श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 4 अध्याय: 10 से 13
ध्रुव का विवाह प्रजापति शिशुमार की पुत्री भ्रमि से होता है, जिससे उन्हें दो पुत्र, कल्प और वत्सर, प्राप्त होते हैं। ध्रुव की दूसरी पत्नी वायुपुत्री इला से उनके एक पुत्र उत्कल और एक पुत्री का जन्म होता है। ध्रुव का भाई उत्तमका अभी विवाह नहीं हुआ था कि एक दिन शिकार खेलते समय उसे हिमालय पर्वतपर एक बलवान् यक्षने मार डाला। उसके साथ उसकी माता भी परलोक सिधार गयी।
भाईकी मृत्यु का समाचार सुनकर क्रोधित ध्रुव यक्षों के देश में पहुँचते हैं और अलकापुरी पर आक्रमण करते हैं। वहाँ उनकी शंख ध्वनि से यक्ष भयभीत हो जाते हैं, लेकिन यक्षवीर युद्ध के लिए ध्रुव पर हमला करते हैं। ध्रुव अत्यंत पराक्रमी और कुशल धनुर्धर थे। उन्होंने एक साथ यक्षों पर तीन-तीन बाण मारे, जिससे यक्षों को अपनी हार निश्चित लगने लगी और वे ध्रुव की प्रशंसा करने लगे। लेकिन जल्द ही यक्ष ध्रुव के इस पराक्रम से आक्रोशित होकर उनके ऊपर छह-छह बाणों की वर्षा करते हैं।
यक्षों की बड़ी सेना (1,30,000) ने ध्रुव और उनके रथ पर भारी मात्रा में शस्त्रों की बौछार की, जिससे ध्रुव पूरी तरह ढक गए। यह देखकर आकाश में खड़े सिद्धगण चिंता व्यक्त करते हैं कि ध्रुव इस विशाल यक्ष सेना के सामने डूब गए हैं। तभी ध्रुव का रथ बादलों से सूर्य की भांति प्रकट होता है और प्रचंड बाणों की वर्षा कर यक्षों के अस्त्र-शस्त्रों को नष्ट कर देते हैं। उनके तीखे तीर यक्षों के कवच को भेदकर उनके शरीर में घुस जाते हैं, मानो इन्द्र के वज्र पर्वतों को चीर रहे हों। ध्रुव के बाणोंसे कटे हुए यक्षोंके मस्तकोंसे समरभूमि बड़ी शोभा पा रही थी। जो यक्ष किसी प्रकार जीवित बचे, वे मैदान छोड़कर भाग गये।
ध्रुव ने रणभूमि में देखा कि अब कोई भी शत्रु उनके सामने अस्त्र-शस्त्र लेकर नहीं खड़ा है, तो उनकी इच्छा अलकापुरी देखने की हुई। लेकिन सावधान रहते हुए वे भीतर नहीं गए और सारथि से बोले कि ये मायावी असुर क्या कर सकते हैं, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। तभी भयंकर गर्जना के साथ आँधी उठी, दिशाओं में धूल छा गई, और आकाश में घने बादल उमड़ आए। बिजली की चमक और गड़गड़ाहट के साथ उन बादलों से खून, कफ, पीब, और गंदगी की वर्षा होने लगी, और आकाश से धड़ गिरने लगे। ध्रुव ने देखा कि सर्प, मदमस्त हाथी, सिंह और बाघ उनकी ओर बढ़ रहे हैं, और समुद्र की भीषण लहरें पृथ्वी को डुबोते हुए उनकी ओर बढ़ रही हैं। असुरों ने अपनी मायावी शक्तियों से भयंकर दृश्य उत्पन्न किए, जो किसी कायर का मन विचलित कर सकते थे। यह देखकर मुनि वहाँ आए और ध्रुव के लिए मंगल कामना करने लगे। उन्होंने प्रार्थना की कि शरणागतों की रक्षा करने वाले भगवान नारायण ध्रुव के शत्रुओं का संहार करें। नारायण का नाम सुनने और कीर्तन करने मात्र से मनुष्य मृत्यु के भय से मुक्त हो सकता है।
