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16- भगवान के वास्तविक स्वरूप को ब्रह्मा और शंकर भी नहीं समझ सकते

Aug 17th, 2024 | 9 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 2 अध्याय: 6 और 7

ब्रह्माजी नारदजी को कहते कहते हैं ब्रह्मांड का यह ब्रह्मांडीय अंडा हजार वर्षों तक निर्जीव पड़ा रहा, फिर भगवान  ने इसमें जीवन संचारित किया। इस अंडे से विराट पुरुष उत्पन्न हुए, जिनकी असीमित अंगों का वर्णन किया जाता है।
विराट पुरुष के अंग:
  • विराट् पुरुष के मुख से वाणी और उसके अधिष्ठातृ देवता अग्नि उत्पन्न हुए हैं।
  • सातों छन्द (गायत्री, त्रिष्टुप्, अनुष्टुप्, उष्णिक्, बृहती, पङ्क्ति और जगती) उनकी सात धातुओं से निकले हैं।
  • मनुष्यों, पितरों और देवताओं के भोजन योग्य अमृतमय अन्न, सब प्रकार के रस, रसनेन्द्रिय, और उनके अधिष्ठातृ देवता वरुण विराट् पुरुष की जिह्वा से उत्पन्न हुए हैं।
  • नासाछिद्रों से प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान—ये पाँचों प्राण और वायु तथा घ्राणेन्द्रिय से अश्विनीकुमार, समस्त औषधियाँ एवं साधारण तथा विशेष गंध उत्पन्न हुए हैं।
  • नेत्रेन्द्रिय रूप और तेज की तथा नेत्र-गोलक स्वर्ग और सूर्य की जन्मभूमि हैं।
  • दिशाएँ और पवित्र करने वाले तीर्थ कानों से तथा आकाश और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से निकले हैं।
  • उनका शरीर संसार की सभी वस्तुओं के सारभाग तथा सौन्दर्य का खजाना है।
  • सारे यज्ञ, स्पर्श और वायु उनकी त्वचा से निकले हैं।
  • उनके रोम सभी उद्भिज्ज पदार्थों के जन्मस्थान हैं, जिनसे यज्ञ सम्पन्न होते हैं।
  • केश, दाढ़ी-मूँछ और नखों से मेघ, बिजली, शिला, एवं लोहा आदि धातुएँ उत्पन्न हुई हैं।
  • भुजाओं से संसार की रक्षा करने वाले लोकपाल प्रकट हुए हैं।
  • उनका चलना-फिरना भूः, भुवः, स्वः—तीनों लोकों का आश्रय है।
  • उनके चरण कमल प्राप्ति की रक्षा करते हैं, भय को भगाते हैं और समस्त कामनाओं की पूर्ति उन्हीं से होती है।
  • विराट् पुरुष का लिंग जल, वीर्य, सृष्टि, मेघ, और प्रजापति का आधार है, और उनकी जननेन्द्रिय मैथुनजनित आनन्द का उद्गम है।
  • उनकी पायु-इन्द्रिय यम, मित्र और मलत्याग का स्थान है, और गुदाद्वार से हिंसा, निर्ऋति, मृत्यु और नरक उत्पन्न होते हैं।
  • उनकी पीठ से पराजय, अधर्म और अज्ञान उत्पन्न हुए हैं।
  • नाड़ियों से नद-नदी और हड्डियों से पर्वत बने हैं।
  • उनके उदर में मूल प्रकृति, रस नाम की धातु, समुद्र, समस्त प्राणी, और मृत्यु समायी हुई हैं।
  • उनका हृदय मन की जन्मभूमि है।
  • ब्रह्मा, नारद, धर्म, सनकादि, शंकर, विज्ञान, और अन्तःकरण—सब उनके चित्त के आश्रित हैं।

