होली का पर्व निष्काम प्रेम और भगवान के सर्वत्र व्याप्त होने का संदेश देता है। इस पर्व के संबंध में भक्त प्रह्लाद से जुड़ी एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा बहुत प्रचलित है। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु नामक दो दैत्य भाई थे जो पूर्व जन्म में सनकादिक कुमारों के श्राप के कारण दैत्य बनकर जन्मे थे। उन दोनों को तीन जन्म तक असुर बनने का श्राप मिला था जिसका उद्धार स्वयं भगवान अवतार लेकर करनेवाले थे। उसिके अनुरूप हिरण्याक्ष को भगवान विष्णु ने वराह अवतार धारण करके मार डाला था। भाई के वध से दुखी हो, विष्णु से बदला लेने के लिए हिरण्यकशिपु घोर तपस्या में संलग्न हो गया। हिरण्यकशिपु को तपस्या में लीन देखकर इंद्र ने दैत्यों पर आक्रमण कर दिया और राजमहल में प्रवेश कर रानी कयाधू को बंदी बना कर अपने साथ ले जाने लगा। कयाधू उस समय गर्भवती थी। इंद्र ने सोचा कि इसके गर्भ में पल रहे दैत्य पुत्रको को पैदा होने से पहले ही खत्म कर कर देना चाहिए। रास्ते में उसे नारद जी मिले। नारद जी ने समझाया कि इसके गर्भ में भगवान का बहुत बड़ा भक्त है, इसे छोड़ दो। इस प्रकार नारद जी कयाधू को इंद्र से छुड़वाकर अपने आश्रम ले आए और गर्भस्थ शिशु को लक्ष्य करके तत्वज्ञान का उपदेश देने लगे। प्रह्लाद को गर्भ में ही संपूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया था।
इधर हिरण्यकशिपु की तपस्या से देवताओं में खलबली मच गई। वे सब ब्रह्मा जी की शरण में गए और उनसे हिरण्यकशिपु के तप का अंत करने की प्रार्थना की। ब्रह्मा जी हिरण्यकशिपु के सामने प्रकट हुए और वर मांगने को कहा। हिरण्यकशीपु ने वर मांगा कि ना उसे कोई मानव मार सके, और ना ही कोई पशु, ना देवता से ना असुर से, ना दानव से ना राक्षस से, ना कोई गंधर्व से, ना स्वयं भगवान से, ना रात और न ही दिन में उसकी मृत्यु हो, उसे कोई भी ना घर के भीतर और ना बाहर मार सके, इतना ही नहीं उसने ये भी मांगा कि ना धरती पर और ना ही आकाश में, ना किसी अस्त्र से और किसी शस्त्र से उसकी मौत हो। वरदान प्राप्त करके वह अपनी राजधानी आ गया। इधर कयाधू भी पुत्र को लेकर राजमहल आ चुकी थी।
प्रह्लाद की आयु पाँच वर्ष की थी। हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद को शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरु पुत्रों के साथ आश्रम भेज दिया। कुछ समय पश्चात प्रह्लाद के लौट आने पर हिरण्यकश्यपु ने उसे गोद में बैठा कर बड़े प्यार से पूछा कि आश्रम में क्या शिक्षा प्राप्त की ? बालक प्रह्लाद ने उत्तर दिया-
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।। (भागवतम् )
प्रह्लाद ने पिता को नवधा भक्ति का ज्ञान दे दिया। अपने शत्रु विष्णु की भक्ति का उपदेश अपने ही पुत्र से सुनते हिरण्यकश्यपु आग बबूला हो उठा। पहले तो समझाने का बहुत प्रयत्न किया परंतु जब प्रह्लाद नहीं माना तो उसको मार डालने के आज्ञा दे दी। किसी तरह गुरु पुत्रों ने हिरण्यकश्यपु को समझाया और एक अवसर देने का अनुरोध किया। इसपर प्रह्लाद को पुनः आश्रम भेज दिया गया। परंतु आश्रम में उन्होंने जोर शोर से दैत्य पुत्रों में ही विष्णु भक्ति का प्रचार कर दिया। प्रह्लाद ने सिखाया-
कौमार अचरत् प्राज्ञो धर्मं भागवतं इह।
दुर्लभम् मानुषम् जन्म तद् अप्य अध्रुवम् अर्थदम्।।
अर्थ: “मनुष्य जीवन बहुत दुर्लव होता है कब छिन् जाय पता नहीं। इसीलिए, छोटी आयु से ही भगवान की भक्ति शुरू करदेनी चाहिए।” अभी क्या उमर है भक्ति करने की, अभी तो पढ़ना है, नौकरी करनी है, जब बूढ़े हो जाएँगे तब करेंगे। ऐसा सोचकर भक्ति नहीं किया तो क्या पता बुढ़ापा आये या ना आये।
अब तो गुरु पुत्रों ने भी हार मान ली और वापस उन्हें राजमहल ले आए। क्रोधित हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद को दैत्यों द्वारा मार डालने की आज्ञा दे दी। उन पर कई प्रकार के शस्त्रों द्वारा आघात किया तब प्रह्लाद ने कहा-
विष्णुः शस्त्रेषु युष्मासौ मयि चासौ व्यवस्थितः ।
दैतेयास्तेन सत्येन माक्रमन्त्वायुधानि च ॥ (विष्णु पुराण)
अर्थ- “मेरे विष्णु संसार में सर्वत्र हैं, वह इन दैत्य में भी हैं, वह इन शस्त्रों में भी हैं, वह मुझ में भी है। यह शस्त्र मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।”
