श्रीमद्भागवत महापुराण सनातन धर्म में सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। JKYog द्वारा संचालित “श्रीमद् भागवत कथा” की पहली कक्षा में ग्रंथ के माहात्म्य के बारे में चर्चा हुई। भागवत सरीखा कोई भक्ति का ग्रंथ है ही नहीं। बना ही नहीं। भागवत में ही बार-बार यह कहा गया-
इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
उत्तमश्लोकचरितं चकार भगवानृषिः ।।
“ भगवान् वेदव्यास ने यह वेदों के समान भगवच्चरित्र से परिपूर्ण भागवत नाम का पुराण बनाया है।” (भागवत महात्म्य 1-3-40)
भागवत को पाँचवाँ वेद भी कहा जाता है।
सर्ववेदेतिहासानां सारं सारं समुद्धृतम् ।
स तु संश्रावयामास महाराजं परीक्षितम् ।।
“इसमें सारे वेद और इतिहासों का सार-सार संग्रह किया गया है। शुकदेवजी ने राजा परीक्षित् को यह सुनाया।” (भागवत महात्म्य 1-3-42)
गरुड़ पुराण में लिखा है-
अर्थोऽयं ब्रह्मसूत्राणां सर्वोपनिषदो अपि ।
“यह श्रीमद्भागवत ब्रह्मसूत्रों एवं सब उपनिषदों का सार है।”
भागवत किसी ने बनाया नहीं। भगवान ने अपनी शक्ति से ब्रह्मा के हृदय में इसे प्रकट किया। आगे ब्रह्मा ने नारद को और नारद ने वेद व्यास को दिया। पश्चात् वेद व्यास ने भागवत का निर्माण किया। उससे पहले व्यास ने वेद के चार भाग किए। उसके बाद ब्रह्मसूत्र (वेदान्त), गीता, महाभारत, 18 पुराण ( जिसमें भागवत थी- संक्षिप्त) 4 लाख श्लोकों के पुराण, 1 लाख श्लोकों का महाभारत, 555 सूत्रों का ब्रह्मसूत्र, 700 श्लोकों की गीता की भी रचना की। यह सब उन्होंने 3 वर्ष में लिखा परंतु इसके बाद भी वेद व्यास अशांत थे, भगवान के अवतार होते हुए भी अशांत थे। क्यों? इसका उत्तर उन्हें नारदजी ने दिया-
भवतानुदितप्रायं यशो भगवतोऽमलम् ।
येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तद्दर्शनं खिलम् ।।
“व्यासजी! आपने भगवान् के निर्मल यश का गान प्रायः नहीं किया। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान् संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा है।” (भागवत महात्म्य 1-5-8)
इसके पश्चात, वेदव्यास ने गहन भक्ति में लीन होकर भगवान का दर्शन किया और तत्पश्चात, कैतव रहित, विशुद्ध भक्ति से ओत-प्रोत, श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना की।
भक्तियोगेन मनसि सम्यक् प्रणिहितेऽमले ।
अपश्यत्पुरुषं पूर्वं मायां च तदपाश्रयाम् ।।
“उन्होंने भक्तियोग के द्वारा अपने मन को पूर्णतया एकाग्र और निर्मल करके आदिपुरुष परमात्मा और उनके आश्रय से रहने वाली माया को देखा।” (भागवत महात्म्य 1-7-4)
भक्ति के विषय में भागवत वेद-उपनिषद् से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण क्यों है?
ईश्वरीय ज्ञान में सफलता प्राप्त करने के लिए ज्ञान का महत्व है। भगवत् ज्ञान कहाँ से प्राप्त करें?
