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54- चित्रकेतु को पार्वती का शाप एवं मरुद्गण की उत्पत्ति की कथा

May 1st, 2025 | 9 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 6 अध्याय: 17-19

चित्रकेतु करोड़ों वर्षों तक सुमेरु पर्वत की घाटियों में तपस्या और विहार करते रहते हैं। उनका शरीर सदैव शक्तिशाली बना रहता है और उनकी इन्द्रियाँ भी अक्षुण्ण रहती हैं। बड़े-बड़े मुनि, सिद्ध और चारण उनकी स्तुति करते हैं, और विद्याधरों की स्त्रियाँ उनके समक्ष भगवान् के गुणों और लीलाओं का गान करती हैं।

एक दिन चित्रकेतु भगवान् के प्रदान किए हुए तेजोमय विमान पर सवार होकर आकाश मार्ग से यात्रा कर रहे होते हैं। तभी उनकी दृष्टि एक अद्भुत दृश्य पर पड़ती है—भगवान् शिव मुनियों और सिद्धों की सभा में विराजमान हैं और उनकी गोद में भगवती पार्वती विराजित हैं। शिवजी एक हाथ से पार्वतीजी का आलिंगन किए बैठे हैं। यह देखकर चित्रकेतु को आश्चर्य होता है। वे विमान से नीचे आए बिना ही जोर से हँसते हैं और व्यंग्य करते हुए कह उठते हैं कि जो समस्त जगत के धर्मगुरु हैं, वे सार्वजनिक सभा में पत्नी को गोद में लेकर बैठे हैं, जैसे कोई साधारण गृहस्थ हो। चित्रकेतु यह भी कहते हैं कि आम मनुष्य भी एकांत में स्त्रियों के साथ व्यवहार करते हैं, पर यहाँ तो खुले सभा में यह दृश्य है।

भगवान् शिव चित्रकेतु की बातों को सुनकर मुस्कुराते हैं, किंतु कुछ उत्तर नहीं देते। सभा में उपस्थित अन्य मुनि और सिद्ध भी मौन रह जाते हैं। चित्रकेतु को शिवजी की महानता और स्थिति का यथार्थ ज्ञान नहीं था, इसलिए वे गर्व में आकर उनका उपहास कर बैठते हैं। यह धृष्टता देखकर भगवती पार्वती क्रोधित हो जाती हैं। वे कहती हैं कि जो धर्मगुरु, जिनका पूजन ब्रह्मा, नारद, सनकादि मुनि जैसे महापुरुष भी करते हैं, उनके प्रति इसने अवज्ञा और तिरस्कार का व्यवहार किया है। इसलिए पार्वतीजी चित्रकेतु को शाप देती हैं कि वे पापमय असुर योनि में जन्म लेंगे, ताकि भविष्य में किसी महापुरुष का फिर अपमान न कर सकें।

श्रीशुकदेवजी परीक्षित् से कहते हैं कि जब पार्वतीजी ने चित्रकेतु को शाप दिया, तब वे आदरपूर्वक विमान से उतर पड़े और सिर झुकाकर पार्वतीजी को प्रसन्न करने का प्रयास करने लगे। चित्रकेतु हाथ जोड़कर विनम्रता से कहते हैं—"माता पार्वतीजी! मैं आपके दिये हुए शाप को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करता हूँ। क्योंकि देवताओं के वचन जीव के प्रारब्ध के फलस्वरूप ही फलीभूत होते हैं। आत्मा न तो स्वयं सुख-दुःख का कर्ता है, न कोई अन्य। यह सब सत्त्व, रज और तम गुणों के प्रवाह से होता है। स्वर्ग, नरक, सुख और दुःख - सब माया के खेल हैं। परमात्मा श्रीहरि सबमें समभाव रखते हैं; वे माया से परे हैं, उनमें न राग है न द्वेष।”

चित्रकेतु यह भी स्पष्ट करते हैं कि वे क्षमा याचना शाप से बचने के लिए नहीं, बल्कि यदि उनके वचनों से कोई अनुचित भावना उत्पन्न हुई हो तो उसके लिए कर रहे हैं। फिर भगवान शिव और पार्वतीजी को संतुष्ट कर वे विमान पर चढ़कर चले जाते हैं। सभा में सभी मुनि और देवगण उनके धैर्य और ज्ञान से चकित रह जाते हैं।

