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28- घर, संसार और परिवार में डूबे हुये मनुष्य की गति और माँ के गर्भ में जीव का दुःख

Oct 12th, 2024 | 13 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 3 अध्याय: 30 और 31

संख्या दर्शन- शरीर और परिवार में आसक्त पुरुषों की अधोगति का वर्णन, मनुष्य शरीर को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

भगवान कपिल माता देवहूति को बताते हैं कि- जिस प्रकार हवा में उड़ता हुआ बादल हवा की ताकत को नहीं समझता, उसी प्रकार यह जीव भी बलवान् कालकी प्रेरणा सेअलग-अलग अवस्थाओं और योनियों में भटकता रहता है, लेकिन उसकी प्रबल पराक्रमको नहीं जानता।
यं यं अर्थमुपादत्ते दुःखेन सुखहेतवे ।
तं तं धुनोति भगवान् पुमान्छोचति यत्कृते ॥
जीव सुखकी अभिलाषासे जिस-जिस वस्तुको बडे कष्टसे प्राप्त करता है, उसी-उसीको भगवान् काल विनष्ट कर देता है जिसके लिये उसे बड़ा शोक होता है। (भागवत 3.30.2)

इसका कारण यही है कि यह मन्दमति जीव अपने नाशवान शरीर और उसके साथ जुड़े घर, खेत, धन आदि को मोहवश स्थायी मान लेता है। संसार में जिस भी योनि में जन्म लेता है, उसी में आनंद लेने लगता है और उससे अलग नहीं होता। भगवान की माया से इतना भ्रमित हो जाता है कि नारकीय योनियों में भी सुख महसूस करता है और उसे छोड़ना नहीं चाहता। यह मूर्ख अपने शरीर, पत्नी, बच्चों, घर, धन और रिश्तेदारों से आसक्त होकर अपने आप को बहुत भाग्यशाली समझता है। इनके पालन-पोषणकी चिन्तासे इसके सम्पूर्ण अंग जलते रहते हैं; तथापि दूषित हृदय होनेके कारण यह मूढ़ निरन्तर इन्हींके लिये तरह-तरहके पाप करता रहता है। धोखेबाज़ स्त्रियों के झूठे प्रेम और बच्चों की मीठी बातों में फंसकर गृहस्थ पुरुष घर के दुखभरे झूठे कर्मों में उलझ जाता है। थोड़े दुख से राहत मिलने पर वह उसे ही सुख मानने लगता है। वह अनैतिक धन कमाकर ऐसे लोगों का पालन करता है, जिनकी सेवा से उसे नरक भोगना पड़ता है। खुद तो बचे-खुचे अन्न से गुजारा करता है और जब धन नहीं कमा पाता, तो दूसरों के धन की इच्छा करने लगता है। जब असफल होकर परिवार का पालन नहीं कर पाता, तो चिंता में घुटता है। पत्नी और बच्चे उसकी उपेक्षा करने लगते हैं। फिर भी उसे वैराग्य नहीं होता। वृद्धावस्था में वह बीमार होकर परिवार पर निर्भर हो जाता है, और घर में पड़े-पड़े अपमान के साथ जीवन काटता है। मृत्यु के समय, वायु के विपरीत चलने से आँखों की पुतलियाँ ऊपर चढ़ जाती हैं, और श्वास की नलियाँ कफ से बंद हो जाती हैं। इसे साँस लेने और खाँसने में कठिनाई होती है, और कण्ठ में घुरघुराहट होती है। यह शोक में डूबे अपने परिवार से घिरा रहता है, पर मृत्यु के प्रभाव से उनके बुलाने पर भी जवाब नहीं दे पाता। जो व्यक्ति जीवनभर इंद्रियों को न जीतकर केवल परिवार के भरण-पोषण में लगा रहता है, वह रोते हुए स्वजनों के बीच दर्द में अचेत होकर मर जाता है।

