श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 4 अध्याय: 5 से 7
महादेवजीने जब देवर्षि नारदके मुखसे सुना कि अपने पिता दक्षसे अपमानित होनेके कारण देवी सतीने प्राण त्याग दिये हैं और उसकी यज्ञवेदीसे प्रकट हुए ऋभुओंने उनके पार्षदोंकी सेनाको मारकर भगा दिया है, तब उन्हें बड ही क्रोध हुआ। उन्होंने क्रोधित होकर अपने होठ चबाते हुए, उग्र रूप धारण किया और अपनी एक जटा उखाड़ ली, जो बिजली और आग की लपट की तरह चमक रही थी। फिर वे अचानक खड़े हुए और ज़ोर से गंभीर अट्टहास करते हुए उस जटा को ज़मीन पर पटक दिया। इससे तुरंत ही एक बहुत बड़ा और लंबाचौड़ा पुरुष उत्पन्न हुआ। उसका शरीर इतना विशाल था कि वह स्वर्ग को छू रहा था। उसकी हजार भुजाएँ थीं, उसका रंग बादल की तरह काला था, और उसकी तीन जलती हुई आँखें सूर्य की तरह चमक रही थीं। उसकी भयानक दाढ़ें थीं, और उसके लाल-लाल बाल अग्नि की लपटों की तरह दिख रहे थे। उसके गले में नरमुंडों की माला थी और हाथों में तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र थे। जब उस पुरुष ने हाथ जोड़कर पूछा, "भगवान! मैं क्या करूँ?" तब भगवान भूतनाथ बोले, "वीर रुद्र! तू मेरा अंश है, इसलिए मेरे पार्षदों का नेता बनकर तुरंत जा और दक्ष और उसके यज्ञ को नष्ट कर दे।" जब भगवान शंकर ने गुस्से में यह आज्ञा दी, तो वीरभद्र ने उनकी परिक्रमा की और चलने को तैयार हो गए। उन्हें लगा कि संसार में कोई भी उनके वेग का सामना नहीं कर सकता और वह सबसे बड़े वीर का भी सामना करने में सक्षम हैं। वह भयंकर सिंहनाद करते हुए, एक भयानक त्रिशूल हाथ में लेकर दक्ष के यज्ञ मंडप की ओर दौड़े। उनका त्रिशूल इतना शक्तिशाली था कि वह मृत्यु को भी नष्ट कर सकता था। भगवान रुद्र के कई सेवक गर्जना करते हुए उनके पीछे-पीछे चल पड़े। उस समय वीरभद्र के पैरों के नूपुर और आभूषण झन-झन की आवाज़ कर रहे थे।
उधर यज्ञशाला में बैठे ऋत्विज, यजमान, सदस्य और अन्य ब्राह्मण व ब्राह्मणियाँ जब उत्तर दिशा की ओर उड़ती हुई धूल को देखते हैं, तो सोचने लगते हैं, "अरे, यह अंधेरा कैसा आ रहा है? यह धूल कहाँ से उठ रही है?" इस समय न तो कोई आँधी चल रही है और न ही लुटेरों की खबरें हैं, अभी गौओं के लौटने का समय भी नहीं हुआ है। फिर यह धूल कहाँ से आई? क्या ऐसा तो नहीं कि संसार का प्रलय आने वाला है? तब दक्ष की पत्नी प्रसूति और अन्य महिलाओं ने घबराकर कहा, "प्रजापति दक्ष ने अपनी सभी बेटियों के सामने बेचारी निर्दोष सती का अपमान किया था। लगता है, यह उसी पाप का फल है। या फिर यह भगवान रुद्र के अनादर का परिणाम है। जब प्रलय का समय आता है, तब भगवान रुद्र अपनी जटाएँ बिखेरकर और शस्त्रों से सुसज्जित भुजाओं को ध्वजाओं की तरह फैलाकर तांडव नृत्य करते हैं। उस समय उनके त्रिशूल के प्रहार से दिशाओं के हाथी भी घायल हो जाते हैं, और उनके मेघगर्जन जैसे भयानक अट्टहास से दिशाएँ फटने लगती हैं। उस समय उनका तेज इतना असहनीय था कि वे अपनी टेढ़ी भौंहों के कारण बेहद खतरनाक दिखाई दे रहे थे, और उनकी भयानक दाढ़ों से तारागण अस्त-व्यस्त हो रहे थे। जो भी व्यक्ति क्रोधित भगवान शंकर को बार-बार क्रोधित करता है, चाहे वह स्वयं विधाता (ब्रह्मा) ही क्यों न हो, क्या उसका कभी कल्याण हो सकता है?"
