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4- गोकर्ण और आत्मदेव की कथा: धुन्धुकारी की मुक्ति और भागवत कथा का महत्त्व

Jun 22nd, 2024 | 12 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

प्राचीन काल में तुंगभद्रा नदी के किनारे एक नगर था। वहाँ आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण अपनी पत्नी धुन्धुली के साथ रहते थे। आत्मदेव अपने कार्य में निपुण थे, पर धुन्धुली अधिक बकबक करने वाली, कृपण और झगड़ालू स्वभाव की थी। घर में सब कुछ था पर वे निसंतान थे, इसलिए आत्मदेव दुखी रहते थे। एक दिन वे घर से निकल कर वन में गए और वहाँ एक संन्यासी से मिले। आत्मदेव ने संन्यासी से रोते हुए अपना दुख सुनाया, "संतान न होने के कारण मेरे दिए हुए जलांजलि को पितर चिंतित होकर पीते हैं। देवता मेरे दिए हुए दान को प्रसन्न होकर नहीं लेते। मेरे घर की गाय तक बाँझ है और पेड़ पर फल नहीं लगते। पुत्रहीन होने के कारण मैं दुखी होकर अब प्राण त्यागने आया हूँ।" संन्यासी को दया आई और उन्होंने कहा, "कर्म का फल भोगना पड़ता है। तुम पुत्र की कामना त्याग दो।" लेकिन ब्राह्मण नहीं माने। तब संन्यासी ने उन्हें एक फल देकर कहा, "इसे अपनी पत्नी को खिला देना। अगर वह एक साल तक सत्य, शौच, दया, दान, और एक समय ही भोजन करने के नियम का पालन करेगी तो पुत्र प्राप्ति हो जाएगी।"

ब्राह्मण फल लेकर घर गए और अपनी पत्नी को सब कुछ बताकर फल दे दिया। लेकिन धुन्धुली कुटिल स्वभाव की थी और वह संतान नहीं चाहती थी। धुन्धुली रोते हुए अपनी सखी के पास गई और अनेक बातें कहने लगी, "पेट बढ़ जाएगा तो शरीर में स्फूर्ति नहीं रहेगी और उसी समय डाँकु आएंगे तो कैसे भागूंगी, खाना-पीना अच्छा नहीं लगेगा, और अगर शुकदेव की तरह बालक पेट से निकला ही नहीं तो!" सखी ने उसको फल ना खाने की सलाह दिया धुन्धुली ने भी फल नहीं खाया और झूठ बोल दिया। एक दिन उसकी बहन उससे मिलने आई और उसने अपना सारा हाल सुनाया। बहन गर्भवती थी और उसने समझाया, "जब मेरा बच्चा होगा तो चुपचाप तुम्हें दे दूंगी। तुम मेरे पति को कुछ धन दे देना। अभी यह फल गाय को खिला दो।"

धुन्धुली ने वैसा ही किया। कुछ समय पश्चात बहन को पुत्र हुआ। उसने कुछ धन लेकर चुपचाप अपना पुत्र धुन्धुली को दे दिया। आत्मदेव बहुत प्रसन्न हुए और उस बच्चे का नाम धुन्धुकारी रखा गया। तीन महीने बाद गाय ने भी एक मनुष्य आकार का बच्चा पैदा किया, जिसका कान गाय के जैसा था। वह बहुत सुंदर और सुवर्ण के समान कांति वाला था। आत्मदेव को बहुत खुशी हुई और उन्होंने बच्चे का जातक संस्कार कर उसका नाम गोकर्ण रखा।

समय बीतने पर वे दोनों बालक जवान हो गए। गोकर्ण बड़ा पण्डित और ज्ञानी हुआ, लेकिन धुन्धुकारी बड़ा ही दुष्ट निकला। स्नान-शौचादि ब्राह्मणोचित आचरण उसमें नहीं थे और न ही खान-पान का कोई परहेज था। क्रोध में वह बहुत बढ़ा-चढ़ा था और बुरी-बुरी वस्तुओं का संग्रह करता था। मुर्दे के हाथ से छुआया हुआ अन्न भी खा लेता था। धुन्धुकारी चोरी करता और सब लोगों से द्वेष बढ़ाता था। वह छिपकर दूसरों के घरों में आग लगा देता और दूसरों के बालकों को खेलाने के लिए गोद में लेकर कुएं में डाल देता। हिंसा का उसे व्यसन-सा हो गया था। हर समय वह अस्त्र-शस्त्र धारण किए रहता और बेचारे अंधे और दीन-दुःखियों को व्यर्थ तंग करता। वेश्याओं के जाल में फंसकर उसने अपने पिता की सारी संपत्ति नष्ट कर दी।

