श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 6 अध्याय: 6-9
नारदजी के द्वारा अपने २० हज़ार पुत्रों को सन्यासी बना देनेके बाद क्रोध में आकर दक्ष नारदजी को शाप देते हैं कि वे लोक-लोकांतरों में भटकते रहें और उन्हें कहीं भी ठहरने का ठिकाना न मिले। नारदजी इस शाप को बिना किसी द्वेष के स्वीकार कर लेते हैं।
इसके पश्चात ब्रह्माजीके बहुत अनुनय-विनय करनेपर दक्षप्रजापतिने अपनी पत्नी असिक्नीके गर्भसे ६० कन्याएँ उत्पन्न कीं। वे सभी अपने पिता दक्षसे बहुत प्रेम करती थीं। उनमेंसे दस कन्याएँ धर्मको, तेरह कश्यपको, सत्ताईस चन्द्रमाको, दो भूतको, दो अंगिराको, दो कृशाश्वको और शेष चार तार्क्ष्यनामधारी कश्यपको ही ब्याह दीं। शुकदेवजी परीक्षित् को आगे इन दक्षकन्याओं और इनकी सन्तानोंके नाम विस्तार में वर्णन करते हैं। इन्हींकी वंशपरम्परा तीनों लोकोंमें फैली हुई है।
इनमे से अदिति का विवाह कश्यप से हुई थी। जिनसे १२ आदित्य पैदा हुए। उनमे से एक त्वष्टा है। कश्यप की दूसरी पत्नी दिति से दैत्य उत्पन्न हुए। दैत्योंकी छोटी बहिन रचना त्वष्टाकी पत्नी थी। रचनाके गर्भसे दो पुत्र हुए–संनिवेश और पराक्रमी विश्वरूप। इस प्रकार विश्वरूप यद्यपि शत्रुओंके भानजे थे—फिर भी जब देवगुरु बहस्पतिजीने इन्द्रसे अपमानित होकर देवताओंका परित्याग कर दिया, तब देवताओंने विश्वरूपको ही अपना पुरोहित बनाया था।
राजा परीक्षित्ने पूछा की बृहस्पतिजीने अपने प्रिय शिष्य देवताओंको किस कारण त्याग दिया था?
श्रीशुकदेवजी बोले— जब इन्द्र को त्रिलोकी का ऐश्वर्य प्राप्त हुआ, तो उन्हें घमंड हो गया। अहंकार के कारण वे धर्म और सदाचार की मर्यादा भूलने लगे। एक दिन वे अपनी सभा में सिंहासन पर विराजमान थे, उनके साथ उनकी पत्नी शची भी थीं। सभा में उनचास मरुद्गण, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, आदित्य, ऋभुगण, विश्वेदेव, साध्यगण और अश्विनीकुमार उनकी सेवा में उपस्थित थे। सिद्ध, चारण, गंधर्व, ब्रह्मज्ञानी मुनिगण, विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर, पक्षी और नाग उनकी स्तुति कर रहे थे। चारों ओर उनकी कीर्ति का गान हो रहा था, सफेद छत्र शोभायमान था, महाराजोचित चँवर और पंखे सजे थे, और इन्द्र बड़े गौरव के साथ विराजमान थे।
इसी बीच देवताओं के गुरु बृहस्पतिजी वहाँ पधारे, जिन्हें सुर और असुर सभी आदरपूर्वक प्रणाम करते हैं। इन्द्र ने देखा कि वे सभा में आए हैं, परंतु अहंकार में डूबे होने के कारण न तो वे उठे, न उनका स्वागत किया और न ही उन्हें बैठने का आदर दिया। त्रिकालदर्शी बृहस्पतिजी समझ गए कि यह ऐश्वर्य के मद का परिणाम है। वे बिना कुछ कहे चुपचाप वहाँ से चले गए और योगबल से अंतर्धान हो गए।
थोड़ी देर बाद इन्द्र को अपनी भूल का अहसास हुआ और वे भरी सभा में स्वयं को धिक्कारने लगे। इन्द्र ने उन्हें बहुत खोजा, परंतु वे कहीं नहीं मिले। अब इन्द्र को लगा कि वे गुरु के बिना सुरक्षित नहीं हैं। देवताओं के साथ उन्होंने स्वर्ग की रक्षा के उपाय सोचे, परंतु कोई हल नहीं निकला। उनका मन अशांत बना रहा।
उधर दैत्यों को पता चला कि इन्द्र और बृहस्पति के बीच मतभेद हो गया है। तब असुरों ने शुक्राचार्य के आदेश से देवताओं पर आक्रमण कर दिया। वे इतने तीव्र बाण चलाने लगे कि देवताओं के शरीर कट-कटकर गिरने लगे। घबराए हुए इन्द्र और अन्य देवता ब्रह्माजी की शरण में पहुँचे।