अंत में ब्रह्माजी कहते हैं की कहाँतक गिनायें में, तुम, सनकादि, शंकर, देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, मृग, रेंगनेवाले जन्तु, गन्धर्व, अप्सराएँ, यक्ष, राक्षस, भूत-प्रेत, सर्प, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण, वृक्ष और नाना प्रकारके जीव—जो आकाश, जल या स्थलमें रहते हैं—ग्रह-नक्षत्र, केतु तारे, बिजली और बादल—ये सब-के-सब विराट् पुरुष ही हैं⁠। यह सम्पूर्ण विश्व—जो कुछ कभी था, है या होगा—सबको वह घेरे हुए है और उसके अंदर यह विश्व उसके केवल दस अंगुलके परिमाणमें ही स्थित है:
  • पृथ्वीसे दसगुना जल है, 
  • जलसे दसगुना अग्नि, 
  • अग्निसे दसगुना वायु, 
  • वायुसे दसगुना आकाश, 
  • आकाशसे दसगुना अहंकार, 
  • अहंकारसे दसगुना महत्तत्त्व और 
  • महत्तत्त्वसे दसगुनी मूल प्रकृति है⁠। 
जैसे सूर्य अपने प्रकाश से सबकुछ प्रकाशित करते हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण (पुराण पुरुष) सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त रहते हुए उसे प्रकाशित करते हैं। श्रीकृष्ण क्रिया और विचारों से परे हैं और अनंत आनन्द एवं मोक्षपद के स्वामी हैं। सम्पूर्ण लोक भगवान का अंश हैं, और इन लोकों में सभी प्राणी निवास करते हैं। 
  • भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक के ऊपर महर्लोक है।
  • उसके भी ऊपर जनलोक, तपलोक और सत्यलोक में क्रमशः अमृत, क्षेम और अभय का नित्य निवास है।
  • जनलोक, तपलोक और सत्यलोक में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी निवास करते हैं।
  • दीर्घकालीन ब्रह्मचर्य से रहित गृहस्थ भूलोक, भुवर्लोक, और स्वर्लोक के भीतर ही निवास करते हैं।

कर्ममार्ग एवं भक्तिमार्ग:

  1. अविद्यारूप कर्ममार्ग: यह मार्ग सकाम पुरुषों के लिए है, जो इच्छाओं की पूर्ति के लिए कर्म का आश्रय लेते हैं और भोग प्राप्त करते हैं।
  2. विद्यारूप उपासनामार्ग: यह मार्ग निष्काम उपासकों के लिए है, जो बिना किसी इच्छाओं के भगवत् प्राप्ति का आश्रय लेते हैं।
दोनों मार्गों के आधारभूत पुरुषोत्तम-भगवान् हैं। जैसे सूर्य अपनी किरणों से सबको प्रकाशित करते हैं लेकिन स्वयं उनसे अलग रहते हैं, वैसे ही परमात्मा, जिनसे यह सारा ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ है, सबके अंदर रहते हुए भी उनसे परे हैं। 

यज्ञ सामग्री की प्राप्ति और भगवान श्रीकृष्ण की भूमिका

ब्रह्माजी नारदजी को कहते हैं, “जब विराट पुरुष के नाभि-कमल से मेरा जन्म हुआ, तब मुझे उनके अंगों के अलावा कोई यज्ञ की सामग्री नहीं मिली। तब मैंने उनके अंगों में ही यज्ञ के पशु, यूप (स्तंभ), कुश, यज्ञभूमि और यज्ञ के लिए सही समय की कल्पना की। यज्ञ के लिए जरूरी चीजें, जैसे पात्र, जौ, चावल, घी, रस, लोहा, मिट्टी, जल, मंत्र, देवताओं के नाम, संकल्प, तंत्र, श्रद्धा, और समर्पण—ये सारी सामग्री मैंने विराट् पुरुष के अंगों से ही प्राप्त की। इन सामग्रियों से मैंने यज्ञस्वरूप परमात्मा का यज्ञ द्वारा पूजन किया। फिर, तुम्हारे बड़े भाई और इन नौ प्रजापतियों ने भी चित्त को समाहित करके उस विराट् पुरुष की आराधना की। इसके बाद मनु, ऋषि, पितर, देवता, दैत्य और मनुष्यों ने यज्ञों के माध्यम से भगवान् की पूजा की।”

ब्रह्माजी आगे कहते हैं की यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण में स्थित है, जो स्वयं गुणों से रहित हैं परंतु श्रृष्टि का कार्य करने के लिए तीनों गुणों (सत्त्व, रज, तम) को धारण करते हैं। उन्हीं की प्रेरणा से मैं संसार की रचना करता हूँ। रुद्र उन्हीं के आदेश पर संसार का संहार करते हैं, और विष्णु के रूप में वे स्वयं इसका पालन करते हैं।

