव्रत।
वीरव्रत → पत्नी भोजा से पुत्र- मन्थु और प्रमन्थु।
मन्थु → पत्नी सत्या से पुत्र भौवन।
भौवन → पत्नी दूषणा से पुत्र त्वष्टा।
त्वष्टा → पत्नी विरोचना से पुत्र विरज।
विरज → पत्नी विषूची से शतजित् आदि सौ पुत्र और एक कन्या।
राजा परीक्षित मुनि से विनम्रतापूर्वक कहते हैं, "मुनिवर! आपने सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश तक फैले भूमंडल का विस्तार बताया। साथ ही, आपने कहा कि महाराज प्रियव्रत के रथ के पहियों से सात समुद्र बने, जिनके कारण भूमंडल में सात द्वीपों का विभाजन हुआ।अब कृपया मुझे इन सात द्वीपों का आकार, विस्तार और उनके विशेष लक्षणों के बारे में विस्तार से समझाने की कृपा करें।"
श्रीशुकदेवजी ने कहा, "महाराज! भगवान की माया के गुण इतने विशाल और गहन हैं कि यदि कोई व्यक्ति देवताओं के समान लंबी आयु भी प्राप्त कर ले, तब भी वह मन और वाणी से इसका अंत नहीं जान सकता।इसलिए, हम इस भूमंडल की विशेषताओं का वर्णन मुख्य-मुख्य बातों को नाम, रूप, परिमाण और लक्षणों के आधार पर ही करेंगे।"
श्रीशुकदेवजी कहते हैं की यह जम्बूद्वीप-जिसमें हम रहते हैं, भूमण्डलरूप कमलके कोशस्थानीय जो सात द्वीप हैं, उनमें सबसे भीतरका कोश है। इसका विस्तार एक लाख योजन है और यह कमलपत्रके समान गोलाकार है।
जम्बूद्वीप क्या है?
जम्बूद्वीप वह स्थान है, जिसमें हम रहते हैं, भूमण्डलरूप कमलके कोशस्थानीय जो सात द्वीप हैं, उनमें सबसे भीतरका कोश है। इसका विस्तार एक लाख योजन है और यह कमलपत्रके समान गोलाकार है और यह एक लाख योजन (1 योजन = लगभग 8 मील) के क्षेत्र में फैला हुआ है।
जम्बूद्वीप में कुल नौ खंड (वर्ष) हैं, और हर खंड का क्षेत्रफल नौ-नौ हजार योजन है। इन खंडों को आठ पर्वतों ने अलग-अलग भागों में बाँटा हुआ है। इन नौ खंडों में से बीच का सबसे प्रमुख खंड “इलावृत वर्ष” है। यह इलावृत वर्ष बेहद विशेष और पवित्र माना गया है, क्योंकि इसके मध्य में मेरु पर्वतस्थित है।
मेरु पर्वत का विवरण
मेरु पर्वत को शास्त्रों में सभी पर्वतों का राजा माना गया है। यह पवित्र पर्वत भूमंडल रूपी कमल का कर्णिका (बीच का भाग) है। इसका स्वरूप कुछ इस प्रकार है:
- स्वर्ण पर्वत: यह पूरी तरह से सोने से बना है और अत्यधिक चमक प्रदान करता है।
- आयाम: कुल ऊंचाई: एक लाख योजन (84,000 योजन पृथ्वी से ऊपर, 16,000 योजन नीचे)। चोटी पर चौड़ाई: 32,000 योजन; आधार पर चौड़ाई: 16,000 योजन।
मेरु पर्वत सूरज की तरह चमकता है और इसकी ऊँचाई इसे अत्यंत भव्य और दिव्य बनाती है। मेरु पर्वत के चारों ओर कई पर्वत और खंड (वर्ष) स्थित हैं, जो इस प्रकार हैं:
- उत्तर पर्वत: नील पर्वत, श्वेत पर्वत, शृंगवान पर्वत (राम्य, हिरण्यमय और कुरु वर्ष की सीमाएँ)।
- दक्षिण पर्वत: निशध पर्वत, हेमकूट पर्वत, हिमालय पर्वत (हरिवर्ष, किमपुरुष वर्ष और भारत वर्ष की सीमाएँ)।