ब्रह्माजी ने उनकी दयनीय स्थिति देखकर कहा—"देवताओ! तुमने बहुत बड़ी गलती की है। देखो, पहले असुर भी अपने गुरु शुक्राचार्य का अनादर करने के कारण दुर्बल हो गए थे। परंतु जब उन्होंने भक्तिभाव से अपने गुरु की सेवा की, तो वे फिर से संपन्न हो गए। अब वे इतने बलशाली हो गए हैं कि कुछ ही समय में मेरा ब्रह्मलोक भी जीत सकते हैं। उनके गुरु ने उन्हें गुप्त नीति और अर्थशास्त्र का पूरा ज्ञान दिया है, इसलिए वे जो भी योजना बनाते हैं, उसकी भनक तक तुम्हें नहीं लगती। वे केवल स्वर्ग ही नहीं, बल्कि किसी भी लोक को जीतने में सक्षम हैं।"
ब्रह्माजी ने देवताओं को उपाय बताया—"अब तुम तुरंत त्वष्टा के पुत्र, तपस्वी और ब्राह्मण विश्वरूप के पास जाओ और उनकी सेवा करो। यदि तुम उनके असुरों के प्रति प्रेम को क्षमा कर सको और उनका सम्मान करोगे, तो वे तुम्हारी सहायता अवश्य करेंगे।"
देवता ब्रह्माजी की सलाह पर तपस्वी विश्वरूप ऋषि के आश्रम पहुंचे और विनम्रता से उनसे सहायता मांगी। उन्होंने कहा, "हे पुत्र! हम तुम्हारे पितृ तुल्य हैं। शत्रुओं से हारकर दुखी हैं, कृपया अपने तपोबल से हमारी रक्षा करो। तुम ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण होकर जन्म से ही हमारे गुरु हो।"
विश्वरूप ने पहले पुरोहिती स्वीकार करने में संकोच किया क्योंकि यह ब्रह्मतेज को क्षीण करने वाली मानी जाती है। लेकिन जब देवताओं ने विनम्रता से अनुरोध किया, तो उन्होंने सेवा स्वीकार कर ली और तन-मन-धन से उनकी सहायता करने का संकल्प लिया।
यद्यपि शुक्राचार्यने अपने नीतिबलसे असुरोंकी सम्पत्ति सुरक्षित कर दी थी, फिर भी समर्थविश्वरूपने वैष्णवी विद्याके प्रभावसे उनसे वह सम्पत्ति छीनकर देवराज इन्द्रको दिला दी। जिस विद्यासे सुरक्षित होकर इन्द्रने असुरोंकी सेनापर विजय प्राप्त की थी, उसका उदारबुद्धि विश्वरूपने ही उन्हें उपदेश किया था।
विश्वरूप द्वारा इंद्र को दिया गया नारायण कवच
राजा परीक्षित्ने पूछा- देवराज इन्द्रने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओंकी चतुरंगिणी सेनाको खेल-खेलमें-अनायास ही जीतकर त्रिलोकीकी राजलक्ष्मीका उपभोग किया, आप उस नारायणकवचको मुझे सुनाइये और यह भी बतलाइये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमिमें किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओंपर विजय प्राप्त की।
श्रीशुकदेवजीने कहा-परीक्षित्! जब देवताओंने विश्वरूपको पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्रके प्रश्न करनेपर विश्वरूपने उन्हें नारायणकवचका उपदेश किया। तुम एकाग्रचित्तसे उसका श्रवण करो-
विश्वरूप ने देवराज इन्द्र को बताया कि भय की स्थिति में नारायण कवच धारण कर शरीर की रक्षा करनी चाहिए। इसके लिए पहले शुद्ध होकर ‘ॐ नमो नारायणाय’ और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्रों से अंगन्यास और करन्यास करना आवश्यक है। उन्होंने विस्तार से समझाया कि कैसे इन मंत्रों के अक्षरों को शरीर के विभिन्न अंगों में स्थापित करना चाहिए, जिससे साधक मंत्रस्वरूप बन जाता है। फिर ‘ॐ विष्णवे नमः’ मंत्र के अक्षरों को हृदय, मस्तिष्क, नेत्र आदि में स्थापित कर दिग्बन्ध करना चाहिए। इसके बाद भगवान नारायण का ध्यान करते हुए, स्वयं को भी उन्हीं के स्वरूप में अनुभव करना चाहिए। अंत में, इस दिव्य कवच का पाठ करके विद्या, तेज और तपोबल प्राप्त किया जा सकता है।
नारायण कवच का मुख्य आशय यह है- भगवान श्रीहरि गरुडजी की पीठ पर विराजमान हैं, अणिमादि सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं, और वे आठ हाथों में दिव्य आयुध धारण किए हुए हैं। वे सब ओर से हमारी रक्षा करें। मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, और कल्कि आदि उनके अवतार हमें जल, थल, आकाश, रणभूमि, पर्वत, वन, और सभी विपत्तियों से बचाएँ।