दक्ष के यज्ञ में बैठे लोग डर के कारण एक-दूसरे की ओर भयभीत नजरों से देख रहे थे और तरह-तरह की बातें कर रहे थे। इतने में ही आकाश और पृथ्वी में हर तरफ से हजारों भयंकर आवाजें सुनाई देने लगीं। उसी समय रुद्र के सेवक दौड़कर यज्ञमंडप को चारों तरफ से घेर लेते हैं। वे सभी तरह-तरह के हथियारों से लैस थे, और उनमें से कुछ बौने, कुछ भूरे, कुछ पीले, और कुछ मगरमच्छ जैसे पेट और मुंह वाले थे। उन्होंने यज्ञशाला को तहस-नहस कर दिया—कुछ ने खंभों को तोड़ा और यज्ञ के पात्रों को फोड़ दिया। कुछ ने अग्नियों को बुझा दिया, कुछ ने यज्ञकुंड में पेशाब किया, और कुछ ने मुनियों और स्त्रियों को डराया।
वीरभद्र ने दक्ष को कैद कर लिया, और बाकी सेवकों ने ऋषियों और देवताओं को पकड़ लिया। भगवान शंकर के सेवकों की इस भयानक हरकत से डरकर वहाँ जितने भी ऋषि, सदस्य, और देवता थे, सभी भाग गए। भृगुजी हवन कर रहे थे, और वीरभद्र ने उनकी दाढ़ी और मूंछें नोंच लीं, क्योंकि उन्होंने प्रजापतियों की सभा में महादेवजी का उपहास किया था। फिर क्रोधित होकर वीरभद्र ने भग देवता को ज़मीन पर पटक दिया और उनकी आँखें निकाल लीं, क्योंकि जब दक्ष महादेवजी को शाप दे रहे थे, तब भग देवता ने उन्हें उकसाया था। इसके बाद वीरभद्र ने पूषा के दांत तोड़ दिए, क्योंकि जब दक्ष ने महादेवजी को गालियाँ दी थीं, तब पूषा दांत दिखाकर हंसे थे। इसके बाद, वीरभद्र दक्ष की छाती पर बैठकर तलवार से उनका सिर काटने लगे, लेकिन बहुत कोशिश के बाद भी उनका सिर धड़ से अलग नहीं कर सके। जब कोई भी अस्त्र-शस्त्र दक्ष की त्वचा को काट नहीं सका, तब वीरभद्र हैरान हो गए और विचार करने लगे। फिर उन्होंने यज्ञ मंडप में यज्ञपशुओं को जिस प्रकार मारा जाता था, उसी प्रकार यजमान दक्ष का सिर धड़ से अलग कर दिया। यह देखकर भूत, प्रेत और पिशाचों ने वीरभद्र की प्रशंसा की, लेकिन दक्ष के समर्थकों में हाहाकार मच गया। अत्यंत क्रोध में आकर वीरभद्र ने दक्ष का सिर यज्ञ की अग्नि में डाल दिया और यज्ञशाला में आग लगाकर यज्ञ को नष्ट कर दिया। फिर वे कैलाश पर्वत की ओर लौट गए।
इस प्रकार जब रुद्रके सेवकोंने समस्त देवताओंको हरा दिया और उनके सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग भूत-प्रेतोंके त्रिशूल, पट्टिश, खड्ग, गदा, परिघ औरमुद्गर आदि आयुधोंसे छिन्न-भिन्न हो गये तब वे ऋत्विज् और सदस्योंके सहित बहुत ही डरकर ब्रह्माजीके पास पहुँचे और प्रणाम करके उन्हें सारा वृत्तान्त कह सुनाया। भगवान् ब्रह्माजी और सर्वज्ञ श्रीनारायण पहले से ही जानते थे कि दक्ष के यज्ञ में उत्पात होगा, इसलिए वे वहाँ नहीं गए थे। जब देवताओं ने उन्हें वहाँ की सारी घटनाएँ सुनाईं, तो उन्होंने कहा, "देवताओ! तुम लोगों ने यज्ञ में भगवान शंकर का हिस्सा न देकर बहुत बड़ा अपराध किया है।