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9- धृतराष्ट्र की मृत्यु, यदुवंश का पतन और कृष्ण का पृथ्वी छोड़ गोलोक जाना

Jul 16th, 2024 | 11 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 1 अध्याय: 13 से 15 

महाभारत युद्ध प्रारंभ होने से पहले ही विदुरजी तीर्थ यात्रा पर निकल गये थे और युद्ध समाप्त होने पर महर्षि मैत्रेयसे आत्माका ज्ञान प्राप्त करके वह हस्तिनापुर लौट आये⁠। उनमें जो कुछ जाननेकी इच्छा थी वह पूर्ण हो गयी थी। 
अपने चाचा विदुरजीको आया देख धर्मराज युधिष्ठिर, धृतराष्ट्र, गान्धारी तथा पाण्डव-परिवारके अन्य सभी नर-नारी उनकी अगवानीके लिये सामने गये⁠। यथायोग्य आलिंगन और प्रणामादिके द्वारा सब उनसे मिले और युधिष्ठिरने आसनपर बैठाकर उनका यथोचित सत्कार किया। जब वे भोजन एवं विश्राम करके सुखपूर्वक आसनपर बैठे थे तब युधिष्ठिरने विनयसे झुककर सबके सामने ही उनसे कहा की आप का हमेशा हमारे ऊपर विशेष स्नेह रहा है। विष एवं लाक्षागृह आदि षड्यंत्रों से बार-बार हमारी रक्षा भी किया है। आप ने कौन-कौन से तीर्थों का दर्शन किया? श्रीकृष्ण की द्वारका भी गये होंगे। वह सब वहाँ कैसे हैं? 

युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर विदुरजीने तीर्थों और यदुवंशियोंके सम्बन्धमें जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया था, सब क्रमसे बतला दिया, केवल यदुवंशके विनाशकी बात नहीं कही ⁠। विदुरजी पाण्डवोंको दुःखी नहीं देख सकते थे⁠। इसलिये उन्होंने यह अप्रिय एवं असह्य घटना पाण्डवोंको नहीं सुनायी; क्योंकि वह तो स्वयं ही प्रकट होनेवाली थी। 

पश्चात वह कुछ दिनोंतक हस्तिनापुरमें ही रहे। विदुरजी तो साक्षात् धर्मराज थे, माण्डव्य ऋषिके शापसे ये सौ वर्षके लिये दासी पुत्र बन गये थे⁠। 


उन्होंने देखा की राज्य प्राप्त होनेपर राजा युधिष्ठिर एवं पाण्डव गृहस्थके काम-धंधोंमें रम गये और उन्हींके पीछे एक प्रकारसे यह बात भूल गये कि अनजानमें ही हमारा जीवन मृत्युकी ओर जा रहा है। ऐसे में विदुरजीने कालकी गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रसे कहा—‘महाराज! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है, झटपट यहाँसे निकल चलिये। हम सब लोगोंके सिरपर वह सर्वसमर्थ काल मँडराने लगा है, जिसके टालनेका कहीं भी कोई उपाय नहीं है ⁠। कालके वशीभूत होकर जीवका अपने प्राणोंसे भी वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या है। आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे-सम्बन्धी और पुत्र—सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी, शरीर बुढ़ापेका शिकार हो गया, आप पराये घरमें पड़े हुए हैं।'

विदुरजी ने समझते हुए कहा की प्राणीको जीवित रहनेकी कितनी प्रबल इच्छा होती है। इसीके कारण तो आप भीमका दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्तेका-सा जीवन बिता रहे हैं। जिनको आपने आगमें जलानेकी चेष्टा की, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभामें जिनकी विवाहिता पत्नीको अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हींके अन्नसे पले हुए प्राणोंको रखनेमें क्या गौरव है। आपके अज्ञानकी हद हो गयी कि अब भी आप जीना चाहते हैं। परन्तु आपके चाहनेसे क्या होगा; पुराने वस्त्रकी तरह बुढ़ापेसे गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहनेपर भी क्षीण हुआ जा रहा है। अब इस शरीरसे आपका कोई स्वार्थ सधनेवाला नहीं है; इसमें फँसिये मत, इसकी ममताका बन्धन काट डालिये⁠। 

विदुर जी ने कड़वे परंतु सत्य वचन कहे की चाहे अपनी समझसे हो या दूसरेके समझानेसे—जो इस संसारको दुःखरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्तःकरणको वशमें करके हृदयमें भगवान्‌को धारणकर संन्यासके लिये घरसे निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है। विदुरजी के समझाने से धृतराष्ट्र का मोह नष्ट हुआ और वह घर छोड़कर निकल पड़े उनके पीछे गांधारी भी गयीं। 

धृतराष्ट्र और गांधारी की मृत्यु कैसे हुई?

