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52- दधीचि का बलिदान, इंद्र-वृत्रासुर युद्ध और प्रायश्चित कथा

Apr 20th, 2025 | 10 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 6 अध्याय: 10-13

भगवान विष्णु के आज्ञा के अनुरूप, देवता ऋषि दधीचि के पास जाकर उनसे उनके शरीर का दान करने की प्रार्थना करते हैं। दधीचि ऋषि पहले समझाते हैं कि मृत्यु का कष्ट अत्यंत पीड़ादायक होता है और शरीर प्रत्येक जीव के लिए अत्यंत प्रिय होता है। देवता उनसे विनम्रतापूर्वक आग्रह करते हैं कि वे महान संत हैं और प्राणियों की भलाई के लिए अपना सर्वस्व देने को तत्पर रहते हैं। वे यह भी स्वीकार करते हैं कि याचक प्रायः स्वार्थी होते हैं और दाता की कठिनाइयों को नहीं समझते, फिर भी उन्हें धर्म और लोककल्याण के लिए अपना शरीर समर्पित करने का अनुरोध करते हैं।

दधीचि ऋषि मुस्कुराकर कहते हैं कि उन्होंने केवल देवताओं के मुख से धर्म की बात सुनने के लिए उनकी याचना को टाल दिया था। वे स्वीकार करते हैं कि यह शरीर एक दिन उन्हें छोड़ ही देगा, तो क्यों न इसे लोककल्याण के लिए समर्पित कर दिया जाए? वे यह भी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने नश्वर शरीर का उपयोग दूसरों की सेवा में नहीं करता, वह जड़ वृक्ष और पौधों से भी हीन है।

महर्षि दधीचि ने दृढ़ निश्चय करके स्वयं को परमात्मा में लीन कर लिया और अपना स्थूल शरीर त्याग दिया। उनकी इंद्रियां, प्राण, मन और बुद्धि पूरी तरह संयमित थीं, और उनकी दृष्टि ब्रह्मज्ञान से ओतप्रोत थी। उन्होंने संसार के सभी बंधनों को त्याग दिया था, इसलिए जब वे पूरी तरह भगवान में एकीकृत हो गए, तो उन्हें अपने शरीर छोड़ने का पता ही न चला।

इन्द्र को भगवान की शक्ति प्राप्त होते ही उनका बल और पराक्रम चरम पर पहुंच गया। विश्वकर्माजी ने महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र बनाया और वह इन्द्र को सौंप दिया। इन्द्र ऐरावत हाथी पर सवार होकर देवताओं की सेना के साथ युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार हो गए। इन्द्र ने पूरे बल के साथ वृत्रासुर पर धावा बोला, जैसे रुद्र स्वयं काल का संहार कर रहे हों।

वृत्रासुर और इंद्र का युद्ध

इस युद्ध का समय वैवस्वत मन्वंतर के प्रथम त्रेतायुग का आरंभ था, और यह भयंकर संग्राम नर्मदा तट पर हुआ। देवताओं की सेना में इन्द्र के साथ रुद्र, वसु, आदित्य, अश्विनीकुमार, अग्नि, मरुद्गण, ऋभुगण, साध्यगण और विश्वेदेव भी थे। दूसरी ओर, वृत्रासुर और दैत्य-दानव सेना पूरी ताकत से मोर्चा संभाले खड़ी थी। नमुचि, शम्बर, अनर्वा, द्विमूर्धा, हयग्रीव, विप्रचित्ति, वृषपर्वा, सुमाली, माली आदि हजारों दैत्य-दानवों ने स्वर्ण-आभूषणों से सुसज्जित होकर देवसेना को रोकने का प्रयास किया। उन्होंने तलवारें, गदाएं, बाण, फरसे, तोमर और शूलों की वर्षा कर दी, जिससे देवताओं का दर्शन तक मुश्किल हो गया—जैसे घने बादलों में तारे छिप जाते हैं।

परंतु, देवताओं ने अपने कौशल से असुरों के सारे अस्त्र-शस्त्र आकाश में ही काट गिराए। जब असुरों के शस्त्र समाप्त हो गए, तो वे पर्वतों की चोटियां, वृक्ष और पत्थर फेंकने लगे, लेकिन देवताओं ने उन्हें भी काट गिराया। जब असुरों ने देखा कि उनकी पूरी शक्ति भी देवताओं पर असर नहीं कर रही, तो वे भयभीत होकर भाग खड़े हुए। अपनी सेना को बिखरता देख वृत्रासुर ने हंसते हुए दैत्यों को रोका और कहा— "असुरों! भागो मत, मेरी बात सुनो। जन्म लेने वाला हर जीव एक न एक दिन मरेगा, यह टालने योग्य नहीं है। यदि युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त करने से स्वर्ग और यश मिलता है, तो कौन बुद्धिमान इसे छोड़ेगा? संसार में दो प्रकार की मृत्यु श्रेष्ठ मानी गई है—
  • योगी पुरुष का अपने प्राणों को वश में करके ब्रह्म में लीन होकर देह त्यागना।
  • युद्धभूमि में वीरता से लड़ते हुए बिना पीठ दिखाए प्राण त्यागना।
तो फिर तुम लोग इस सुनहरे अवसर को क्यों छोड़ रहे हो?"

