श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 5 अध्याय: 18-19
शुकदेवजी परीक्षित को बताते हैं कि जम्बूद्वीप के प्रत्येक वर्ष में मेरु पर्वत से निकली अनेक पवित्र नदियां प्रवाहित होती हैं। इन वर्षों में भारतवर्ष को छोड़कर शेष सभी वर्ष स्वर्गवासी पुरुषों के पुण्य भोगने के स्थान हैं, जिन्हें भूलोक के स्वर्ग कहा गया है। वहाँ के निवासी त्रेतायुग के समान समय में देवतुल्य जीवन जीते हैं, जहां सौंदर्य, शक्ति और उल्लास से परिपूर्ण उनका जीवन नित्य विषय-भोग में व्यतीत होता है।
वहाँ के सुरम्य आश्रम, पर्वतों की घाटियाँ, वन-उपवन और पुष्पों से लदे वृक्ष देवताओं के विहार के लिए सुसज्जित हैं। जलाशयों में खिले कमल और पक्षियों की मधुर बोली उस वातावरण को और भी रमणीय बना देती है। इन वर्षों में भगवान नारायण अपनी विभिन्न मूर्तियों से निवास करते हुए वहाँ के निवासियों पर कृपा बरसाते हैं।
जम्बूद्वीप के नौ वर्षों की पौराणिक विवरण
- इलावृतवर्ष:
- इलावृतवर्ष मेरु पर्वत के चारों ओर फैला हुआ है।
- भगवान शंकर इस वर्ष के अधिपति हैं और यहाँ वे माता पार्वती के साथ निवास करते हैं।
- भगवान शंकर यहाँ परम पुरुष परमात्मा के चतुर्व्यूह रूप (वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, और अनिरुद्ध) में से संकर्षण का ध्यान करते हुए उनकी स्तुति करते हैं।
- भद्राश्ववर्ष:
- धर्मपुत्र भद्रश्रवा और उनके मुख्य-मुख्य सेवक भगवान हयग्रीव की उपासना करते हुए कहते हैं कि आपका विग्रह मनुष्य और घोड़ेका संयुक्त रूप है। प्रलयकालमें जब दैत्यगण वेदोंको चुरा ले गये थे, तब ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर आपने उन्हें रसातलसे लाकर दिया। ऐसे अमोघ लीला करनेवाले सत्यसंकल्प आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
- हरिवर्ष:
- यहां प्रह्लादजी उस वर्षके अन्य पुरुषोंके सहित निष्काम एवं अनन्य भक्तिभावसे भगवान नृसिंह की उपासना करते हैं।
- नृसिंह भगवान की स्तुति करते प्रह्लाद कहते हैं- जिस पुरुष की भगवान में निष्काम भक्ति होती है, उसके हृदय में धर्म, ज्ञान और सद्गुण स्वाभाविक रूप से निवास करते हैं। परंतु जो भगवद्भक्त नहीं है, उसमें सद्गुण आ ही नहीं सकते; वह केवल बाहरी विषयों में उलझा रहता है।
- जैसे मछलियों का जीवन जल पर निर्भर है, वैसे ही सभी जीवों के प्रियतम आत्मा स्वयं श्रीहरि हैं। लेकिन जो अहंकारी व्यक्ति उन्हें छोड़कर सांसारिक जीवन में फंसा रहता है, उसका बड़प्पन केवल आयु के आधार पर देखा जाता है, गुणों के आधार पर नहीं। इसलिए, हे असुरों! तृष्णा, राग, क्रोध, भय, और माया का त्याग करके भगवान नरसिंह के निर्भय चरणकमलों का आश्रय ग्रहण करो। यही जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होने का मार्ग है।
- केतुमालवर्ष:
- यहाँ लक्ष्मीजीका तथा संवत्सर नामक प्रजापतिके पुत्र और पुत्रियोंका प्रिय करनेके लिये भगवान् कामदेवरूपसे निवास करते हैं। पुत्र दिनों के अधिपति हैं और पुत्रियाँ रातों की अधिष्ठात्री देवियाँ हैं। उनकी संख्या मनुष्यकी सौ वर्षकी आयुके दिन और रातके बराबर अर्थात् छत्तीस-छत्तीस हजार वर्ष है और वे ही उस वर्षके अधिपति हैं।