दक्ष के अपमानजनक शब्दों से पहले ही उनका दिल आहत था, और फिर सतीजी का वियोग भी हो गया। अगर तुम चाहते हो कि यज्ञ फिर से शुरू होकर पूरा हो, तो तुरंत जाकर उनसे अपने अपराधों के लिए माफी माँगो। यदि वह क्रोधित हो गए, तो लोकपालों सहित इन सभी लोकों का बचना असंभव है। भगवान रुद्र परम स्वतंत्र हैं, उनकी शक्ति और स्वरूप को न तो कोई ऋषि-मुनि, न देवता और न स्वयं मैं ही पूरी तरह जानता हूँ, फिर दूसरों की बात ही क्या है। ऐसे में उन्हें शांत करने का उपाय कौन कर सकता है?" ब्रह्माजी ने देवताओं से ऐसा कहकर, प्रजापतियों और पितरों को साथ लिया और अपने लोक से कैलाश की ओर चले।
कैसा है कैलाश पर्वत?
कैलाश पर्वत पर सिद्धि प्राप्त देवता, किन्नर, गंधर्व और अप्सराएँ सदा निवास करते हैं। यह पर्वत मणियों और धातुओं से चमकता है, और यहाँ कई प्रकार के वृक्ष और पौधे हैं, जहाँ जंगली जानवर विचरण करते हैं। यहाँ निर्मल जल के झरने बहते हैं और पक्षियों की मधुर आवाज, मोरों की पुकार, और कल-कल बहते झरनों की ध्वनि से यह पर्वत गूंजता है। विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे, लताएँ और सुगंधित फूल इस पर्वत की शोभा बढ़ाते हैं। सरोवरों में खिले कमल और पक्षियों का कलरव इसे और भी मनोरम बनाते हैं। यहाँ हरिण, वानर, सिंह, और अन्य जंगली जानवर भी घूमते रहते हैं। इस पर्वत के चारों ओर नंदा नदी बहती है, जो सती के स्नान से और भी पवित्र हो गई है। कैलाश की इस अद्भुत सुंदरता को देखकर देवता भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं। देवताओं ने अलका नाम की एक सुंदर नगरी देखी, जो सुगंधित सौगंधिक कमलों से भरी हुई थी। वहाँ नंदा और अलकनंदा नाम की दो पवित्र नदियाँ बहती थीं, जो श्रीहरि के चरणों से और भी पावन हो गई थीं। अलकापुरी में चाँदी, सोने और मणियों से सजे कई विमान थे, जिनमें यक्षों की पत्नियाँ निवास करती थीं। यह नगर बिजली और बादलों से घिरे आकाश जैसा प्रतीत होता था। यक्षराज कुबेर की राजधानी को पीछे छोड़ते हुए देवता सौगंधिक वन में पहुँचे, जहाँ सुंदर कल्पवृक्ष, पक्षियों का कलरव, और सुगंधित वायु यक्षपत्नियों के मन को आकर्षित कर रही थी। वन में कमल से सजे सरोवर और वैदूर्य-मणि की सीढ़ियाँ भी थीं। वहाँ किम्पुरुष भी आनंदित हो रहे थे।
आगे बढ़ने पर देवताओं को एक विशाल वटवृक्ष दिखा, जो सौ योजन ऊँचा और पचहत्तर योजन तक फैला हुआ था। उसकी छाया के कारण वहाँ कभी धूप नहीं लगती थी। उस वृक्ष के नीचे देवताओं ने भगवान शंकर को विराजमान देखा, जो साक्षात् काल के समान थे। भगवान भूतनाथ (शंकर) का स्वरूप बहुत ही शांत और गंभीर था। सनक-सनंदन जैसे सिद्धगण और यक्ष-राक्षसों के स्वामी कुबेर उनकी सेवा में लगे हुए थे। महादेव जी सभी प्राणियों के हितैषी और प्रेमवश सभी का कल्याण करने वाले हैं। वे