- पूर्व और पश्चिम पर्वत: गंधमादन पर्वत (पूर्व) और माल्यवन पर्वत (पश्चिम)। इन पर्वतों की चौड़ाई 2,000 योजन है, जो विभिन्न वर्षों को स्पष्ट रूप से विभाजित करती हैं।
मेरु पर्वत के चार विशाल, दिव्य वृक्ष हैं, प्रत्येक 1,100 योजन ऊंचे। ये वृक्ष पर्वत के शीर्ष पर ध्वज की तरह स्थित हैं और इनमें असाधारण विशेषताएँ हैं:
- आम का वृक्ष (मंदार पर्वत): विशाल आमों का उत्पादन करता है, जिनका रस अरुणोदा नदी में बहता है, जो इलावृत्त वर्ष के पूर्वी क्षेत्र को पोषित करता है।
- जामुन का वृक्ष (मेरुमंदार पर्वत): विशाल जामुनों का उत्पादन करता है, जिनका रस जाम्बू नदी में बहता है, जो दक्षिणी क्षेत्र को पोषित करता है और जाम्बुनद, एक स्वर्णमय मृत्तिका का निर्माण करता है, जो देवताओं के आभूषण बनाने के लिए उपयोगी है।
- कदंब का वृक्ष (सुपर्ष्व पर्वत): शहद की पांच धाराएँ छोड़ता है, जो इलावृत्त वर्ष के पश्चिमी भाग को पोषित करती हैं।
- वट वृक्ष (कुमुद पर्वत): इसके हवाई जड़ों से इच्छापूर्ति करने वाली वस्तुएँ जैसे दूध, शहद, वस्त्र और घी बहती हैं, जो इलावृत्त वर्ष के उत्तरी क्षेत्र को पोषित करती हैं।
मेरु पर्वत के पास रहने वाले लोग दिव्य होते हैं। उनके शरीर पर कभी झुर्रियाँ नहीं पड़तीं, उन्हें न तो बुढ़ापा होता है और न ही कोई बीमारी, उनके शरीर से सुगंध निकलती रहती है और वहाँ के लोग हमेशा प्रसन्न और सुखी जीवन जीते हैं।
जैसे कमल की कर्णिका (बीच का भाग) के चारों ओर केसर होता है, वैसे ही मेरु पर्वत के मूल स्थान के चारों ओर 20 और छोटे-बड़े पर्वत हैं। इन पर्वतों के नाम हैं: कुरंग, कुरर, कुसुम्भ, वैकंक, त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक, निषध, शिनीवास, कपिल, शंख, वैदूर्य, जारुधि, हंस, ऋषभ, नाग, कालंजर और नारद।
इसके अलावा, मेरु पर्वत के पूर्व दिशा में जठर और देवकूट नामक दो पर्वत हैं। इसी प्रकार पश्चिम में पवन और पारियात्र, दक्षिण में कैलास और करवीर, और उत्तर में त्रिशृंग और मकर नाम के पर्वत हैं। ये आठ पर्वत मेरु पर्वत को चारों ओर से घेरे हुए हैं। मेरु पर्वत, जो स्वर्ण के समान चमकता है, अग्नि की तरह जगमगाता है।
मेरु पर्वत के शिखर पर बीचोबीच ब्रह्माजी की एक विशाल स्वर्णमयी नगरी है जिसे ब्रह्मपुरी कहते हैं। यह नगरी आकार में समचौरस है और अत्यंत विशाल है। ब्रह्माजी के चारों ओर आठ दिशाओं में इन्द्र और अन्य लोकपालों की नगरियाँ हैं। ये नगरियाँ ब्रह्मपुरी से चौथाई आकार की हैं।
दिव्य गंगाजी का विवरण
राजा परीक्षित से श्रीशुकदेवजी कहते हैं: राजन्! जब राजा बलि की यज्ञशाला में भगवान विष्णु ने त्रिलोकी को नापने के लिए अपना पैर फैलाया, तब उनके बाएँ पैर के अंगूठे के नख से ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग में छेद हो गया। इस छेद से जो जल की धारा बाहर आयी, वह भगवान के चरणों को धोने से केसर की सुगंध से युक्त होकर लाल हो गई। यह जल इतना पवित्र है कि इसके स्पर्श से संसार के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, फिर भी यह हमेशा निर्मल रहता है। पहले इसे "भगवत्पदी"कहा जाता था। यह धारा हजारों वर्षों बाद स्वर्गलोक के ध्रुवलोक में पहुँची, जिसे "विष्णुपद" भी कहते हैं।