मृत्यु के समय, भयंकर रूप वाले दो यमदूत उसे लेने आते हैं। उन्हें देखकर भय के कारण वह मल-मूत्र कर देता है। यमदूत उसे पकड़कर यातना-देह में डाल देते हैं और रस्सी से बाँधकर जबरन यमलोक ले जाते हैं। उनकी धमकियों से उसका दिल बैठने लगता है और शरीर कांपता है। रास्ते में कुत्ते उसे नोचते हैं, और वह अपने पाप याद कर बेचैन हो जाता है। भूख-प्यास से परेशान, गर्मी और आग से तपता वह व्यक्ति, बिना जल और विश्राम के, थककर गिर पड़ता है। यमदूत उसकी पीठ पर कोड़े मारते हैं और उसे जबरन आगे चलाते हैं। वह रास्ते में बार-बार गिरता है और मूर्छित हो जाता है, पर चेतना आने पर फिर उठता है। इस प्रकार अत्यंत कष्ट में, अंधेरे मार्ग से, यमदूत उसे यमपुरी ले जाते हैं। यमलोकका मार्ग 99 हजार योजन है। इतने लम्बे मार्गको दो-तीन मुहूर्तमें तय करके वह नरकमें तरह-तरहकी यातनाएँ भोगता है। 

नरक में उसके शरीरको धधकती लकड़ियों आदिके बीचमें डालकर जलाया जाता है, कहीं स्वयं और दूसरों के द्वारा काट-काटकर उसे अपना ही मांस खिलाया जाता है यमपुरीके कुत्तों अथवा गिद्धोंद्वारा जीते-जी उसकी आँतें खींची जाती हैं। 

साँप, बिच्छू और डाँस आदि डसनेवाले तथा डंक मारनेवाले जीवोंसे शरीरको पीड़ा पहुँचायी जाती है । शरीरको काटकर टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं। उसे हाथियोंसे चिरवाया जाता है, पर्वतशिखरोंसे गिराया जाता है अथवा जल या गढ़ेमें डालकर बन्द कर दिया जाता है। ये सब यातनाएँ तथा इसी प्रकार तामिस्रा, अन्धतामिस्र एवं रौरव आदि नरकोंकी और भी अनेकों यन्त्रणाएँ, स्त्री हो या पुरुष, उस जीवको पारस्परिक संसर्गसे होनेवाले पापके कारण भोगनी ही पड़ती हैं। 
एकः प्रपद्यते ध्वान्तं हित्वेदं स्वकलेवरम् ।
कुशलेतरपाथेयो भूतद्रोहेण यद् भृतम् ॥
अपने इस शरीरको यहीं छोड़कर प्राणियोंसे द्रोह करके एकत्रित किये हुए पापरूप पाथेयको साथ लेकर वह अकेला ही नरकमें जाता है। (भागवत 3.30.31)

इस प्रकार अनेक कष्ट भोगकर अपने कुटुम्बका ही पालन करनेवाला अथवा केवल अपना ही पेट भरनेवाला पुरुष उन कुटुम्ब और शरीर-दोनोंको यहीं छोड़कर मरनेके बाद अपने किये हुए पापोंका ऐसा फल भोगता है। उस समय वह ऐसा व्याकुल होता है, जैसे उसका सबकुछ छिन गया हो। जो व्यक्ति पाप की कमाई से अपने परिवार का पालन-पोषण करता है, वह सबसे कष्टदायक "अन्धतामिस्र" नामक नरक में जाता है। वहाँ मनुष्य जन्म से पहले की सभी यातनाएँ और शूकर-कुत्ते जैसी योनियों के कष्ट भोगने के बाद, शुद्ध होकर वह फिर से मनुष्य रूप में जन्म लेता है।