लोकों के कल्याण के लिए उपासना, एकाग्रता, और समाधि जैसे साधनों का अभ्यास करते रहते हैं। उनका शरीर सन्ध्याकाल के मेघ के समान चमक रहा था, और उन्होंने तपस्वियों के चिह्न जैसे भस्म, दण्ड, जटा, मृगचर्म और मस्तक पर चंद्रमा की कला धारण कर रखी थी। वे एक कुशासन पर बैठे हुए थे, और नारदजी के प्रश्न करने पर सनातन ब्रह्म का उपदेश कर रहे थे। उनका बायां चरण दाएं पैर पर रखा हुआ था, और बायां हाथ घुटने पर था, जिसमें उन्होंने रुद्राक्ष की माला धारण कर रखी थी, और तर्कमुद्रा में बैठे थे। वे योगपट्ट का सहारा लिए ब्रह्मानंद का अनुभव कर रहे थे। जब मुनियों और लोकपालों ने मननशीलों में श्रेष्ठ भगवान शंकर को प्रणाम किया, तो वे भी तुरंत श्रीब्रह्माजी को देखकर खड़े हो गए और सिर झुकाकर ब्रह्माजी को प्रणाम किया।
तब ब्रह्माजी महादेव से कहते हैं, "आप ही समस्त जगत के स्वामी और परमब्रह्म हैं। आप शिव-शक्ति के रूप में सृष्टि की रचना, पालन और संहार करते हैं। धर्म और अर्थ की प्राप्ति भी आपके द्वारा ही संभव होती है, और यज्ञ की स्थापना भी आपकी इच्छा से ही हुई है। वर्णाश्रम व्यवस्था आपकी देन है, और इसका पालन करने वाले ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक धर्म का पालन करते हैं। आप शुभ कर्म करने वालों को स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते हैं, जबकि पापकर्म करने वालों को नरक में डालते हैं। जो लोग आपके चरणों में समर्पित रहते हैं और सभी जीवों को समान दृष्टि से देखते हैं, वे क्रोध और द्वेष से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन जो लोग भेदभाव करते हैं और दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं, उनका हृदय अज्ञान से भरा होता है। जो लोग अज्ञानवश अपराध करते हैं, उन पर दया करें, क्योंकि वे पहले ही विधाता द्वारा पीड़ित हैं। दक्षयज्ञ के पुजारियों ने अज्ञानवश आपको यज्ञभाग नहीं दिया, जिसके कारण यज्ञ विध्वंस हो गया।"
ब्रह्माजी महादेव से अनुरोध करते हैं, "कृपा करके यज्ञ को पुनः पूर्ण करें। दक्ष को पुनर्जीवित करें, भगदेवता के नेत्र, भृगुजी की दाढ़ी-मूंछ, और पूषा के दांत वापस कर दें। जिन देवताओं और ऋषियों को चोटें लगी हैं, वे भी ठीक हो जाएं। यज्ञ के बाद जो बचेगा, वह आपका भाग होगा, और आपकी कृपा से यह यज्ञ पूरा होगा।"
ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर भगवान् शंकर ने प्रसन्न होकर कहा, "प्रजापति! दक्ष जैसे अज्ञानियों के अपराध की न तो मैं चर्चा करता हूँ और न उसे याद रखता हूँ। मैंने उन्हें बस चेतावनी देने के लिए हल्का दंड दिया था। अब दक्ष का सिर जल चुका है, इसलिए उन्हें बकरे का सिर लगा दिया जाए। भगदेव मित्रदेवताके नेत्रोंसे अपना यज्ञभाग देखें। पूषा पिसा हुआ अन्न यजमान के दांतों से खाएं, और बाकी देवताओं के अंग फिर से स्वस्थ हो जाएं। जिन याजकों की भुजाएं टूटी हैं, वे अश्विनीकुमारों की भुजाओं से कार्य करें और भृगुजी को बकरे जैसी दाढ़ी-मूंछ मिले।"