दैत्य आघात करते रहे प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ। पश्चात उन्हें हाथियों से कुचलवाया, सांपों से डसवाया, पहाड़ की चोटी से नीचे गिराया, विष पिलाया अनेक प्रयास किए गए परंतु सब निष्फल हो गए। अंतिम प्रयास स्वरूप हिरण्यकश्यपु ने अपनी बहन होलिका को बुलाया जिसको आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। होलीका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई । प्रह्लाद ने सोचा-
तातैष वह्निः पवनेरितोऽपि
न मां दहव्यत्र समन्ततौऽहम् । (विष्णु पुराण)
अर्थ- “मेरे विष्णु इस अग्नि के कन-कन में है, ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो मेरे ऊपर कमल के फूलों की चादर बिछ गई हो।”
ग़लत प्रयोग करने के कारण होलिका का वरदान निष्फल हुआ। प्रह्लाद को तो अग्नि ने कुछ किया नहीं परंतु होलिका जलकर भस्म हो गई। बुराई पर अच्छाई की जीत, असत्य पर सत्य की जीत हुई। होलिका के अग्नि में जलने को प्रतीक मानकर प्रत्यक वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा की रात्रि को होलीका जलाई जाती है।
जब होलिका भी मर गई, दैत्यों ने यज्ञ में पुरोहितों द्वारा प्रह्लाद को मारने के लिए कृत्य उत्पन्न किया परंतु उस कृत्य ने भी पुरोहितों को ही मार डाला। अपनी भक्ति के प्रभाव से प्रह्लाद ने पुरोहितों को जीवित कर दिया। किसी भी तरह प्रह्लाद का बाल भी बांका ना हुआ। इसका कारण था कि भगवान अपने भक्तों के लिए यह विरद निभाते हैं -
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ (गीता)
अर्थ- “जो लोग सदैव मेरे बारे में सोचते हैं और मेरी अनन्य भक्ति में लीन रहते हैं एवं जिनका मन सदैव मुझमें तल्लीन रहता है, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके स्वामित्व में होता है, उसकी रक्षा करता हूँ।” (
गीता ९.२२
)
गीता ९.२२
)
जब सभी प्रयास असफल हो गए तब हिरण्यकशिपु ने स्वयं प्रह्लाद को मारने का निश्चय किया। हिरण्यकशिपु ने अत्यंत क्रोधित होकर प्रह्लाद से पूछा, "तेरा भगवान कहाँ रहता है?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया “स सर्वत्र” वह सब जगह है, आपके अंदर, मेरे अंदर, घास के तृण में भी है। उसी समय हिरण्यकशिपु ने अपने महल में एक खंबे की ओर इंगित करते हुए प्रह्लाद से पूछा "क्या तेरा भगवान इस खंभे में भी रहता है?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया "जी हाँ इसमें भी रहते हैं "। उस दैत्य ने अपनी गदा से उस खंभे पर प्रहार किया।
कथं स्तम्भे न दृश्यते।
स्तम्भं तताडातिबल: स्वमुष्टिना।। (भागवतम् )
सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान भगवान वहां उस खंभे से प्रकट हुए। आपके शरीर का अर्ध भाग नर समान था एवं शरीर का दूसरा भाग सिंह के समान था। भगवान के इस अवतार को नरसिंह अवतार कहा जाता है। उन्होंने हिरण्यकशिपु को अपनी जँघाऔं पर रखकर अपने तिक्ष्ण नखौं द्वारा उसका वध कर दिया और प्रह्लाद को उसके पिता के कोप से बचा लिया। साथ ही अपने सर्वव्यापी होने का प्रमाण भी दे दिया।
भगवान नरसिंह का स्वरूप बहुत भयंकर था। सब देवता उनको देखकर काँपने लगे परंतु बालक प्रह्लाद अपने प्रभु की स्तुति करने लगा जिससे भगवान अति प्रसन्न हुए और उसको वर माँगने को कहा। प्रह्लाद ने गर्भ में ही अपने गुरु नारद जी से निष्काम भक्ति की पाठ पढ़ा हुआ था। इसीलिए उसने कहा-
अहं त्वकामस्त्वद्भक्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रयः । (भागवतम् )
अर्थ- "ओ मेरे स्वामी! यह आप क्या कह रहे हैं? अपने लिये दास का स्वामी से कुछ माँगना दासत्व के नियम के विरुद्ध होगा। क्या अभी भी आपने मुझे अपना दास नहीं माना?"
भगवान स्तब्ध रह गए वे प्रह्लाद की निष्काम भक्ति पर मुस्कुराए परंतु अभी भी उन्होंने वरदान माँगने के लिए कहा क्योंकि यह नियम है। तब प्रह्लाद ने अत्यंत नम्रता से उत्तर दिया की यदि यह अनिवार्य है तो मैं आपसे अवश्य माँगूंगा-
यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षम ।
कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम्॥ (भागवतम् )
अर्थ- "मुझे यह वरदान दीजिए कि स्व-सुख की कामना तथा उन कामनओं का बीज सदा के लिये समाप्त हो जाये।"
अतः प्रह्लाद ने हमको यह शिक्षा दी कि विशुद्ध भक्ति हर प्रकार की इच्छाओं से रहित होती है। होली का पर्व हम सबको भगवान के सर्वव्यापक होने का एवं भगवान कैसे अपने भक्त की सदा रक्षा करते हैं इस बात का भी सदा स्मरण करता है। इस पर्व के माध्यम से हमें यह भी याद दिलाया जाता है कि भगवान की प्रेम की अनुभूति हमें अपने भावनात्मक और सामाजिक संबंधों में भी लानी चाहिए। इस रूप में, होली एक महत्वपूर्ण उत्सव है जो हमें समाज में सौहार्द और सामूहिक एकता का संदेश भी देता है।