इतना कहने पर भी असुरसेना भयभीत होकर भाग रही थी, इसपर वृत्रासुर ने असुरों की कायरता पर कटाक्ष करते हुए देवताओं को सीधी चुनौती दी। उसकी गर्जना से देवता मूर्छित होकर गिर पड़े। त्रिशूल लेकर वह देवसेना को कुचलने लगा, जिससे धरती डगमगा उठी। इन्द्र ने गदा से वार किया, लेकिन वृत्रासुर ने उसे खेल-ही-खेल में रोक लिया। फिर, वृत्रासुर ने रणभूमि में अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया और ऐरावत पर जोरदार प्रहार किया, जिससे वह पीछे हट गया और इन्द्र भी विचलित हो गए।

परंतु, युद्धधर्म को समझने वाले वृत्रासुर ने मूर्छित इन्द्र पर वार नहीं किया। इन्द्र ने अपने स्पर्श से ऐरावत को पुनः स्वस्थ किया और फिर युद्ध के लिए तैयार हो गए। वृत्रासुर, इन्द्र को सामने देख क्रोध से भर उठा। उसने अपने भाई विश्वरूप की हत्या को याद कर इन्द्र को दुष्ट और अधर्मी कहकर ललकारा। वह बोला, “तूने मेरे निष्पाप, यज्ञ में दीक्षित, ब्राह्मण भाई का विश्वासघात करके सिर काट डाला। अब मैं अपने त्रिशूल से तेरे कठोर हृदय को विदीर्ण कर अपने भाई का ऋण चुकाऊंगा। तेरी करनी इतनी नीच है कि तुझे स्वर्ग भी नहीं मिलेगा और तेरा नाम भी अपयश में डूब जाएगा।”

वृत्रासुर का अद्भुत आत्मज्ञान

इसके बाद उसने कहा, “इन्द्र! तेरा वज्र श्रीहरि के तेज और दधीचि ऋषि की तपस्या से शक्तिशाली हुआ है। मुझे मारने के लिए विष्णु भगवान ने तुझे आदेश भी दिया है। इसलिए अब बिना संकोच मुझ पर वज्र चला। लेकिन यह वज्र मेरे शरीर को नष्ट नहीं करेगा, बल्कि मेरे विषय-भोग के बंधनों को काटकर मुझे मुक्त करेगा। मैं इस शरीर को त्यागकर मुनियों के चरणों में स्थान प्राप्त करूंगा।”

फिर वृत्रासुर ने भगवत्स्मरण करते हुए प्रार्थना की— “हे प्रभु! मैं स्वर्ग, मोक्ष, ऐश्वर्य कुछ नहीं चाहता। बस आपके चरणों की भक्ति बनी रहे। मेरा मन सदा आपके मंगलमय गुणों का स्मरण करे, मेरी वाणी उन्हीं का गान करे और यह शरीर आपकी सेवा में ही लगा रहे। जैसे पक्षी के पंखहीन बच्चे अपनी मां की बाट जोहते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी मां के पास दौड़ते हैं, वैसे ही मेरा हृदय सदा आपके दर्शन की तड़प में लगा रहे।”

प्रभो! मैं मुक्ति नहीं चाहता। मेरे कर्मोंके फलस्वरूप मुझे बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें भटकना पड़े, इसकी परवा नहीं। परन्तु मैं जहाँ-जहाँ जाऊँ, जिस-जिस योनिमें जन्मूं, वहाँ-वहाँ भगवान्के प्यारे भक्तजनोंसे मेरी प्रेम-मैत्री बनी रहे। स्वामिन्! मैं केवल यही चाहता हूँ कि जो लोग आपकी मायासे देह-गेह और स्त्री-पुत्र आदिमें आसक्त हो रहे हैं, उनके साथ मेरा कभी किसी प्रकारका भी सम्बन्ध न हो।”