युधिष्ठिर ने सुबह जब विदुर, धृतराष्ट्र और गांधारी को नहीं देखा तो संजय से पूछा। संजय भी कुछ नहीं जानते थे वह कुछ नहीं बता पाए और स्वयं भी दुखी हुए। तभी तुम्बूरू के साथ में नारदजी वहाँ पधारे। युधिष्ठिर ने उनसे पूछा तो नारदजी ने बताया, ‘धर्मराज! तुम किसीके लिये शोक मत करो; क्योंकि यह सारा जगत् ईश्वरके वशमें है⁠। सारे लोक और लोकपाल विवश होकर ईश्वरकी ही आज्ञाका पालन कर रहे हैं⁠। वही एक प्राणीको दूसरेसे मिलाता है और वही उन्हें अलग करता है। जैसे संसारमें खिलाड़ीकी इच्छासे ही खिलौनोंका संयोग और वियोग होता है, वैसे ही भगवान्‌की इच्छासे ही मनुष्योंका मिलना-बिछुड़ना होता है। इसलिये वे दीन-दुःखी चाचा-चाची असहाय अवस्थामें मेरे बिना कैसे रहेंगे, इस अज्ञानजन्य मनकी विकलताको छोड़ दो। यह पांचभौतिक शरीर काल, कर्म और गुणोंके वशमें है⁠। अजगरके मुँहमें पड़े हुए पुरुषके समान यह पराधीन शरीर दूसरोंकी रक्षा ही क्या कर सकता है। हाथवालोंके बिना हाथवाले, चार पैरवाले पशुओंके बिना पैरवाले और उनमें भी बड़े जीवोंके छोटे जीव आहार हैं⁠। इस प्रकार एक जीव दूसरे जीवके जीवनका कारण हो रहा है। इन समस्त रूपोंमें जीवोंके बाहर और भीतर वही एक स्वयंप्रकाश भगवान्, जो सम्पूर्ण आत्माओंके आत्मा हैं, मायाके द्वारा अनेकों प्रकारसे प्रकट हो रहे हैं; तुम केवल उन्हींको देखो।’

नारदजी ने आगे कहा की समस्त प्राणियोंको जीवनदान देनेवाले वे ही भगवान् इस समय इस पृथ्वीतलपर कालरूपसे अवतीर्ण हुए हैं ⁠।⁠अब वे देवताओंका कार्य पूरा कर चुके हैं⁠। थोड़ा-सा काम और शेष है, उसीके लिये वे रुके हुए हैं⁠। जबतक वे प्रभु यहाँ हैं तबतक तुमलोग भी उनकी प्रतीक्षा करते रहो।

धृतराष्ट्र के बारे में बताते हुए नारदजी ने कहा की हिमालयके दक्षिण भागमें, जहाँ सप्तर्षियोंकी प्रसन्नताके लिये गंगाजीने अलग-अलग सात धाराओंके रूपमें अपनेको सात भागोंमें विभक्त कर दिया है, जिसे ‘सप्तस्रोत’ कहते हैं, वहीं ऋषियोंके आश्रमपर धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गान्धारी और विदुरके साथ गये हैं। वहाँ वे त्रिकाल स्नान और विधिपूर्वक अग्निहोत्र करते हैं⁠। अब उनके चित्तमें किसी प्रकारकी कामना नहीं है, वे केवल जल पीकर शान्तचित्तसे निवास करते हैं ⁠। ⁠प्राणोंको वशमें करके उन्होंने अपनी इन्द्रियोंको विषयोंसे लौटा लिया है⁠। भगवान्‌की धारणासे उनके तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुणके मल नष्ट हो चुके हैं ⁠। समस्त कर्मोंका संन्यास करके वे इस समय ठूँठकी तरह स्थिर होकर बैठे हुए हैं, अतः तुम उनके मार्गमें विघ्नरूप मत बनना। आजसे पाँचवें दिन वे अपने शरीरका परित्याग कर देंगे और वह जलकर भस्म हो जायगा। पतिके मृतदेहको जलते देखकर गान्धारी भी पतिका अनुगमन करती हुई उसी आगमें प्रवेश कर जायँगी ⁠।⁠ विदुरजी अपने भाईका आश्चर्यमय मोक्ष देखकर वहाँसे तीर्थ-सेवनके लिये चले जायँगे। देवर्षि नारद यों कहकर तुम्बुरुके साथ स्वर्गको चले गये⁠।