ऋषियोंका ऐसा कथन सुनकर महाराज ध्रुवने आचमन कर श्रीनारायणके बनाये हुए नारायणास्त्रको अपने धनुषपर चढ़ाया। उस बाणके चढ़ाते ही यक्षोंद्वारा रची हुई नाना प्रकारकी माया उसी क्षण नष्ट हो गयी। उससे बाण भयावह साँय-साँय की आवाज़ करते हुए शत्रु की सेना में घुस गए और उन्हें नष्ट करने लगे। ध्रुव के तीखे बाणों ने शत्रु यक्षों को व्याकुल कर दिया। क्रोध में भरकर अनेकों यक्ष अपने अस्त्र-शस्त्र उठाकर ध्रुव पर टूट पड़े। लेकिन ध्रुव ने अपने बाणों से उनकी भुजाएँ, जंघाएँ, कंधे, और उदर आदि अंगों को काटते हुए उन्हें सत्यलोक भेज दिया, जहाँ ऊर्ध्वरेता मुनिगण तपस्या से सूर्य मंडल को भेदकर पहुँचते हैं।
अब उनके पितामह स्वायम्भुव मनुने देखा कि विचित्र रथपर चढ़े हुए ध्रुव अनेकों निरपराध यक्षोंको मार रहे हैं, तो उन्हें उनपर बहुत दया आयी। वे बहुत-से ऋषियोंको साथ लेकर वहाँ आये और अपने पौत्र ध्रुवको समझाने लगे- "बेटा, ध्रुव! क्रोध पर नियंत्रण रखो, क्योंकि यह नरक का द्वार है और इसे साधु पुरुष बहुत बुरा मानते हैं। अपने भाई के प्रति तुम्हारे प्रेम को मैं समझता हूँ, लेकिन उसकी मृत्यु के दुःख में तुमने एक के अपराध में अनेकों निर्दोष यक्षों का वध कर दिया। यह हमारे कुल की मर्यादा के अनुकूल नहीं है। साधुजन भगवत्सेवा में समर्पित होते हैं और अहिंसा का मार्ग अपनाते हैं; अपने आत्मस्वरूप को जानकर इस नश्वर शरीर के लिए हिंसा नहीं करते। परमात्मा के प्रति प्रेम तुम्हारे लड़कपन से ही स्पष्ट है; श्रीहरि ने भी तुम्हें प्रिय भक्त माना है, और भक्तजन भी तुम्हारा आदर करते हैं। प्रभु को प्रसन्न करने के लिए मनुष्य को समस्त जीवों के प्रति दया, सहनशीलता और मित्रता का आचरण करना चाहिए। ऐसा करने से वह सांसारिक गुणों और कर्मों के बंधन से मुक्त होकर ब्रह्म के परम आनंद को प्राप्त करता है। ध्रुव, यह सृष्टि पंचभूतों से बनती है, जो श्रीहरि की माया से प्रभावित होती है।
प्रभु स्वयं निर्गुण और अकर्ता हैं, फिर भी उनके आश्रय से यह जगत चलता है, जैसे चुम्बक के प्रभाव से लोहा खिंचता है। समय के प्रवाह में उनकी शक्ति सृष्टि, स्थिति, और प्रलय के रूप में प्रकट होती है। इसलिए वे संसार की रचना करते हुए भी अकर्ता हैं, संहार करते हुए भी असंहारक हैं। उनका यह चमत्कार, यह लीला, अचिंत्य है। ये कालस्वरूप भगवान ही अनादि हैं, जिन्होंने इस जगत को जन्म दिया और काल के रूप में वह जीवन का अंत भी करते हैं। यह सभी जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार श्रीहरि द्वारा निर्धारित कालचक्र में बंधे रहते हैं। वे ही जीवन की आयु और मृत्यु का प्रबंधन करते हैं। उनकी इच्छा को भी कोई नहीं समझ सकता।
