श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 5 अध्याय: 13-14
महात्मा जडभरत राजा रहुगण को संसार में भटकते जीव की स्थिति के बारे में रूपक के माध्यम से समझाते हुए कहते हैं- यह जीवसमूह सुख और धन में आसक्त होकर देश-विदेश घूमने वाले व्यापारियों के दल के समान है। माया ने इसे कठिन और उलझन भरे रास्ते पर लगा दिया है। इसलिए इसकी दृष्टि सात्त्विक, राजस और तामस प्रकार के विभिन्न कर्मों पर ही रहती है। इन कर्मों में उलझते-भटकते हुए यह संसार रूपी जंगल में पहुँच जाता है, जहाँ इसे ज़रा भी शांति नहीं मिलती।
उस जंगल में छह डाकू हैं। इस व्यापारी दल का नायक बहुत दुष्ट है। उसके साथ जाने पर डाकू जबरदस्ती इसका सारा माल लूट लेते हैं। जैसे भेड़िये भेड़ों के झुंड को खींच ले जाते हैं, वैसे ही इसके साथ रहने वाले गीदड़ असावधानी का फायदा उठाकर इसका धन इधर-उधर खींचने लगते हैं। वह जंगल लताओं, घास और झाड़-झंखाड़ से भरा हुआ है, जिससे वह बहुत दुर्गम हो गया है। उसमें तीखे डाँस और मच्छर इसे चैन नहीं लेने देते। वहाँ कभी इसे गंधर्वनगर दिखता है, तो कभी चमचमाता हुआ चंचल अगिया-बेताल इसकी आंखों के सामने आ जाता है।
यह व्यापारी समुदाय इस जंगल में निवास स्थान, पानी और धन आदि में आसक्त होकर इधर-उधर भटकता रहता है। कभी बवंडर से उठी धूल सारी दिशाओं को ढक लेती है और इसकी आंखों में भी धूल भर जाती है, तब इसे दिशाओं का भी पता नहीं चलता। कभी इसे अदृश्य झींगुरों की कर्णकटु आवाज सुनाई देती है, तो कभी उल्लुओं की बोली से इसका मन व्यथित हो जाता है। कभी भूख सताने पर यह निंदनीय वृक्षों का सहारा खोजने लगता है, और कभी प्यास से व्याकुल होकर मृगतृष्णा की ओर भागता है।
कभी यह जलहीन नदियों की ओर जाता है, कभी अन्न न मिलने पर आपस में एक-दूसरे से भोजन प्राप्त करने की इच्छा करता है, कभी आग के दावानल में घुसकर जल जाता है और कभी यक्षलोग इसके प्राण खींचने लगते हैं, तब यह दुखी हो जाता है। कभी इससे अधिक बलवान लोग इसका धन छीन लेते हैं, तो यह दुखी होकर शोक और मोह में अचेत हो जाता है। कभी गंधर्वनगर पहुँचकर कुछ समय के लिए सभी दुःख भूलकर खुशी मनाने लगता है।
कभी पर्वतों पर चढ़ना चाहता है, लेकिन काँटे और कंकड़ों से पैर चोटिल हो जाने पर उदास हो जाता है। जब कुटुम्ब बढ़ जाता है और खाने की व्यवस्था नहीं होती, तो भूख की पीड़ा से व्यथित होकर अपने ही परिवार के लोगों पर गुस्सा करने लगता है। कभी यह अजगर के शिकार बनकर जंगल में फेंके हुए मुर्दे की तरह पड़ा रहता है, तब इसे कोई होश नहीं रहता। कभी अन्य विषैले जीव इसे काटने लगते हैं, और उनके विष के प्रभाव से यह अंधा होकर अंधे कुएं में गिर जाता है, जहां घोर अंधकार में यह बेहोश पड़ा रहता है।
