श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 7 अध्याय: 14-15
राजा युधिष्ठिर ने देवर्षि नारदजी से पूछा कि एक सामान्य गृहस्थ, विशेष तप या कठिन साधना किए बिना भगवत्प्राप्ति कैसे कर सकता है। नारदजी ने उत्तर दिया:
गृहस्थ होते हुए भी मनुष्य को अपने सारे कर्तव्य भगवान को समर्पित भाव से करने चाहिए। संतों और महात्माओं की संग और सेवा करे। भगवान के अवतारों की लीलाओं का श्रवण करता रहे। जैसे स्वप्न टूटने पर उसकी माया खत्म हो जाती है, वैसे ही सत्संग से धीरे-धीरे आसक्ति छूटती है—शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदि की। बाहरी रूप से सामान्य गृहस्थ जैसा व्यवहार करे, पर अंदर से विरक्ति बनाए रखे। जो भी धन या संपत्ति मिले, उसे भगवान का प्रसाद मानकर उपयोग करे, पर संचय न करे, उसे संत सेवा और भक्ति के कार्यों में लगाना चाहिए।
यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् ।
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ॥
मनुष्योंका अधिकार केवल उतने ही धनपर है, जितनेसे उनकी भूख मिट जाय। इससे अधिक सम्पत्तिको जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दण्ड मिलना चाहिये । (भागवत 7.14.8)
गृहस्थ को धर्म, अर्थ और काम के लिए अत्यधिक परिश्रम नहीं करना चाहिए, बल्कि देश, काल और प्रारब्ध के अनुसार जो भी सहज उपलब्ध हो, उसमें संतोष रखते हुए जीवन बिताना चाहिए। अपने भोग-सामग्री को सभी जीवों में बांटना चाहिए। नारदजी शरीर की नश्वरता का भी स्मरण कराते हैं—यह शरीर अंततः कीड़ों, विष्ठा या राख का ढेर बन जाएगा। ऐसे क्षणभंगुर शरीर और उसकी कामनाओं की तुलना अनंत, आत्मस्वरूप भगवान से नहीं की जा सकती।
गृहस्थ को पंचयज्ञ से बचा हुआ अन्न ही ग्रहण करना चाहिए और उसी अन्न से देवता, ऋषि, पितर, अतिथि तथा आत्मा की पूजा करनी चाहिए। यह सब पूजा एक ही परमेश्वर की विभिन्न रूपों में आराधना है।
नारदजी बताते हैं कि महालय, ग्रहण, एकादशी, अक्षय तृतीया, माघ सप्तमी, पूर्णिमा आदि विशेष कालों में श्राद्ध व पुण्यकर्म करने से अक्षय फल मिलता है। जहाँ सत्पात्र, भगवान की प्रतिमा, गंगा जैसी नदियाँ और तपस्वी ब्राह्मण हों वहाँ किया गया पुण्य हजार गुना फल देता है। सच्चा पात्र कौन है, इस विषय पर नारदजी कहते हैं कि विवेकी जनों ने एकमात्र भगवान श्रीकृष्णको ही सत्पात्र माना है, क्योंकि वे ही समस्त चराचर जगत के आधार हैं। इस यज्ञ (युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ) में भी, देवता और ऋषियों के होते हुए अग्रपूजा के लिए श्रीकृष्ण को ही स्वीकार किया गया। वे ही ब्रह्मांडवृक्ष के मूल हैं और समस्त जीवों में अंतर्यामी रूप से विराजमान हैं।
मनुष्य शरीर अन्य सभी योनि से श्रेष्ठ है क्योंकि उसमें आत्मबोध और भगवत्प्राप्ति की पूर्ण क्षमता है। श्रीकृष्ण ही सभी शरीरों के निर्माता हैं और उनमें जीव रूप में शयन करते हैं, इसलिए वे पुरुष कहे जाते हैं। यद्यपि वे एकरस हैं, फिर भी शरीर और साधन की विभिन्नता से उनमें भिन्न-भिन्न मात्रा में प्रकाश होता है। त्रेता आदि युगोंमें जब विद्वानोंने देखा कि मनुष्य परस्पर एक-दूसरेका अपमान आदि करते हैं, तब उन लोगोंने उपासनाकी सिद्धिके लिये भगवान्की प्रतिमाकी प्रतिष्ठा की। आज भी अनेक लोग श्रद्धाऔर भक्ति से प्रतिमा में भगवान की पूजा करते हैं, किंतु जिनके हृदय में द्वेष है, वे प्रतिमा-पूजा करने पर भी सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते।
