श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 5 अध्याय: 25-26
श्रीशुकदेवजी कहते हैं, राजन्! पाताल लोक से तीस हजार योजन (1,60,000 मील) नीचे भगवान की तामसी नित्य शक्ति ‘अनन्त’ नाम से जानी जाती है। यह अहंकार स्वरूप होने के कारण देखने वाले और देखी जाने वाली चीज़ (द्रष्टा और दृश्य) को एक कर देती है। इसलिए पांचरात्र आगम के भक्त इसे ‘संकर्षण’ कहते हैं।
इन भगवान् अनन्तके एक हजार मस्तक हैं। उनमेंसे एकपर रखा हुआ यह सारा भूमण्डल सरसोंके दानेके समान दिखायी देता है। प्रलयकाल आने पर जब इन्हें इस विश्वका उपसंहार करनेकी इच्छा होती है, तब इनकी क्रोधवश घूमती हुई भ्रुकुटियोंके मध्यभागसे संकर्षण नामक रुद्र प्रकट होते हैं। उनकी व्यूहसंख्या ग्यारह है। वे सभी तीन नेत्रोंवाले होते हैं और हाथमें त्रिशूल लिये रहते हैं।
भगवान संकर्षण के चरणकमल गोल, चमकदार और लाल नखों से सुशोभित हैं। जब कई नागराज अपने भक्तों के साथ भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम करते हैं, तब वे अपने चमकते कुण्डलों और सुंदर चेहरे की झलक उन नखों में देखते हैं और आनंद से भर जाते हैं। अनेक नागराजों की कन्याएँ विभिन्न इच्छाओं से भगवान संकर्षण की लंबी, सुंदर, सफेद भुजाओं पर अरगजा, चंदन और कुंकुम का लेप करती हैं, जो चाँदी के खंभों की तरह चमकती हैं। जब वे ऐसा करती हैं, तो उनके हृदय में प्रेम भाव उमड़ आता है। उस समय, वे प्रेम और भावविभोर नेत्रों से भगवान के आनंदित मुख की ओर देखती हैं और हल्की, सुंदर मुस्कान के साथ लज्जा से भर जाती हैं। वे अनन्त गुणोंके सागर आदिदेव भगवान् अनन्त अपने असहनशीलता और रोषके वेगको रोके हए वहाँ समस्त लोकोंके कल्याणके लिये विराजमान हैं।
देवता, असुर, नाग, सिद्ध, गंधर्व, विद्याधर और मुनि भगवान अनन्त का ध्यान करते रहते हैं। उनके नेत्र प्रेम से भरे हुए, चंचल और भावविह्वल रहते हैं। वे अपनी मधुर वाणी से अपने पार्षदों और देवताओं को प्रसन्न करते हैं। उनके शरीर पर नील रंग का वस्त्र है, कानों में एक ही कुण्डल चमकता रहता है, और उनका सुंदर हाथ हल की मूठ पर टिका रहता है।
भगवान संकर्षण अपने गले में वैजयन्ती माला धारण किए हुए हैं, जिसकी कान्ति कभी फीकी नहीं पड़ती। ऐसी नवीन तुलसीकी गन्ध और मधुर मकरन्दसे उन्मत्त हुए भौंरे निरन्तर मधुर गुंजार करके उसकी शोभा बढ़ाते रहते हैं। इस प्रकार भगवान अनन्त के माहात्म्य का श्रवण और ध्यान करने से मुमुक्षुओं के हृदय में उनकी कृपा प्रकट होती है। वे उनके अनादिकाल से संचित कर्मवासनाओं से बंधे हुए सत्त्व, रज और तमोगुणात्मक अज्ञान के हृदयग्रंथि को तुरंत काट देते हैं।
एक बार उनके दिव्य गुणों का गान ब्रह्माजी के पुत्र भगवान नारद ने तुम्बुरु गंधर्व के साथ मिलकर ब्रह्माजी की सभा में इस प्रकार किया था- भगवान संकर्षण की एक दृष्टि से ही सृष्टि, पालन और संहार के लिए सत्त्व, रज और तम गुण सक्रिय हो जाते हैं। वे अनंत और अनादि हैं, और अकेले होते हुए भी संपूर्ण जगत को अपने में धारण किए हुए हैं। ऐसे दिव्य तत्त्व को कौन समझ सकता है?
वे अपने भक्तों को आकर्षित करने के लिए वीरतापूर्ण लीलाएँ करते हैं, जिन्हें सिंह जैसे योद्धा भी आदर्श मानते हैं। यदि कोई दुखी या पतित व्यक्ति संयोगवश, हंसी में या अचानक भी उनका नाम ले ले, तो वह अपने और दूसरों के भी पाप नष्ट कर सकता है। ऐसे दयालु शेष भगवान को छोड़कर मुमुक्षु और किसका आश्रय ले?