कभी यह मधु खोजने लगता है, लेकिन मक्खियाँ इसके लिए परेशानी का कारण बनती हैं और इसका सारा अभिमान नष्ट कर देती हैं। अगर किसी तरह यह मधु पा भी लेता है, तो दूसरे लोग उसे छीन लेते हैं। कभी यह ठंडी, गर्मी, आंधी और बारिश से बचने में असमर्थ हो जाता है। कभी थोड़ा बहुत व्यापार करता है, तो धन के लोभ में दूसरों को धोखा देकर उनसे दुश्मनी पाल लेता है। कभी-कभी उस संसार रूपी जंगल में इसका धन खत्म हो जाता है, और तब इसके पास सोने, बैठने या घूमने के लिए कोई स्थान या साधन नहीं बचते। फिर यह दूसरों से भिक्षा मांगता है, लेकिन जब उसे वह चीज़ नहीं मिलती, जो वह चाहता है, तो वह दूसरों की वस्तुओं पर बुरी नजर डालता है और इसके कारण उसे तिरस्कार झेलना पड़ता है।
इस प्रकार, व्यावसायिक संबंधों के कारण, एक-दूसरे से द्वेषभाव बढ़ जाने पर भी वह व्यापारी समुदाय आपस में विवाह और अन्य संबंध स्थापित करता है। इसके बाद, इस रास्ते में तरह-तरह के कष्ट, धन की हानि और अन्य संकटों का सामना करते-करते वह व्यक्ति मानसिक रूप से थक जाता है। साथियों में से जो-जो मरते जाते हैं, उन्हें वहीं छोड़कर, नए उत्पन्न होने वालों को साथ लेकर वह व्यापारी समुदाय हमेशा आगे बढ़ता रहता है। वीरवर! इनमें से कोई भी प्राणी न तो अब तक वापस लौटा है, और न ही किसी ने इस कठिन मार्ग को पार करके परम आनंदमय योग की शरण ली है।
जिन्होंने बड़े-बड़े दिक्पालों को जीत लिया है, वे भी पृथ्वी पर "यह मेरी है" का अभिमान करते हुए आपस में शत्रुता कर संग्रामभूमि में जूझ पड़ते हैं। फिर भी, उन्हें भगवान का वह अविनाशी पद नहीं मिलता, जो वैरहीन परमहंसों को प्राप्त होता है।
इस भवाटवी (संसार) में भटकने वाला यह व्यापारियों का समूह कभी लताओं के आश्रय में रहता है और वहां के मधुरभाषी पक्षियों के मोह में फंस जाता है। कभी सिंहों के डर से वह बगुलों, कंक और गिद्धों के साथ मित्रता करता है। जब उनसे धोखा मिलता है, तो वह हंसों के बीच प्रवेश करने की कोशिश करता है, लेकिन उनका आचार उसे नहीं भाता। फिर वह वानरों के साथ मिलकर उनके जैसा जीवन जीता है, विषयों में रत रहता है, और इसी प्रकार अपनी उम्र बिता देता है। वह वृक्षों में खेलते हुए अपने परिवार के स्नेह में बंध जाता है। कभी वह असावधानी से पर्वत की गुफा में गिरने लगता है और वहां के हाथियों से डरकर लताओं के सहारे लटकता है। यदि किसी प्रकार वह इस संकट से मुक्त हो जाता है, तो फिर अपने पुराने जीवन में वापस लौट जाता है।
जो व्यक्ति मायाजाल में फंसकर इस मार्ग पर एक बार चलता है, वह भटकते हुए अंत तक अपने उद्देश्य को नहीं पा सकता। तुम भी इसी मार्ग पर भटक रहे हो, इसलिए अब लोगों को दंड देने का काम छोड़कर सब प्राणियों के मित्र बनो। विषयों से अनासक्त होकर भगवत्सेवा में ध्यान लगाओ और ज्ञान रूपी खड्ग से इस भ्रमित मार्ग को पार कर लो।
अहो नृजन्माखिलजन्मशोभनं किं जन्मभिस्त्वपरैरप्यमुष्मिन् ।
न यद्धृषीकेशयशःकृतात्मनां महात्मनां वः प्रचुरः समागमः ।।
