श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 2 अध्याय: 3
श्रीमद्भागवत महापुराण के दूसरे स्कन्ध के तीसरे अध्याय में श्रीशुकदेवजी परीक्षित् को बताते हैं कि व्यक्ति को अपनी इच्छाओं के अनुसार किस देवता की पूजा करनी चाहिए। यह पूजा सांसारिक सुखों की प्राप्ति की ओर ले जाती है, इसलिए भक्त और मोक्ष की प्राप्ति की चाह रखने वाले लोग इसमें अधिक रुचि नहीं रखते।
- ब्रहमतेज की इच्छा: बृहस्पति की पूजा करें।
- इंद्रिय शक्ति की इच्छा: इंद्र की पूजा करें।
- संतान की आकांक्षा: प्रजापतियों की पूजा करें।
- लक्ष्मी की इच्छा: मायादेवी की पूजा करें।
- तेज की इच्छा: अग्नि की पूजा करें।
- धन की चाह: वसुयों की पूजा करें।
- वीरता की इच्छा: रुद्रों की पूजा करें।
- स्वर्ग की आकांक्षा: देवताओं की पूजा करें।
- राज्य की इच्छा: विश्वेदेवों की पूजा करें।
- दीर्घायु की चाह: अश्विनी कुमारों की पूजा करें।
- पोषण की इच्छा: पृथ्वी की पूजा करें।
- प्रतिष्ठा की इच्छा: पृथ्वी और आकाश की पूजा करें।
- सौंदर्य की इच्छा: गंधर्वों की पूजा करें।
- सबका स्वामी बनने की इच्छा: ब्रह्मा की पूजा करें।
- यश की चाह: यज्ञपुरुष की पूजा करें।
- खजाने की इच्छा: वरुण की पूजा करें।
- विद्या की आकांक्षा: भगवान शंकर की पूजा करें।
- पति-पत्नी के बीच प्रेम बनाए रखने के लिए: पार्वतीजी की पूजा करें।
- धर्म प्राप्ति की इच्छा: भगवान विष्णु की पूजा करें।
- वंश की रक्षा के लिए: पूर्वजों की पूजा करें।
- वाधाओं को दूर करने के लिए: यक्षों की पूजा करें।
- भोगों की प्राप्ति के लिए: चंद्रमा की पूजा करें।
- निष्कामता के लिए: परमात्मा नारायण की पूजा करें।
उपासना और भक्ति का अंतिम लक्ष्य
इन देवताओं की पूजा करते समय यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि जिस देवता का व्यक्ति जीवनभर पूजता है मरने के बाद उन्हींको प्राप्त करता है। श्री कृष्ण ने गीता में कहा-
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄ न्यान्ति पितृव्रता: |
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ||
जो देवताओं की पूजा करते हैं वे देवताओं के बीच जन्म लेते हैं। जो पित्तरों की पूजा करते हैं वे पितरों की योनियों में जन्म लेते है। भूत-प्रेतों की पूजा करने वाले उन्हीं के बीच जन्म लेते है और केवल मेरे भक्त मेरे धाम में प्रवेश करते हैं। (गीता 9.25)
इसीलिए जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज कहते हैं की एक सच्चा भक्त बोल रहा है-
नहीं चह स्वर्गादिक धाम, नहीं चह बैकुण्ठ ललाम।
चह श्याम प्रेम निष्काम, पुनि चह सेवा अविराम।।
शुकदेवजी आगे कहते हैं-
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ।।
और जो बुद्धिमान् पुरुष है—वह चाहे निष्काम हो, समस्त कामनाओंसे युक्त हो अथवा मोक्ष चाहता हो—उसे तो तीव्र भक्तियोगके द्वारा केवल पुरुषोत्तम भगवान्की ही आराधना करनी चाहिये । (भागवत 2.3.10)
एतावानेव यजतामिह निःश्रेयसोदयः ।
भगवत्यचलो भावो यद् भागवतसङ्गतः ।।
जितने भी उपासक हैं, उनका सबसे बड़ा हित इसीमें है कि वे भगवान्के प्रेमी भक्तोंका संग करके भगवान्में अविचल प्रेम प्राप्त कर लें । (भागवत 2.3.11)
ज्ञानं यदा प्रतिनिवृत्तगुणोर्मिचक्र- मात्मप्रसाद उत यत्र गुणेष्वसङ्गः ।
कैवल्यसम्मतपथस्त्वथ भक्तियोगः को निर्वृतो हरिकथासु रतिं न कुर्यात् ।।
ऐसे पुरुषोंके सत्संगमें जो भगवान की दिव्य लीला-कथाओं का चर्चा होता है उससे दुर्लभ ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान के माध्यम से माया द्वारा निर्मित त्रिगुणमयी भ्रम का अंधकार दूर होता है। हृदय शुद्ध होता है, आसक्ति मिट जाती है, आनंद का अनुभव होता है, और भक्तियोग प्राप्त हो जाता है। भगवान की ऐसी रसमयी कथाओंका चस्का लग जानेपर भला कौन ऐसा है, जो उनमें प्रेम न करे? (भागवत 2.3.12)
सांसारिक जीवन की निरर्थकता
शुकदेवजी और परीक्षित के बीच इस वार्तालाप को सुनने के बाद, शौनकजी सूतजी से पूछते हैं, "राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से और क्या पूछा?" प्रश्न पूछकर वह स्वयं भगवान की लीला-कथा श्रवण और भक्तों के संग की महिमा का गुणगान करने लगते हैं।
