श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 4 अध्याय: 7 से 9
महारानी शतरूपा और स्वायम्भुव मनु के दो पुत्र हुए: प्रियव्रत और उत्तानपाद। ये दोनों संसार की रक्षा में तत्पर रहते थे। उत्तानपाद की दो पत्नियाँ थीं: सुनीति और सुरुचि। सुरुचि राजा को अधिक प्रिय थी, जबकि सुनीति, जिनका पुत्र ध्रुव था, उन्हें वैसी प्रियता नहीं मिली। एक बार राजा उत्तानपाद अपने और सुरुचि के बेटे उत्तम को गोद में बैठाकर प्यार कर रहे थे। इसी दौरान ध्रुव ने भी गोद में बैठने की इच्छा जताई, लेकिन राजा ने उसे नहीं बिठाया। तब सुरुचि, जो घमंड से भरी हुई थी, ने ध्रुव को ताने मारते हुए कहा, "बच्चे! तू राजसिंहासनपर बैठनेका अधिकारी नहीं है। तू भी राजाका ही बेटा है, परंतु तुझको मैंने तो अपनी कोखमें नहीं धारण किया। तू अभी नादान है, तुझे पता नहीं है कि तने किसी दूसरी स्त्रीके गर्भसे जन्म लिया है; तभी तो ऐसे दुर्लभ विषयकी इच्छा कर रहा है । यदि तुझे राजसिंहासनकी इच्छा है तो तपस्या करके परम पुरुष श्रीनारायणकी आराधना कर और उनकी कृपासे मेरे गर्भमें आकर जन्म ले।"
सौतेली माँ के इन कठोर शब्दों से ध्रुव को बहुत गुस्सा आया, लेकिन उसके पिता चुपचाप सब देखते रहे। ध्रुव को कोई सहारा नहीं मिला, तो वह रोता हुआ अपनी माँ सुनीति के पास गया। सुनीति ने उसे गोद में उठा लिया। जब सुनीति ने महल के लोगों से सुरुचि की कही बातें सुनीं, तो उसे भी बहुत दुःख हुआ। वह उदास हो गई, और उसकी आँखों में आँसू आ गए। सुनीति अपने दुःख का कोई अंत नहीं देख पाती। उसने गहरी साँस लेते हुए ध्रुव से कहा, "बेटा, दूसरों के लिए बुरा मत सोच। जो दूसरों को दुःख देता है, उसे उसका फल खुद भुगतना पड़ता है। सुरुचि ने जो कहा, वह सही है, क्योंकि महाराजको मुझे पत्नी तो क्या, दासी स्वीकार करनेमें भी लज्जा आती है। तूने मुझ मन्दभागिनीके गर्भसे ही जन्म लिया है और मेरे ही दूधसे तू पला है, इसीलिए शायद तेरे लिए ऐसी बातें कही जा रही हैं। यदि तुझे राजसिंहासन चाहिए, तो अपनी सौतेली माँ की बात को मन से लगाकर दुखी मत हो, बल्कि श्रीहरि की शरण में जा। वे ही तेरे हर कष्ट को दूर करेंगे। तेरे परदादा ब्रह्माजी को भी वही ऊँचा पद मिला, जो आज सभी योगियों के लिए आदर्श है, और तेरे दादा मनुजी ने भी उन्हीं भगवान की आराधना करके अद्भुत सुख पाया। बेटा, तू भी श्रीहरि की भक्ति कर। जिनका आश्रय लेकर जीव जन्म-मृत्यु के बंधन से छूट सकते हैं, उन्हीं के चरणों में अपनी आशा रख। अपने मन को शुद्ध कर, केवल श्रीहरि का ध्यान कर। मुझे तो वही कमल नेत्रों वाले श्रीहरि ही तेरे दुःख को दूर करने वाले लगते हैं। जिनकी खोज लक्ष्मीजी भी करती हैं, वही तेरे सच्चे सहायक हैं।"