अधर्मकी पाँच शाखाएँ
नारदजी कहते हैं कि श्राद्ध और देवपूजा जैसे कर्मों का अक्षय फल तभी मिलता है जब दान ज्ञाननिष्ठ या योगी ब्राह्मण को श्रद्धापूर्वक दिया जाए। श्राद्ध में अधिक विस्तार नहीं करना चाहिए, बल्कि देश-काल और पात्र के अनुसार शुद्ध, अहिंसक हविष्यान्न से पूजा और दान करना चाहिए। धर्मज्ञ व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी भी प्राणी को मन, वाणी या शरीर से कष्ट न दे और मांस अर्पण से बचे। यही सच्चा धर्म है।
विधर्मः परधर्मश्च आभास उपमा छलः
अधर्मशाखाः पञ्चेमा धर्मज्ञोऽधर्मवत्त्यजेत्
अधर्मकी पाँच शाखाएँ हैं-विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल। धर्मज्ञ पुरुष अधर्मके समान ही इनका भी त्याग कर दे । (भागवत 7.15.12)
धर्मबाधो विधर्मः स्यात्परधर्मोऽन्यचोदितः
उपधर्मस्तु पाखण्डो दम्भो वा शब्दभिच्छलः
जिस कार्यको धर्मबुद्धिसे करनेपर भी अपने धर्ममें बाधा पड़े, वह ‘विधर्म’ है। किसी अन्यके द्वारा अन्य पुरुषके लिये उपदेश किया हआ धर्म ‘परधर्म’ है। पाखण्ड या दम्भका नाम ‘उपधर्म’ अथवा ‘उपमा’ है। शास्त्रके वचनोंका दूसरे प्रकारका अर्थ कर देना ‘छल’ है। (भागवत 7.15.13)
यस्त्विच्छया कृतः पुम्भिराभासो ह्याश्रमात्पृथक्
स्वभावविहितो धर्मः कस्य नेष्टः प्रशान्तये
मनुष्य अपने आश्रमके विपरीत स्वेच्छासे जिसे धर्म मान लेता है, वह ‘आभास’ है। अपने-अपने स्वभावके अनुकूल जो वर्णाश्रमोचित धर्म हैं, वे भला किसे शान्ति नहीं देते। (भागवत 7.15.14)
सन्तोष से सुख एवं शांति मिलती है
निवृत्ति-परायण व्यक्ति को आत्मनिष्ठ सन्तोष से सुख मिलता है। जो लोभ और इच्छाओं से भागता है, वह यह शांति नहीं पा सकता।
सदा सन्तुष्टमनसः सर्वाः शिवमया दिशः
शर्कराकण्टकादिभ्यो यथोपानत्पदः शिवम्
जैसे पैरोंमें जूता पहनकर चलनेवालेको कंकड़ और काँटोंसे कोई डर नहीं होता-वैसे ही जिसके मनमें सन्तोष है, उसके लिये सर्वदा और सब कहीं सुख-ही-सुख है, दुःख है ही नहीं। (भागवत 7.15.17)
न जाने क्यों मनुष्य केवल जलमात्रसे ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवनका निर्वाह नहीं कर लेता। अपितु रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रियके फेरमें पड़कर यह बेचारा घरकी चौकसी करनेवाले कुत्तेके समान हो जाता है। जो सन्तोषी नहीं है, इन्द्रियोंकी लोलुपताके कारण उसके तेज, विद्या, तपस्या और यश क्षीण हो जाते हैं और वह विवेक भी खो बैठता है। भूख और प्यास मिट जानेपर खाने-पीनेकी कामनाका अन्त हो जाता है। क्रोध भी अपना काम पूरा करके शान्त हो जाता है। परन्तु यदि मनुष्य पृथ्वीकी समस्त दिशाओंको जीत ले और भोग ले, तब भी लोभका अन्त नहीं होता।
अनेक विषयोंके ज्ञाता, शंकाओंका समाधान करके चित्तमें शास्त्रोक्त अर्थको बैठा देनेवाले और विद्वत्सभाओंके सभापति बड़े-बड़े विद्वान् भी असन्तोषके कारण गिर जाते हैं । मन को शुद्ध और शांत बनाने के लिए हमें इन बातों पर विजय पानी चाहिए:
- काम पर विजय – अपने इच्छाओं (संकल्पों) का त्याग करने से काम (वासना) कम होता है।
- क्रोध पर विजय – जब हम कोई इच्छा नहीं पालते, तो उसकी पूर्ति न होने पर क्रोध भी नहीं आता।
- लोभ पर विजय – जिसे दुनिया 'अर्थ' (धन) समझती है, उसे अनर्थ (विनाश का कारण) मानने से लोभ खत्म होता है।
- भय पर विजय – जब हम तत्त्वज्ञान (आत्मा-परमात्मा के ज्ञान) में स्थित हो जाते हैं, तो कोई डर नहीं रहता।
- इसके अतिरिक्त शोक और मोह को आत्मविद्या (आध्यात्मिक ज्ञान) से हराया जा सकता है।
- दम्भ को साधु-संतों की सेवा से मिटाया जा सकता है।
- मन की चंचलता को मौन से शांत किया जा सकता है।
- हिंसा की वृत्ति को शरीर और प्राण को स्थिर करके रोका जा सकता है।
तीनों प्रकार के दुःखों पर विजय:
- आधिभौतिक दुःख (शरीर, परिवार, समाज से जुड़ी पीड़ा) को दया से जीता जा सकता है।
- आधिदैविक दुःख (प्राकृतिक आपदाएं, ग्रह-नक्षत्र प्रभाव) को समाधि से शांत किया जा सकता है।
- आध्यात्मिक दुःख (मन की बेचैनी, आत्मविकर्षण) को योगबल से हराया जा सकता है।
नींद को भी सात्त्विक भोजन, शांत स्थान, और अच्छे संग से नियंत्रित किया जा सकता है। सत्त्वगुण से रजोगुण और तमोगुण पर विजय होती है। फिर उपरति (वैराग्य) से सत्त्वगुण को भी पार किया जा सकता है। और यह सब श्रीगुरु की भक्ति से बहुत सरल हो जाता है – वह साधक को सहज मार्ग दिखाते हैं जिससे यह सब आत्मिक विजय संभव होती है।
यस्य साक्षाद्भगवति ज्ञानदीपप्रदे गुरौ
मर्त्यासद्धीः श्रुतं तस्य सर्वं कुञ्जरशौचवत्
हृदयमें ज्ञानका दीपक जलानेवाले गुरुदेव साक्षात् भगवान् ही हैं। जो दुर्बुद्धि पुरुष उन्हें मनुष्य समझता है, उसका समस्त शास्त्र-श्रवण हाथीके स्नानके समान व्यर्थ है। (भागवत 7.15.26)
एष वै भगवान्साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरः
योगेश्वरैर्विमृग्याङ्घ्रिर्लोको यं मन्यते नरम्
बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरणकमलोंका अनुसन्धान करते रहते हैं, प्रकृति और पुरुषके अधीश्वर वे स्वयं भगवान् ही गुरुदेवके रूपमें प्रकट हैं। इन्हें लोग भ्रमसे मनुष्य मानते हैं।(भागवत 7.15.27)
शास्त्रों में जितने भी नियम हैं, उनका असली उद्देश्य सिर्फ यही है कि हम अपने छः आंतरिक शत्रुओं—काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर—पर विजय प्राप्त करें और इन्द्रियों व मन को वश में कर लें। यदि ये नियम करने के बाद भी भगवत्-चिन्तन नहीं होता, तो वे केवल व्यर्थ परिश्रम हैं। सच्चा साधक वही है जो आसक्ति और संग्रह का त्याग कर सच्चा संन्यास लेता है, एकान्त में रहकर परिमित भोजन करता है, स्थिर बैठकर ॐ का जप करता है, चंचल मन को बार-बार खींचकर हृदय में लगाता है। जब वह लगातार ऐसा अभ्यास करता है, तो जैसे बिना ईंधन के अग्नि बुझ जाती है, वैसे ही मन शांत हो जाता है और ब्रह्मानंद में लीन हो जाता है।
लेकिन जो व्यक्ति संन्यास लेकर फिर संसार के भोगों में लिप्त हो जाता है, वह ऐसे है जैसे कुत्ता उल्टी चीज़ को फिर खा जाए—नितांत अधार्मिक और ढोंगी। ऐसे लोग चाहे किसी भी आश्रम में हों—गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ या संन्यासी—अगर वे अपने कर्तव्य नहीं निभाते और इन्द्रिय-भोग में लगे रहते हैं, तो वे आश्रम-धर्म का अपमान कर रहे हैं।