- लक्ष्मीजी भगवान की स्तुति करते हुए कहती हैं- भगवान! आप इन्द्रियों के स्वामी और सच्चे रक्षक हैं। स्त्रियाँ कठोर व्रतों द्वारा आपकी आराधना कर लौकिक पतियों की कामना करती हैं, पर वे पतिगण स्वयं परतंत्र होकर उनकी रक्षा नहीं कर सकते। सच्चा पति वही है जो निर्भय हो और दूसरों की रक्षा कर सके, और वह केवल आप ही हैं। जो स्त्री केवल आपके चरणकमलों की भक्ति करती है, उसकी सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं। लेकिन जो किसी विशेष कामना से आपकी उपासना करती है, उसे केवल वही वस्तु मिलती है, जो भोग के बाद नष्ट हो जाती है और उसे कष्ट देती है। ब्रह्मा और शिव जैसे सुर-असुर भी मुझे पाने के लिए तप करते हैं, परंतु आपके चरणों का आश्रय लेने वाले भक्त के अलावा मुझे कोई नहीं पा सकता। मेरा मन सदा आपमें ही रहता है। हे अच्युत! कृपा कर अपने करकमल को मेरे मस्तक पर रखें। मैं आपकी वक्षःस्थल पर शोभा देने वाली लक्ष्मी मात्र हूँ। आपकी लीलाओं का रहस्य कोई नहीं समझ सकता।
- रम्यकवर्ष:
- यहाँ भगवान ने वहाँ के अधिपति मनु को अपना परमप्रिय मत्स्य अवतार दिखाया था। मनु अब भी उसी मत्स्य रूप की भक्ति और स्तुति करते हैं: "हे प्रभु, आप सृष्टि के आधार, प्राण, बल और वेदस्वरूप हैं। जैसे नट कठपुतलियों को नचाता है, वैसे ही आप सृष्टि को संचालित करते हैं। आप प्राण और वायु रूप में सभी के भीतर और बाहर विद्यमान हैं। प्रलयकाल में आपने पृथ्वी और औषधियों का उद्धार किया। हे नियंता प्रभु, आपको मेरा नमन।"
- हिरण्मयवर्ष:
- यहाँ भगवान कच्छप रूप धारण करके रहते हैं। वहाँके निवासियोंके सहित पितृराज अर्यमा भगवान्की उस मूर्तिकी उपासना करते हैं।
- यह संसार यद्यपि मिथ्या प्रतीत होता है, फिर भी यह आपकी माया से प्रकाशित आपका ही रूप है। आप ही सभी प्रकार के जीवों, देवताओं, ऋषियों, तत्वों, ग्रहों और तारों के रूप में विद्यमान हैं। कपिल मुनि द्वारा वर्णित चौबीस तत्व और वह तत्त्वज्ञान भी आपका ही स्वरूप है। हे अनिर्वचनीय प्रभु, आपको मेरा नमन।
- उत्तर कुरुवर्ष:
- यहाँ भगवान यज्ञपुरुष वराहमूर्ति धारण कर विराजते हैं। वहाँ के निवासी और पृथ्वी देवी उनकी अविचल भक्ति से स्तुति करते हैं: आप मायिक आकृतियों से परे हैं। योग और साधना से ज्ञानीजन आपकी वास्तविकता का अनुभव करते हैं। जैसे चुम्बक की शक्ति से लोहा गति करता है, वैसे ही आपकी इच्छा से प्रकृति सृष्टि, स्थिति और प्रलय करती है। हे जगत् के कारणभूत आदिसूकर, आपने हिरण्याक्ष का वध कर मुझे प्रलय के जल से बाहर निकाला। मैं आपको बार-बार प्रणाम करती हूँ।
- किम्पुरुषवर्ष:
- किंपुरुषवर्ष में परम भक्त श्रीहनुमानजी वहां के निवासियों और वहां के प्रमुख अर्श्टिषेण के साथ मिलकर श्रीरामचंद्रजी की अविचल भक्ति में सदा लीन रहते हैं।
- किंपुरुषवर्ष में हनुमानजी स्तुति करते हुए कहते हैं: हम भगवान् श्रीराम को नमस्कार करते हैं, जो शील, सदाचार और लोककल्याण में अग्रणी हैं। उनका अवतार केवल राक्षस-वध के लिए नहीं, बल्कि मानवजाति को शिक्षा देने के लिए है।
- श्रीराम विशुद्ध, अद्वितीय और सर्वान्तरात्मा हैं। उनका दुःख और कार्य केवल लोकशिक्षा के लिए हैं। उन्होंने यह दिखाने के लिए वनवासी वानरों से मित्रता की कि श्रेष्ठ कुल, सुंदरता या बुद्धि से उनकी प्रसन्नता संभव नहीं, केवल भक्ति से ही वह प्राप्त होते हैं
सुरोऽसुरो वाप्यथ वानरो नरः सर्वात्मना यः सुकृतज्ञमुत्तमम् ।