जो भी इस संसार का आधार और सृष्टि का कारण हैं, वह हमारे बुद्धि के परे हैं। ये कुबेरके अनुचर तुम्हारे भाईको मारनेवाले नहीं हैं, क्योंकि मनुष्यके जन्ममरणका वास्तविक कारण तो ईश्वर है। एकमात्र वही संसारको रचता, पालता और नष्ट करता है, किन्तु अहंकारशून्य होनेके कारण इसके गुण और कर्मोंसे वह सदा निर्लेप रहता है। वे सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तरात्मा, नियन्ता और रक्षा करनेवाले प्रभु ही अपनी मायाशक्तिसे युक्त होकर समस्त जीवोंका सृजन, पालन और संहार करते हैं। जिस प्रकार नाकमें नकेल पड़े हए बैल अपने मालिकका बोझा ढोते रहते हैं, उसी प्रकार जगतकी रचना करनेवाले ब्रह्मादि भी नामरूप डोरीसे बँधे हुए उन्हींकी आज्ञाका पालन करते हैं। वे अभक्तोंके लिये मृत्युरूप और भक्तोंके लिये अमृतरूप हैं तथा संसारके एकमात्र आश्रय हैं। तात! तुम सब प्रकार उन्हीं परमात्माकी शरण लो।”
मनुजी ध्रुव को स्मरण दिलाते हैं, "बेटा, तुम पाँच वर्ष की छोटी अवस्था में अपनी सौतेली माता के कटु वचनों से आहत होकर माँ की गोद छोड़ वन चले गए थे। वहाँ अपनी तपस्या और आराधना से तुमने जिन हृषीकेश श्रीहरि को प्रसन्न किया था, जिन्होंने वात्सल्य के वशीभूत होकर तुम्हें त्रिलोकी से ऊपर अमर ध्रुवपद प्रदान किया, वही श्रीहरि तुमसे अत्यंत प्रेम करते हैं। वे निर्गुण, अद्वितीय, अविनाशी और नित्य मुक्त परमात्मा हैं। उन्हीं को अपने अंतःकरण में अध्यात्म दृष्टि से देखो। जैसे औषधि से रोग शांति पाता है, वैसे ही मैंने तुम्हें जो उपदेश दिया है, उस पर ध्यान देकर अपने क्रोध को शांत करो। क्रोध हमारे कल्याण के मार्ग में बहुत बड़ा विघ्न है। प्रभु तुम्हारा मंगल करें। क्रोधी व्यक्ति से सभी डरते हैं। इसलिए जो बुद्धिमान पुरुष यह चाहते हैं कि न उनसे कोई डरें और न उन्हें किसी का भय हो, वे क्रोध के वश में कभी नहीं आते। तुमने अपने भाई के मारे जाने का बदला समझकर इतने यक्षों का वध किया है, लेकिन इससे तुमने अनजाने में ही शिवजी के मित्र कुबेरजी का अपराध कर दिया है। बेटा, इससे पहले कि महापुरुषों का तेज हमारे कुल पर भारी पड़े, तुरंत विनम्रता से जाकर कुबेरजी को प्रसन्न कर लो।" इस प्रकार स्वायम्भुव मनुने अपने पौत्र ध्रुवको शिक्षा दी। तब ध्रुवजीने उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात् मनुजी महर्षियोंके सहित अपने लोकको चले गये।
श्री मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! ध्रुवका क्रोध शान्त हो गया है और वे यक्षोंके वधसे निवृत्त हो गये हैं, यह जानकर कुबेर वहाँ आये। उस समय यक्ष, चारण और किन्नरलोग उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही ध्रुवजी हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब कुबेरने कहा- "ध्रुव, तुमने अपने दादाजी के उपदेश से वैर का त्याग किया है, इसलिए मैं तुम पर प्रसन्न हूं। वास्तव में, तुमने यक्षों का वध नहीं किया और न ही यक्षों ने तुम्हारे भाई को मारा। सभी जीवों का उत्पत्ति और विनाश केवल काल के कारण होता है। 