युधिष्ठिर को अपशकुन होना और अर्जुन का द्वारका से हतास लौटना

कुछ काल के बाद अर्जुन श्रीकृष्ण से मिलने द्वारका गए परंतु बहुत समय बितने पर भी वह वापस नहीं लौटे। इधर युधिष्ठिर को बहुत से अपशकुन दिखने लगे। उन्होंने देखा, कालकी गति बड़ी विकट हो गयी है⁠। जिस समय जो ऋतु होनी चाहिये, उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएँ भी उलटी ही होती हैं⁠। लोग बड़े क्रोधी, लोभी और असत्यपरायण हो गये हैं⁠। अपने जीवन-निर्वाहके लिये लोग पापपूर्ण व्यापार करने लगे हैं ⁠। सारा व्यवहार कपटसे भरा हुआ होता है, यहाँतक कि मित्रतामें भी छल मिला रहता है; पिता-माता, सगे-सम्बन्धी, भाई और पति-पत्नीमें भी झगड़ा-टंटा रहने लगा है ⁠।⁠ यह सब देखकर युधिष्ठिरने अपने छोटे भाई भीमसेनसे कहा ⁠की अर्जुनको हमने द्वारका इसलिये भेजा था कि वह वहाँ जाकर श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैं इसका पता लगा आये और सम्बन्धियोंसे मिल भी आये। तबसे सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अबतक नहीं लौट रहे हैं⁠। मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आनेका क्या कारण है ⁠।कहीं देवर्षि नारदके द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुँचा है, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रहका संवरण करना चाहते हैं? 

युधिष्ठिर ऐसा कह ही रहे थे कि द्वारकासे लौटकर अर्जुन आये। युधिष्ठिरने देखा, अर्जुन इतने आतुर हो रहे हैं जितने पहले कभी नहीं देखे गये थे⁠। मुँह लटका हुआ है, नेत्रोंसे आँसू बह रहे हैं और शरीरमें बिलकुल कान्ति नहीं है⁠। उनको इस रूपमें अपने चरणोंमें पड़ा देखकर युधिष्ठिर घबरा गये⁠। युधिष्ठिरने पूछा की  द्वारकापुरीमें हमारे स्वजन-सम्बन्धी वृष्णिवंशी यादव कुशलसे तो हैं? ⁠ हमारे माननीय नाना शूरसेनजी प्रसन्न हैं? अपने छोटे भाईसहित मामा वसुदेवजी तो कुशलपूर्वक हैं? ⁠उनकी पत्नियाँ हमारी मामी देवकी आदि सातों बहिनें आनन्दसे तो हैं? बलरामजी, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, साम्ब आदि भगवान् श्रीकृष्णके अन्य सब पुत्र भी प्रसन्न हैं न? हमसे अत्यन्त प्रेम करनेवाले वे लोग कभी हमारा कुशल-मंगल भी पूछते हैं? ⁠ भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण अपने स्वजनोंके साथ द्वारकाकी सुधर्मा सभामें सुखपूर्वक विराजते हैं न? ⁠ यह भी बताओ कि तुम स्वयं तो कुशलसे हो न? मुझे तुम श्रीहीन-से दीख रहे हो; वहाँ बहुत दिनोंतक रहे, कहीं तुम्हारे सम्मानमें तो किसी प्रकारकी कमी नहीं हुई? किसीने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया? ⁠कहीं आशासे तुम्हारे पास आये हुए याचकोंको उनकी माँगी हुई वस्तु अथवा अपनी ओरसे कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके भी तुम नहीं दे सके? हो-न-हो अपने श्रीकृष्णसे तुम रहित हो गये हो⁠। इसीसे अपनेको शून्य मान रहे हो⁠। इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं हो सकता, जिससे तुमको इतनी मानसिक पीड़ा हो रही है।