वृत्रासुर इन्द्र से युद्ध करते हुए भगवान की प्राप्ति को स्वर्ग से श्रेष्ठ मानता है। वह तीव्र क्रोध में त्रिशूल उठाकर इन्द्र पर टूट पड़ता है, लेकिन इन्द्र अपने वज्र से उसकी एक भुजा काट डालता है। क्रोधित वृत्रासुर इन्द्र की ठोड़ी और ऐरावत पर जोरदार प्रहार करता है, जिससे इन्द्र के हाथ से वज्र गिर जाता है। देवता और असुर पहले उसकी वीरता की प्रशंसा करते हैं, लेकिन इन्द्र के संकट में पड़ते ही घबरा जाते हैं। इन्द्र लज्जित होकर गिरे हुए वज्र को उठाने में संकोच करता है।

तब वृत्रासुरने कहा- “इन्द्र! तुम वज्र उठाकर अपने शत्रुको मार डालो। यह विषाद करनेका समय नहीं है। जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का एकमात्र कारण भगवान हैं। केवल शरीर के बल से कोई सदा विजयी नहीं होता, कभी जीत तो कभी हार होती है। सबकी विजय और पराजय का कारण काल है, जो मनुष्य के बल, इंद्रियों, प्राण और जीवन-मृत्यु को नियंत्रित करता है। जैसे कठपुतलियां नचाने वाले के अधीन होती हैं, वैसे ही सभी प्राणी भगवान के अधीन हैं। बिना उनकी कृपा के कोई भी सृष्टि या संहार नहीं कर सकता। जो यह नहीं समझता कि भगवान ही सबका संचालन कर रहे हैं, वह जीव को ही कर्ता मान लेता है। लेकिन वास्तव में जीव केवल भगवान की इच्छा का माध्यम भर है। जैसे विपरीत समय में बिना इच्छा के भी मृत्यु या अपयश मिलता है, वैसे ही अनुकूल समय में बिना प्रयास के भी यश, धन और ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है। इसलिए सुख-दुःख, जय-पराजय में समभाव रखना चाहिए और हर्ष-शोक के वश में नहीं होना चाहिए। सत्त्व, रज, तम तीनों प्रकृति के गुण हैं, आत्मा उनसे अलग है। जो आत्मा को इनका साक्षी समझता है, वह गुण-दोषों से प्रभावित नहीं होता।”

वृत्रासुर कहता है कि उसका हाथ और शस्त्र कट चुके हैं, फिर भी वह अपनी शक्ति अनुसार इन्द्र का वध करने का प्रयास कर रहा है। युद्ध एक खेल की तरह है, जहां जीवन की बाजी लगी होती है, लेकिन यह पहले से तय नहीं होता कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! वृत्रासुरके ये सत्य एवं निष्कपट वचन सुनकर इन्द्रने उनका आदर किया और अपना वज्र उठा लिया। इसके बाद देवराज इन्द्र आश्चर्यचकित होकर कहते हैं, "दानवराज! तुम वास्तव में सिद्ध पुरुष हो। तुम्हारा धैर्य, निश्चय और भगवद्भाव अद्भुत है। तुमने अनन्य भाव से समस्त प्राणियों के सुहृद, आत्मस्वरूप भगवान की भक्ति की है। निश्चित ही तुमने भगवान की माया को पार कर लिया है, तभी तो असुरों के स्वभाव से ऊपर उठकर महापुरुष बन गए हो। यह आश्चर्यजनक है कि रजोगुणी प्रकृति के होते हुए भी तुम्हारी बुद्धि विशुद्ध सत्त्वस्वरूप भगवान वासुदेव में दृढ़ता से लगी हुई है। जो परम कल्याणस्वरूप श्रीहरि के चरणों में प्रेममय भक्ति रखता है, उसे सांसारिक भोगों की क्या आवश्यकता? जो अमृत के समुद्र में विहार कर रहा हो, उसे छोटे गड्ढों के जल की चाह ही क्यों होगी?"

इस प्रकार इन्द्र और वृत्रासुर धर्मका तत्त्व जाननेकी अभिलाषासे एक-दूसरेके साथ बातचीत करते हुए आपसमें युद्ध करने लगे। वृत्रासुर ने अपने बाएं हाथ से एक विशाल परिघ उठाकर इन्द्र पर प्रहार किया, लेकिन इन्द्र ने अपने वज्र से न केवल उस परिघ को नष्ट कर दिया बल्कि वृत्रासुर की भुजा भी काट डाली। अब वृत्रासुर, विशाल पर्वत के समान, अपनी ठोड़ी को धरती से और ऊपरी होंठ को स्वर्ग से लगाते हुए, भयानक मुख और प्रचंड वेग से इन्द्र की ओर बढ़ा। उसने इन्द्र और उनके वाहन ऐरावत हाथी को ऐसे निगल लिया, जैसे कोई विशाल अजगर हाथी को निगल जाता है।