फिर वे ब्रह्माजी और अन्य देवताओं के साथ यज्ञशाला में गए। जैसे ही भगवान् शंकर ने कहा था, उसी प्रकार दक्ष के धड़ से यज्ञ पशु का सिर जोड़ दिया गया। भगवान् शिव की दृष्टि पड़ते ही दक्ष सोकर जागने की तरह फिर से जीवित हो गए। जैसे ही उन्होंने सामने भगवान् शंकर को देखा, उनके हृदय से शंकरद्रोह की काली छाया मिट गई और वह स्वच्छ हो गया। दक्ष महादेवजी की स्तुति करना चाहते थे, लेकिन अपनी बेटी सती का स्मरण करते ही उनका हृदय स्नेह और दुख से भर गया। वे कुछ बोल नहीं सके। प्रेम से अभिभूत दक्ष ने किसी तरह शुद्ध हृदय से भगवान् शिव की स्तुति आरंभ की।
दक्ष ने भगवान् शिव से कहा— "भगवन्! मैंने आपका अपराध किया था, लेकिन आपने मुझे दण्ड देकर शिक्षा दी और मुझ पर बहुत बड़ी कृपा की। आप और श्रीहरि तो उन ब्राह्मणों की भी उपेक्षा नहीं करते, जो केवल नाम के ब्राह्मण हैं और आचरणहीन हैं, फिर मुझ जैसे यज्ञ करने वालों को कैसे भूल सकते हैं। प्रभु! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले विद्या, तप और व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मणों की उत्पत्ति की थी ताकि वे आत्मतत्त्व की रक्षा करें, और जैसे एक चरवाहा लाठी से गायों की रक्षा करता है, वैसे ही आप ब्राह्मणों की सभी विपत्तियों से रक्षा करते हैं। मुझे आपके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं था, इसी कारण मैंने भरी सभा में अपने कठोर शब्दों से आपका अपमान किया था। लेकिन आपने मेरे उस अपराध का कोई ध्यान नहीं दिया। मैं तो आपके जैसे पूजनीय महापुरुषों का अपराध करने के कारण नरक में गिरने वाला था, पर आपने अपनी कृपा से मुझे बचा लिया। आज भी मुझमें ऐसा कोई गुण नहीं है जिससे आपको प्रसन्न कर सकूं। केवल आप अपनी उदारता के कारण मुझ पर प्रसन्न हों।"
दक्ष ने भगवान् शिव से क्षमा मांगने के बाद, ब्रह्माजी के कहने पर यज्ञ का कार्य शुरू किया। ब्राह्मणों ने यज्ञ के लिए भगवान् विष्णु को संतुष्ट करने के लिए पुरोडाश का हवन किया। जैसे ही दक्ष ने भगवान् विष्णु का ध्यान किया, भगवान वहाँ प्रकट हो गए। सभी देवता, गन्धर्व और ऋषि-सभी ने भगवान की महिमा का गुणगान किया और उनकी कृपा की प्रार्थना की। भगवान श्रीहरि, जो सभी के भागों के भोक्ता हैं, ने प्रसन्न होकर दक्ष को संबोधित किया।
अहं ब्रह्मा च शर्वश्च जगतः कारणं परम् ।
आत्मेश्वर उपद्रष्टा स्वयं दृगविशेषणः ॥
श्रीभगवानने कहा-जगतका परम कारण मैं ही ब्रह्मा और महादेव हूँ; मैं सबका आत्मा, ईश्वर और साक्षी हूँ तथा स्वयंप्रकाश और उपाधिशून्य हूँ (भागवत 4.7.50)
आत्ममायां समाविश्य सोऽहं गुणमयीं द्विज ।