भजेत रामं मनुजाकृतिं हरिं य उत्तराननयत्कोसलान्दिवमिति ।।
देवता, असुर, वानर अथवा मनुष्य कोई भी हो, उसे सब प्रकारसे श्रीरामरूप आपका ही भजन करना चाहिये; क्योंकि आप नररूपमें साक्षात् श्रीहरि ही हैं और थोड़े कियेको भी बहुत अधिक मानते हैं। आप ऐसे आश्रितवत्सल हैं कि जब स्वयं दिव्यधामको सिधारे थे, तब समस्त उत्तरकोसलवासियोंको भी अपने साथ ही ले गये थे’। (भागवत 5.19.8)
- भारतवर्ष:
- यहाँ भगवान नर-नारायण रूप धारण करके संयमशील व्यक्तियों पर कृपा करने के लिए अव्यक्त रूप में कल्प के अंत तक तप करते रहते हैं। उनकी यह तपस्या धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, शांति और उपरति में निरंतर वृद्धि करती है और अंत में आत्मस्वरूप की प्राप्ति होती है।
- यहाँ नारदजी भगवान के द्वारा बताए गए सांख्य और योगशास्त्र के साथ भगवान की महिमा को प्रकट करने वाले पांचरात्रदर्शन का उपदेश देने के लिए सावर्णि मुनि को उपदेश देते हैं। वे भारतवर्ष में वर्णाश्रम धर्म पालन करने वाले एवं अन्य विशुद्ध भक्तों के साथ मिलकर भगवान की स्तुति करते हैं:
- भगवान नर-नारायण ओंकारस्वरूप, अहंकार से रहित और शान्त हैं। वे परमहंसों के गुरु और आत्मारामों के अधीश्वर हैं। भगवान विश्व की उत्पत्ति के कर्ता होते हुए भी अहंकार से मुक्त रहते हैं और शरीर के धर्मों से वशीभूत नहीं होते।
भारतवर्ष: जहाँ मोक्ष की प्राप्ति संभव है, इसीलिए देवता भी मनुष्य जन्म की कामना करते हैं
भारतवर्ष में कई पर्वत और नदियाँ हैं जो अपने नामोंसे ही जीवको पवित्र कर देती हैं और भारतीय प्रजा इन्हींके जल में स्नानादि करती है ।
- मुख्य पर्वत: मलय, मैनाक, त्रिकूट, ऋषभ, कोल्लक, सह्य, महेन्द्र, विन्ध्य, गोवर्धन, रैवतक, नील, गोकामुख, आदि। इन पर्वतों के तटों से कई नदियाँ निकलती हैं।
- मुख्य नदियाँ: चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी, कावेरी, कृष्णा, गोदावरी, यमना, सरस्वती, गोमती, सरयू, सिन्धु, आदि। इन नदियों के पानी से जीवों को पवित्रता मिलती है, और भारतीय लोग इन नदियों में स्नान करते हैं।
- कर्म और योनियाँ: इस वर्ष में जन्मे लोग अपने कर्मों (सात्त्विक, राजस, तामस) के अनुसार विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। ये योनियाँ दिव्य, मानुष या नारकी हो सकती हैं। इसी वर्षमें अपने-अपने वर्णके लिये नियत किये हए धर्मोंका विधिवत् अनुष्ठान करनेसे मोक्षतककी प्राप्ति हो सकती है।
सम्पूर्ण भूतों की आत्मा, राग और अन्य दोषों से रहित, अनिर्वचनीय और निराधार परमात्मा भगवान वासुदेव में अनन्य और अहैतुक भक्तिभाव ही मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। यह भक्तिभाव तब प्राप्त होता है, जब हृदय की अविद्या रूपी ग्रंथियाँ कट जाती हैं और भगवान के प्रेमी भक्तों का संग मिलता है। इस संगति से ही आत्मा को वास्तविक मुक्ति और प्रेम की प्राप्ति होती है।
अहो अमीषां किमकारि शोभनं प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरिः ।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि नः ।।
किं दुष्करैर्नः क्रतुभिस्तपोव्रतैर्दानादिभिर्वा द्युजयेन फल्गुना ।
न यत्र नारायणपादपङ्कज- स्मृतिः प्रमुष्टातिशयेन्द्रियोत्सवात् ।।