एक दिन उसने माता-पिता को मार-पीट कर घर के सभी बर्तन-भांडे उठा लिए और चला गया। जब सारी संपत्ति स्वाहा हो गई, तो आत्मदेव फूट-फूटकर रोने लगे और बोले, "इससे तो इसकी माँ का बाँझ रहना ही अच्छा था। अब मैं कहाँ रहूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे इस संकट को कौन काटेगा? हाय! मेरे ऊपर तो बड़ी विपत्ति आ पड़ी है। इस दुःख के कारण अवश्य मुझे एक दिन प्राण छोड़ने पड़ेंगे।"

गोकर्ण पिताको वैराग्यका उपदेश करते हुए बहुत समझाया ⁠और कहा-
असारः खलु संसारो दुःखरूपी विमोहकः ⁠। सुतः कस्य धनं कस्य स्नेहवाञ्ज्वलतेऽनिशम् ⁠।⁠।
‘पिताजी! यह संसार असार है⁠। यह अत्यन्त दुःखरूप और मोहमें डालनेवाला है⁠। पुत्र किसका? धन किसका? स्नेहवान् पुरुष रात-दिन दीपकके समान जलता रहता है।’ (भागवत महात्म्य 1-4-74)

सुख न तो इन्द्र को है और न चक्रवर्ती राजा को ही; सुख तो केवल विरक्त, एकान्तजीवी मुनि को है। 'यह मेरा पुत्र है' इस अज्ञान को छोड़ दीजिए। मोह से नरक की प्राप्ति होती है। यह शरीर तो नष्ट होगा ही। इसलिए सब कुछ छोड़कर वन में चले जाइए। गोकर्ण के वचन सुनकर आत्मदेव वन में जाने के लिए तैयार हो गये और उनसे कहने लगे, "बेटा, वन में रहकर मुझे क्या करना चाहिए, यह विस्तारपूर्वक बताओ। मैं बड़ा मूर्ख हूँ, अब तक कर्मवश स्नेहपाश में बँधा हुआ अपंग की भाँति इस घर रूपी अंधेरे कुएँ में ही पड़ा रहा हूँ। तुम बड़े दयालु हो, इसलिए मेरा उद्धार करो।”

गोकर्ण ने कहा, "पिताजी, यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिर का पिंड है; इसे आप ‘मैं’ मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्र आदि को ‘अपना’ कभी न मानें। इस संसार को क्षणभंगुर देखें और इसकी किसी भी वस्तु को स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, वैराग्य धारण करके भगवान की भक्ति में लगे रहें। भगवाना का भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरंतर उसी का आश्रय लें। अन्य सभी प्रकार के लौकिक धर्मों से मुख मोड़ लें। सदा साधुजनों की सेवा करें। भोगों की लालसा को पास न फटकने दें और जल्दी से जल्दी दूसरों के गुण-दोषों का विचार करना छोड़कर केवल भगवत्सेवा और भगवान की कथाओं का ही रस पान करें।” इस प्रकार पुत्र की वाणी से प्रभावित होकर आत्मदेव ने घर छोड़ दिया और वन की यात्रा की। यद्यपि उसकी आयु उस समय साठ वर्ष की हो चुकी थी, फिर भी बुद्धि में पूरी दृढ़ता थी। वहाँ रात-दिन भगवान की सेवा-पूजा करने से उसने भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त कर लिया।

पिता के वन जाने पर धुन्धुकारी और उच्छृंखल हो गया। अब उसके ऊपर पिता का कोई अंकुश नहीं था। वह माता को प्रताड़ित करने लगा। एक बार उसने उन्हें पीटते हुए कहा, "बता धन कहाँ है, नहीं तो जलती लकड़ी से मारूँगा।" धुन्धुली पुत्र के उपद्रव से पीड़ित होकर रात को घर छोड़कर चली जाती है और रास्ते में एक कुएँ में गिरकर मर जाती है। गोकर्ण भी उस समय तीर्थयात्रा पर निकल पड़ते हैं। वे घर के वातावरण से निरासक्त थे। उनका न कोई मित्र था न कोई शत्रु।