देवता और महर्षि इसे देखकर भय और शोक में विलाप करने लगे। लेकिन इन्द्र ने नारायण कवच से स्वयं की रक्षा कर रखी थी और योगमाया का बल भी उनके साथ था, इसलिए वे वृत्रासुर के पेट में जाने के बाद भी सुरक्षित रहे। एक वर्षमें वृत्रवधका योग उपस्थित होनेपर घूमते हुए उस तीव्र वेगशाली वज्रने उसकी गरदनको सब ओरसे काटकर भूमिपर गिरा दिया। इस विजय पर आकाश में दुन्दुभियां बज उठीं। महर्षि, गन्धर्व और सिद्धगण इन्द्र की स्तुति करने लगे और पुष्पों की वर्षा हुई। अंत में, वृत्रासुर की आत्मज्योति उसके शरीर से निकलकर इन्द्र और सभी देवताओं के देखते ही देखते परम भगवान में लीन हो गई।

वृत्रवध, ब्रह्महत्या और इन्द्र का प्रायश्चित

श्रीशुकदेवजी बोले—परीक्षित! जब वृत्रासुर के पराक्रम से देवता और ऋषि अत्यंत भयभीत हो गए, तो उन्होंने इन्द्र से उसका वध करने का अनुरोध किया। लेकिन इन्द्र ब्रह्महत्या के दोष से डरकर उसे मारना नहीं चाहते थे। विश्वरूपके वधसे जो ब्रह्महत्या लगी थी, उसे तो स्त्री, पृथ्वी, जल और वृक्षोंने कृपा करके बाँट लिया। अब यदि मैं वृत्रका वध करूँ तो उसकी हत्यासे मेरा छुटकारा कैसे होगा? तब ऋषियोंने उनसे कहा था कि हम अश्वमेध यज्ञ कराकर तुम्हें सारे पापोंसे मुक्त कर देंगे। इस प्रकार ब्राह्मणोंसे प्रेरणा प्राप्त करके देवराज इन्द्रने वृत्रासुर का वध किया था।  अब उसके मारे जानेपर ब्रह्महत्या इन्द्रके पास आयी जिससे उसको भारी क्लेश सहना पड़ा। उन्हें एक क्षण भी शांति नहीं मिली।

उन्होंने देखा कि ब्रह्महत्या चुड़ैल के रूप में उनका पीछा कर रही थी—बूढ़ी, कांपती हुई, क्षयरोग से पीड़ित, खून से सने वस्त्रों में, बिखरे सफेद बालों के साथ "ठहर जा! ठहर जा!" इस प्रकार चिल्लाती आ रही है। उसके श्वासके साथ मछलीकी-सी दुर्गन्ध आ रही है, जिसके कारण मार्ग भी दूषित होता जा रहा है ।

भयभीत इन्द्र दिशाओं और आकाश में भागते रहे, परन्तु कहीं शरण नहीं मिली। अन्ततः उन्होंने पूर्वोत्तर कोने में स्थित मानसरोवर में जाकर शरण ली। वहाँ वे कमलनाल के तन्तुओं में हजार वर्षों तक छिपे रहे। इस दौरान वे भोजन से वंचित रहे, क्योंकि वे अग्निदेव के माध्यम से भोजन करते थे, और अग्नि जल के भीतर प्रवेश नहीं कर सकती थी। इस समय में स्वर्ग के शासन की आवश्यकता को देखते हुए मुनियों ने राजा नहुष को इन्द्र का स्थान दिया। नहुष ने तप, योग और विद्या के बल से शासन किया, परन्तु जब वे ऐश्वर्य के मद में चूर होकर इन्द्राणी शची को अपने अधीन करने लगे, तब शची ने ऋषियों से प्रार्थना कर उन्हें श्राप दिलवाया, जिससे वे सर्प बन गए।

इस बीच, इन्द्र ने भगवान का ध्यान किया, जिससे उनका पाप धीरे-धीरे क्षीण होने लगा। जब ब्राह्मणों ने उनकी स्थिति को समझा, तो वे उन्हें स्वर्ग वापस ले आए और अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा दी। इस यज्ञ के द्वारा इन्द्र ने सर्वदेवस्वरूप पुरुषोत्तम भगवान की आराधना की, जिससे वृत्रवध का भारी पाप नष्ट हो गया, जैसे सूर्योदय से कुहरा समाप्त हो जाता है, जिससे इन्द्र पुनः शुद्ध और पूजनीय हो गए।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 21.03.2025