राजा रहूगणने कहा-अहो! समस्त योनियों में यह मनुष्यजन्म ही श्रेष्ठ है। अन्यान्य लोकोंमें प्राप्त होनेवाले देवादि उत्कृष्ट जन्मोंसे भी क्या लाभ है, जहाँ भगवान् हृषीकेशके पवित्र यशसे शुद्ध अन्तःकरणवाले आप-जैसे महात्माओंका अधिकाधिक समागम नहीं मिलता। (भागवत 5.13.21)
जो लोग भगवान के चरणों की रज का सेवन करके सारे पाप और ताप से मुक्त हो चुके हैं, उन्हें भगवान की विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मेरे लिए तो आपके दो घड़ी के सत्संग से ही सभी अज्ञान और कुतर्क नष्ट हो गए हैं। ब्रह्मज्ञानियों को, चाहे वे वृद्ध हों, बच्चे हों, युवा हों या क्रीड़ा करते बालक, सभी को प्रणाम है। जो महापुरुष ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होकर अवधूतवेष में पृथ्वी पर विचरते हैं, उनके द्वारा हम जैसे ऐश्वर्य में अभिमानी राजाओं का कल्याण हो।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! इस प्रकार महात्मा जडभरत ने अपना अपमान करने वाले सिन्धुनरेश रहूगण को अत्यन्त करुणा से आत्मज्ञान का उपदेश दिया। तब राजा रहूगण ने दीन भाव से उनके चरणों की वन्दना की। जडभरत के सत्संग से परमात्मा के तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर सौवीरपति रहूगण ने भी अपने देहात्मबुद्धि को त्याग दिया। राजन्! जो लोग भगवान के अनन्य भक्तों की शरण लेते हैं, उनके पास अविद्या का कोई स्थान नहीं रहता।
राजा परीक्षितने कहा—आपने रूपकादिके द्वारा अप्रत्यक्ष रूपसे जीवोंके जिस संसाररूप मार्गका वर्णन किया है, उस विषयकी कल्पना महापुरुषों ने की है; वह अल्पबुद्धिवाले पुरुषोंकी समझमें सुगमतासे नहीं आ सकता। अतः मेरी प्रार्थना है कि इस दुर्बोध विषयको रूपकका स्पष्टीकरण करनेवाले शब्दोंसे खोलकर समझाइये।
जडभरत द्वारा वर्णित भवाटवीका अर्थ
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- राजन्! देहाभिमानी जीवों के द्वारा सत्त्व, रजस और तमस के भेद से तीन प्रकार के कर्म होते हैं। इन कर्मों से बने विभिन्न शरीरों के साथ जो संयोग-वियोगादि अनुभव होते हैं। मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ से विवश होकर यह जीव रास्ता भूलकर भयंकर वन में भटकते हैं, जैसे धन के लोभी व्यापारी। वे भगवान की शरण में न जाकर, मायाकी प्रेरणा से दुर्गम और अशुभ संसार वन में पहुँच जाते हैं। इस वन में उन्हें अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। यहाँ अनेक विघ्नों के कारण उनकी मेहनत भी व्यर्थ जाती है। फिर भी वे श्रीहरि और गुरुदेव के चरणों की शरण नहीं लेते। इस संसार-वन में मन और इन्द्रियाँ ही डाकुओं के समान हैं, जो हमेशा अपने कर्मों की दृष्टि से उत्पात मचाती हैं।
जो पुरुष कड़ी मेहनत से धन कमाता है, उसे उस धन का उपयोग धर्म में करना चाहिए। अगर वह धर्म भगवान की सेवा के रूप में होता है, तो वह व्यक्ति परलोक में परमानंद प्राप्त करता है। लेकिन जिस व्यक्ति की बुद्धि विवेक से रहित होती है और जिसका मन वश में नहीं होता, उसके द्वारा कमाया गया धन, उसकी छह इन्द्रियाँ – देखना, स्पर्श करना, सुनना, स्वाद लेना, सूंघना और सोचने की प्रक्रियाएँ – उसे भटकाकर विषयों में फंसा देती हैं, जैसे चोर-डाकू बेईमान मुखिया और असावधान व्यापारी का धन लूट लेते हैं।