ध्रुवलोक में उत्तानपाद के पुत्र ध्रुवजी इसे आदरपूर्वक अपने सिर पर धारण करते हैं। जल को भगवान के चरणों का चरणोदक मानते हुए, उनकी आँखों से प्रेमाश्रु बहने लगते हैं और शरीर रोमांचित हो जाता है।
इसके बाद सप्तर्षि भी इस जल को अपने जटाजूट में धारण करते हैं। वे इसे तपस्या की परम सिद्धि मानते हैं। इस गंगा का प्रवाह स्वर्ग से चंद्रमंडल को छूता हुआ मेरु पर्वत के शिखर पर ब्रह्मपुरी में गिरता है। वहाँ से यह चार धाराओं में विभाजित हो जाती है: सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा।
- सीता पूर्व दिशा में बहती है और भद्राश्ववर्ष को प्लावित करती हुई पूर्व समुद्र में मिल जाती है।
- चक्षु पश्चिम दिशा में बहती है और केतुमालवर्ष में बहती हुई पश्चिम समुद्र में समाहित होती है।
- भद्रा उत्तर दिशा में उत्तरकुरु देश में बहती है और उत्तर समुद्र में जा मिलती है।
- अलकनंदा दक्षिण दिशा में हिमालय के शिखरों से होकर भारतवर्ष में प्रवेश करती है और दक्षिण समुद्र में मिल जाती है। इसके जल में स्नान करने से व्यक्ति को महान यज्ञों का फल मिलता है।
प्रत्येक वर्षमें मेरु आदि पर्वतोंसे निकली हुई और भी सैकड़ों नद-नदियाँ हैं। इन सब वर्षों में भारतवर्ष ही कर्मभूमि है। शेष आठ वर्ष तो स्वर्गवासी पुरुषोंके स्वर्गभोगसे बचे हुए पुण्योंको भोगनेके स्थान हैं। इसलिये इन्हें भूलोकके स्वर्ग भी कहते हैं। वहाँके देवतुल्य मनुष्योंकी मानवी गणनाके अनुसार दस हजार वर्षकी आयु होती है। उनमें दस हजार हाथियोंका बल होता है तथा शरीरमें जो शक्ति, यौवन और उल्लास होते हैं उनके कारण वे बहत समयतक विषय भोगते रहते हैं। अन्तमें जब भोग समाप्त होनेपर उनकी आयुका केवल एक वर्ष रह जाता है, तब उनकी स्त्रियाँ गर्भ धारण करती हैं। इस प्रकार वहाँ सर्वदा त्रेतायुगके समान समय बना रहता है। इन नवों वर्षों में भगवान् नारायण वहाँके पुरुषोंपर अनुग्रह करनेके लिये इस समय भी अपनी विभिन्न मूर्तियोंसे विराजमान रहते हैं।
इलावृतवर्षमें एकमात्र भगवान् शंकर ही पुरुष हैं। पार्वतीजीके शापको जाननेवाला कोई दूसरा पुरुष वहाँ प्रवेश नहीं करता; क्योंकि वहाँ जो जाता है, वही स्त्रीरूप हो जाता है। इस प्रसंगका हम आगे (नवम स्कन्धमें) वर्णन करेंगे। वहाँ भगवान् शंकर परम पुरुष परमात्माकी वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण संज्ञक चतुर्ग्रह मूर्तियोंमेंसे अपनी कारणरूपा संकर्षण नामकी तमःप्रधान चौथी मूर्तिका ध्यानस्थित मनोमय विग्रहके रूपमें चिन्तन करते हैं और इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 24.01.2025