श्री कृष्ण का संसार से चले जाना और यदुवंश का पतन

भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे सखा अर्जुन एक तो पहले ही श्रीकृष्णके विरहसे दुखी हो रहे थे, उसपर राजा युधिष्ठिरने कई प्रकारकी आशंकाएँ करते हुए प्रश्नोंकी झड़ी लगा दी। शोकसे अर्जुनका मुख और हृदय सूख गया था, चेहरा फीका पड़ गया था⁠। वे उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके ध्यानमें ऐसे डूब रहे थे कि बड़े भाईके प्रश्नोंका कुछ भी उत्तर न दे सके। श्रीकृष्णकी आँखोंसे ओझल हो जानेके कारण वे बढ़ी हुई प्रेमजनित उत्कण्ठाके परवश हो रहे थे⁠। रथ हाँकने, टहलने आदिके समय भगवान्‌ने उनके साथ जो मित्रता, अभिन्नहृदयता और प्रेमसे भरे हुए व्यवहार किये थे, उनकी याद-पर-याद आ रही थी। 

बड़े कष्टसे उन्होंने अपने शोकका वेग रोका, हाथसे नेत्रोंके आँसू पोंछे और फिर रुँधे हुए गलेसे अपने बड़े भाई महाराज युधिष्ठिरसे कहा, ‘महाराज! मेरे ममेरे भाई तथा अत्यन्त घनिष्ठ मित्रका रूप धारणकर श्रीकृष्णने मुझे ठग लिया⁠। मेरे जिस प्रबल पराक्रमसे बड़े-बड़े देवता भी आश्चर्यमें डूब जाते थे, उसे श्रीकृष्णने मुझसे छीन लिया। जैसे यह शरीर प्राणसे रहित होनेपर मृतक कहलाता है, वैसे ही उनके क्षणभरके वियोगसे यह संसार अप्रिय दीखने लगता है ⁠।⁠उनके आश्रयसे मैंने बड़े-बड़े पराक्रम किए। उनके प्रतापसे मुझको पाशुपत अस्त्र मिला। और तो क्या, उनकी कृपासे मैं इसी शरीरसे स्वर्गमें गया और देवराज इन्द्रकी सभामें उनके बराबर आधे आसनपर बैठनेका सम्मान मैंने प्राप्त किया। महाराज! यह सब जिनकी महती कृपाका फल था, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णने मुझे आज ठग लिया?’

अर्जुन ने कहा की कौरवोंकी सेना भीष्म-द्रोण आदि से पूर्ण अपार समुद्रके समान दुस्तर थी, परंतु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेले ही रथपर सवार हो मैं उसे पार कर गया⁠। कौरव सेना के सामने मेरे आगे-आगे चलकर वे अपनी दृष्टिसे ही उन महारथीयोंकी आयु, मन, उत्साह और बलको छीन लिया करते थे ⁠।⁠ द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, शल्य और जयद्रथ आदि वीरोंने मुझपर अपने कभी न चूकनेवाले अस्त्र चलाये थे; परंतु जैसे हिरण्यकशिपु आदि दैत्योंके अस्त्र-शस्त्र भगवद्भक्त प्रह्लादका स्पर्श नहीं करते थे, वैसे ही उनके शस्त्रास्त्र मुझे छूतक नहीं सके⁠। श्रेष्ठ पुरुष संसारसे मुक्त होनेके लिये जिनके चरणकमलोंका सेवन करते हैं, अपने-आपतकको दे डालनेवाले उन भगवान्‌को मुझ दुर्बुद्धिने सारथितक बना डाला⁠। जिस समय मेरे घोड़े थक गये थे और मैं रथसे उतरकर पृथ्वीपर खड़ा था, उस समय बड़े-बड़े महारथी शत्रु भी मुझपर प्रहार न कर सके; क्योंकि श्रीकृष्णके प्रभावसे उनकी बुद्धि मारी गयी थी ⁠।⁠