सृजन् रक्षन् हरन् विश्वं दध्रे संज्ञां क्रियोचिताम् ॥
विप्रवर! अपनी त्रिगुणात्मिका मायाको स्वीकार करके मैं ही जगतकी रचना, पालन और संहार करता रहता हूँ और मैंने ही उन कर्मों के अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर—ये नाम धारण किये हैं । (भागवत 4.7.51)
तस्मिन् ब्रह्मण्यद्वितीये केवले परमात्मनि ।
ब्रह्मरुद्रौ च भूतानि भेदेनाज्ञोऽनुपश्यति ॥
ऐसा जो भेदरहित विशुद्ध परब्रह्मस्वरूप मैं हूँ, उसीमें अज्ञानी पुरुष ब्रह्मा, रुद्र तथा अन्य समस्त जीवोंको विभिन्न रूपसे देखता है | (भागवत 4.7.52)
यथा पुमान्न स्वाङ्गेषु शिरःपाण्यादिषु क्वचित् ।
पारक्यबुद्धिं कुरुते एवं भूतेषु मत्परः ॥
जिस प्रकार मनुष्य अपने सिर, हाथ आदि अंगोंमें ‘ये मुझसे भिन्न हैं’ ऐसी बुद्धि कभी नहीं करता, उसी प्रकार मेरा भक्त प्राणिमात्रको मुझसे भिन्न नहीं देखता । (भागवत 4.7.53)
त्रयाणां एकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम् ।
सर्वभूतात्मनां ब्रह्मन् स शान्तिं अधिगच्छति ॥
ब्रह्मन्! हम ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर–तीनों स्वरूपतः एक ही हैं और हम ही सम्पूर्ण जीवरूप हैं, अतः जो हममें कुछ भी भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है । (भागवत 4.7.54)
दक्ष ने यज्ञ को समाप्त किया। सभी देवताओं ने दक्ष प्रजापति को आशीर्वाद दिया कि "तुम्हारी बुद्धि सदा धर्म में रहे" और फिर स्वर्गलोक को चले गए।
मैत्रेयजी विदुरजी को कहते हैं की दक्ष की बेटी सती ने फिर से हिमालय की पत्नी मेनाका के गर्भ से जन्म लिया और जैसे प्रलय के समय लीन हुई शक्ति सृष्टि के आरम्भ में भगवान का आश्रय लेती है, वैसे ही श्री अम्बिकाजी ने उस जन्म में भी अपने प्रिय भगवान शंकर को ही चुना।
आगे मैत्रेयजी विदुरजी से कहते हैं कि ब्रह्माजी के नैष्ठिक ब्रह्मचारी पुत्रों जैसे सनकादि, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि, और यति ने गृहस्थ जीवन नहीं अपनाया, इसलिए उनके कोई संतान नहीं हुई। अधर्म, जो ब्रह्माजी का पुत्र था, उसकी पत्नी मृषा थी। उनके बेटे का नाम दम्भ और बेटी का नाम माया था। निर्ऋति (मृत्यु, क्षय और दुख का प्रतीक) ने उन्हें ले लिया क्योंकि उनके कोई संतान नहीं थी। दम्भ और माया से लोभ और निकृति (शठता) का जन्म हुआ, और इससे क्रोध, हिंसा, कलि (कलह), और दुरुक्ति (गाली) उत्पन्न हुए। दुरुक्ति से कलि और मृत्यु का जन्म हुआ, जो यातना और नरक का कारण बने। इस तरह, मैंने संक्षेप में प्रलय का कारण रूप अधर्म के वंश का वर्णन किया है। इस अधर्म को छोड़कर पुण्य संचय में मदद मिलती है; इसलिए इसका वर्णन तीन बार सुनने से मनुष्य अपनी मन का मैले दूर कर सकता है।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 21.10.2024