भगवान के वास्तविक स्वरूप को ब्रह्मा और शंकर भी नहीं समझ सकते

ब्रह्माजी कहते हैं कि वे भगवान के प्रेममय स्मरण में मग्न रहते हैं, जिससे उनकी वाणी, मन और इन्द्रियाँ कभी असत्य की ओर नहीं जातीं। वे स्वयं वेदमूर्ति हैं और प्रजापति उनकी वन्दना करते हैं। वे कहते हैं कि उन्होंने योग का निष्ठापूर्वक अभ्यास किया, लेकिन परमात्मा के मूल स्वरूप को नहीं जान सके, क्योंकि भगवान केवल भक्ति से प्राप्त होते हैं। ब्रह्माजी भगवान के चरणों में नमस्कार करते हैं और कहते हैं कि उनकी महिमा इतनी अपार है कि वे स्वयं भी उसे पूरी तरह नहीं जानते, तो अन्य देवता या जीव कैसे जान सकते हैं।
नाहं न यूयं यदृतां गतिं-विदुर्न वामदेवः किमुतापरे सुराः ⁠। 
तन्मायया मोहितबुद्धय-स्त्विदं विनिर्मितं चात्मसमं-विचक्ष्महे ⁠।⁠।⁠
"मैं, मेरे पुत्र तुम लोग और शंकरजी भी उनके सत्यस्वरूपको नहीं जानते; तब दूसरे देवता तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं⁠। हम सब इस प्रकार मोहित हो रहे हैं कि उनकी मायाके द्वारा रचे हुए जगत्‌को भी ठीक-ठीक नहीं समझ सकते, अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार ही अटकल लगाते हैं।" (भागवत 2.6.36)

भगवान की माया इतनी प्रभावशाली है कि वह संसार को मोहित कर देती है, जिससे सभी भ्रमित रहते हैं और सृष्टि के सत्य को पूरी तरह से नहीं समझ पाते। भगवान अजन्मा, पुरुषोत्तम, ज्ञानस्वरूप, तीनों काल में सत्य और परिपूर्ण हैं। उनका कोई आदि या अंत नहीं है, और वे तीनों गुणों से रहित, सनातन और अद्वितीय हैं। महात्मा जब अपने मन, इन्द्रियों और शरीर को शान्त कर लेते हैं, तब वे भगवान का साक्षात्कार करते हैं। लेकिन असत्पुरुषों के तर्कों से उनकी अनुभूति ढक जाती है। जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज कहते हैं-
जेहि माया-वश विश्व चराचर।
ब्रह्मअण्ड-नायक विधि, हरि हर।
नाचत ज्यों नट परवश बानर।
तेहि दै छाछ नेकु सी छोरिन, कोटिन नाच नचाय।
इसके पश्चात ब्रह्माजी नारदजी को भगवान के अवतारों का परिचय देते हुए कहते हैं की परमात्मा का पहला अवतार विराट पुरुष है, और सभी वस्तुएँ—समय, स्वभाव, पंचभूत, अहंकार आदि—उनके ही रूप हैं। मैं (ब्रह्मा), शंकर, विष्णु, दक्ष आदि ये प्रजापति, तुम (नारद) और तुम्हारे-जैसे अन्य भक्तजन, स्वर्गलोकके रक्षक, पक्षियोंके राजा, मनुष्यलोकके राजा, नीचेके लोकोंके राजा; गन्धर्व, विद्याधर और चारणोंके अधिनायक; यक्ष, राक्षस, साँप और नागोंके स्वामी; महर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र, सिद्धेश्वर, दानवराज; और भी प्रेत-पिशाच, भूत-कूष्माण्ड, जल-जन्तु, मृग और पक्षियोंके स्वामी; एवं संसारमें और भी जितनी वस्तुएँ ऐश्वर्य, तेज, इन्द्रियबल, मनोबल, शरीरबल या क्षमासे युक्त हैं; अथवा जो भी विशेष सौन्दर्य, लज्जा, वैभव तथा विभूतिसे युक्त हैं; एवं जितनी भी वस्तुएँ अद्‌भुत वर्णवाली, रूपवान् या अरूप हैं—वे सब-के-सब परमतत्त्वमय भगवत्त्वरूप ही हैं। इनके सिवा भगवान के परम पवित्र एवं प्रधान-प्रधान लीलावतार भी शास्त्रोंमें वर्णित हैं⁠। उनका मैं क्रमशः वर्णन करता हूँ⁠।