इसके अतिरिक्त, उस संसार-वन में रहने वाले उसके कुटुम्बी, जो नाम से तो स्त्री, पुत्र आदि होते हैं, लेकिन जिनके कर्म भेड़ियों और गीदड़ों जैसे होते हैं, वे उस धन के लोभी कुटुम्बी का धन, उसकी इच्छा के बिना, उसके सामने ही छीन लेते हैं।
जैसे यदि किसी खेत के बीजों को आग से जला न दिया गया हो, तो हर साल जोतने के बावजूद वह झाड़-झंखाड़, लता और तृण से भर जाता है, उसी प्रकार गृहस्थाश्रम भी कर्मों की भूमि है, जिसमें कर्मों का उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह कामनाओं की पिटारी है। गृहस्थाश्रम में आसक्त व्यक्ति का धन, जैसे मक्खी और मच्छरों से, या टिड्डी, पक्षी, चोर और चूहे जैसे नीच पुरुषों से क्षति पहुँचती रहती है। कभी यह व्यक्ति अविद्या, कामना और कर्मों से दूषित होकर, दृष्टिदोष के कारण इस मर्त्यलोक को, जो असत्य है, सत्य समझने लगता है। फिर वह खान-पान और स्त्री-प्रसंग जैसे व्यसनों में फँसकर मृगतृष्णा के समान मिथ्या विषयों की ओर दौड़ने लगता है।
जब बुद्धि रजोगुण से प्रभावित होती है, तो वह सोना को सुख का साधन समझकर उसे पाने के लिए लालायित होकर दौड़ने लगता है, जैसे जंगल में ठिठुरता हुआ आदमी आग के लिए व्याकुल होकर अगिया बेताल की ओर दौड़ता है। कभी वह शरीर को जीवित रखने वाले घर, अन्न-जल और धन में पूरी तरह आसक्त होकर इस संसार के अरण्य में इधर-उधर दौड़ता रहता है।कभी एक स्त्री, जो बवंडर के समान आँखों में धूल झोंक देती है, उसे गोद में बैठा लेती है, तो वह रागान्ध हो जाता है और सत्पुरुषों की मर्यादा का भी विचार नहीं करता। उस समय रजोगुण से बुद्धि मलिन हो जाती है और वह अपने कर्मों के साक्षी दिशाओं के देवताओं को भी भूल जाता है।
कभी एकाध बार विषयों की मिथ्यात्व को जान लेने पर भी, देह में आत्मबद्धता के कारण विवेक नष्ट हो जाता है और वह फिर उन मरुमरीचिकातुल्य विषयों की ओर दौड़ने लगता है। कभी यह प्रत्यक्ष रूप से बोलने वाले उल्लुओं के समान शत्रुओं की ओर और परोक्ष रूप से बोलने वाले झींगुरों के समान राजा (शासक) की अति कठोर और डरावनी डाँट-डपट से इसके कान और मन को बहुत कष्ट होता है। ऐसे लोग जो पापपूर्ण कर्मों में लगे रहते हैं और जिनका धन न इस लोक में काम आता है, न परलोक में, वे जीवित रहते हुए भी मुर्दे के समान होते हैं और ऐसे कृपण पुरुषों का आश्रय लेता है। जब असत् पुरुषों के संग में बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, तो यह सूखी नदी में गिरने की तरह दुःखभोग करता है। जब दूसरों को सताने से उसे अपनी रोटी भी नहीं मिलती, तो वह अपने रिश्तेदारों को, जैसे पिता-पुत्र को, उनका थोड़ा सा भी धन छीनने के लिए तैयार हो जाता है।