चातुर्वर्ण्यं त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक् ।
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात्प्रसिध्यति।।
“चार वर्ण, चार आश्रम, भूत, भविष्य और वर्तमान आदि की सब विद्या वेदों से ही प्रसिद्ध होती है।” (उपनिषद्)
किसी भी आध्यात्मिक सिद्धांत का निर्णय, उसके उपदेयता की, उसके तथ्य की प्रामाणिकता वेद के आधार पर स्थापित होती है। वेद ज्ञान का भंडार और अंतिम प्रमाण है।
किंतु वेदस्य चेश्वरात्मतत्वामिता तत्रमूर्हनत्य वेद ईश्वरात्मक है, साधारण मनुष्य की क्या कहे महानतम बुद्धिवान सरस्वती, बृहस्पति आदि श्रोतागण भी वेदवाणी के असली अर्थ को नहीं समझ पाते।
उपनिषद् में ज्ञान तो बहुत है। परंतु उसको पढ़ने से हमारे मन में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम नहीं उमड़ता। उनमें तत्त्वज्ञान तो है परंतु भगवान के लीलाओं का गान नहीं है। यद्यपि तत्त्वज्ञान परम आवश्यक है परंतु बिना व्यवहार में लाये वह ज्ञान अधूरा ही रह जाता है। ज्ञान को व्यवहार में लाने के लिए भक्ति करनी पड़ती है। शास्त्रों में अनेक प्रकार की भक्तियों का वर्णन है उनमे प्रमुख है नवधा भक्ति और उसमें भी त्रिधा भक्ति।
तस्माद्भारत सर्वात्मा भगवानीश्वरो हरिः ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताभयम् ॥
“जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण की ही लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये।” (2-1-5)
भागवत कथा का पठन एवं श्रवण भक्ति का एक प्रमुख अंग है। भक्ति के लिए जीव को जिन-जिन सामग्रियों की आवश्यकता पढ़ती है उसका भंडार है भागवत। सिद्धांत से पता चल गया भक्ति करनी है। परंतु बिना भगवान के लीला का अवलंब भक्ति का अभ्यास कैसे करें। भागवत भक्ति के लिए अभ्यास पुस्तिका के समान है।
भागवत को परमहंस संहिता भी कहा जाता हैं।
वेदोपनिषदां साराज्जाता भागवती कथा ।।
“यह श्रीमद् भागवत् पुराण वेद और उपनिषद् का ही अर्थ है।”
इसलिए भागवत के समान कोई ग्रंथ नहीं माना गया।
निम्नगानां यथा गंगा देवानामच्युतो यथा ।
वैष्णवानां यथा शम्भुः पुराणानामिदं तथा ।।
“जैसे समस्त नदियों में श्रेष्ठ है गंगा, सारे देवतावों में श्रेष्ठ है भगवान अच्युत, वैष्णवों में श्रेष्ठ हैं शंभु, वैसे ही सारे पुराणों में श्रेष्ठ है भागवत्।” (भागवत 12-13-16)
लीलावतारेप्सितजन्म वा स्याद
वन्ध्यां गरं तां बिभृयान्न धीरः ।।
भगवान कृष्ण स्वयं उद्धव को कहते हैं, “जिस वाणी में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप मेरी लोक-पावन लीला का वर्णन न हो और लीलावतारों में भी मेरे लोकप्रिय राम-कृष्णादि अवतारों का जिसमें यशोगान न हो, वह
वाणी वन्ध्यां है। बुद्धिमान पुरूष को चाहिये कि ऐसी वाणी का उच्चारण एवं श्रवण न करे।” (भागवत 11-11-20)
श्रीमद् भागवत् कथा माहात्म्य प्रवेश
प्रारंभ में स्वयं भगवान ब्रह्मा जी को पुराण का श्रवण करने से क्या-क्या फल प्राप्त होता है, विस्तार से बताते हैं। यह वार्ता स्कंध पुराण के विष्णुखण्ड से लिया गया है।
यत्र यत्र भवेत् पुण्यं शस्त्रं भागवतं कलौ ।
तत्र तत्र सदैवाहं भवामि त्रिदशैः सह ।
“कलियुग में जहाँ-जहाँ पावन भागवतशास्त्र रहता है, वहाँ-वहाँ सदा ही में देवताओं के साथ उपस्थित रहता हूँ।” (भागवत महात्म्य 1-1-15)
कथा वाचन की विधि का वर्णन किया गया है। भागवत महात्म्य का पहला श्लोक-
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे ।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ।।
“सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं, जो जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के हेतु तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक—तीनों प्रकार के तापों का नाश करने वाले हैं।” (भागवत महात्म्य 1-1-1)
एक बार भगवत्कथामृत का रसास्वादन करने में कुशल मुनिवर शौनकजी ने नैमिषारण्य क्षेत्र में विराजमान सूतजी को नमस्कार करके उनसे पूछा, “सूतजी! आपका ज्ञान अज्ञानान्धकार को नष्ट करने के लिये करोड़ों सूर्यों के समान है। आप हमारे कानों के लिये रसायन—अमृत-स्वरूप सारगर्भित कथा कहिये।”
- ज्ञान और वैराग्य से प्राप्त होने वाले महान् विवेक की वृद्धि किस प्रकार होती है?