भगवान के लीला अवतार एवं उनका उद्देश्य

  1. वराह अवतार: प्रलय के जल में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार करना। हिरण्याक्ष नामक दैत्य को हराया और अपनी दाढ़ों से उसके टुकड़े-टुकड़े करना।
  2. सुयज्ञ अवतार: तीनों लोकों के बड़े संकटों का समाधान करना। प्रजापति रुचि की पत्नी आकूतिक के गर्भ से सुयज्ञ के रूप में प्रकट होना और दक्षिणा नाम की पत्नी से देवताओं का निर्माण करना।
  3. कपिल अवतार: अपनी माता देवहूति को आत्मज्ञान का उपदेश देना जिससे उन्होंने इस जन्म में ही आत्मज्ञान प्राप्त करना।
  4. दत्तात्रेय अवतार: महर्षि अत्रि के पुत्र के रूप में प्रकट होना और ज्ञान देना। दत्त नाम प्राप्त करना और राजा यदु तथा सहस्रार्जुन को योग, भोग, और मोक्ष की सिद्धियाँ देना।
  5. सनक, सनंदन, सनातन, और सनत्कुमार अवतार: सृष्टि के प्रारम्भ में तपस्या करके ऋषियों को प्रलय के कारण खोया हुआ आत्मज्ञान पुनः प्रदान करना।
  6. नर-नारायण अवतार: शंकर के क्रोध को नियंत्रित करना और अपने निर्मल हृदय से काम के प्रवेश को रोकना।
  7. ध्रुव अवतार: पाँच वर्ष के बालक ध्रुव को उसकी सौतेली माता के वचन-बाणों से पीड़ा पहुँचाने के बाद तपस्या के लिए वन में भेजना। भगवान ने उसकी प्रार्थना सुनकर उसे ध्रुवपद का वरदान देना।
  8. पृथु अवतार: वेन के शरीर को मंथन करके पृथु के रूप में अवतार लेना और पृथ्वी से ओषधियों का दोहन करना।
  9. ऋषभदेव अवतार: राजा नाभि की पत्नी सुदेवी के गर्भ से जन्म लेकर समदर्शी रूप में योगचर्या का आचरण करना, जिसे महर्षि परमहंसपद या अवधूतचर्या कहते हैं।
  10. हयग्रीव अवतार: यज्ञ और वेदवाणी की रक्षा करना। यज्ञपुरुष के रूप में स्वर्ण कान्ति वाले हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदवाणी का प्रकट करना।
  11. मत्स्य अवतार: सत्यव्रत को मत्स्यरूप में दर्शन देना और प्रलय के जल में वेदों को सुरक्षित रखना।
  12. कच्छप अवतार: कच्छप के रूप में मन्दराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण करना और पर्वत के घूमने से उत्पन्न हो रही असुविधा को कम करना।
  13. नृसिंह अवतार: नृसिंह रूप में प्रह्लाद की रक्षा करना और हिरण्यकशिपु का संहार करना।
  14. गजेन्द्रमुक्ति अवतार: गजेन्द्र की पुकार सुनना और ग्राह के मस्तक को चक्र से उखाड़ देना।
  15. वामन अवतार: तीन पग भूमि के बहाने बली से तीनों लोकों को अपने चरणों से नाप लेना और याचना का महत्व स्थापित करना।
  16. धन्वंतरि अवतार: अमृत देकर देवताओं को अमर करना और आयुर्वेद का ज्ञान प्रस्तुत करना।
  17. परशुराम अवतार: परशुराम के रूप में 21 बार क्षत्रियों का संहार करना और धरती को उनका बोझ कम करना।
  18. राम अवतार: रावण का वध करना और धर्म की स्थापना करना।
  19. कृष्ण-बलराम अवतार: राक्षसों का वध करना, अद्भुत लीलाएँ करना।
  20. वेद व्यास अवतार: जब लोगों की समझ कम हो जाती है और वे वेदवाणी को समझने में असमर्थ हो जाते हैं, तब भगवान् प्रत्येक कल्प में व्यास के रूप में प्रकट होकर वेदवाणी का विभाजन करना।
  21. बुद्ध अवतार: दैत्य और असुरों द्वारा लोगों की बुद्धि को मोह और लोभ में डालने पर भगवान् बुद्ध के रूप में उपधर्मों का उपदेश देना।
  22. कल्कि अवतार: कलियुग के अंत में धर्म की हानि और पाखंड के बढ़ जाने पर भगवान् कल्कि के रूप में अवतार लेकर कलियुग का शासन संभालना।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 16.08.2024