'मैं-तू' की मिथ्याबुद्धि जीवों को अज्ञानवश शरीर को आत्मा मानने से उत्पन्न होती है, जिससे बंधन और दुःख का अनुभव होता है। अब तुम जा सकते हो, भगवान तुम्हारा कल्याण करें। संसार के बंधनों से मुक्त होने के लिए सभी जीवों में समान दृष्टि रखकर भगवान श्रीहरि का भजन करो। वे संसार के बंधनों को काटने वाले हैं। उनके चरण कमल सभी के लिए भजन करने योग्य हैं। तुम हमेशा भगवान कमलनाथ के चरणों के पास रहते हो, इसलिए तुम वर पाने के योग्य हो। तुम्हें जिस वर की इच्छा हो, मुझसे निसंकोच और निःशंक होकर मांग लो।" यक्षराज कुबेरने जब इस प्रकार वर माँगनेके लिये आग्रह किया, तब महाभागवत महामति ध्रुवजीने उनसे यही माँगा कि मुझे श्रीहरिकी अखण्ड स्मति बनी रहे, जिससे मनुष्य सहज ही दुस्तर संसारसागरको पार कर जाता है। कुबेरजीने बड़े प्रसन्न मनसे उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की। फिर उनके देखतेही-देखते वे अन्तर्धान हो गये। इसके पश्चात् ध्रवजी भी अपनी राजधानीको लौट आये। वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे भगवान् यज्ञपुरुषकी आराधना की। उन्होंने सर्वोपाधियों से मुक्त होकर, सर्वात्मा श्री अच्युत में प्रबल भक्तिभाव रखा। अपने भीतर और सभी प्राणियों में सर्वव्यापक श्रीहरि को विराजमान देखा। ध्रुवजी बहुत ही शीलसम्पन्न, ब्राह्मणों के भक्त, दीनों के प्रति वात्सल्य रखने वाले और धर्म और मर्यादा के रक्षक थे। उनकी प्रजा उन्हें अपने साक्षात पिता के समान मानती थी। इस प्रकार तरह-तरहके ऐश्वर्यभोगसे पुण्यका और भोगोंके त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मोंके अनुष्ठानसे पापका क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्षतक पृथ्वीका शासन किया और अंत में पुत्र उत्कलको राजसिंहासन सौंप दिया।
ध्रुवजी ने सम्पूर्ण दृश्य को अविद्या द्वारा रचित स्वप्न और गन्धर्व नगर के समान मानकर उसे त्याग बदरिकाश्रम चले गये। वहां उन्होंने अपने मन को बाह्य विषयों से हटाकर भगवान के विराट स्वरूप में स्थिर किया। भगवान श्रीहरि के प्रति निरंतर भक्तिभाव से उनके नेत्रों में आनन्द के आंसू बहने लगे, जिससे उनका हृदय द्रवीभूत हो गया और शरीर में रोमांच उत्पन्न हुआ। जब उनका देहाभिमान समाप्त हो गया, तो उन्हें ‘मैं ध्रुव हूँ’ इस भावना का भी बोध नहीं रहा। इसी समय ध्रुवजीने आकाशसे एक बड़ा ही सुन्दर विमान उतरते देखा। उसमें दो श्रेष्ठ पार्षद थे। उनके चार भुजाएँ थीं, सुन्दर श्याम शरीर था, किशोर अवस्था थी और अरुण कमलके समान नेत्र थे। वे सुन्दर वस्त्र, किरीट, हार, भुजबन्ध और अति मनोहर कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्हें श्रीहरिके सेवक जान