श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 8 अध्याय: 1-4
राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से विनम्रतापूर्वक निवेदन किया कि वे स्वायम्भुव मनु के वंश का विवरण सुन चुके हैं, जिसमें उनकी कन्याओं से मरीचि आदि प्रजापतियों ने वंश परंपरा चलाई। अब वे अन्य मनुओं की भी कथा सुनना चाहते हैं। राजा ने विशेष रूप से यह भी अनुरोध किया किअलग-अलग मन्वंतर में भगवान ने जो-जो अवतार लिए और जो लीलाएं कीं, उनका भी विस्तार से वर्णन किया जाए – चाहे वे पूर्वकाल में हों, वर्तमान में हों या भविष्य में हों।
इस पर शुकदेवजी ने बताया कि इस कल्प में अब तक छह मन्वंतर बीत चुके हैं। पहले मन्वंतर – स्वायम्भुव मनु – का विवरण वे पहले सुना चुके हैं, जिसमें देवताओं आदि की उत्पत्ति हुई थी। उसी मन्वंतर में भगवान ने आकूति के गर्भ से यज्ञपुरुष के रूप में प्रकट होकर धर्म का उपदेश किया और देवहूति से कपिल के रूप में प्रकट होकर ज्ञान का उपदेश दिया।
स्वायम्भुव मनु ने सभी भोगों से विरक्त होकर राज्य त्याग दिया और अपनी पत्नी शतरूपा के साथ तपस्या के लिए वन चले गए। वे सुनन्दा नदी के किनारे एक पैर पर खड़े होकर सौ वर्षों तक कठोर तपस्या करते रहे। एक दिन जब वे ध्यान में लीन थे और वेद का पाठ कर रहे थे, तो अचानक उसी समय भूखे असुर और राक्षस उन्हें खाने के लिए टूट पड़े। यह देखकर अन्तर्यामी भगवान यज्ञपुरुष अपने पुत्र याम नामक देवताओं के साथ वहां पहुंचे और उन असुरों का वध कर दिया। इसके बाद वे इन्द्र के पद पर प्रतिष्ठित हुए और स्वर्ग का संचालन करने लगे।
दूसरे मन्वंतर:
- मनु का नाम स्वारोचिष। वे अग्निदेव के पुत्र थे। उनके पुत्र थे: धुमान, सुषेण, रोचिष्मान आदि।
- उस मन्वंतर के इन्द्र का नाम रोचन था। देवता तुषितगण और सप्तर्षि ऊर्जस्तम्भ आदि थे।
- उस मन्वंतर में भगवान ने वेदशिरा ऋषि की पत्नी तुषिता के गर्भ से विभु नाम से अवतार लिया। वे आजीवन ब्रह्मचारी रहे और उनके प्रभाव से 88,000 ऋषियों ने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया।
तीसरे मन्वंतर:
- मनु का नाम उत्तम। वे प्रियव्रत के पुत्र थे। उनके पुत्र थे: पवन, संजय, यज्ञहोत्र आदि।
- उस मन्वंतर के इन्द्र का नाम सत्यजित था। देवता सत्य, वेदश्रुत, भद्र आदि और सप्तर्षि प्रमद आदि (वसिष्ठजी के पुत्र) थे।
- उस मन्वंतर में भगवान ने धर्म और सूनृता के पुत्र सत्यसेन रूप में अवतार लिया। इन्द्र सत्यजित के साथ मिलकर उन्होंने दुष्ट यक्ष, राक्षस और भूतगणों का नाश किया।
चौथे मन्वंतर:
- मनु का नाम तामस। वे उत्तम मनु के भाई थे। उनके दस पुत्र थे: पथ, ख्याति, नर, केतु आदि।
- उस मन्वंतर के इन्द्र का नाम त्रिशिख था। देवता सत्यक, हरि, वीर आदि और सप्तर्षि ज्योतिर्धाम आदि थे।
- इस मन्वंतर में वैधृति नामक देवगण ने वेदों की रक्षा की।
- भगवान ने हरिमेधा ऋषि की पत्नी हरिणी से हरि रूप में जन्म लिया और गजेन्द्र को ग्राह से बचाया।