इसके बाद भगवान शिव भगवती पार्वतीजी से कहते हैं कि श्रीहरि के निष्काम भक्तों की महिमा तुमने प्रत्यक्ष देख ली। जो भगवान के शरणागत होते हैं, वे किसी भी परिस्थिति में भयभीत नहीं होते। वे स्वप्नवत संसार के सुख-दुःख, जन्म-मरण को माया का खेल जानकर समदर्शी रहते हैं।ब्रह्मा, सनकादि, नारदजी जैसे बड़े-बड़े मुनि भी भगवान की लीला का पूरा रहस्य नहीं समझ पाते। इसलिए जो अपने को स्वतंत्र ईश्वर मानते हैं, वे तो भगवान के स्वरूप को जान ही नहीं सकते। भगवान श्रीहरि किसी को अपना या पराया नहीं मानते, वे सबके आत्मा हैं और सबके परम प्रिय हैं। चित्रकेतु भी उनके प्रिय भक्त हैं। शिवजी के वचनों को सुनकर पार्वतीजी का क्रोध शांत हो गया। श्रीशुकदेवजी परीक्षित से कहते हैं कि वही चित्रकेतु दानवयोनि में जन्म लेकर वृत्रासुर बने, किन्तु वहाँ भी वे भगवान के ज्ञान और भक्ति में पूर्ण रहे। 

कश्यप और अदिति-दिति की संतानों का वर्णन 

कश्यप की पहली पत्नी अदिति के संतान:
  • अदिति के पुत्र सविता की अपनी पत्नी पृश्नि से आठ संतानें हुईं — सावित्री, व्याहृति, त्रयी, अग्निहोत्र, पशु, सोम, चातुर्मास्य और पंचमहायज्ञ।
  • भग और सिद्धि से तीन पुत्र (महिमा, विभु, प्रभु) और एक कन्या (आशिष) उत्पन्न हुई।
  • धाता की चार पत्नियाँ थीं — कुहू, सिनीवाली, राका और अनुमति; उनसे क्रमशः सायं, दर्श, प्रातः और पूर्णमास नामक पुत्र हुए।
  • विधाता और उनकी पत्नी क्रिया से पुरीष्य नामक पाँच अग्नियों का जन्म हुआ।
  • वरुण और चर्षणी से भृगुजी का पुनर्जन्म हुआ। महायोगी वाल्मीकि भी वरुण के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए।
  • मित्र और वरुण के वीर्य से, घड़े में रखे जाने से, अगस्त्य और वसिष्ठजी का जन्म हुआ।
  • मित्र और रेवती के तीन पुत्र — उत्सर्ग, अरिष्ट और पिप्पल हुए।
  • इन्द्र और शची से तीन पुत्र — जयन्त, ऋषभ और मीढ्वान उत्पन्न हुए।
  • स्वयं भगवान विष्णु ने वामन रूप (उपेंद्र) में अवतार लेकर बलि से तीन पग पृथ्वी माँगी और तीनों लोक नापे। वामनजी की पत्नी कीर्ति से बृहच्छलोक और अन्य संतानें उत्पन्न हुईं।
कश्यप की दूसरी पत्नी दिति के संतान 
  • दिति के दो मुख्य पुत्र — हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष हुए। 
  • हिरण्यकशिपु की पत्नी दानव जम्भ की पुत्री कयाधु थी जिससे उनके चार पुत्र — संह्राद, अनुह्राद, ह्राद और प्रह्राद — तथा एक पुत्री — सिंहिका हुई। सिंहिका का विवाह विप्रचित्ति नामक दानव से हुआ, जिससे राहु का जन्म हुआ। राहु वही है जिसका सिर अमृतपान के समय भगवान ने चक्र से काट दिया था।
  • संह्राद और कृति से पंचजन नामक पुत्र हुआ। ह्राद और धमनि से दो पुत्र — वातापि और इल्वल — उत्पन्न हुए। इल्वल ने महर्षि अगस्त्य के आतिथ्य में वातापि को पकाकर उन्हें खिला दिया था।
  • अनुह्राद और सूर्म्या से दो पुत्र — बाष्कल और महिषासुर — उत्पन्न हुए।
  • प्रह्लाद का पुत्र विरोचन और विरोचन का पुत्र बलि (बलिका) हुआ। 
  • बलि की पत्नी थी अशना, जिससे बाणासुर आदि सौ पुत्र उत्पन्न हुए। बाणासुर ने भगवान शंकर की तपस्या करके उनके गणों का मुखिया बन गया, और आज भी भगवान शंकर उसकी नगरी की रक्षा करते हैं।
  • हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के अतिरिक्त दिति के 49 अन्य पुत्र भी थे — इन्हें मरुद्गण कहते हैं। ये सब निःसंतान रहे और देवराज इन्द्र ने इन्हें देवता बना लिया।