ध्रुवजी सहसा खड़े हो गये और उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया। तब श्रीहरिके प्रिय पार्षद सुनन्द और नन्दने उनके पास जाकर मुसकराते हुए कहा- आपने पाँच वर्षकी अवस्थामें ही तपस्या करके सर्वेश्वर भगवानको प्रसन्न कर लिया था। हम उन्हीं शाङ्गपाणि भगवान् विष्णुके सेवक हैं और आपको भगवान्के धाममें ले जानेके लिये यहाँ आये हैं। आपने अपनी भक्तिके प्रभावसे विष्णुलोकका अधिकार प्राप्त किया है, जो औरोंके लिये बड़ा दुर्लभ है। परमज्ञानी सप्तर्षि भी वहाँतक नहीं पहुँच सके, वे नीचेसे केवल उसे देखते रहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण भी उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं। चलिये, आप उसी विष्णुधाममें निवास कीजिये। यह श्रेष्ठ विमान श्रीहरिने आपके लिये ही भेजा है, आप इसपर चढ़नेयोग्य हैं।
श्रीमैत्रेयजी बताते हैं कि भगवान के प्रमुख पार्षदों के अमृतमय वचनों को सुनकर ध्रुवजी ने स्नान किया और नित्य-कर्मों से निवृत्त होकर मांगलिक अलंकार धारण किए। उन्होंने बदरिकाश्रम में रहने वाले मुनियों को प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद लिया। फिर, ध्रुवजी ने उस दिव्य विमान की पूजा की और पार्षदों को प्रणाम कर स्वर्ण के समान कान्तिमान रूप धारण कर विमान पर चढ़ने के लिए तैयार हुए। इसी समय, उन्होंने देखा कि काल (मृत्यु) उनके सामने मूर्तिमान् होकर खड़ा है। तब ध्रुवजी ने मृत्यु के सिर पर पैर रखकर अद्भुत विमान पर चढ़ गये। इस समय आकाश में दुन्दुभि, मृदंग और ढोल बजने लगे, गन्धर्व गाने लगे और फूलों की वर्षा होने लगी। लेकिन जब ध्रुवजी विमान पर बैठकर भगवान के धाम जाने के लिए तैयार हुए, तो उन्हें अपनी माता सुनीति की याद आई। उन्होंने सोचा, "क्या मैं बेचारी माता को छोड़कर अकेला ही दुर्लभ वैकुण्ठधाम को जाऊँगा?" नन्द और सुनन्दने ध्रुवके हृदयकी बात जानकर उन्हें दिखलाया कि देवी सुनीति आगेआगे दूसरे विमानपर जा रही हैं। उन्होंने क्रमशः सूर्य आदि सभी ग्रह देखे। मार्गमें जहाँ-तहाँ विमानोंपर बैठे हुए देवता उनकी प्रशंसा करते हुए फूलोंकी वर्षा करते जाते थे। उस दिव्य विमानपर बैठकर ध्रुवजी त्रिलोकीको पारकर सप्तर्षिमण्डलसे भी ऊपर भगवान् विष्णुके नित्यधाममें पहुँचे। इस प्रकार उन्होंने अविचल गति प्राप्त की। इस प्रकार उत्तानपादके पुत्र भगवत्परायण श्रीध्रुवजी तीनों लोकोंके ऊपर उसकी निर्मल चूडामणिके समान विराजमान हुए।