माँ के गर्भ में जीव की अवस्था 

जब जीव को मनुष्य शरीर में जन्म लेना होता है, तो वह भगवान की प्रेरणा से अपने पिछले कर्मों के अनुसार पुरुष के वीर्यकण के द्वारा स्त्री के गर्भ में प्रवेश करता है। वहाँ वह एक रात में स्त्री के रज से मिलकर कलल (गर्भाशय में रज और वीर्य के संयोग से बननेवाली पतली झिल्ली) रूप ले लेता है, पाँच दिनों में बुलबुले जैसा हो जाता है, दस दिनों में थोड़ा ठोस होकर बेर जैसा बन जाता है और फिर मांसपेशी या अंडे के रूप में बदल जाता है। एक महीने में उसका सिर बन जाता है, दो महीनों में हाथ-पैर और अन्य अंग बनने लगते हैं, और तीन महीनों में नाखून, बाल, हड्डियाँ, त्वचा, और स्त्री-पुरुष के लक्षण प्रकट होते हैं। चार महीनों में शरीर की सात धातुएँ विकसित होती हैं, पाँचवें महीने में भूख और प्यास महसूस होने लगती है, और छठे महीने में वह झिल्ली में लिपटकर गर्भ के दाहिने हिस्से में घूमने लगता है। माँ द्वारा खाए गए भोजन और जल से उसकी धातुएँ पुष्ट होती हैं, लेकिन वह कृमि और अन्य कीड़ों से भरे मल-मूत्र के स्थान में पड़ा रहता है। सुकुमार होने के कारण, जब भूखे कीड़े उसके अंगों को काटते हैं, तो उसे अत्यधिक कष्ट होता है और वह बार-बार अचेत हो जाता है। माँ के कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन, और खट्टे भोजन के प्रभाव से उसके पूरे शरीर में दर्द होता है। वह जीव गर्भ में झिल्ली से लिपटा, आँतों से घिरा रहता है, सिर नीचे और पीठ-कमर मुड़ी हुई अवस्था में होता है।  वह पिंजड़े में बंद पक्षी के समान पराधीन होता है और अपने अंगों को हिलाने-डुलाने में भी असमर्थ रहता है। इसी समय अदृष्ट की प्रेरणा से उसे स्मरणशक्ति मिलती है, जिससे उसे अपने सैकड़ों जन्मों के कर्म याद आ जाते हैं। वह बेचैन हो जाता है और उसका दम घुटने लगता है। जैसे ही सातवाँ महीना शुरू होता है, उसमें ज्ञान की शक्ति भी जागृत हो जाती है। लेकिन प्रसूतिवायु के कारण वह उसी उदर में उत्पन्न विष्ठा के कीड़ों की तरह एक स्थान पर स्थिर नहीं रह सकता। तब सप्तधातु से बना यह शरीर, देहात्मदर्शी जीव को अत्यंत भयभीत कर देता है। वह दीनता से कृपा की याचना करता है, हाथ जोड़कर उस प्रभु की स्तुति करता है, जिसने उसे मातृगर्भ में डाला है।

जीव की माँ के गर्भ में भगवान से पुकार और भक्ति ही करने का वचन 

जन्तुरुवाच –
तस्योपसन्नमवितुं जगदिच्छयात्त नानातनोर्भुवि चलत् चरणारविन्दम् ।
सोऽहं व्रजामि शरणं ह्यकुतोभयं मे येनेदृशी गतिरदर्श्यसतोऽनुरूपा ॥ 12 ॥


यस्त्वत्र बद्ध इव कर्मभिरावृतात्मा भूतेन्द्रियाशयमयीमवलम्ब्य मायाम् ।
आस्ते विशुद्धमविकारमखण्डबोधम् आतप्यमानहृदयेऽवसितं नमामि ॥ 13 ॥


यः पञ्चभूतरचिते रहितः शरीरे च्छन्नोऽयथेन्द्रियगुणार्थचिदात्मकोऽहम् ।
तेनाविकुण्ठमहिमानमृषिं तमेनं वन्दे परं प्रकृतिपूरुषयोः पुमांसम् ॥ 14 ॥


यन्माययोरुगुणकर्म निबन्धनेऽस्मिन् सांसारिके पथि चरन् तदभिश्रमेण ।
नष्टस्मृतिः पुनरयं प्रवृणीत लोकं युक्त्या कया महदनुग्रहमन्तरेण ॥ 15 ॥


ज्ञानं यदेतद् अदधात्कतमः स देवः त्रैकालिकं स्थिरचरेष्वनुवर्तितांशः ।
तं जीवकर्मपदवीं अनुवर्तमानाः तापत्रयोपशमनाय वयं भजेम ॥ 16 ॥


देह्यन्यदेहविवरे जठराग्निनासृग् विण्मूत्रकूपपतितो भृशतप्तदेहः ।
इच्छन्नितो विवसितुं गणयन् स्चमासान् निर्वास्यते कृपणधीर्भगवन् कदा नु ॥ 17 ॥


येनेदृशीं गतिमसौ दशमास्य ईश सङ्ग्राहितः पुरुदयेन भवादृशेन ।
स्वेनैव तुष्यतु कृतेन स दीननाथः को नाम तत्प्रति विनाञ्जलिमस्य कुर्यात् ॥ 18 ॥