माता सुनीति के वचन ध्रुव के मन को सही राह दिखाते हैं, और उनका चित्त शांत हो जाता है। इसके बाद ध्रुव नगर छोड़कर तपस्या के लिए निकल पड़ते हैं। यह सब समाचार सुनकर और ध्रुव क्या करना चाहता है, इस बातको जानकर नारदजी वहाँ आये। उन्होंने ध्रुवके मस्तकपर अपना कर-कमल फेरते हुए मन-ही-मन विस्मित होकर कहा । ‘अहो! क्षत्रियोंका कैसा अद्भुत तेज है, वे थोड़ा-सा भी मान-भंग नहीं सह सकते। देखो, अभी तो यह नन्हा-सा बच्चा है; तो भी इसके हृदयमें सौतेली माताके कटु वचन घर कर गये हैं’। नारदजी ध्रुव से कहते हैं, "बेटा, तू अभी बच्चा है और तेरी उम्र खेल-कूद की है। इस उम्र में सम्मान-अपमान की चिंता क्यों? मान-अपमान का कारण सिर्फ मोह है। संसार में हर व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार ही सुख-दुःख या सम्मान-अपमान मिलता है। समझदार व्यक्ति को परिस्थिति जैसी भी हो, उसमें संतुष्ट रहना चाहिए। तू जिस भगवान की कृपा पाने जा रहा है, उन्हें प्रसन्न करना आसान नहीं है। अच्छा होगा कि इस हठ को छोड़ दे और घर लौट जा। बड़े होने पर परमार्थ का साधन करना, और वर्तमान परिस्थिति में संतोष रखना सीख। व्यक्ति को अपने से गुणी को देखकर प्रसन्न होना चाहिए, जो कम गुण वाला हो, उस पर दया करनी चाहिए और जो समान गुण वाला हो, उससे मित्रता करनी चाहिए। इस तरह जीने वाला व्यक्ति दुखों से परे रहता है।"
ध्रुव ने कहा, "भगवन्! जिनका मन सुख-दुख से विचलित हो जाता है, उनके लिए आपने शांति का यह उपाय बताकर कृपा की है। लेकिन, मेरे जैसे अज्ञानियों की समझ वहां तक नहीं पहुंचती। साथ ही, मुझे एक घोर क्षत्रिय स्वभाव मिला है, इसलिए मुझमें विनम्रता की कमी है। मेरी सौतेली माँ सुरुचि के कठोर शब्दों ने मेरे दिल को बहुत गहरी चोट पहुंचाई है, इसीलिए आपके उपदेश से मुझे शांति नहीं मिल रही। ब्रह्मन्! मैं उस श्रेष्ठ पद को पाना चाहता हूँ जो त्रिलोकी में सबसे ऊँचा है और जिस पर मेरे पूर्वज भी नहीं पहुँच सके। आप मुझे उस तक पहुँचने का कोई उचित मार्ग बताइए। आप ब्रह्माजी के पुत्र हैं और संसार के कल्याण के लिए ही सूर्य के समान त्रिलोकी में विचरण करते हैं।" ध्रुव की बात सुनकर नारदजी बहुत प्रसन्न होते हैं और उस पर कृपा करते हुए उसे उपदेश देते हैं। श्रीनारदजी कहते हैं, "बेटा! तेरी माता सुनीति ने जो कुछ बताया है, वही तेरे लिए सबसे कल्याणकारी मार्ग है। भगवान वासुदेव ही सब समस्याओं का समाधान हैं, इसलिए तू मन को एकाग्र करके उन्हीं का भजन कर।"
धर्मार्थकाममोक्षाख्यं य इच्छेत् श्रेय आत्मनः ।
एकं ह्येव हरेस्तत्र कारणं पादसेवनम् ॥
जिस पुरुषको अपने लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थकी अभिलाषा हो, उसके लिये उनकी प्राप्तिका उपाय एकमात्र श्रीहरिके चरणोंका सेवन ही है । (भागवत 4.8.41)
"बेटा! तेरा कल्याण होगा। अब तू यमुना जी के किनारे स्थित पवित्र मधुवन में जा, जहां श्रीहरि का नित्य निवास है। वहां, श्रीकालिंदी के निर्मल जल में दिन के तीनों समय स्नान कर और नित्यकर्म से निवृत्त होकर, यथाविधि आसन बिछा कर स्थिर भाव से बैठ। फिर धीरे-धीरे तीन प्रकार के प्राणायाम—रेचक, पूरक, और कुम्भक—से प्राण, मन और इन्द्रियों के दोषों को शांत कर धैर्यपूर्वक भगवान का रूपध्यान कर। इस प्रकार श्रीहरि की मंगलमयी मूर्ति का