वह कहते हैं कि संतों की सभा में भगवान की मधुर लीला कथाओं का वर्णन किया जाता है, जिनका श्रवण अत्यंत शुभ होता है। राजा परीक्षित् बड़े भगवद्भक्त थे। बाल्यावस्थामें खिलौनोंसे खेलते समय भी वे श्रीकृष्णलीलाका ही रस लेते थे। भगवन्मय श्रीशुकदेवजी भी जन्मसे ही भगवत्परायण हैं। ऐसे संतोंके सत्संगमें भगवान्के मंगलमय गुणोंकी दिव्य चर्चा अवश्य ही हुई होगी । जिसका समय भगवान् श्रीकृष्णके गुणोंके गान अथवा श्रवणमें व्यतीत हो रहा है, उसके अतिरिक्त सभी मनुष्योंकी आयु व्यर्थ जा रही है। श्रीकृष्ण की गुणगान करना या सुनना ही वास्तव में सार्थक जीवन है। सूर्य प्रतिदिन उदय और अस्त होते हुए लोगों के जीवन को धीरे-धीरे कम करता जाता है। शौनकजी प्रश्न करते हैं, "क्या पेड़ नहीं जीते हैं? क्या लोहार की धौंकनी सांस नहीं लेती? क्या गांव के अन्य पालतू जानवर मनुष्यों की तरह खाते-पीते या प्रजनन नहीं करते?" वह आगे इस निरर्थकता की तुलना करते हुए कहते हैं:
- कान: जो व्यक्ति कभी भगवान श्रीकृष्ण की कथाएँ नहीं सुनता, उसके कान सांप के बिलों के समान हैं।
- जीभ: वह जीभ जो भगवान की लीलाओं की महिमा का गान नहीं करती, वह मेंढक की टर्र-टर्र करने वाली जीभ के समान है; उसका अस्तित्व न होना ही बेहतर है।
- सिर: वह सिर जो भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में कभी नहीं झुकता, वह केवल एक बोझ है, चाहे वह रेशम और मुकुट से अलंकृत ही क्यों न हो।
- हाथ: जो हाथ भगवान की सेवा या पूजा नहीं करते, वे मृत हाथों के समान हैं, भले ही वे सोने की चूड़ियों से सजे हों।
- आंखें: जो आंखें भगवान के रूप, पवित्र स्थलों या नदियों को नहीं देखतीं, वे मोर के पंखों पर बने आंखों के चिह्नके के समान बेकार हैं।
- पांव: जो पांव भगवान की लीला स्थलियों पर नहीं जाते, वे पेड़ों के समान हैं, जो, चलने की शक्ति रखने के बावजूद, स्थिर रहते हैं।
- संतों के चरणों की धूल: जिसने कभी भगवान के भक्त संतों के चरणों की धूल अपने सिर पर नहीं रखी, वह जीवित रहते हुए भी मृत है।
- तुलसी की सुगंध: जो व्यक्ति भगवान के चरणों में अर्पित तुलसी पत्तों की सुगंध को नहीं सराहता, वह ऐसा है जैसे सांस लेते हुए भी निष्प्राण हो।
शौनकजी निष्कर्ष में कहते हैं, "हे सूतजी! जो भगवान्के मंगलमय नामोंका श्रवण-कीर्तन करनेपर भी पिघलकर उन्हींकी ओर बह नहीं जाता, वह वास्तव में हृदय नहीं है बल्कि केवल लोहे का टुकड़ा है। जब हृदय पिघलता है, तो आंखों से आंसू बहने लगते हैं, और शरीर का हर रोमकूप दिव्य आनंद से जीवंत हो उठता है। जिस समय हृदय पिघल जाता है, उस समय नेत्रोंमें आँसू छलकने लगते हैं और शरीरका रोम-रोम खिल उठता है। प्रिय सूतजी! आपकी वाणी हमारे हृदयको मधुरतासे भर देती है। इसलिये भगवान्के परम भक्त, श्रीशुकदेवजीने परीक्षित्के सुन्दर प्रश्न करनेपर जो कुछ कहा, वह संवाद आप कृपा करके हमलोगोंको सुनाइये।"
शिव-पार्वती संवाद: रामचरितमानस
गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' के बालकांड में इन भावनाओं को बढ़े कुशलता से शिव-पार्वती संवाद के रूप में समाहित किया है।
तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥1॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
तेसिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥2॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥3॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥4॥
भावार्थ- भगवान शिव माता पार्वती को कहते हैं, “(तुम्हारे मन में कोई शंका नहीं है) फिर भी तुमने इसीलिए वही (पुरानी) शंका की है कि इस प्रसंग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होंने अपने कानों से भगवान की कथा नहीं सुनी, उनके कानों के छिद्र साँप के बिल के समान हैं॥1॥
जिन्होंने अपने नेत्रों से संतों के दर्शन नहीं किए, उनके वे नेत्र मोर के पंखों पर दिखने वाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं, जो श्री हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते॥2॥
जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं, जो जीभ श्री रामचन्द्रजी के गुणों का गान नहीं करती, वह मेंढक की जीभ के समान है॥3॥
वह हृदय वज्र के समान कड़ा और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता। हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी की लीला सुनो, यह देवताओं का कल्याण करने वाली और दैत्यों को विशेष रूप से मोहित करने वाली है॥4॥
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 09.08.2024