पश्यत्ययं धिषणया ननु सप्तवध्रिः शारीरके दमशरीर्यपरः स्वदेहे ।
यत्सृष्टयाऽऽसं तमहं पुरुषं पुराणं पश्ये बहिर्हृदि च चैत्यमिव प्रतीतम् ॥ 19 ॥


सोऽहं वसन्नपि विभो बहुदुःखवासं गर्भान्न निर्जिगमिषे बहिरन्धकूपे ।
यत्रोपयातमुपसर्पति देवमाया मिथ्या मतिर्यदनु संसृतिचक्रमेतत् ॥ 20 ॥


तस्मादहं विगतविक्लव उद्धरिष्य आत्मानमाशु तमसः सुहृदाऽऽत्मनैव ।
भूयो यथा व्यसनमेतदनेकरन्ध्रं मा मे भविष्यदुपसादितविष्णुपादः ॥ 21 ॥
जीव कहता है – मैं बहुत अधम हूँ, लेकिन भगवान ने मुझे जो ये जीवन दिखाया है, वह मेरे कर्मों के कारण है। वे अपनी शरण में आये हुए लोगों की रक्षा करने के लिए कई रूप धारण करते हैं। इसलिए, मैं भी उन्हीं के निर्भय चरणों की शरण लेता हूँ। (भागवत 3.31.12)

मैं, जो इस माता के गर्भ में देह, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूपा माया का आश्रय लेकर पुण्य और पापरूप कर्मों से ढका हुआ, एक बंधन में बँधा हुआ हूँ, वही मैं अब अपने सन्तप्त हृदय में अनुभव हो रहे उन विशुद्ध, अविकारी और अखण्ड बोधस्वरूप परमात्मा को नमस्कार करता हूँ। (भागवत 3.31.13)

मैं वास्तव में शरीर आदि से असंग (अलग) होते हुए भी, देखने में पंचभौतिक शरीर से सम्बद्ध प्रतीत होता हूँ, और इसी कारण इन्द्रिय, गुण, शब्दादि विषयों तथा अहंकाररूप चिदाभास जैसा जान पड़ता हूँ। इसलिए, इस शरीर आदि के आवरण से जिनकी महिमा कभी बाधित नहीं होती, उन प्रकृति और पुरुष के नियंता, सर्वज्ञ और विद्याशक्ति सम्पन्न परमपुरुष की मैं वन्दना करता हूँ। (भागवत 3.31.14)

उन्हीं की माया से अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति खो जाने के कारण यह जीव सत्त्व आदि गुणों और कर्मों के बन्धन में बँधकर इस संसार के मार्ग में अनेक प्रकार के कष्ट सहते हुए भटकता रहता है। इसलिए, उस परमपुरुष परमात्मा की कृपा के बिना और किस प्रकार यह जीव अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर सकता है? (भागवत 3.31.15)

मुझे जो यह त्रिकालिक ज्ञान प्राप्त हुआ है, वह भी उनके सिवा और किसने दिया है? क्योंकि स्थावर-जंगम सभी प्राणियों में वे ही अन्तर्यामी रूप से विद्यमान हैं। इसलिए, हम जो कर्मजनित जीवपदवी का अनुसरण कर रहे हैं, अपने त्रिविध तापों की शान्ति के लिए उन्हीं परमात्मा का भजन करते हैं। (भागवत 3.31.16)

भगवन्! यह देहधारी जीव दूसरे देहधारी जीव (माता के गर्भ) के भीतर मल, मूत्र और रक्त के कुएँ में गिरा हुआ है, और उसकी जठराग्नि से इसका शरीर अत्यन्त संतप्त हो रहा है। यह वहाँ से निकलने की इच्छा करते हुए अपने महीने गिन रहा है। हे भगवन्! अब इस दीन जीव को यहाँ से कब निकाला जाएगा? (भागवत 3.31.17)

स्वामिन्! आप अत्यन्त दयालु हैं, और आप-जैसे उदार प्रभु ने ही इस दस मास के जीव को इतना उत्कृष्ट ज्ञान प्रदान किया है। हे दीनबन्धो! अपने इस उपकार से ही आप प्रसन्न हों, क्योंकि आपको हाथ जोड़ने के अलावा, आपके उस उपकार का बदला कोई और कैसे चुका सकता है? (भागवत 3.31.18)