अर्जुन कहते हैं, ‘माधवके उन्मुक्त और मधुर मुसकानसे युक्त, विनोदभरे एवं हृदयस्पर्शी वचन और उनका मुझे ‘पार्थ, अर्जुन, सखा, कुरुनन्दन’ आदि कहकर पुकारना, मुझे याद आनेपर मेरे हृदयमें उथल-पुथल मचा देते हैं।’ आगे अर्जुन बोलते हैं की सोने, बैठने, टहलने और अपने सम्बन्धमें बड़ी-बड़ी बातें करने तथा भोजन आदि करनेमें हम प्रायः एक साथ रहा करते थे⁠। किसी-किसी दिन मैं व्यंग्यसे उन्हें कह बैठता, ‘मित्र! तुम तो बड़े सत्यवादी हो!’ उस समय भी वे अपनी महानुभावताके कारण, जैसे मित्र अपने मित्रका और पिता अपने पुत्रका अपराध सह लेता है उसी प्रकार, मुझ दुर्बुद्धिके अपराधोंको सह लिया करते थे ⁠। 

भगवान्‌से मैं रहित हो जाने से अर्जुन के शक्तियाँ भी धरी की धारी रह गई। वह बताते हैं की कैसे भगवान्‌की पत्नियोंको द्वारकासे अपने साथ लाते हुए मार्गमें दुष्ट गोपोंने उन्हें एक अबलाकी भाँति हरा दिया और वह उनकी रक्षा नहीं कर सका ⁠।अर्जुन कहते हैं, ‘वही मेरा गाण्डीव धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं और वही मैं रथी अर्जुन हूँ, जिसके सामने बड़े-बड़े राजालोग सिर झुकाया करते थे⁠। श्रीकृष्णके बिना ये सब एक ही क्षणमें नहींके समान सारशून्य हो गये।⁠’

आगे का हाल बताते हुए अर्जुन ने कहा की ब्राह्मणोंके शापवश मोहग्रस्त हो कर वारुणी मदिराके पानसे मदोन्मत्त होकर सारे वृष्णिवंशी यादव अपरिचितोंकी भाँति आपसमें ही एक-दूसरेसे भिड़ गये और घूँसोंसे मार-पीट करके सब-के-सब नष्ट हो गये⁠। उनमेंसे केवल चार-पाँच ही बच गये हैं ⁠।⁠ वास्तवमें यह सर्वशक्तिमान् भगवान्‌की ही लीला है कि संसारके प्राणी परस्पर एक-दूसरेका पालन-पोषण भी करते हैं और एक-दूसरेको मार भी डालते हैं ⁠।जिस प्रकार जलचरोंमें बड़े जन्तु छोटोंको, बलवान् दुर्बलोंको एवं बड़े और बलवान् भी परस्पर एक-दूसरेको खा जाते हैं, उसी प्रकार अतिशय बली और बड़े यदुवंशियोंके द्वारा भगवान्‌ने दूसरे राजाओंका संहार कराया⁠। तत्पश्चात् यदुवंशियोंके द्वारा ही एकसे दूसरे यदुवंशीका नाश कराके पूर्णरूपसे पृथ्वीका भार उतार दिया।

सूतजी शौनकजी को कहते हैं की इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेमसे भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका चिन्तन करते-करते अर्जुनकी चित्तवृत्ति अत्यन्त निर्मल हो गयी ⁠।⁠ भक्तिके वेगने उनके हृदयको मथकर उसमेंसे सारे विकारोंको बाहर निकाल दिया ⁠।⁠ उन्हें युद्धके प्रारम्भमें भगवान्‌के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता-ज्ञान पुनः स्मरण हो आया⁠।⁠ ब्रह्मज्ञानकी प्राप्तिसे मायाका आवरण भंग होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी⁠। भगवान्‌के स्वधामगमन और यदुवंशके संहारका वृत्तान्त सुनकर युधिष्ठिरने स्वर्गारोहणका निश्चय किया। 

भगवान् श्रीकृष्णने लोकदृष्टिमें जिस यादव शरीरसे पृथ्वीका भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई काँटेसे काँटा निकालकर फिर दोनोंको फेंक दे⁠। भगवान्‌की दृष्टिमें दोनों ही समान थे ⁠।⁠ जिनकी मधुर लीलाएँ श्रवण करनेयोग्य हैं, उन भगवान् श्रीकृष्णने जब अपने मनुष्यके-से शरीरसे इस पृथ्वीका परित्याग कर दिया, उसी दिन कलियुग ने पृथ्वी में प्रवेश किया।

Summary: JKYog India Online Class- Shreemad Bhagavat Katha [Hindi]- 15.07.2024