संपूर्ण पृथ्वी, पर्वत, नदियाँ और महासागर भगवान के मस्तक पर धूलिकण के समान टिके हैं। उनका पराक्रम असीम है, जिसे कोई हज़ार जीभों से भी गिन नहीं सकता। वे रसातल में अपनी महिमा में स्थित रहकर सहज ही पृथ्वी को धारण करते हैं।
श्रीशुकदेवजी परीक्षित को कहते हैं, मनुष्यको प्रवृत्तिरूप धर्मके परिणाममें प्राप्त होनेवाली जो परस्पर विलक्षण ऊँची-नीची गतियाँ हैं, वे इतनी ही हैं; इन्हें तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने सुना दिया। अब बताओ और क्या सुनाऊँ? तब राजा परीक्षित्ने पूछा–महर्षे! लोगोंको जो ये ऊँची-नीची गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें इतनी विभिन्नता क्यों है?
श्रीशुकदेवजी ने कहा—राजन्! कर्म करने वाले लोग सत्त्व, रज और तम—इन तीन गुणों के अनुसार भिन्न स्वभाव वाले होते हैं, जिससे उनकी श्रद्धा भी अलग-अलग होती है। इसी स्वभाव और श्रद्धा के अंतर से उनके कर्मों के फल भी अलग होते हैं, और सभी कर्ता अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न गतियाँ प्राप्त करते हैं।
जो लोग पाप कर्म करते हैं, उन्हें भी उनकी श्रद्धा के अनुसार अलग-अलग फल मिलते हैं। अनादि अविद्या के प्रभाव में आकर इच्छाओं से प्रेरित होकर किए गए इन पाप कर्मों के कारण उन्हें अनेक तरह की नारकीय यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। अब मैं विस्तार से उन नारकीय गतियों का वर्णन करूंगा।
नरक कहाँ हैं, कितने प्रकार के हैं और कैसे कैसे नरक होते हैं?
परीक्षित ने पूछा—जिन नरकों का आप वर्णन करने वाले हैं, क्या वे इसी पृथ्वी के किसी विशेष स्थान पर हैं, त्रिलोकी से बाहर हैं या इसके भीतर कहीं स्थित हैं?
श्रीशुकदेवजी ने कहा—वे नरक त्रिलोकी के भीतर, पृथ्वी के दक्षिण में जल के ऊपर स्थित हैं। इसी दिशा में अग्निष्वात्त आदि पितृगण भी निवास करते हैं, जो अपने वंशजों के लिए एकाग्रचित्त होकर मंगल कामना करते हैं। उस नरकलोक में सूर्यपुत्र यम अपने सेवकों सहित रहते हैं। वे अपने दूतों द्वारा वहाँ लाए गए मृत प्राणियों को उनके पाप कर्मों के अनुसार दंड देकर उनके पापों का फल प्रदान करते हैं। कुछ लोग नरकों की संख्या इक्कीस बताते हैं। अब हम उनके नाम, स्वरूप और लक्षणों का वर्णन करते हैं। ये नरक इस प्रकार हैं—
तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्दंश, तप्तसूर्मि, वज्रकण्टकशाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि और अयःपान।
इसके अतिरिक्त क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दन्दशूक, अवटनिरोधन, पर्यावर्तन और सूचीमुख—ये सात और जोड़कर कुल अट्ठाईस नरक होते हैं, जहाँ जीव अपने पापों के अनुसार भयंकर यातनाएँ भोगते हैं।
तामिस्र नरक
जो लोग दूसरों के धन, संतान या पत्नी को छल से छीनते हैं, उन्हें यमदूत कालपाश में बाँधकर इस भयानक नरक में डाल देते हैं। यहाँ घना अंधकार होता है, न खाने को मिलता है, न पानी। डंडों से पीटा जाता है और डरावनी यातनाएँ दी जाती हैं। इस पीड़ा से वह व्यक्ति बेहोश हो जाता है।
अन्धतामिस्र नरक
जो व्यक्ति धोखे से किसी और की पत्नी को भोगता है, वह अन्धतामिस्र नरक में जाता है। वहाँ उसे इतनी भयानक यातनाएँ मिलती हैं कि वह पूरी तरह सुध-बुध खो बैठता है, जैसे जड़ से कटा हुआ पेड़ गिर जाता है। इसलिए इसे अन्धतामिस्र कहा जाता है।
रौरव और महारौरव नरक