गज ग्राह लड़े जल भीतर
तब राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से पूछा-मुनिवर! हम आपसे यह सुनना चाहते हैं कि भगवान्ने गजेन्द्रको ग्राहके फंदेसे कैसे छुड़ाया था। श्री शुकदेवजी ने बताया कि क्षीरसागर में त्रिकूट नाम का एक भव्य पर्वत था, जो दस हजार योजन ऊँचा था। उसमें चाँदी, सोने और रत्नों से जड़े अनेक शिखर थे, जिससे दिशाएँ और आकाश चमकते रहते थे। उस पर्वत पर सुंदर झरने, हरे-भरे पेड़, लताएँ और रंग-बिरंगे फूलों से भरे देवताओं के उद्यान थे। सिद्ध, गंधर्व, किन्नर, नाग और अप्सराएँ वहाँ विहार करती थीं। पर्वत की तलहटी में भगवान वरुण का एक दिव्य उद्यान ‘ऋतुमान’ था, जिसमें देवांगनाएँ क्रीड़ा करती थीं। वहां अनेक प्रकार के फल-फूलों से लदे वृक्ष थे और एक सुंदर सरोवर था जिसमें स्वर्ण कमल खिले थे। उस जल में पक्षी, मछलियाँ और कछुए थे, और वहां की सुगंधित वायु आनंददायक थी।
उस त्रिकूट पर्वत के सुंदर और घने जंगल में गजेन्द्र नाम का एक अत्यंत बलवान हाथी रहता था। वह बहुत-सी हथिनियों और हाथियों का राजा था। उसके साथ उसका पूरा झुंड—छोटे हाथी, बड़ी हथिनियाँ—सदैव साथ चलते थे। उसकी गंध मात्र से जंगल के सिंह, बाघ, गैंडे, नाग और अन्य हिंसक जीव भयभीत होकर भाग जाते थे। वहीं दूसरी ओर उसकी शक्ति और संरक्षण के कारण छोटे जीव—हरिण, सूअर, बंदर आदि निर्भय होकर विचरते थे।
एक दिन गर्मी बहुत अधिक थी और झुंड को प्यास सताने लगी। गजेन्द्र ने दूर से सरोवर की सुगंधित, ठंडी वायु की अनुभूति की और अपनी हथिनियों सहित तेजी से उस दिशा में बढ़ा। वह सुंदर सरोवर जल से भरा था, जहाँ कमल खिले थे और चारों ओर पुष्पों की सुगंध फैली हुई थी। गजेन्द्र उस सरोवर में घुस गया। पहले उसने खूब पानी पिया, फिर स्नान किया। वह थकावट मिटाकर बहुत प्रसन्न हुआ। फिर वह गृहस्थ पुरुष की तरह ममता में बँध गया—अपनी सूँड़ से हथिनियों और बच्चों को स्नान कराने लगा, उन्हें पानी पिलाने लगा, उनके साथ खेल में मग्न हो गया।
जब गजेन्द्र अत्यधिक गर्व और उन्माद में डूबा हुआ था, तभी प्रारब्ध के प्रभाव से एक बलवान ग्राह (मगरमच्छ) ने क्रोध में आकर उसका पैर पकड़ लिया। अचानक आई इस विपत्ति में फँसकर गजेन्द्र ने अपनी पूरी शक्ति से स्वयं को छुड़ाने की बहुत कोशिश की, परंतु वह सफल नहीं हो सका। उसके साथ के अन्य हाथी, हथिनियाँ और उनके बच्चे यह देखकर बहुत घबरा गये कि उनका स्वामी एक बलवान मगरमच्छ द्वारा पानी में तेजी से खींचा जा रहा है। वे दुःख से व्याकुल होकर चिंघाड़ने लगे और उसे बचाने के लिए पूरी कोशिश की, लेकिन वे भी उसे बाहर निकालने में असमर्थ रहे।
अब गजेन्द्र और ग्राह दोनों अपनी पूरी ताकत लगाकर युद्ध कर रहे थे। कभी गजेन्द्र ग्राह को बाहर खींचता, तो कभी ग्राह उसे पानी के भीतर खींच लेता। इस तरह वे जल में भिड़े रहे।