प्रभो! संसार के ये पशु-पक्षी आदि अन्य जीव अपनी मूढ़ बुद्धि के अनुसार अपने शरीर में होने वाले सुख-दुःख का ही अनुभव करते हैं; किन्तु आपकी कृपा से मैं शम, दम आदि साधनों से सम्पन्न शरीर प्राप्त कर सका हूँ। इसलिए, आपकी दी हुई विवेकमयी बुद्धि से मैं आपको, जो पुराणपुरुष हैं, अपने शरीर के बाहर और भीतर अहंकार के आधारभूत आत्मा की तरह प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता हूँ। (भागवत 3.31.19)

भगवन! इस अत्यन्त दुःख से भरे गर्भाशय में भले ही मैं बड़े कष्ट से रह रहा हूँ, फिर भी मुझे इससे बाहर निकलकर संसार रूपी अन्धकूप में गिरने की कोई इच्छा नहीं है; क्योंकि उसमें जाने पर आपकी माया जीव को घेर लेती है, जिससे उसकी शरीर में अहंबुद्धि हो जाती है। इसी अहंकार के परिणामस्वरूप वह फिर से इस संसारचक्र में फँस जाता है। (भागवत 3.31.20)

अतः मैं अब अपनी व्याकुलता को छोड़कर, हृदय में श्रीविष्णु भगवान के चरणों को स्थापित कर, अपनी बुद्धि की सहायता से बहुत शीघ्र इस संसार रूपी समुद्र को पार कर लूँगा, ताकि मुझे फिर से इस संसार के अनेक दोषों और दुःखों का सामना न करना पड़े। (भागवत 3.31.21)

पैदा होने के बाद के कष्ट

जब वह दस महीने का जीव गर्भ में इस प्रकार विवेक संपन्न होकर भगवान की स्तुति करता है, तब प्रसव के समय की वायु उसे बाहर आने के लिए धकेलती है। अचानक ठेलने पर वह बालक बहुत कष्ट से नीचे सिर करके बाहर निकलता है। उस समय उसकी सांस रुक जाती है और पूर्व की स्मृति खो जाती है। वह पृथ्वी पर माता के रुधिर और मूत्र में पड़ा छटपटाता है। उसका गर्भवास का सारा ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह अज्ञान के कारण बार-बार जोर-जोर से रोता है। फिर जो लोग उसका अभिप्राय नहीं समझते, उनके द्वारा उसका पालन-पोषण होता है। ऐसी स्थिति में उसे जो प्रतिकूलता मिलती है, उसे दूर करने की शक्ति उसमें नहीं होती। जब उस जीव को शिशु अवस्था में मैली-कुचैली खाट पर सुला दिया जाता है, जिसमें खटमल आदि जीव चिपके रहते हैं, तब वह शरीर को खुजलाने, उठाने या करवट बदलने में असमर्थ होता है और बहुत कष्ट भोगता है। उसकी त्वचा बहुत कोमल होती है, और उसे डंक, मच्छर और खटमल उसी प्रकार काटते हैं, जैसे बड़े कीड़े को छोटे कीड़े। इस समय उसका गर्भावस्था का सारा ज्ञान खो जाता है, और सिवाय रोने के वह कुछ नहीं कर सकता।

जीव कैसे फसता है जीवन-मृत्यु के दुष्चक्र में?

इसी प्रकार बाल्य और पौगण्ड अवस्थाओं के दुःख भोगकर वह बालक युवावस्था में पहुँचता है। इस समय यदि उसे इच्छित भोग नहीं मिलते, तो अज्ञानवश उसका क्रोध भड़क उठता है और वह शोक में डूब जाता है। देह के साथ-साथ अभिमान और क्रोध बढ़ने के कारण वह काम परवश जीव अपने ही विनाश के लिए दूसरे कामी पुरुषों के साथ वैर ठान लेता है। खोटी बुद्धि वाला यह अज्ञानी जीव पंचभूतों से रचित इस देह में मिथ्याभिनिवेश के कारण निरंतर 'मैं-मेरेपन' का अभिमान करने लगता है। जबकि यह शरीर वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकार के कष्ट देता है और अविद्या तथा कर्म के सूत्र से बँधा रहता है, यह फिर भी इसके लिए तरह-तरह के कर्म करता रहता है। इन कर्मों के बंधन में पड़ने के कारण यह बार-बार संसारचक्र में फँसता है। यदि सन्मार्ग पर चलते हुए इसका किसी जिह्वा और उपस्थेंद्रिय के भोगों में लगे हुए विषयी पुरुषों से समागम हो जाता है, और यह उनमें आस्था रखकर उनका अनुसरण करने लगता है, तो पहले की तरह फिर से नारकी योनियों में पड़ जाता है।