जो लोग सोचते हैं कि "यही शरीर ही सबकुछ है और स्त्री-धन आदि मेरे हैं" और इसी सोच में अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को सताते हैं, वे मरने के बाद रौरव नरक में जाते हैं। वहाँ उन जीवों की आत्माएँ, जिन्हें उन्होंने दुख दिया था, ‘रुरु’ नाम के भयानक जीव बनकर उन्हें पीड़ा पहुँचाती हैं।
कुम्भीपाक नरक
जो निर्दयी लोग अपने पेट के लिए जीवित प्राणियों को मारकर पकाते हैं, उन्हें यमदूत पकड़कर कुम्भीपाक नरक में ले जाते हैं। वहाँ उन्हें खौलते हुए तेल में डाला जाता है, जिससे वे भयंकर पीड़ा सहते हैं।
कालसूत्र नरक
जो मनुष्य इस लोकमें माता-पिता, संत और वेदसे विरोध करता है, उसे यमदूत कालसूत्र नरकमें ले जाते हैं। इसका घेरा दस हजार योजन (80,000 मील) है।
वैतरणी नदी
जो राजा या राजपुरुष इस लोकमें श्रेष्ठ कुलमें जन्म पाकर भी धर्मकी मर्यादाका उच्छेद करते हैं, वे उस मर्यादातिक्रमणके कारण मरनेपर वैतरणी नदीमें पटके जाते हैं। यह नदी नरकोंकी खाईके समान है; उसमें मल, मूत्र, पीब, रुक्त, केश, नख, हड्डी, चर्बी, मांस और मज्जा आदि गंदी चीजें भरी हुई हैं। वहाँ गिरनेपर उन्हें इधर-उधरसे जलके जीव नोचते हैं। किन्तु इससे उनका शरीर नहीं छूटता, पापके कारण प्राण उसे वहन किये रहते हैं और वे उस दुर्गतिको अपनी करनीका फल समझकर मन-ही-मन सन्तप्त होते रहते हैं।
पूयोद समुद्र
जो लोग शौच और आचारके नियमोंका परित्याग कर तथा लज्जाको तिलांजलि देकर इस लोकमें पशुओंके समान आचरण करते हैं, वे भी मरनेके बाद पीब, विष्ठा, मूत्र, कफ और मलसे भरे हुए पूयोद नामक समुद्रमें गिरकर उन अत्यन्त घृणित वस्तुओंको ही खाते हैं।
शुकदेवजी परीक्षित को कहते हैं- राजन! यमलोक में सैकड़ों-हजारों नरक हैं। इनमें से कुछ का यहाँ उल्लेख हुआ है और बहुत से ऐसे भी हैं जिनका वर्णन नहीं किया गया। सभी पापी जीव अपने कर्मों के अनुसार अलग-अलग नरकों में भेजे जाते हैं। इसी तरह पुण्य करने वाले धर्मात्मा लोग स्वर्ग आदि में जाते हैं।
जब जीव नरक और स्वर्ग में अपने अधिकतर पाप-पुण्य का फल भोग लेते हैं, तब जो थोड़ा पुण्य और पाप बचता है, उसके अनुसार वे फिर से इस पृथ्वी लोक में जन्म लेते हैं। इन पाप-पुण्य से अलग एक और मार्ग है—निवृत्ति मार्ग (भगवत् प्राप्ति का मार्ग), जिसका पहले (द्वितीय स्कंध में) विस्तार से वर्णन हो चुका है।
पुराणों में जिन 14 भुवनों का वर्णन किया गया है, वही यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड है। यह स्वयं श्रीनारायण का एक स्थूल (भौतिक) रूप है, जो उनकी माया के प्रभाव से बना है। मैंने तुम्हें इसका संक्षिप्त विवरण दे दिया। परमात्मा भगवान्का उपनिषदोंमें वर्णित निर्गुणस्वरूप मन-बुद्धिकी पहुँचके बाहर है, लेकिन जो व्यक्ति इस स्थूल रूप का श्रवण, पठन और मनन करता है, उसकी बुद्धि श्रद्धा और भक्ति से शुद्ध हो जाती है। फिर वह धीरे-धीरे उस सूक्ष्म (अदृश्य, निर्गुण) रूप को भी अनुभव कर सकता है।
इसलिए एक साधक को पहले भगवान के स्थूल रूप पर ध्यान लगाना चाहिए और जब चित्त स्थिर हो जाए, तब उसे धीरे-धीरे सूक्ष्म रूप की ओर मोड़ना चाहिए। परीक्षित! मैंने तुम्हें पृथ्वी, उसके सात द्वीप, महाद्वीप, नदियाँ, पर्वत, आकाश, समुद्र, पाताल, दिशाएँ, नरक, ग्रह-नक्षत्र और अन्य लोकों का वर्णन किया। यही भगवान का अत्यंत अद्भुत स्थूल रूप है, जो समस्त जीवों का आधार है।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 07.02.2025