शुकदेवजी कहते हैं — हे परीक्षित! इस संघर्ष में हजार वर्ष बीत गये, पर कोई भी हार नहीं माना। यह दृश्य देखकर देवता भी आश्चर्यचकित हो गये। लेकिन अंततः लगातार पानी में घसीटे जाने से गजेन्द्र का शरीर कमजोर पड़ गया, उसका बल और उत्साह क्षीण हो गया। जबकि ग्राह तो जलचर था, इसलिए समय के साथ उसकी शक्ति और बढ़ती जा रही थी। अब वह और जोश के साथ गजेन्द्र को खींचने लगा।
इस तरह देहाभिमान से भरा गजेन्द्र अचानक गहरे संकट में पड़ गया और स्वयं को छुड़ाने में पूरी तरह असमर्थ हो गया। बहुत सोच-विचार करने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह ग्राह कोई साधारण जीव नहीं, बल्कि विधाता की बनाई हुई फाँसी है, जिसमें मैं फँस गया हूँ। जब मेरे जैसे दूसरे बलवान हाथी मुझे नहीं बचा सके, तो ये बेचारी हथिनियाँ क्या करेंगी?
अब मेरे पास एक ही उपाय है — मैं संपूर्ण सृष्टि के एकमात्र आश्रय भगवान की शरण लेता हूँ। काल बड़ा बलवान है, वह एक विषधर सर्प की तरह हर किसी को निगलने के लिए दौड़ता रहता है। इससे डरकर जो भी भगवान की शरण में जाता है, वे उसे अवश्य बचा लेते हैं। वही भगवान सबके अंतिम आश्रय हैं — अब मैं केवल उनकी शरण में जाता हूँ।
गजेंद्र के द्वारा भगवान की स्तुति करना (गजेंद्र मोक्ष स्तोत्रम्)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित् ! अपनी बुद्धि से ऐसा निश्चय करके गजेन्द्र ने अपने मन को हृदय में एकाग्र किया और फिर पूर्वजन्म में सीखे हुए श्रेष्ठ स्तोत्र के जप द्वारा भगवान् की स्तुति करने लगा।
- गजेन्द्र ने कहा मैं उन भगवान को नमस्कार करता हूँ जो सम्पूर्ण जगत के मूल कारण हैं, सभी प्राणियों के हृदय में पुरुष रूप में विराजमान हैं और सम्पूर्ण सृष्टि के एकमात्र स्वामी हैं। उन्हीं के कारण यह संसार चेतन और क्रियाशील प्रतीत होता है। मैं प्रेमपूर्वक उनका ध्यान करता हूँ।
- यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं में स्थित है, उन्हीं की सत्ता से दिखाई देता है, वे स्वयं इस सृष्टि में व्याप्त हैं और उसी के रूप में प्रकट होते हैं, फिर भी वे प्रकृति और संसार से सर्वथा परे हैं। वे स्वयं प्रकाश, स्वयंसिद्ध परमात्मा हैं – मैं उनकी शरण लेता हूँ।
- यह विश्व उन्हीं की माया में स्थित है – कभी प्रतीत होता है, कभी लुप्त हो जाता है, परन्तु वे परमात्मा सदा समदर्शी रहते हैं। वे सबके मूल हैं, स्वयं के भी कारण वही हैं, उनसे परे कोई अन्य कारण नहीं है। वे सभी कारणों और कार्यों से परे हैं – वे मेरी रक्षा करें।
- जब प्रलय आता है तो लोक, देवता और उनके कारण नष्ट हो जाते हैं और केवल घना अंधकार रह जाता है, उस समय भी वे अनंत परमात्मा परे रहकर विद्यमान होते हैं – वही प्रभु मेरी रक्षा करें।
- उनकी लीलाएं रहस्यमयी और अज्ञेय हैं – वे नाटक की तरह अनेकों रूप धारण करते हैं, उनका सत्य स्वरूप न देवता जान पाते हैं, न ऋषि – फिर कोई और तो जान ही कैसे सकता है? वे ही मेरी रक्षा करें।