दिति के 49 पुत्र- मरुद्गण की उत्पत्ति की कथा

राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से पूछा कि मरुद्गणों ने ऐसा कौन-सा सत्कर्म किया जिससे वे अपने असुरस्वभाव को छोड़कर देवता बन गये। शुकदेवजी ने उत्तर दिया की भगवान विष्णु ने दिति के दोनों पुत्रों—हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष—का वध कर दिया। इससे दुखी होकर दिति ने निश्चय किया कि वह ऐसा पुत्र उत्पन्न करेगी जो इन्द्र का वध कर सके। उसने अपने पति कश्यपजी की अत्यन्त सेवा की, प्रेम और भक्ति से उन्हें प्रसन्न किया। कश्यपजी उसकी सेवा से मोहित हो गये और उसे वर देने को तैयार हो गये। दिति ने वर माँगा कि उसे ऐसा पुत्र मिले जो इन्द्र का वध कर सके।

कश्यपजी ने भीतर से पछताते हुए सोचा कि यह अधर्म हो जायेगा, पर वचन दे चुके थे। उन्होंने एक उपाय निकाला—उन्होंने दिति को 'पुंसवन व्रत' एक वर्ष तक नियमपूर्वक करने को कहा। उन्होंने कई नियम बताए, जैसे—क्रोध न करना, झूठ न बोलना, अपवित्र वस्तुओं का स्पर्श न करना, संयमित आचरण करना आदि। कश्यपजी ने कहा कि यदि दिति व्रत को विधिपूर्वक पूरा करेगी तो उसे इन्द्र का वध करने वाला पुत्र मिलेगा, पर यदि किसी नियम में त्रुटि हो गयी तो वह पुत्र इन्द्र का मित्र बन जायेगा।

दिति ने कश्यप के वचन अनुसार व्रत लिया और नियमों का पालन करने लगी। देवराज इन्द्र अपनी मौसी दितिका अभिप्राय जान बड़ी बुद्धिमानीसे अपना वेष बदलकर दितिके आश्रमपर आये और उसकी सेवा करने लगे। वे दितिके लिये प्रतिदिन समय-समयपर वनसे फूल-फल, कन्द-मूल, समिधा, कुश, पत्ते, दूब, मिट्टी और जल लाकर उसकी सेवामें समर्पित करते । 

जिस प्रकार बहेलिया हरिनको मारनेके लिये हरिनकी-सी सूरत बनाकर उसके पास जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र भी कपटवेष धारण करके व्रतपरायणा दितिके व्रतपालनकी त्रुटि पकड़नेके लिये उसकी सेवा करने लगे । सर्वदा पैनी दृष्टि रखनेपर भी उन्हें उसके व्रतमें किसी प्रकारकी त्रुटि न मिली और वे पूर्ववत् उसकी सेवा-टहलमें लगे रहे। अब तो इन्द्रको बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे—मैं ऐसा कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो?  

एक दिन, दिति दुर्बल हो गई और विधाता के प्रभाव से उसने सन्ध्या में बिना आचमन और पैर धोए सोने का निर्णय लिया। इस अवसर का लाभ उठाकर इन्द्र ने योगबल से दिति के गर्भ में प्रवेश किया।
चकर्त सप्तधा गर्भं वज्रेण कनकप्रभम्।
रुदन्तं सप्तधैकैकं मा रोदीरिति तान्पुनः ।।
उन्होंने वहाँ जाकर सोनेके समान चमकते हुए गर्भके वज्रके द्वारा सात टुकड़े कर दिये। जब वह गर्भ रोने लगा, तब उन्होंने ‘मत रो, मत रो’ यह कहकर सातों टुकड़ोंमेंसे एक-एकके और भी सात टुकड़े कर दिये। (भागवत 6.18.62)

जब इन्द्र उनके टुकड़े-टुकड़े करने लगे, तब उन सबोंने हाथ जोड़कर इन्द्रसे कहा-‘देवराज! तुम हमें क्यों मार रहे हो? हम तो तुम्हारे भाई मरुद्गण हैं’। तब इन्द्रने अपने भावी अनन्यप्रेमी पार्षद मरुद्गणसे कहा-‘अच्छी बात है, तुमलोग मेरे भाई हो। अब मत डरो!’