निरंतर ध्यान करने से मन शीघ्र ही परमानंद में लीन हो जाता है और फिर संसार की ओर नहीं भटकता।" इस ध्यानके साथ जिस परम गुह्य मन्त्रका जप करना चाहिये, वह भी बतलाता हूँ सुन। इसका सात रात जप करनेसे मनुष्य आकाशमें विचरनेवाले सिद्धोंकादर्शन कर सकता है। वह मन्त्र है— 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय'। किस देश और किस कालमें कौन वस्तु उपयोगी है—इसका विचार करके बुद्धिमान पुरुषको इस मन्त्रके द्वारा तरह-तरहकी सामग्रियोंसे भगवान्की द्रव्यमयी पूजा करनी चाहिये। इसके सिवा श्रीहरि अपनी अनिर्वचनाया मायाके द्वारा अपनी ही इच्छासे अवतार लेकर जो-जो मनोहर चरित्र करनेवाले हैं, उनका मन-ही-मन चिन्तन करता रहे।
एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् ।
परिचर्यमाणो भगवान् भक्तिमत्परिचर्यया ॥
पुंसां अमायिनां सम्यक् भजतां भाववर्धनः ।
श्रेयो दिशत्यभिमतं यद्धर्मादिषु देहिनाम् ॥
इस प्रकार जब हृदयस्थित हरिका मन, वाणी और शरीरसे भक्तिपूर्वक पूजन किया जाता है, तब वे निश्छलभावसे भलीभाँति भजन करनेवाले अपने भक्तोंके भावको बढ़ा देते हैं और उन्हें उनकी इच्छाके अनुसार धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षरूप कल्याण प्रदान करते हैं । (भागवत 4.8.59-60)
नारदजीसे इस प्रकार उपदेश पाकर राजकुमार ध्रुवने परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर उन्होंने भगवान्के चरणचिह्नोंसे अंकित परम पवित्र मधुवनकी यात्रा की। ध्रुवके तपोवनकी ओर चले जानेपर नारदजी महाराज उत्तानपादके महलमें पहुँचे। राजाने उनकी यथायोग्य उपचारोंसे पूजा की; तब उन्होंने आरामसे आसनपर बैठकर राजासे पूछा–राजन्! तुम्हारा मुख सूखा हुआ है, तुम बड़ी देरसे किस सोचविचारमें पड़े हो? तुम्हारे धर्म, अर्थ और काममेंसे किसीमें कोई कमी तो नहीं आ गयी? राजाने कहा-ब्रह्मन्! मैं बड़ा ही स्त्रैण और निर्दय हूँ। हाय, मैंने अपने पाँच वर्षके नन्हेसे बच्चेको उसकी माताके साथ घरसे निकाल दिया। मुनिवर! वह बड़ा ही बुद्धिमान् था । उसका कमल-सा मुख भूखसे कुम्हला गया होगा, वह थककर कहीं रास्तेमें पड़ गया होगा। ब्रह्मन्! उस असहाय बच्चेको वनमें कहीं भेड़िये न खा जाय। अहो! मैं कैसा स्त्रीका गुलाम हूँ! मेरी कुटिलता तो देखिये—वह बालक प्रेमवश मेरी गोदमें चढना चाहता था, किन्तु मुझ दुष्टने उसका तनिक भी आदर नहीं किया। नारदजी ने राजा से कहा, "राजन्! तुम अपने बेटे की चिंता मत करो। उसकी रक्षा स्वयं भगवान कर रहे हैं। तुम्हें उसके महान गुणों का अभी पता नहीं है—उसका यश पूरे संसार में फैल रहा है। वह बालक बहुत समर्थ है। जो काम बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सके, वह उसे पूरा करके जल्दी ही तुम्हारे पास लौट आएगा। उसकी वजह से तुम्हारा भी यश बढ़ेगा।" नारदजी की बात सुनकर महाराज उत्तानपाद अपने राजपाट से उदासीन होकर केवल अपने पुत्र की चिंता में रहने लगे।