- जिनके दर्शन हेतु महात्मा लोग संसार की सभी आसक्तियों को त्याग कर ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करते हुए अपने हृदय में सभी जीवों में आत्मा को देखकर सबका कल्याण करते हैं – वही सर्वशक्तिमान मुनियों के भगवान मेरी गति हैं।
- उनका न तो कोई जन्म है, न कर्म, न कोई नाम या रूप – तो गुण-दोष की कल्पना ही कैसी? फिर भी वे माया से इन्हें धारण कर सृष्टि और संहार करते हैं। मैं उन अनंत शक्तिमान परमात्मा को प्रणाम करता हूँ।
- वे अरूप होकर भी बहुरूप हैं, उनके कार्य अत्यंत आश्चर्यमय हैं – मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ। वे स्वयं प्रकाश हैं, सबके साक्षी हैं – मैं उन्हें नमन करता हूँ। वे मन, वाणी और चित्त से भी परे हैं – ऐसे परमात्मा को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।
- जिन विवेकी जनों ने कर्म-संन्यास या समर्पण से अंतःकरण को शुद्ध कर उन्हें प्राप्त किया है – वे नित्य मुक्त, परमानंदस्वरूप और ज्ञानमय हैं तथा दूसरों को भी मोक्ष देने में समर्थ हैं – ऐसे प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।
- जो सत्त्व, रज, तम गुणों को धारण कर क्रमशः शांत, उग्र और मूढ़ अवस्था में स्थित होते हैं – वे भेदरहित, समदर्शी और ज्ञानघन प्रभु हैं – मैं उन्हें बार-बार प्रणाम करता हूँ। आप ही सबके स्वामी, सभी क्षेत्रों के ज्ञाता और सर्वसाक्षी हैं – आपको नमस्कार है।
- आप स्वयं ही अपने कारण हैं – आप ही पुरुष और प्रकृति के मूलस्वरूप हैं – आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है। आप सभी इन्द्रियों और उनके विषयों के द्रष्टा हैं, समस्त प्रतीतियों के आधार हैं – आपके ही अस्तित्व से यह माया का संसार प्रतीत होता है – आप ही सबमें भास रहे हैं – मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
- आप समस्त का कारण हैं, पर स्वयं अकारण हैं – और फिर भी आप में कोई विकार नहीं होता, इसलिए आप एक अनोखे कारण हैं – मैं आपको बारम्बार प्रणाम करता हूँ।
- जैसे सभी नदियाँ समुद्र में लीन होती हैं, वैसे ही आप समस्त वेदों और शास्त्रों के परम सार हैं – आप ही मोक्षस्वरूप हैं – संत आपकी ही शरण लेते हैं – आपको नमस्कार है।
- जैसे अरणि काष्ठ में अग्नि गुप्त रहती है वैसे ही आपने अपने ज्ञान को गुणों की माया से ढक रखा है – गुणों के क्षोभ से विविध सृष्टियों का निर्माण करते हैं – जो योगी और त्यागी आत्मतत्व को अनुभव करके शास्त्रों से परे चले जाते हैं, उनके हृदय में आप स्वयं प्रकट होते हैं – आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
- जैसे कोई कृपालु व्यक्ति जाल में फँसे प्राणी को मुक्त कर दे, वैसे ही आप शरणागत जीवों के बंधन काट देते हैं – आप नित्य मुक्त, परम करुणामय और भक्तवत्सल हैं – आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ।