प्रिय विषयों से वंचित होकर वह दुःखमय घर में पहुँचता है, जहाँ इष्टजनों के वियोग से उसका शोक और भी बढ़ जाता है। इसी तरह, जब काल का क्रूर हाथ उसके प्रिय प्राणों को छीन लेता है, तो वह मृतक के समान निर्जीव हो जाता है।
अंत में, जब वह अपने असत् रिश्तों को सत्य मानकर उनसे सुख प्राप्त करने का प्रयास करता है, तो वह स्वप्न के समान क्षणिक सुख का अनुभव करता है। गृहस्थाश्रम के लिए जो कर्मविधि विस्तार से दी गई है, वह किसी पर्वत की चढ़ाई के समान कठिन होती है। जब लोग इसे अपनाने की प्रेरणा पाते हैं और दूसरों को देखकर वही प्रयास करने लगते हैं, तो विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों से जूझते हुए वे काँटे और कंकड़ों से भरी राह पर चलने वाले व्यक्ति के समान दुःखी हो जाते हैं।
जब यह जीव निद्रारूप अजगर के चंगुल में फंस जाता है, तो अज्ञान के अंधकार में डूबकर, सूने वन में पड़ा रहता है, जैसे मृतक। उस समय उसे किसी भी बात की समझ नहीं रहती। कभी, दुर्जन उसके गर्व को तोड़ते हुए उसे इतना तिरस्कार करते हैं कि उसके आत्मविश्वास के दांत टूट जाते हैं। तब यह अशांति के कारण सो भी नहीं पाता, और मर्मदर्द के कारण हर क्षण में विवेक की शक्ति कमजोर होती जाती है, अंत में यह अंधे कुएं में गिरकर और भी उलझ जाता है।
कभी, विषयों के सुखों को ढूंढते हुए यह परस्त्री या परधन की ओर मुड़ता है, लेकिन अंत में उसके स्वामी या राजा से दंडित होकर, ऐसे नरक में गिर जाता है जिसका कोई अंत नहीं है। इस प्रकार कहा गया है कि जो लोग कर्म करते हैं, चाहे वे लौकिक हों या वैदिक, वे अंततः संसार में ही बंधे रहते हैं। कभी, शीत, वायु, और अन्य अनेकों आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुखों का सामना करते हुए यह व्यक्ति उन दुखों को दूर करने में असमर्थ होता है, और अपार चिंताओं के कारण उदास हो जाता है।
कालचक्र, जो साक्षात भगवान का आयुध है, परमाणु से लेकर द्विपरार्ध तक सभी समय-घटकों से युक्त है। यह निरंतर घूमता रहता है और उसकी गति बाल्य, यौवन आदि बदलती अवस्थाओं के समान है। कालचक्र के प्रभाव से ब्रह्मा से लेकर सबसे छोटे तृण तक सभी प्राणियों का निरंतर संहार होता रहता है। कोई भी इस चक्र की गति को रोक नहीं सकता। जो लोग इस कालचक्र से डरकर भी भगवान यज्ञपुरुष की आराधना छोड़कर पाखंडी साधुओं के चक्कर में पड़ते हैं, वे उन देवताओं का आश्रय लेते हैं जो केवल वेदबाह्य और अप्रामाणिक आगमों में उल्लेखित होते हैं, जैसे कंक, गिद्ध, बगुला और बटेर। ऐसे लोग अपनी विद्या और धर्म से दूर होते हैं। ये पाखंडी लोग खुद धोखे में रहते हैं। जब ये ठगाए जाते हैं, तो संतों की शरण लेते हैं, लेकिन शास्त्रों के अनुसार कर्म करने के बजाय उनका ध्यान सिर्फ परिवार और स्त्री सुख पर होता है। वे बिना नियंत्रण के जीवन जीते हैं, जिससे उनकी बुद्धि कमजोर हो जाती है। विषयों में फँसकर वे अपना जीवन बिता देते हैं, और मृत्यु का भी उन्हें भान नहीं होता। वे लौकिक सुख में ही सिमट कर, वानरों की तरह अपने समय को बर्बाद करते हैं, और अंत में रोग और मृत्यु के डर में फँस जाते हैं।