जब कोई नहीं रहा तब धुन्धुकारी ने घर में पाँच वेश्याओं को लाकर रखा। दिन-रात उन्हें रिझाने के लिए अनेक कार्य करता और उनकी इच्छाएँ पूरी करता। एक दिन उन स्त्रियों ने बहुत से गहने माँगे। धुन्धुकारी की उनपर इतनी आसक्ति थी कि मृत्यु का भी भय न रहा। गहनों के लिए धन जुटाने वह रात को निकल पड़ा। सब जगह से चोरी करके गहने-वस्त्र जुटाकर घर लाया तो उन स्त्रियों ने सोचा कि एक दिन यह राजा द्वारा पकड़ा जाएगा और हम भी फँसेंगी। तब उन स्त्रियों ने एक दिन सोते हुए धुन्धुकारी के गले में रस्सी बाँधकर उसे मारना चाहा। जब वह नहीं मरा, तब बहुत से दहकते अंगारे उसके मुँह में ठूँसकर उसे क्रूरता से मार डाला। फिर धुन्धुकारी के शव को एक गड्ढे में डालकर कुछ दिनों के बाद वे सब धन लेकर भाग गईं। उसके पश्चात धुन्धुकारी प्रेत योनि को प्राप्त हुआ और बवंडर के रूप में सदा सभी दिशाओं में भटकने लगा। भूख-प्यास, शीत-घाम से पीड़ित होकर 'हा दैव! हा दैव!' करते हुए आश्रय ढूँढता रहता परंतु उसे कहीं आश्रय नहीं मिला।

कुछ समय बाद गोकर्ण को भी धुन्धुकारी की मृत्यु का समाचार मिला। तब उसने गया में और अन्य तीर्थों में उसका श्राद्ध किया। सब तीर्थों में घूमकर गोकर्ण अपने नगर में आया और अपने घर में रात्रि में विश्राम के लिए चुपचाप रुका। अपने भाई को सोता देख धुन्धुकारी उसे रात्रि में भयानक रूप धारण कर डराने लगा। धुन्धुकारी में बोलने की शक्ति नहीं थी, इसलिए रोने लगा और इशारे में बात करने लगा। तब गोकर्ण ने कुछ मंत्र पढ़कर उसके ऊपर छिड़का, जिससे धुन्धुकारी के पापों का कुछ शमन हुआ और उसने अपना हाल सुनाया। फिर अपने उद्धार का उपाय करने को कहा।

गोकर्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ कि गया आदि तीर्थों में श्राद्ध करने से भी उसका उद्धार नहीं हुआ। तब धुन्धुकारी ने कहा कि उसका उद्धार सैकड़ों गाय दान करने से भी नहीं होगा। तब गोकर्ण ने उसे आश्वासन देकर भेज दिया। दूसरे दिन नगर के लोग उससे मिलने आए। उनमें से कुछ तत्त्वज्ञानी भी थे। उन्होंने शास्त्र खोलकर देखा। फिर सब ने सोचा कि इस विषय में सूर्यनारायण से ही मार्गदर्शन लेना चाहिए। गोकर्ण ने सूर्य भगवान की स्तुति की। तब सूर्यनारायण ने उसे कहा कि भागवत सप्ताह से ही मुक्ति हो सकती है। उसका पारायण करो।

गोकर्ण ने भागवत सप्ताह का आयोजन किया, जिसमें दूर-दूर से लोग सुनने आए। जब गोकर्ण व्यास आसन में बैठकर सप्ताह शुरू करने लगे, तब धुन्धुकारी का प्रेत भी वहाँ आया। वह इधर-उधर बैठने का स्थान ढूँढने लगा। तभी उसकी दृष्टि वहाँ रखे एक सात गाँठ वाले बाँस पर पड़ी। वह उसके सबसे नीचे वाले छिद्र में जाकर बैठ गया। वायु रूप में होने के कारण वह बाहर नहीं बैठ सकता था। गोकर्ण ने कथा सुनाना प्रारंभ किया। जब उस दिन का कथा विश्राम का समय आया, तब वह बाँस का निचला गाँठ तड़-तड़ करते हुए फटा और धुन्धुकारी का प्रेत उससे एक गाँठ ऊपर को चला गया। इस प्रकार प्रत्येक दिन कथा विश्राम के समय बाँस का एक-एक गाँठ फटता गया और सात दिन के अंत में पूरा बाँस फट गया।