सुदर्शन चक्र, कौमोदकी गदा, पंचजन्य शंख, नंदक तलवार, और दिव्य ढाल हमारी रक्षा करें एवं शत्रुओं और दुष्ट शक्तियों को नष्ट करें। भगवान के नाम, स्वरूप, वाहन, आयुध और पार्षद हमारी बुद्धि, इंद्रियों और प्राणों की सभी आपत्तियों से रक्षा करें। भगवान नृसिंह अपने अट्टहास से सभी भय को दूर करें और भगवान श्रीहरि अपनी माया शक्ति से धारण किए गए अपने आयुधों और रूप के प्रभाव से हमें सर्वत्र सुरक्षित रखें।
विश्वरूप ने इंद्र को आगे कहा कि प्राचीन कालकी बात है, एक कौशिकगोत्री ब्राह्मणने इस विद्याको धारण करके योगधारणासे अपना शरीर मरुभूमिमें त्याग दिया। जहाँ उस ब्राह्मणका शरीर पड़ा था, उसके ऊपरसे एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियोंके साथ विमानपर बैठकर निकले। वहाँ आते ही वे नीचेकी ओर सिर किये विमानसहित आकाशसे पृथ्वीपर गिर पड़े। इस घटनासे उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। जब उन्हें वालखिल्य मुनियोंने बतलाया कि यह नारायणकवच धारण करनेका प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देवताकी हड्डियोंको ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदीमें प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोकको गये।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जो पुरुष इस नारायणकवचको समयपर सुनता है और जो आदरपूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदरसे झुक जाते हैं और वह सब प्रकारके भयोंसे मुक्त हो जाता है। इन्द्रने आचार्य विश्वरूपजीसे यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमिमें असुरोंको जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मीका उपभोग करने लगे।
विश्वरूपके तीन सिर थे। वे एक मुँहसे सोमरस तथा दूसरेसे सुरा पीते थे और तीसरेसे अन्न खाते थे। उनके पिता त्वष्टाआदि बारह आदित्य देवता थे, इसलिये वे यज्ञके समय प्रत्यक्षरूपमें ऊँचे स्वरसे बोलकर बड़े विनयके साथ देवताओंको आहुति देते थे। साथ ही वे छिप-छिपकर असुरोंको भी आहति दिया करते थे। उनकी माता असुरकुलकी थीं, इसीलिये वे मातृस्नेहके वशीभूत होकर यज्ञ करते समय उस प्रकार असुरोंको भाग पहुँचाया करते थे।
देवराज इन्द्रने देखा कि इस प्रकार वे देवताओंका अपराध और धर्मकी ओटमें कपट कर रहे हैं। इससे इन्द्र डर गये और क्रोधमें भरकर उन्होंने बड़ी फुर्तीसे उनके तीनों सिर काट लिये। विश्वरूपका सोमरस पीनेवाला सिर पपीहा, सूरापान करनेवाला गौरैया और अन्न खानेवाला तीतर हो गया।
इन्द्र चाहते तो विश्वरूपके वधसे लगी हुई हत्याको दूर कर सकते थे; परन्तु उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा, वरं हाथ जोड़कर उसे स्वीकार कर लिया तथा एक वर्षतक उससे छूटनेका कोई उपाय नहीं किया। तदनन्तर सब लोगोंके सामने अपनी शुद्धि प्रकट करनेके लिये उन्होंने अपनी ब्रह्महत्याको चार हिस्सोंमें बाँटकर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियोंको दे दिया।
इन्द्र के पाप (ब्रह्महत्या) का बोझ चार हिस्सों में बाँटा गया
पृथ्वी ने पाप का एक-चौथाई भाग स्वीकार किया, जिसके परिणामस्वरूप ऊसर भूमि (बंजर भूमि) उत्पन्न हुई। इसके बदले में, इंद्र ने उसे यह वरदान दिया कि पृथ्वी पर खोदे गए गड्ढे या खुदाई स्वतः ही भर जाएगी।- वृक्षों ने पाप का दूसरा चौथाई भाग लिया, जो गोंद के रूप में प्रकट होता है। इसके बदले में, उन्हें कट जाने के बाद भी पुनः विकसित होने का वरदान प्राप्त हुआ।
- स्त्रियों ने पाप का तीसरा चौथाई अंश स्वीकार किया, जो मासिक धर्म के रूप में प्रकट होता है। इसके बदले में, इंद्र ने उन्हें यह वरदान दिया कि वे हमेशा पुरुष का संग कर सकें।