श्रीमैत्रेय मुनिके मुखसे ध्रुवजीके विष्णुपदपर आरूढ़ होनेका वृत्तान्त सुनकर विदुरजीके हृदयमें भगवान् विष्णुकी भक्तिका उद्रेक हो आया और उन्होंने फिर मैत्रेयजीसे प्रश्न करना आरम्भ किया। विदुरजीने पूछा-भगवत्परायण मुने! ये प्रचेता कौन थे? किसके पुत्र थे? किसके वंशमें प्रसिद्ध थे और इन्होंने कहाँ यज्ञ किया था? श्रीमैत्रेयजीने कहा-विदुरजी! महाराज ध्रुवके वन चले जानेपर उनके पुत्र उत्कलने अपने पिताके सार्वभौम वैभव और राज्यसिंहासनको अस्वीकार कर दिया। वह जन्मसे ही शान्तचित्त, आसक्तिशून्य और समदर्शी था; तथा सम्पूर्ण लोकोंको अपनी आत्मामें और अपनी आत्माको सम्पूर्ण लोकोंमें स्थित देखता था। सब प्रकारके भेदसे रहित ब्रह्मको ही वह अपना स्वरूप समझता था; तथा अपनी आत्मासे भिन्न कुछ भी नहीं देखता था। वह अज्ञानियोंको मूर्ख, अंधा, बहिरा, पागल अथवा गूंगा-सा प्रतीत होता था-वास्तवमें ऐसा था नहीं| इसलिये कुलके बड़े-बूढ़े तथा मन्त्रियोंने उसे मूर्ख और पागल समझकर उसके छोटे भाई भ्रमिपुत्र वत्सरको राजा बनाया।
- वत्सरकी प्रेयसी भार्या स्वर्वीथिके गर्भसे पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, इष, ऊर्ज, वसु और जय नामके छः पुत्र हुए।
- पुष्पार्णके प्रभा और दोषा नामकी दो स्त्रियाँ थीं; उनमेंसे प्रभाके प्रातः, मध्यन्दिन और सायं-ये तीन पुत्र हुए।
- दोषाके प्रदोष, निशीथ और व्युष्ट-ये तीन पुत्र हुए। व्युष्टने अपनी भार्या पुष्करिणीसे सर्वतेजा नामका पुत्र उत्पन्न किया।
- उसकी पत्नी आकूतिसे चक्षुः नामक पुत्र हुआ। चाक्षुष मन्वन्तरमें वही मनु हुआ।
- चक्षु मनुकी स्त्री नड्वलासे पुरु, कुत्स, त्रित, द्युम्न, सत्यवान्, ऋत, व्रत, अग्निष्टोम, अतिरात्र, प्रद्युम्न, शिबि और उल्मुक—ये बारह सत्त्वगुणी बालक उत्पन्न हुए।
- इनमें उल्मुकने अपनी पत्नी पुष्करिणीसे अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और गय—ये छः उत्तम पुत्र उत्पन्न किये।
अंगकी पत्नी सुनीथाने क्रूरकर्मा वेनको जन्म दिया, जिसकी दुष्टतासे उद्विग्न होकर राजर्षि अंग नगर छोड़कर चले गये थे। मुनियोंने कुपित होकर वेनको शाप दिया और जब वह मर गया, तब कोई राजा न रहनेके कारण लोकमें लुटेरोंके द्वारा प्रजाको बहुत कष्ट होने लगा। यह देखकर उन्होंने वेनकी दाहिनी भुजाका मन्थन किया, जिससे भगवान् विष्णुके अंशावतार आदिसम्राट् महाराज पृथु प्रकट हुए।
विदुरजीने पूछा-ब्रह्मन्! महाराज अंग तो बड़े शीलसम्पन्न, साधुस्वभाव, ब्राह्मण-भक्त और महात्मा थे। उनके वेन-जैसा दुष्ट पत्र कैसे हआ, जिसके कारण दुःखी होकर उन्हें नगर छोड़ना पड़ा ।राजदण्डधारी वेनका भी ऐसा क्या अपराध था, जो धर्मज्ञ मुनीश्वरोंने उसके प्रति शापरूप ब्रह्मदण्डका प्रयोग किया।
श्रीमैत्रेयजीने कहा-विदरजी! एक बार राजर्षि अंगने अश्वमेध-महायज्ञका अनुष्ठान किया। उसमें वेदवादी ब्राह्मणोंके आवाहन करनेपर भी देवतालोग अपना भाग लेने नहीं आये। श्रीमैत्रेयजी ने कहा, विदुरजी! एक बार राजर्षि अंग ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया, लेकिन देवता यज्ञ में भाग लेने नहीं आए। ऋत्विजों ने बताया कि यज्ञ की सामग्री और वेद मंत्र सभी सही हैं, लेकिन फिर भी देवताओं का भाग नहीं लेना चिंताजनक था।