देवता भी भारतवर्षमें उत्पन्न हए मनुष्योंकी इस प्रकार महिमा गाते हैं—अहा! जिन जीवोंने भारतवर्षमें भगवानकी सेवाके योग्य मनुष्य-जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है? अथवा इनपर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं? इस परम सौभाग्यके लिये तो निरन्तर हम भी तरसते रहते हैं।
स्वर्ग का अधिकार हमें कठोर यज्ञ, तप, व्रत और दान से मिलता है, लेकिन इससे कोई स्थायी लाभ नहीं होता। यहाँ इन्द्रियों के भोगों के कारण स्मृति शक्ति समाप्त हो जाती है, और भगवान श्री नारायण की याद नहीं आती। स्वर्ग और ब्रह्मलोक से लौटना पड़ता है, जबकि भारत भूमि पर एक साधारण व्यक्ति भी भगवान के चरणों में अपने कर्म अर्पित करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है।(भागवत 5.19.21-22)
न यत्र वैकुण्ठकथासुधापगा न साधवो भागवतास्तदाश्रयाः ।
न यत्र यज्ञेशमखा महोत्सवाः सुरेशलोकोऽपि न वै स सेव्यताम् ।।
जहाँ भगवत्कथाकी अमृतमयी सरिता नहीं बहती, जहाँ उसके उद्गमस्थान भगवदभक्त साधुजन निवास नहीं करते और जहाँ नत्य-गीतादिके साथ बडे समारोहसे भगवान् यज्ञपुरुषकी पूजा-अर्चा नहीं की जाती-वह चाहे ब्रह्मलोक ही क्यों न हो, उसका सेवन नहीं करना चाहिये। (भागवत 5.19.24)
प्राप्ता नृजातिं त्विह ये च जन्तवो ज्ञानक्रियाद्रव्यकलापसम्भृताम् ।
न वै यतेरन्नपुनर्भवाय ते भूयो वनौका इव यान्ति बन्धनम् ।।
जो जीव भारतवर्ष में ज्ञान (विवेकबुद्धि), तदनुकूल कर्म तथा उस कर्मके उपयोगी धन-सम्पत्ति आदि सामग्रीसे सम्पन्न मनुष्यजन्म पाया है, वे यदि आवागमनके चक्रसे निकलनेका प्रयत्न नहीं करते, तो व्याधकी फाँसीसे छूटकर भी फलादिके लोभसे उसी वृक्षपर विहार करनेवाले पक्षियोंके समान फिर बन्धनमें पड़ जाते हैं। (भागवत 5.19.25)
भारतवासियों का सौभाग्य है कि जब वे यज्ञ करते हैं और विभिन्न देवताओं के लिए श्रद्धापूर्वक हवि अर्पित करते हैं, तो श्रीहरि ही उन हवियों को ग्रहण कर उन्हें उनकी इच्छाएँ पूरी करते हैं। भगवान सकाम भक्ति करने वाले लोगों को उनकी इच्छाएँ पूरी करते हैं, यह वास्तविक दान नहीं होता क्योंकि उनके मन में फिर भी इच्छाएँ रहती हैं। इसके विपरीत, जो निष्काम भाव से भजन करते हैं, भगवान उन्हें स्वयं अपने चरणकमल प्रदान करते हैं, जो सभी इच्छाओं को समाप्त कर देते हैं।
नः स्वर्गसुखावशेषितं स्विष्टस्य सूक्तस्य कृतस्य शोभनम् ।
तेनाजनाभे स्मृतिमज्जन्म नः स्याद् वर्षे हरिर्यद्भजतां शं तनोति ।।
अतः अबतक स्वर्गसुख भोग लेनेके बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ, प्रवचन और शुभ कर्मोंसे यदि कुछ भी पुण्य बचा हो, तो उसके प्रभावसे हमें इस भारतवर्षमें भगवान्की स्मृतिसे युक्त मनुष्यजन्म मिले; क्योंकि श्रीहरि अपना भजन करनेवालेका सब प्रकारसे कल्याण करते हैं।(भागवत 5.19.28)
श्रीशुकदेवजी परीक्षित को कहते हैं राजन्! राजा सगरके पुत्रोंने अपने यज्ञके घोड़ेको ढूँढ़ते हुए इस पृथ्वीको चारों ओरसे खोदा था। उससे जम्बूद्वीपके अन्तर्गत ही आठ उपद्वीप और बन गये, ऐसा कुछ लोगोंका कथन है। वे स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक, मन्दरहरिण, पांचजन्य, सिंहल और लंका हैं। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार जैसा मैंने गुरुमुखसे सुना था, ठीक वैसा ही तुम्हें यह जम्बूद्वीपके वर्षोंका विभाग सुना दिया।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 27.01.2025