कभी जब यह शीत, वायु आदि दुखों का समाधान नहीं कर पाता, तो विषयों की चिंता से उदास हो जाता है। कभी व्यापार में कंजूसी करके थोड़ा सा धन प्राप्त करता है। लेकिन जब धन समाप्त हो जाता है और आवश्यक चीजें भी नहीं मिलतीं, तो यह बुरे उपायों से धन प्राप्त करने का विचार करता है, जिससे उसे बहुत अपमान सहना पड़ता है। धन की आसक्ति के कारण परस्पर वैर बढ़ता है, फिर भी यह अपनी पूर्ववासनाओं के अनुसार विवाह आदि संबंधों में उलझता रहता है।
यह जीव संसार के मार्ग में अनेक प्रकार के क्लेश और विघ्नों से ग्रस्त रहते हुए भी कभी किसी के लिए शोक करता है, कभी दुःख देखकर मूर्च्छित हो जाता है, कभी भयभीत होता है, कभी झगड़ा करता है, और कभी प्रसन्नता के मारे फूला नहीं समाता। वह साधुजनों के संपर्क से हमेशा वंचित रहता है और अपनी यात्रा में बढ़ता रहता है, लेकिन परमात्मा तक नहीं पहुंचता। योगशास्त्र की गति से भी वह नहीं पहुंच पाता, क्योंकि वह केवल प्राणों के त्याग तक सीमित रहता है। जिन राजर्षियों ने बड़े यज्ञ किए, वे भी केवल पृथ्वी छोड़कर परलोक चले जाते हैं, लेकिन संसार से पार नहीं होते।
यद्यपि यदि कोई पुण्यकर्मों के प्रभाव से नरक या आपत्तियों से मुक्ति पा भी जाता है, तो वह फिर भी संसार के मार्ग में भटकते हुए जनसमुदाय में वापस लौट आता है। यही स्थिति स्वर्गादि ऊर्ध्वलोकों में जाने वालों की भी होती है।
राजर्षि भरत का मार्ग अत्यन्त उच्च है, जिस पर कोई अन्य राजा चलने का विचार भी नहीं कर सकता। उन्होंने संसारिक सुखों को—स्त्री, पुत्र, मित्र, और राज्य को युवावस्थामें ही त्याग दिया था, जबकि यह चीजें दूसरों के लिए अत्यन्त कठिन होती हैं। भरतजी ने ना केवल सम्पत्ति और स्त्री को, बल्कि उन देवताओं द्वारा भी इच्छित लक्ष्मी को, भगवान श्रीहरि की सेवा में अनुरक्त होकर त्याग दिया। उनके लिए यह सब त्यागना स्वाभाविक था, क्योंकि जिनका चित्त भगवान मधुसूदन की भक्ति में रमा होता है, उनके लिए मोक्ष भी तुच्छ होता है। उन्होंने मृगशरीर छोड़नेकी इच्छा होनेपर उच्चस्वरसे कहा था कि धर्मकी रक्षा करनेवाले, धर्मानुष्ठानमें निपुण, योगगम्य, सांख्यके प्रतिपाद्य, प्रकृतिके अधीश्वर यज्ञमूर्ति सर्वान्तर्यामी श्रीहरिको नमस्कार है।
उनका चरित्र भक्तों द्वारा सदैव प्रशंसा किया जाता है और यह चरित्र आयु, धन, लोकसम्मान में वृद्धि करता है तथा अन्ततः स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति कराता है। जो व्यक्ति इस चरित्र को सुनता, सुनाता और अभिनन्दन करता है, उसकी सारी इच्छाएँ स्वतः ही पूरी हो जाती हैं, और उसे किसी से कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं रहती।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 17.01.2025