राजा अंग ने सदस्य से पूछा कि क्या उनका कोई अपराध है, तो सदस्यों ने कहा कि पूर्वजन्म का एक अपराध है, जिसके कारण वह पुत्रहीन हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि राजा को पहले पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ करना चाहिए, जिससे देवता खुद यज्ञ में भाग लेंगे। राजा अंग ने यज्ञ किया और अग्नि में आहुति डालते ही एक दिव्य पुरुष प्रकट हुए, जिन्होंने राजा को सिद्ध खीर दी। राजा ने वह खीर अपनी पत्नी को दी, जिससे रानी गर्भ धारण कर एक पुत्र को जन्म दिया। वह बालक वेन बाल्यावस्थासे ही अधर्मके वंशमें उत्पन्न हुए अपने नाना मृत्युका अनुगामी था (सुनीथा मृत्युकी ही पुत्री थी); इसलिये वह भी अधार्मिक ही हुआ । वह दुष्ट वेन धनुष-बाण चढ़ाकर वनमें जाता और व्याधके समान बेचारे भोले-भाले हरिणोंकी हत्या करता। उसे देखते ही पुरवासीलोग ‘वेन आया! वेन आया!’ कहकर पुकार उठते। वह ऐसा क्रूर और निर्दयी था कि मैदानमें खेलते हुए अपनी बराबरीके बालकोंको पशुओंकी भाँति बलात् मार डालता। वेनकी ऐसी दुष्ट प्रकृति देखकर महाराज अंगने उसे तरह-तरहसे सुधारनेकी चेष्टा की; परन्तु वे उसे सुमार्गपर लानेमें समर्थ न हुए। इससे उन्हें बड़ा ही दुःख हुआ । (वे मन-ही-मन कहने लगे-) ‘जिन गृहस्थोंके पुत्र नहीं हैं, उन्होंने अवश्य ही पूर्वजन्ममें श्रीहरिकी आराधना की होगी; इसीसे उन्हें कुपूतकी करतूतोंसे होनेवाले असहा क्लेश नहीं सहने पड़ते। जिसकी करनीसे माता-पिताका सारा सयश मिटीमें मिल जाय, उन्हें अधर्मका भागी होना पडे, सबसे विरोध हो जाय, कभी न छटनेवाली चिन्ता मोल लेनी पड़े और घर भी दुःखदायी हो जाय—ऐसी नाममात्रकी सन्तानके लिये कौन समझदार पुरुष ललचावेगा? वह तो आत्माके लिये एक प्रकारका मोहमय बन्धन ही है । मैं तो सपूतकी अपेक्षा कुपूतको ही अच्छा समझता हूँ; क्योंकि सपूतको छोड़नेमें बड़ा क्लेश होता है। कुपूत घरको नरक बना देता है, इसलिये उससे सहज ही छुटकारा हो जाता है’।
इस प्रकार सोचते-सोचते महाराज अंगको रातमें नींद नहीं आयी। उनका चित्त गृहस्थीसे विरक्त हो गया। वे आधी रातके समय बिछौनेसे उठे। इस समय वेनकी माता नींदमें बेसुध पड़ी थी। राजाने सबका मोह छोड़ दिया और उसी समय किसीको भी मालूम न हो, इस प्रकार चुपचाप उस महान् ऐश्वर्यसे भरे राजमहलसे निकलकर वनको चल दिये । महाराज विरक्त होकर घरसे निकल गये हैं, यह जानकर सभी प्रजाजन, पुरोहित, मन्त्री और सुहृद्गण आदि अत्यन्त शोकाकुल होकर पृथ्वीपर उनकी खोज करने लगे। जब उन्हें अपने स्वामीका कहीं पता न लगा, तब वे निराश होकर नगरमें लौट आये और वहाँ जो मुनिजन एकत्रित हुए थे, उन्हें यथावत् प्रणाम करके उन्होंने आँखोंमें आँसू भरकर महाराजके न मिलनेका वृत्तान्त सुनाया।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 1.11.2024