- जल ने पाप का चौथा भाग अपने भीतर समाहित किया, जो झाग और बुलबुले के रूप में दिखाई देता है, इसलिए जल पीने से पहले उन्हें हटा दिया जाता है। इसके बदले में, इंद्र ने उसे यह वरदान दिया कि बहते रहने पर भी उसकी मात्रा बढ़ती रहेगी।
त्वष्टा के द्वारा इंद्रशत्रु वृत्रासुर को उत्पन्न करना
विश्वरूपकी मृत्युके बाद उनके पिता त्वष्टा ‘हे इन्द्रशत्रो! तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र-से-शीघ्र तुम अपने शत्रुको मार डालो’–इस मन्त्रसे इन्द्रका शत्रु उत्पन्न करनेके लिये हवन करने लगे। यज्ञ समाप्त होनेपर अग्नि से एक बड़ा भयावना दैत्य प्रकट हुआ। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो लोकोंका नाश करनेके लिये प्रलयकालीन विकराल काल ही प्रकट हुआ हो। उसका शरीर जले हुए पहाड़ की तरह काला था, और वह प्रतिदिन बढ़ता जाता था। उसके बाल और दाढ़ी तपे हुए तांबे की तरह लाल थे, और उसकी आंखें दोपहर के सूर्य के समान प्रचंड थीं। जब वह त्रिशूल लेकर नाचता और चिल्लाता, तो धरती कांपने लगती। जब वह सांस लेता, तो उसका विशाल मुख गुफा के समान खुल जाता, मानो वह पूरे आकाश और नक्षत्रों को निगल जाएगा। उसके भयानक रूप को देखकर सभी प्राणी भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। त्वष्टाके तमोगुणी पुत्रने सारे लोकोंको घेर लिया था। इसीसे उस पापी और अत्यन्त क्रूर पुरुषका नाम वृत्रासुर पड़ा।
देवता अपनी पूरी शक्ति से वृत्रासुर पर हमला करते हैं, लेकिन वह उनके सभी अस्त्र-शस्त्र निगल जाता है। यह देखकर देवता हतप्रभ और निराश हो जाते हैं और श्रीनारायण की शरण में जाते हैं। वे भगवान से प्रार्थना करते हैं कि काल भी आपसे डरता है, इसलिए आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। देवता श्रीहरि की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जैसे पहले भी उन्होंने संकटों से रक्षा की है—मनु को मत्स्य रूप में, ब्रह्माजी को प्रलयकाल में—वैसे ही अब वे उन्हें वृत्रासुर के भय से बचाएं। वे श्रीहरि को ही विश्व का आत्मा, परम आराध्य और उद्धार करने वाला मानते हुए उनकी शरण में जाते हैं।
जब देवताओंने इस प्रकार भगवान्की स्तुति की, तब स्वयं शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् उनके सामने प्रकट हुए। भगवान्का दर्शन पाकर सभी देवता आनन्दसे विह्वल हो गये। उन लोगोंने धरतीपर लोटकर साष्टांग दण्डवत् किया और फिर धीरे-धीरे उठकर वे भगवान्की स्तुति किया।
जब देवताओं ने श्रद्धापूर्वक भगवान की स्तुति की, तो वे प्रसन्न होकर प्रकट हुए और बोले—तुमने ज्ञानयुक्त स्तुति की है, जिससे जीव अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानकर मेरी भक्ति प्राप्त कर सकता है। जो भक्त मुझसे केवल मुझको चाहता है, वही सच्चा तत्त्ववेत्ता है। संसार की वस्तुएँ नश्वर हैं, इसलिए जो जीव उन पर आसक्ति रखता है, वह अज्ञानी है। ज्ञानी व्यक्ति अज्ञानी को सांसारिक सुखों में उलझाने का उपदेश नहीं देता, जैसे कोई अच्छा वैद्य रोगी को हानिकारक चीजें खाने की अनुमति नहीं देता।
फिर श्रीहरि देवताओं को निर्देश देते हैं कि वे दधीचि ऋषि के पास जाकर उनसे उनका तप और उपासना से दृढ़ हुआ शरीर मांगें। दधीचि ऋषि ज्ञानी और त्यागी हैं, वे अवश्य अपना शरीर दे देंगे। फिर विश्वकर्मा उन हड्डियों से एक महान अस्त्र बनाएंगे, जिससे इन्द्र वृत्रासुर का वध कर सकेंगे। भगवान आश्वासन देते हैं कि वृत्रासुर के वध के बाद देवताओं को पुनः अपना तेज, अस्त्र-शस्त्र और संपत्तियाँ प्राप्त होंगी, क्योंकि उनके शरणागत की सदैव रक्षा होती है।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 18.03.2025