- वैष्णव लोग किस तरह इस माया-मोह से अपना पीछा छुड़ाते हैं?
- इस घोर कलि-काल में जीव प्रायः आसुरी स्वभाव के हो गये हैं, विविध क्लेशों से आक्रान्त इन जीवों को शुद्ध बनाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है?
हमको ऐसा कोई शाश्वत साधन बताइए जो-
- सबसे अधिक कल्याणकारी है।
- जो श्रीकृष्ण की प्राप्ति करा दे।
चिंतामणि नाम का वास्तु लौकिक संपत्ति दे सकता है और कल्पवृक्ष अधिक-से-अधिक स्वर्ग का संपत्ति प्रदान कर सकता है। परंतु गुरु प्रसन्न होकर भगवान का योगिदुर्लभ धाम दे देते हैं। शौनक मुनि का प्रश्न सुनने के पश्चात सूतजी महाराज कहते हैं-
भक्त्योघवर्धनं यच्च कृष्णसंतोषहेतुकम् ।
तदहं तेऽभिधास्यामि सावधानतया शृणु ।।
“जो भक्ति के प्रवाह को बढ़ाता है और भगवान् श्रीकृष्ण की प्रसन्नता का प्रधान कारण है, मैं तुम्हें वह साधन बतलाता हूँ; उसे सावधान होकर सुनो।” (भागवत महात्म्य 1-1-10)
सूतजी कहते हैं कि श्रीशुकदेवजी ने कलियुग में जीवों के कालरूपी सर्प के मुख का ग्रास होने के त्रास का आत्यन्तिक नाश करने के लिये श्रीमद्भागवतशास्त्र का प्रवचन किया है। मन की शुद्धि के लिये इससे बढ़कर कोई साधन नहीं है। जब मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर का पुण्य उदय होता है, तभी उसे इस भागवतशास्त्र की प्राप्ति होती है। जब शुकदेवजी राजा परीक्षित को यह कथा सुनाने के लिये सभा में विराजमान हुए, तब देवता लोग उनके पास अमृत का कलश लेकर आये। देवतावों ने शुकदेवमुनि को नमस्कार करके कहा, ‘आप यह अमृत लेकर बदले में हमें कथामृत का दान दीजिये। इस प्रकार अदला-बदली हो जानेपर राजा परीक्षित अमृत का पान करें और हम सब श्रीमद्भागवतरूप अमृत का पान करेंगे।’
क्व सुधा क्व कथा लोके क्व काचः क्व मणिर्महान् ।
इस संसार में कहाँ काँच और कहाँ महामूल्य मणि तथा कहाँ सुधा और कहाँ कथा? (भागवत महात्म्य 1-1-16)
श्रीशुकदेवजी ने, यह सोचकर, देवताओं की हँसी उड़ा दी। उन्हें भक्तिशून्य (कथा का अनधिकारी) जानकर कथामृत का दान नहीं किया। इस प्रकार यह श्रीमद्भागवत की कथा देवताओं को भी दुर्लभ है । भागवत् सुन के 7 दिन में परक्षित को मुक्त हुआ देखकर ब्रह्मा जी को महान आश्चर्य हुआ। सत्यलोक जाकर उन्होंने सभी साधनों को बांधकर तुला में तोला। एक पलड़े में समस्त साधनाओं का फल और एक पलड़े में भागवत कथा को रखा। भागवत कथा सब पर भारी पड़ा। सब ऋषियों ने भी यह देखा। तब उन्होंने निश्चय किया कि कलियुग में भागवत को पढ़ने-सुनने मात्र से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। सप्ताह विधि से सुनने से निश्चय भक्ति की प्राप्ति होती है।
पूर्वकाल में सनकादि ने नारद जी को यह भागवत कथा सुनाया था। यद्यपि नारद जी ने पहले ही ब्रह्मा जी से भागवत कथा सुन रखी थी, परंतु सनकादि से उन्होंने सप्ताह श्रवण विधि से सुना।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद्भागवत कथा [हिंदी]- 10.06.2024
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