उपनिषदोंमें कहा गया है कि शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, इन्द्रियोंका स्वामी मन लगाम है, शब्दादि विषय मार्ग हैं, बुद्धि सारथि है, चित्त ही भगवानके द्वारा निर्मित बाँधनेकी विशाल रस्सी है, दस प्राण धुरी हैं, धर्म और अधर्म पहिये हैं और इनका अभिमानी जीव रथी कहा गया है। ॐ कार ही उस रथीका धनुष है, शुद्ध जीवात्मा बाण और परमात्मा लक्ष्य है। (इस ॐ कारके द्वारा अन्तरात्माको परमात्मामें लीन कर देना चाहिये) ।
रागो द्वेषश्च लोभश्च शोकमोहौ भयं मदः
मानोऽवमानोऽसूया च माया हिंसा च मत्सरः
रजः प्रमादः क्षुन्निद्रा शत्रवस्त्वेवमादयः
रजस्तमःप्रकृतयः सत्त्वप्रकृतयः क्वचित्
राग, द्वेष, लोभ, शोक, मोह, भय, मद, मान, अपमान, दूसरेके गुणोंमें दोष निकालना, छल, हिंसा, दूसरेकी उन्नति देखकर जलना, तृष्णा, प्रमाद, भूख और नींद-ये सब, और ऐसे ही जीवोंके और भी बहुत-से शत्रु हैं। उनमें रजोगुण और तमोगुणप्रधान वृत्तियाँ अधिक हैं, कहीं-कहीं कोई-कोई सत्त्वगुणप्रधान ही होती हैं। (भागवत 7.15.43-44)
यह मनुष्य-शरीररूप रथ जबतक अपने वशमें है और इसके इन्द्रिय मन-आदि सारे साधन अच्छी दशामें विद्यमान हैं, तभीतक श्रीगुरुदेवके चरणकमलोंकी सेवा-पूजासे शान धरायी हुई ज्ञानकी तीखी तलवार लेकर भगवान्के आश्रयसे इन शत्रुओंका नाश करके अपने स्वाराज्य-सिंहासनपर विराजमान हो जाय और फिर अत्यन्त शान्तभावसे इस शरीरका भी परित्याग कर दे ।
नहीं तो, तनिक भी प्रमाद हो जानेपर ये इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखनेवाला बद्धिरूप सारथि रथके स्वामी जीवको उलटे रास्ते ले जाकर विषयरूपी लुटेरोंके हाथों में डाल देंगे। वे डाकू सारथि और घोड़ोंके सहित इस जीवको मृत्युसे अत्यन्त भयावने घोर अन्धकारमय संसारके कुएंमें गिरा देंगे ।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम्
आवर्तते प्रवृत्तेन निवृत्तेनाश्नुतेऽमृतम्
वैदिक कर्म दो प्रकारके हैं—एक तो वे जो वृत्तियोंको उनके विषयोंकी ओर ले जाते हैं -प्रवृत्तिपरक और दूसरे वे जो वृत्तियोंको उनके विषयोंकी ओरसे लौटाकर शान्त एवं आत्मसाक्षात्कारके योग्य बना देते हैं-निवृत्तिपरक। प्रवृत्तिपरक कर्ममार्गसे बार-बार जन्ममृत्युकी प्राप्ति होती है और निवृत्तिपरक भक्तिमार्ग या ज्ञानमार्गके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति होती है। (भागवत 7.15.47)
प्रवृत्तिपरायण (सकाम कर्म में लगे) पुरुष मरने के बाद सूक्ष्म शरीर धारण कर धूममार्ग से चन्द्रलोक तक पहुँचता है। वहाँ भोग भोगने के बाद क्षीण होकर फिर पितृयान मार्ग से संसार में जन्म लेता है।
निवृत्तिपरायण (ज्ञानमार्गी) पुरुष सभी बाह्य यज्ञों को इन्द्रियों में आहुत कर देता है और फिर इन्द्रियों से लेकर प्राण और ॐकार तक सबका लय ब्रह्म में कर देता है। वह देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक पहुँचता है, जहाँ भोग समाप्त होने पर क्रमशः विश्व, तेजस, प्राज्ञ और फिर तुरीय स्वरूप में स्थित होकर शुद्ध आत्मा बन जाता है। यही मोक्ष है। इस मार्ग से जानेवाला पुनर्जन्म में नहीं पड़ता। पितृयान और देवयान ये दोनों वेदोक्त मार्ग हैं। जो व्यक्ति शास्त्रों के अनुसार इनका सही तत्त्व समझ लेता है, वह शरीर में रहते हुए भी मोह से मुक्त रहता है।