- आप सभी के हृदय में आत्मा रूप से विराजते हैं – आप सर्वसमर्थ, अनंत और ऐश्वर्यपूर्ण हैं – आपको नमस्कार है। जो लोग शरीर, पुत्र, गुरु, गृह, धन आदि में आसक्त हैं, उनके लिए आपको पाना कठिन है – क्योंकि आप गुणों की आसक्ति से रहित हैं – पर जो जीवन्मुक्त हैं, वे हृदय से आपका चिंतन करते रहते हैं – आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हेतु लोग आपकी भक्ति करते हैं और सब कुछ प्राप्त करते हैं – आप उन्हें अपने समान अविनाशी शरीर तक दे देते हैं – आप परमदयालु हैं – मेरा उद्धार करें।
- आपके अनन्य भक्त आपसे कुछ नहीं माँगते – यहाँ तक कि मोक्ष भी नहीं – वे केवल आपकी मंगलमयी लीलाओं में डूबे रहते हैं – आप अनंत, अविनाशी, सर्वशक्तिमान, इन्द्रियातीत और अति सूक्ष्म हैं – ज्ञानयोग और भक्तियोग से प्राप्त होते हैं – मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
- आपकी एक अंशमात्र से ब्रह्मा, वेद, चराचर सृष्टि और भिन्न-भिन्न नाम-रूप उत्पन्न होते हैं – जैसे अग्नि से ज्वालाएं और सूर्य से किरणें निकलती और लीन होती हैं – वैसे ही बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और शरीर आपसे प्रकट होते और फिर आपमें लीन होते हैं।
- आप न देवता हैं, न असुर, न पुरुष, न स्त्री, न नपुंसक, न कोई साधारण या असाधारण प्राणी – न गुण हैं, न कर्म, न कार्य, न कारण – जब सब निषेध हो जाए, तो जो शेष रह जाए, वही आप हैं – आप ही सब कुछ हैं – मेरे उद्धार के लिए प्रकट हों।
- अब मैं जीना नहीं चाहता – यह हाथी की योनि बाहर और भीतर से अज्ञान के आवरण से ढकी हुई है – इससे क्या करूँ? मैं तो उस अज्ञान से मुक्त होना चाहता हूँ जो आत्मप्रकाश को ढक देता है – यह केवल आपकी कृपा और तत्वज्ञान से ही दूर हो सकता है – इसलिए मैं आपकी शरण में हूँ – आप जो अजन्मा, परमपदस्वरूप, विश्व से परे होकर भी विश्वरूप हैं – मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
- योगीजन योग के द्वारा कर्म, वासनाएं और फल को भस्म करके शुद्ध हृदय से जिन योगेश्वर प्रभु का साक्षात्कार करते हैं – मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।
- प्रभो! आप ही तीन गुणों – सत्त्व, रज और तम – की प्रबल गति हैं – आप ही इन्द्रिय विषयों के रूप में प्रतीत होते हैं – जिनकी इन्द्रियाँ संयम में नहीं हैं, वे आपको प्राप्त नहीं कर सकते – आपकी शक्ति अनंत है, आप शरणागतों के रक्षक हैं – मैं आपको बार-बार प्रणाम करता हूँ।
- आपकी माया अहंकार से आत्मा के स्वरूप को ढक देती है – जिससे जीव अपने स्वरूप को नहीं जान पाता – आपकी महिमा अपार है – मैं उन सर्वशक्तिमान भगवान की शरण में हूँ।
गज का संकट से मुक्त होना
जब सर्वात्मा सर्वदेवस्वरूप स्वयं भगवान् श्रीहरि ने देखा कि गजेन्द्र बहुत पीड़ा में है, तो उसकी भावभरी स्तुति सुनकर वे वेदस्वरूप गरुड़ पर सवार होकर तुरंत चल पड़े। उनके साथ देवता भी स्तुति करते हुए चल दिए। जैसे ही गज ने आकाश में गरुड़ पर सवार चक्रधारी भगवान विष्णु को आते देखा, तो उसने बड़ी मुश्किल से अपनी सूंड से एक कमल-पुष्प उठाया, उसे ऊपर की ओर बढ़ाकर बोला “नारायण! जगद्गुरु! भगवन्! आपको नमस्कार है!”