मनुष्य को किसका संग नहीं करनी चाइये? 

सत्यं शौचं दया मौनं बुद्धिः श्रीर्ह्रीर्यशः क्षमा ।
शमो दमो भगश्चेति यत्सङ्गाद्याति सङ्क्षयम् ॥

तेष्वशान्तेषु मूढेषु खण्डितात्मस्वसाधुषु ।
सङ्गं न कुर्याच्छोच्येषु योषित् क्रीडामृगेषु च ॥
जिनके संगसे इसके बाहर-भीतरकी पवित्रता, दया, वाणीका संयम, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, लज्जा, यश, क्षमा, मन और इन्द्रियोंका संयम तथा ऐश्वर्य आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। उन अत्यन्त शोचनीय, स्त्रियोंके क्रीडामृग (खिलौना), अशान्त, मूढ़ और देहात्मदर्शी असत्पुरुषोंका संग कभी नहीं करना चाहिये। (भागवत 3.31.33-34)

पुरुष स्त्री रूपी माया (सेवा, ममता आदि देने वाली) में फँसता है और स्त्री पुरुष रूपी माया (धन, प्रतिष्ठा, आदि देने वाला) में। दोनों ही बंधन का कारक है।जिस प्रकार व्याधेका गान कानोंको प्रिय लगनेपर भी बेचारे भोले-भाले पशु-पक्षियोंको फँसाकर उनके नाशका ही कारण होता है उसी प्रकार उन पुत्र, पति और गृह आदिको विधाताकी निश्चित की हुई अपनी मृत्यु ही जाने।

जन्म-मृत्यु की परिभाषा 

जीवो ह्यस्यानुगो देहो भूतेन्द्रियमनोमयः ।
तन्निरोधोऽस्य मरणं आविर्भावस्तु सम्भवः ॥
जीव इस शरीर के अधीन होता है, जो भूत, इन्द्रिय और मन से निर्मित है। इसका निरोध (नहोना) मृत्यु कहलाता है, जबकि इसका प्रकट होना 'जन्म' होता है। (भागवत 3.31.44)

जीव (आत्मा) अपने उपाधि रूप लिंग देह (जिसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जाता है) के माध्यम से एक लोक से दूसरे लोक में यात्रा करता है। इस यात्रा के दौरान, वह अपने पूर्वजन्म के किए गए कार्यों का फल भोगता है और इसी के साथ नए कर्म करता है ताकि उसे अन्य देहों (नए जन्मों) की प्राप्ति हो सके। सूक्ष्म शरीर मोक्ष प्राप्ति तक जीव के साथ रहता है, जबकि भूत, इन्द्रिय और मन के कार्यों का स्थूल शरीर (भौतिक शरीर) इस आत्मा का भोगाधिष्ठान (भोगनेवाला) होता है। जब आंखों में किसी दोष के कारण रूपादि देखने की योग्यता नहीं रहती, तब चक्षु इन्द्रिय भी रूप देखने में असमर्थ हो जाती है। जब आंखें और उनमें रहने वाली इन्द्रिय दोनों रूप देखने में असमर्थ हो जाते हैं, तब जीव में भी वह योग्यता समाप्त हो जाती है। इसलिए, मुमुक्ष पुरुष को मरण और अन्य भयों से डरना नहीं चाहिए। उसे जीव के स्वरूप को जानकर धैर्यपूर्वक निःसंग भाव से विचरण करना चाहिए। इस मायामय संसार में योग और वैराग्य के साथ सम्यक ज्ञान के प्रति अनासक्त रहकर शरीर को एक धरोहर की तरह रखना चाहिए।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 11.10.2024