इधर, ध्रुव मधुवन पहुँचकर यमुना जी में स्नान करते हैं और उसी रात को पवित्रता से उपवास रखकर, नारदजी के उपदेशानुसार एकाग्रचित्त होकर भगवान श्रीनारायण की उपासना शुरू कर देते हैं। पहले महीने में, वे तीन-तीन दिन के बाद केवल कैथ और बेर के फल खाकर भगवान की उपासना करते हैं। दूसरे महीने में, छह-छह दिन बाद सूखी घास और पत्ते खाकर भजन करते हैं। तीसरे महीने में, नौ-नौ दिन बाद केवल जल पीकर ध्यानयोग करते हैं। चौथे महीने में, वे बारह-बारह दिन बाद केवल वायु लेकर साधना करते हैं। पाँचवें महीने में, ध्रुवजी एक पैर पर खड़े होकर श्वास पर नियंत्रण रखते हुए परब्रह्म का ध्यान करने लगते हैं। ध्रुव का ध्यान इतना गहन होता है कि उनके तप से तीनों लोक काँपने लगते हैं। जब वे एक पैर पर खड़े होते हैं, तो उनके अंगूठे के दबाव से आधी पृथ्वी झुक जाती है, जैसे किसी हाथी के चढ़ने पर नाव डगमगाने लगती है। उनके तप के प्रभाव से वे सभी जीवों के प्राण से एकाकार हो जाते हैं, जिससे सभी जीवों का श्वास-प्रश्वास ठहर जाता है। इस असामान्य घटना से सभी लोक और देवता पीड़ा महसूस करते हैं और भयभीत होकर श्रीहरि की शरण में जाते हैं। देवता श्रीहरि से विनती करते हैं, "भगवन्! समस्त जीवों का श्वास-प्रश्वास एक साथ ही रुक गया है। हमने पहले ऐसा कभी अनुभव नहीं किया। आप सभी की रक्षा करने वाले हैं, कृपया हमें इस संकट से मुक्त कीजिये।"
श्रीभगवान उत्तर देते हैं, "देवताओ, घबराओ मत। उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव अपने चित्त को मुझमें लीन कर चुका है और हम दोनों में एकत्व की स्थिति हो गई है। इसी कारण उसके प्राणनिरोध से सभी का प्राण भी रुक गया है। अब तुम निश्चिंत होकर अपने-अपने लोकों में जाओ, मैं उस बालक को इस कठिन तपस्या से मुक्त कर दूंगा।" भगवान के आश्वासन से देवताओं का डर खत्म हो गया, और वे उन्हें प्रणाम करके स्वर्ग लौट गए। इसके बाद भगवान गरुड़ पर सवार होकर ध्रुवजी को देखने मधुवन आए।
इस समय ध्रुवजी तीव्र योगाभ्यास में लीन थे, और उन्होंने अपने हृदय में भगवान की दिव्य मूर्ति का ध्यान किया। अचानक वह मूर्ति गायब हो गई, जिससे वे घबरा गए। जब उन्होंने अपनी आँखें खोलीं, तो भगवान को अपने सामने खड़ा पाया। ध्रुव को भगवान के दर्शन से बहुत खुशी हुई, और उन्होंने प्रेम में आकर पृथ्वी पर दंडवत किया। वे भगवान को देखते रहे, जैसे उन्हें आँखों से पी लेना चाहते हों या अपने हाथों से पकड़ लेना चाहें। वे हाथ जोड़कर भगवान के सामने खड़े हुए और उनकी स्तुति करना चाहते थे, लेकिन यह नहीं समझ पा रहे थे कि कैसे करें। भगवान हरि उनके मन की बात समझ गए और उन्होंने अपने दिव्य शंख को उनके गाल से छुआ दिया। उस क्षण ध्रुवजी को वेदमयी दिव्यवाणी मिली, और उन्हें जीव और ब्रह्म का स्वरूप समझ में आ गया। उन्होंने अति भक्तिभाव से धैर्यपूर्वक भगवान श्रीहरि की स्तुति किया। ध्रुवजी के स्तुति करने पर भक्तवत्सल भगवान ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा:
"उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजकुमार! मैं तेरे हृदय का संकल्प जानता हूँ। यद्यपि उस पद को प्राप्त करना बहुत कठिन है, फिर भी मैं तुझे वह देता हूँ। तेरा कल्याण हो! जिस तेजोमय अविनाशी लोक को आज तक किसी ने प्राप्त नहीं किया, जो लोक अवान्तर कल्पों तक रहने वाले अन्य लोकों के नाश हो जाने पर भी स्थिर रहता है, और जिसके चक्कर लगाते हुए धर्म, अग्नि, कश्यप, शुक्र और सप्तर्षि हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ। जब तेरे पिता तुझे राजसिंहासन पर बैठाकर वन को चले जाएंगे, तब तू छत्तीस हजार वर्ष तक धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करेगा। तेरी इंद्रियों की शक्ति वैसी की वैसी बनी रहेगी। किसी समय तेरा भाई उत्तम शिकार खेलते हुए मारा जाएगा, और उसकी माता सुरुचि पुत्र प्रेम में पागल होकर उसे वन में खोजती हुई दावानल में प्रवेश कर जाएगी। तू अनेकों बड़े यज्ञों द्वारा मेरा यजन करेगा, और यहाँ उत्तम-उत्तम भोग भोगने के बाद अंत में मेरा स्मरण करेगा। इससे तू अंत में सम्पूर्ण लोकों के वंदनीय और सप्तर्षियों से भी ऊपर मेरे निज धाम को जाएगा, जहाँ पहुँचने पर फिर संसार में लौटकर नहीं आना होता।"
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—बालक ध्रुव को अपना पद प्रदान कर भगवान श्री गरुड़ध्वज अपने लोक को चले गए। प्रभु की चरणसेवा से संकल्पित वस्तु प्राप्त होने के कारण, यद्यपि ध्रुवजी का संकल्प तो समाप्त हो गया, लेकिन उनका मन विशेष रूप से प्रसन्न नहीं हुआ। फिर वे अपने नगर लौट गए। विदुरजी ने पूछा—"ब्रह्मन्! मायापति श्रीहरि का परमपद अत्यन्त दुर्लभ है और वह केवल उनके चरणकमलों की उपासना से ही प्राप्त होता है। ध्रुवजी भी सारासार का पूर्ण विवेक रखते थे, फिर एक ही जन्म में उस परमपद को पा लेने पर भी उन्होंने अपने को अकृतार्थ क्यों समझा?"
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—ध्रुवजी का हृदय अपनी सौतेली माता के कटु वाक्य से प्रभावित हो गया था, और वर मांगने के समय भी उन्होंने उनका स्मरण किया था। इसलिए उन्होंने मुक्तिदाता श्रीहरि से मुक्ति नहीं मांगी। अब जब भगवद्दर्शन से उनका मनोमालिन्य दूर हो गया, तो उन्हें अपनी इस भूल का पछतावा हुआ। ध्रुवजी मन ही मन कहने लगे—"अहो! सनकादि ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) सिद्ध भी जिन भगवच्चरणों को समाधि द्वारा अनेकों जन्मों में प्राप्त कर पाते हैं, मैंने तो उन्हें छह महीने में ही पा लिया, लेकिन मन में दूसरी इच्छाएं रहने के कारण मैं उनसे दूर हो गया। अहो! मेरी मूर्खता देखो, मैंने संसार के बंधनों को काटने वाले प्रभु के चरणकमलों में पहुँचकर भी नाशवान वस्तुओं की ही याचना की! देवताओं को स्वर्ग भोगने के बाद फिर नीचे गिरना पड़ता है, इसीलिए उन्होंने मेरी बुद्धि को नष्ट कर दिया। तभी मैंने नारदजी की सही बात भी नहीं मानी।