भगवान ने जैसे ही देखा कि गजेन्द्र पीड़ा में है, तो उन्होंने तुरंत गरुड़ को छोड़ दिया और सीधे सरोवर में कूद पड़े। कृपा करके उन्होंने गजेन्द्र और ग्राह दोनों को झटपट पानी से बाहर निकाला। फिर सभी देवताओं के सामने ही भगवान श्रीहरि ने अपने चक्र से उस ग्राह का मुख फाड़ दिया और गजेन्द्र को उसके संकट से मुक्त कर दिया।
श्री शुकदेवजी ने कहा— परीक्षित! जब भगवान् श्रीहरि ने ग्राह को मारकर गजेन्द्र को छुड़ाया, तब ब्रह्मा, शिव, सभी देवता, ऋषि और गन्धर्वों ने उनकी बहुत प्रशंसा की। उन्होंने भगवान पर पुष्पों की वर्षा की। स्वर्ग में नगाड़े बजने लगे, गन्धर्व नाचने-गाने लगे, और ऋषि, चारण, सिद्धगण भगवान की स्तुति करने लगे।
गज और ग्राह का पूर्व चरित्र
उधर वह ग्राह एक दिव्य रूप वाला तेजस्वी प्राणी बन गया। ग्राह पूर्व जन्म में हू हू नाम का एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। एक बार देवल ऋषि जब पानी में खड़े होकर तपस्या कर रहे थे, गंधर्व को शरारत सूझी। उसने ग्राह रूप धरा और जल में कौतुक करते हुए ऋषि के पैर पकड़ लिए। क्रोधित ऋषि ने उसे शाप दिया कि तुम मगरमच्छ की तरह इस पानी में पड़े रहो। देवल ऋषि के शाप से उसे ग्राह की गति प्राप्त हुई। अब भगवान की कृपा से उसे मोक्ष मिल गया। उसने भगवान के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और उनके गुणों का गान करने लगा। भगवान के स्पर्श से उसके सारे पाप नष्ट हो गये। उसने भगवान की परिक्रमा की और सबके सामने अपने दिव्य लोक को चला गया।
गजेन्द्र अपने पूर्व जन्म में द्रविड़ देश के पांड्य वंश का राजा था। उसका नाम था इंद्रधुम्न। वह भगवान का एक श्रेष्ठ उपासक और अत्यन्त यशस्वी राजा था। एक समय राजा इंद्रधुम्न ने राजपाट त्यागकर मलय पर्वत पर तपस्या का मार्ग अपना लिया। उन्होंने जटाएं बढ़ा लीं, तपस्वी का वेष धारण किया और ध्यानमग्न होकर भगवान की उपासना में लीन हो गये। एक दिन स्नान के उपरांत, जब वे पूजा कर रहे थे, उन्होंने मौन व्रत धारण कर मन को पूर्ण रूप से एकाग्र कर लिया था।
उसी समय दैवयोग से परम यशस्वी अगस्त्य मुनि अपनी शिष्यमण्डली सहित वहाँ आ पहुंचे। उन्होंने देखा कि राजा इंद्रधुम्न गृहस्थ धर्म और अतिथि सेवा जैसे कर्तव्यों को त्यागकर एकान्त में चुपचाप तपस्वी जैसा जीवन जी रहा है। यह देख वे अत्यन्त क्रुद्ध हो गये। उन्होंने कहा कि यह राजा अपने कर्तव्यों से विमुख होकर घमण्ड में तप कर रहा है, गुरुजनों का आदर नहीं करता, इसलिए यह ब्राह्मणों का अपमान करने वाला हाथी के समान जड़बुद्धि है। उन्होंने इंद्रधुम्न को शाप दिया कि यह अगला जन्म हाथी की योनि में लेगा और घोर अज्ञान में रहेगा।