इस प्रकार सात दिनों में सातों गाँठों को फोड़कर धुन्धुकारी भागवत कथा सुनने से पवित्र होकर प्रेत योनि से मुक्त हो गया और दिव्य रूप धारण करके सबके सामने प्रकट हुआ। उसका मेघ के समान श्याम शरीर पीतांबर और तुलसी की मालाओं से सुशोभित था तथा सिर पर मनोहर मुकुट और कानों में कमनीय कुण्डल झिलमिला रहे थे। उसने तुरंत अपने भाई गोकर्ण को प्रणाम करके कहा, “भाई, तुमने कृपा करके मुझे प्रेत योनि की यातनाओं से मुक्त कर दिया।”

देवता एवं विद्वानों की सभा में ऐसा कहा गया है कि भारतवर्ष में जन्म लेकर भी अगर कोई भागवत कथा नहीं सुनता तो उसका जन्म व्यर्थ है। केवल नश्वर शरीर को ही हृष्ट-पुष्ट करने से क्या लाभ?
धन्या भागवती वार्ता प्रेतपीडाविनाशिनी ⁠। सप्ताहोऽपि तथा धन्यः कृष्णलोकफलप्रद: ⁠।⁠।
कम्पन्ते सर्वपापानि सप्ताहश्रवणे स्थिते ⁠। अस्माकं प्रलयं सद्यः कथा चेयं करिष्यति ⁠।⁠।⁠
आर्द्रं शुष्कं लघु स्थूलं वाङ्‌मनः कर्मभिः कृतम् ⁠। श्रवणं विदहेत्पापं पावकः समिधो यथा ⁠।⁠।
यह प्रेतपीड़ाका नाश करनेवाली श्रीमद्भागवतकी कथा धन्य है तथा श्रीकृष्णचन्द्रके धामकी प्राप्ति करानेवाला इसका सप्ताह-पारायण भी धन्य है! जब सप्ताहश्रवणका योग लगता है, तब सब पाप थर्रा उठते हैं कि अब यह भागवतकी कथा जल्दी ही हमारा अन्त कर देगी।जिस प्रकार आग गीली-सूखी, छोटी-बड़ी—सब तरहकी लकड़ियोंको जला डालती है, उसी प्रकार यह सप्ताहश्रवण मन, वचन और कर्मद्वारा किये हुए नये-पुराने, छोटे-बड़े—सभी प्रकारके पापोंको भस्म कर देता है। (भागवत महात्म्य 1-5-53, 54, 55)

अस्थियाँ ही इस शरीरके आधारस्तम्भ हैं, नस-नाडीरूप रस्सियोंसे यह बँधा हुआ है, ऊपरसे इसपर मांस और रक्त थोपकर इसे चर्मसे मँढ़ दिया गया है⁠। इसके प्रत्येक अंगमें दुर्गन्ध आती है; क्योंकि है तो यह मल-मूत्रका भाण्ड ही। वृद्धावस्था और शोकके कारण यह परिणाममें दुःखमय ही है, रोगोंका तो घर ही ठहरा⁠। यह निरन्तर किसी-न-किसी कामनासे पीड़ित रहता है, कभी इसकी तृप्ति नहीं होती⁠। इसे धारण किये रहना भी एक भार ही है; इसके रोम-रोममें दोष भरे हुए हैं और नष्ट होनेमें इसे एक क्षण भी नहीं लगता। अन्तमें यदि इसे गाड़ दिया जाता है तो इसके कीड़े बन जाते हैं; कोई पशु खा जाता है तो यह विष्ठा हो जाता है और अग्निमें जला दिया जाता है तो भस्मकी ढेरी हो जाता है⁠। ये तीन ही इसकी गतियाँ बतायी गयी हैं⁠।ऐसे अस्थिर शरीरसे मनुष्य अविनाशी फल देनेवाला काम क्यों नहीं बना लेता? ⁠जो अन्न प्रातःकाल पकाया जाता है, वह सायंकालतक बिगड़ जाता है; फिर उसीके रससे पुष्ट हुए शरीरकी नित्यता कैसी। जिन लोगों को भागवत कथा प्राप्त नहीं हुआ है वह तो जल में बुलबुले और जीव में मच्छर आदिके समान हैं जो की केवल मरने के लिए ही पैदा हुए हैं। जिस कथा श्रवण से जड़ बाँस का गाँठ फट सकता है तो मनुष्य के हृदय की गाँठ अवश्य खुलती है, जिससे सारा संशय नष्ट हो जाते हैं और सारे कर्म मिट जाते हैं।