हालांकि संसार में आत्मा के सिवा और कोई नहीं है, फिर भी जैसे सोया हुआ मनुष्य अपने ही कल्पना के भय से डरता है, उसी तरह मैंने भी भगवान की माया से मोहित होकर भाई को ही शत्रु मान लिया और व्यर्थ ही द्वेष से जलने लगा। जिन्हें प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है, उन विश्वात्मा श्रीहरि को तपस्या से प्रसन्न करके मैंने जो भी मांगा, वह सब व्यर्थ है, जैसे गतायु व्यक्ति के लिए चिकित्सा व्यर्थ होती है। ओह! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, संसार के बंधनों का नाश करने वाले प्रभु से मैंने संसार ही मांगा। मैं बड़ा ही पुण्यहीन हूँ! जैसे कोई कंगाल चक्रवर्ती सम्राट को प्रसन्न करके उससे चावलों की एक कनी मांगे, उसी तरह मैंने भी आत्मानंद देने वाले श्रीहरि से मूर्खता से व्यर्थ का अभिमान बढ़ाने वाले उच्च पद ही मांगे हैं।”
मैत्रेय उवाच – न वै मुकुन्दस्य पदारविन्दयो रजोजुषस्तात भवादृशा जनाः ।
वाञ्छन्ति तद्दास्यमृतेऽर्थमात्मनो यदृच्छया लब्धमनःसमृद्धयः ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं तात! तुम्हारी तरह जो लोग श्रीमुकुन्दपादारविन्द-मकरन्दके ही मधुकर हैं—जो निरन्तर प्रभुकी चरण-रजका ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने-आप आयी हुई सभी परिस्थितियों में सन्तुष्ट रहता है, वे भगवान्से उनकी सेवाके सिवा अपने लिये और कोई भी पदार्थ नहीं माँगते । (भागवत 4.9.36)
राजा उत्तानपाद ने जब सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा है, तो पहले उन्हें विश्वास नहीं हुआ। लेकिन देवर्षि नारद की बात याद आने पर उनका विश्वास मजबूत हो गया। उन्होंने समाचार लाने वाले को बहुमूल्य हार देकर खुशी जाहिर की और कई ब्राह्मणों और रिश्तेदारों के साथ सुंदर रथ पर नगर के बाहर आए। ध्रुव जब उपवन के पास पहुँचे, तो राजा तुरंत रथ से उतरकर प्रेम से उन्हें गले लगाते हैं। ध्रुव के पवित्र चरणों का स्पर्श पाकर उनके सभी पाप बंधन कट गए थे। राजा ने ध्रुव का सिर सूंघकर आँसुओं से उन्हें नहलाया। ध्रुव ने पिताजी के चरणों में प्रणाम किया और आशीर्वाद प्राप्त कर दोनों माताओं को भी प्रणाम किया। सुरुचि माता ने ध्रुव को गले लगाकर अश्रुपूरित वाणी में आशीर्वाद दिया, “चिरंजीवी रहो।” ध्रुव और उसके भाई उत्तम ने प्रेम से एक-दूसरे को गले लगाया, जिससे उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। ध्रुव की माता सुनीति ने अपने प्रिय पुत्र को गले लगाकर सारा दुःख भूल गई। उत्तानपाद महाराज ने ध्रुव और उत्तम को हथिनी पर बैठाकर हर्ष के साथ राजधानी में प्रवेश किया, जहां सभी लोग उनके भाग्य की सराहना कर रहे थे। ध्रुव ने अपने पिता के महल में प्रवेश किया, जो मणियों से सुसज्जित था, और पिताजी के लाड़-प्यार का आनंद लिया। राजा उत्तानपाद ने ध्रुव के अद्भुत प्रभाव को देखकर आश्चर्य व्यक्त किया। जब ध्रुव तरुण अवस्था में पहुंचे, तो उन्हें पूरे पृथ्वी के राज्य का अभिषेक किया गया। इसके बाद राजा उत्तानपाद ने वृद्धावस्था का अनुभव करते हुए संसार से विरक्त होकर वन की ओर चल दिए।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 28.10.2024