राजा इंद्रधुम्न ने इस शाप को अपना प्रारब्ध मानकर शान्तिपूर्वक स्वीकार कर लिया। उस शाप के फलस्वरूप उसे हाथी की योनि प्राप्त हुई जिसमें आत्मज्ञान का अभाव होता है। परन्तु भगवान की उपासना और स्मरण का प्रभाव ऐसा था कि हाथी के रूप में जन्म लेने के बावजूद भी गजेन्द्र को पूर्व जन्म की भगवद्भक्ति की स्मृति बनी रही। जब वह गज रूप में मगर के चंगुल में फंसा, तब उसी भगवद्स्मृति से प्रेरित होकर उसने भगवान श्रीहरि को पुकारा।
भगवान श्रीहरि ने उसकी पुकार सुनकर तुरंत गरुड़ पर आरूढ़ होकर प्रकट होकर मगर से उसका उद्धार किया। फिर गजेन्द्र को पार्षद रूप में स्वीकार कर अपने अलौकिक धाम को ले गये। इस प्रकार भगवान ने अपने अनन्य भक्त गजेन्द्र को भवसागर से मुक्त कर दिव्य पद प्रदान किया।
श्री शुकदेवजी कहते हैं— परीक्षित! गजेन्द्रकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर श्रीहरिभगवान्ने सब लोगोंके सामने ही उसे यह बात कही थी।
श्रीभगवान्ने कहा-जो लोग रातके पिछले पहरमें उठकर इन्द्रिय निग्रहपूर्वक एकाग्र चित्तसे मेरा, तेरा तथा इस सरोवर, पर्वत एवं कन्दरा, वन, बेंत, कीचक और बाँसके झुरमुट, यहाँके दिव्य वृक्ष तथा पर्वतशिखर, मेरे, ब्रह्माजी और शिवजीके निवासस्थान, मेरे प्यारे धाम क्षीरसागर, प्रकाशमय श्वेतद्वीप, श्रीवत्स, कौस्तुभमणि, वनमाला, मेरी कौमोदकी गदा, सुदर्शन चक्र, पांचजन्य शंख, पक्षिराज गरुड, मेरे सूक्ष्म कलास्वरूप शेषजी, मेरे आश्रयमें रहनेवाली लक्ष्मीदेवी, ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, शंकरजी तथा भक्तराज प्रह्लाद, मत्स्य, कच्छप, वराह आदि अवतारोंमें किये हुए मेरे अनन्त पुण्यमय चरित्र, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, ॐकार, सत्य, मूलप्रकृति, गौ, ब्राह्मण, अविनाशी सनातनधर्म, सोम, कश्यप और धर्मकी पत्नी दक्षकन्याएँ, गंगा, सरस्वती, अलकनन्दा, यमुना, ऐरावत हाथी, भक्तशिरोमणि ध्रुव, सात ब्रह्मर्षि और पवित्रकीर्ति (नल, युधिष्ठिर, जनक आदि) महापुरुषोंका स्मरण करते हैं वे समस्त पापोंसे छूट जाते हैं; क्योंकि ये सब-के-सब मेरे ही रूप हैं ।
प्यारे गजेन्द्र! जो लोग ब्राह्ममुहूर्तमें जगकर तुम्हारी की हुई स्तुतिसे मेरा स्तवन करेंगे, मृत्युके समय उन्हें मैं निर्मल बुद्धिका दान करूँगा।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने ऐसा कहकर देवताओंको आनन्दित करते हुए अपना श्रेष्ठ शंख बजाया और गरुड़पर सवार हो गये।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 30.05.2025