अद्वैत के तीन प्रकार हैं:
- भावाद्वैत: सारी वस्तुएं और अनुभव एक ही तत्त्व या भावना के विभिन्न रूप हैं।
- क्रियाद्वैत: सभी कर्म और क्रियाएँ परमात्मा में ही घटित हो रही हैं और उसी में स्थित हैं।
- द्रव्याद्वैत: सारे जीव और पदार्थ मूलतः एक ही परम तत्व का हिस्सा हैं, जिसमें भेद नहीं।
भगवद्भक्त मनुष्य वेदों में बताए गए कर्मों और स्वकर्मों के अनुष्ठान से घर में रहते हुए भी श्रीकृष्ण की गति और कृपा प्राप्त कर सकता है। जैसे युधिष्ठिर सहित पांडवों ने श्रीकृष्ण की कृपा से सारी कठिनाइयों से पार पाया और राजसूय जैसे बड़े यज्ञ किया।
नारदजी का पूर्वजन्म में गंधर्व होने की कथा
नारदजी बताते हैं, "युधिष्ठिर! पूर्वजन्ममें इसके पहलेके महाकल्पमें मैं एक गन्धर्व था। मेरा नाम था उपबर्हण और गन्धर्वोमें मेरा बड़ा सम्मान था। मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और मधुरता अपूर्व थी। मेरे शरीरमेंसे सुगन्धि निकला करती और देखने में मैं बहुत अच्छा लगता। स्त्रियाँ मुझसे बहुत प्रेम करतीं और मैं सदा प्रमादमें ही रहता। मैं अत्यन्त विलासी था। एक बार देवताओंके यहाँ ज्ञानसत्र हुआ। उसमें बड़े-बड़े प्रजापति आये थे। भगवान्की लीलाका गान करनेके लिये उन लोगोंने गन्धर्व और अप्सराओंको बुलाया ।
मैं जानता था कि वह संतोंका समाज है और वहाँ भगवान्की लीलाका ही गान होता है। फिर भी मैं स्त्रियोंके साथ लौकिक गीतोंका गान करता हुआ उन्मत्तकी तरह वहाँ जा पहुँचा। देवताओंने देखा कि यह तो हम लोगोंका अनादर कर रहा है। उन्होंने अपनी शक्तिसे मझे शाप दे दिया कि ‘तुमने हमलोगोंकी अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौन्दर्य-सम्पत्ति नष्ट हो जाय और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ’। उनके शापसे मैं दासीका पुत्र हुआ। किन्तु उस शूद्रजीवनमें किये हुए महात्माओंके सत्संग और सेवा-शुश्रूषाके प्रभावसे मैं दूसरे जन्ममें ब्रह्माजीका पुत्र हुआ।
देवर्षि नारदजी युधिष्ठिर से कहते हैं: "राजन! मैंने स्वयं अनुभव किया है कि संतों की अवहेलना से पतन होता है और उनकी सेवा से भगवान प्रसन्न होते हैं। गृहस्थ भी यदि भक्ति और सेवा से जीवन बिताए, तो उसे वही परमपद प्राप्त होता है जो संन्यासियों को मिलता है। तुम्हारा सौभाग्य अद्भुत है, क्योंकि स्वयं परब्रह्म श्रीकृष्ण तुम्हारे घर में निवास करते हैं। जिनको ब्रह्मा और शंकर भी नहीं जान सके, वे ही तुम्हारे सखा, बंधु और पूज्य हैं। हम तो मौन, भक्ति और संयम से उनकी पूजा करते हैं—वही हमें स्वीकार हो।”
श्रीशुकदेवजी ने कहा—“परीक्षित! नारदजी का यह दिव्य उपदेश सुनकर युधिष्ठिर अत्यंत भावविभोर हो उठे। उन्होंने प्रेमपूर्वक नारदजी और श्रीकृष्ण की पूजा की। फिर नारदजी श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर से विदा लेकर सम्मानपूर्वक चले गये। इस प्रकार मैंने तुम्हें दक्षपुत्रियों के वंश का विस्तारपूर्वक वर्णन सुनाया, जिनसे देवता, असुर, मनुष्य और संपूर्ण सृष्टि की रचना हुई।”
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 26.05.2025