शुकदेवजी कहते हैं कि जैसे अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ, वैसे ही भगवान् श्रीहरिकी कृपासे दितिका वह गर्भ वज्रके द्वारा टुकड़े-टुकड़े होनेपर भी मरा नहीं। इसमें तनिक भी आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि जो मनुष्य एक बार भी आदि पुरुष भगवान् नारायणकी आराधना कर लेता है, वह उनकी समानता प्राप्त कर लेता है; फिर दितिने तो कुछ ही दिन कम एक वर्षतक भगवानकी आराधना की थी। अब वे उनचास मरुद्गण इन्द्रके साथ मिलकर पचास हो गये। इन्द्रने भी सौतेली माताके पुत्रोंके साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी देवता बना लिया।

जब दितिकी आँख खुली, तब उसने देखा कि उसके अग्निके समान तेजस्वी उनचास बालक इन्द्रके साथ हैं। इससे दितिको बड़ी प्रसन्नता हुई। दिति ने इन्द्र से पूछा कि मैं इस इच्छासे इस अत्यन्त कठिन व्रतका पालन कर रही थी कि अदितिके पुत्रोंको भयभीत करनेवाला पुत्र उत्पन्न हो। मैंने केवल एक ही पत्रके लिये संकल्प किया था, फिर ये उनचास पुत्र कैसे हो गये?

इन्द्र ने कहा कि मुझे इस बातका पता चल गया था कि तुम किस उद्देश्यसे व्रत कर रही हो। इसीलिये अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके उद्देश्यसे मैं स्वर्ग छोड़कर तुम्हारे पास आया। मेरे मनमें तनिक भी धर्मभावना नहीं थी। इसीसे तुम्हारे व्रतमें त्रुटि होते ही मैंने उस गर्भके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। पहले मैंने उसके सात टुकड़े किये थे। तब वे सातों टुकड़े सात बालक बन गये। इसके बाद मैंने फिर एक-एकके सात-सात टुकड़े कर दिये। तब भी वे न मरे, बल्कि उनचास हो गये। यह परम आश्चर्यमयी घटना देखकर मैंने ऐसा निश्चय किया कि परमपुरुष भगवान्की उपासनाकी यह कोई स्वाभाविक सिद्धि है।
इन्द्र ने दिति से अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी। इसके बाद दिति संतुष्ट हो गई और इन्द्र ने मरुद्गणों के साथ स्वर्ग लौटने का संकल्प किया।

पुंसवन-व्रत की महात्म्य एवं विधि

राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी से पूछा कि पुंसवन-व्रत की विधि क्या है, जिससे भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। श्रीशुकदेवजी ने बताया कि यह व्रत सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाला है। स्त्री को इसे अपने पति की आज्ञा से मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा से शुरू करना चाहिए। व्रत की विधि में पहले ब्राह्मणों से आज्ञा लेकर, प्रतिदिन सुबह स्नान करके श्वेत वस्त्र पहनने, भगवान लक्ष्मी-नारायण की पूजा करने और विभिन्न मंत्रों के साथ पूजा का आयोजन करना होता है। स्तुति के बाद भगवान विष्णु को अर्पित सामग्री और हवन करना चाहिए। इसके बाद भक्तिभाव से भगवान की पूजा करके पति को भगवान समझकर उनके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। यह व्रत समस्त सुख, सम्पत्ति, संतान, और यश प्राप्त करने का कारण बनता है। जो स्त्री इस व्रत का पालन करती है, उसे सुखी जीवन मिलता है। यह व्रत विधवा स्त्रियों के लिए भी पुण्य देने वाला है। रोगियों को यह व्रत स्वास्थ्य और शक्ति प्रदान करता है, और जो व्यक्ति इसे श्रद्धापूर्वक करता है, उसकी सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 28.04.2025