जिस समय धुन्धुकारी यह बात कर रहा था तब एक दिव्य विमान आया, उसमें भगवान के पार्षद उसको दिव्य लोक ले जाने के लिए खड़े थे। सब के सामने ही धुन्धुकारी विमान में चढ़ गया। तब गोकर्ण, भगवान के पार्षदों को पूछते हैं की यहाँ तो अन्य बहुत से श्रोता हैं, उनसब को लेजाने के लिये आप अन्य विमान लेकर क्यों नहीं आये? तब पार्षद कहते हैं की इस फलभेदका कारण इनके श्रवणका भेद ही है⁠। यह ठीक है कि श्रवण तो सबने समानरूपसे ही किया है, किन्तु इसके-जैसा मनन नहीं किया⁠। इसीसे एक साथ भजन करनेपर भी उसके फलमें भेद रहा। इस प्रेतने सात दिनोंतक निराहार रहकर श्रवण किया था, तथा सुने हुए विषयका स्थिरचित्तसे यह खूब मनन-निदिध्यासन भी करता रहता था।
अदृढं च हतं ज्ञानं प्रमादेन हतं श्रुतम् ⁠। संदिग्धो हि हतो मन्त्रो व्यग्रचित्तो हतो जपः ⁠।⁠।
जो ज्ञान दृढ़ नहीं होता, वह व्यर्थ हो जाता है⁠। इसी प्रकार ध्यान न देनेसे श्रवणका, संदेहसे मन्त्रका और चित्तके इधर-उधर भटकते रहनेसे जपका भी कोई फल नहीं होता। (भागवत महात्म्य 1-5-73)

वैष्णवहीन देश, अपात्रको कराया हुआ श्राद्धका भोजन, शास्त्र-वेद के ज्ञान को ना जानने वाले को दिया हुआ दान एवं आचारहीन कुल—इन सबका नाश हो जाता है। गुरुवचनोंमें विश्वास, दीनताका भाव, मनके दोषोंपर विजय और कथामें चित्तकी एकाग्रता इत्यादि नियमोंका यदि पालन किया जाय तो श्रवणका यथार्थ फल मिलता है⁠। यदि ये श्रोता फिरसे श्रीमद्भागवतकी कथा सुनें तो निश्चय ही सबको भगवान के धाम की प्राप्ति होगी ⁠और आपको तो भगवान् स्वयं आकर गोलोकधाममें ले जायँगे⁠। यों कहकर वे सब पार्षद हरि कीर्तन करते धुन्धुकारी को साथ लेकर दिव्यलोकको चले गये।

श्रावण मासमें गोकर्णजीने फिर उसी प्रकार सप्ताह क्रमसे कथा कही और उन श्रोताओंने उसे फिर सुना। कथाकी समाप्तिपर वहाँ भक्तोंसे भरे हुए विमानोंके साथ भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए⁠ और गोकर्णको हृदयसे लगाकर अपने ही समान बना लिया। उन्होंने क्षणभरमें ही अन्य सब श्रोताओंको भी मेघके समान श्यामवर्ण, रेशमी पीताम्बरधारी तथा किरीट और कुण्डलादिसे विभूषित कर दिया। उस गाँवमें कुत्ते आदि जितने भी जीव थे, वे सभी गोकर्णजीकी कृपासे विमानोंपर चढ़ा लिये गये ⁠तथा जहाँ योगिजन जाते हैं, उस भगवान के धाम वे भेज दिये गये⁠।श्रीकृष्ण कथा श्रवणसे प्रसन्न होकर गोकर्णजीको साथ ले योगिदुर्लभ गोलोकधामको ले गये।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद्भागवत कथा [हिंदी]- 21.06.2024