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18- भागवत पुराण के दस लक्षण एवं विराट पुरुष के अंगों का निर्माण

Aug 28th, 2024 | 8 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 2 अध्याय: 10
श्री शुकदेवजी परीक्षित को समझाते हैं कि इस भागवत पुराण में दस प्रमुख विषयों का वर्णन किया गया है:
  1. सर्ग: आकाशादि पश्चमहाभूत, पाँच तन्मात्रायें, ग्यारह इन्द्रियाँ, महत और अहंकार।
  2. विसर्ग: विराट पुरुष से चराचर जगत की उत्पत्ति को कहते हैं।
  3. स्थान: भगवान के उत्कर्ष स्थान बैकुण्ठ को कहते हैं।
  4. पोषण: अपने भक्तों के ऊपर भगवान का जो अनुग्रह है, उसे पोषण कहते ह।
  5. ऊति: जीवों की वे वासनाएं, जो उन्हें कर्म के द्वारा बंधन में डाल देती हैं, "ऊति" कहलाती हैं।
  6. मन्वंतर: उन कालखंडों को "मन्वंतर" कहा जाता है, जब भगवान के भक्त प्रजा पालन और धर्म का अनुष्ठान करते हैं।
  7. ईशानुकथा: भगवान के अवतारों के चरित्र तथा अनुगामी भक्तों की सत्कथायें, अनुकथाएँ ह।
  8. निरोध: भगवान की योगनिद्रा में जीवों की लय को कहते हैं।
  9. मुक्ति:  इसमें अविद्या छोड़कर जीव ब्रह्मस्वरूप हो जाता ह।
  10. आश्रय: वह परम तत्त्व, जिससे इस जगत की उत्पत्ति और प्रलय होती है, वही परम ब्रह्म "आश्रय" है। शास्त्रों में इसे ही परमात्मा कहा गया है।
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः ⁠। मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ⁠।⁠।
दशमस्य विशुद्‌ध्यर्थं नवानामिह लक्षणम् ⁠। वर्णयन्ति महात्मानः श्रुतेनार्थेन चाञ्जसा ⁠।⁠।⁠
इस भागवतपुराणमें सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय—इन दस विषयोंका वर्णन है। इनमें जो दसवाँ आश्रय-तत्त्व है, उसीका ठीक-ठीक निश्चय करनेके लिये कहीं श्रुतिसे, कहीं तात्पर्यसे और कहीं दोनोंके अनुकूल अनुभवसे महात्माओंने अन्य नौ विषयोंका बड़ी सुगम रीतिसे वर्णन किया है। (भागवत 2.10.1-2)

आधिआत्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक और अधिष्ठान क्या है? 

श्री शुकदेवजी परीक्षित को समझाते हैं कि-
  • आधिआत्मिक (जीव)- जैसे मनुष्य नेत्रों (इंद्रिय) के माध्यम से देखती है। यह शरीर का आंतरिक तत्व है जो अनुभव करता है। यह द्रष्टा (आत्मा) है। 
  • आधिदैविक (देवता ): यह वह देवता है जो इंद्रियों की शक्ति को संचालित करता है। जैसे नेत्र का देवता सूर्य।
  • आधिभौतिक (देह): यह भौतिक शरीर है जो इन्द्रियों और अन्य अंगों से मिलकर बना है। यह शरीर ही वह साधन है जिससे जीव और देवता अपने कार्य को पूरा कर पाते हैं।
इन तीनों के बीच संबंध को समझने के लिए:
  • अगर द्रष्टा (जीव) नहीं होता, तो कोई देखने वाला नहीं होता।
  • अगर देवता (सूर्य) नहीं होता, तो आँखें प्रकाश नहीं पा सकतीं और देखने की क्रिया संभव नहीं होती।
  • अगर दृश्य (शरीर) नहीं होता, तो नेत्र (इन्द्रियाँ) ही नहीं होतीं, और देखने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती।
इसलिए, इन तीनों के अस्तित्व के बिना कोई भी पूर्ण रूप से कार्य नहीं कर सकता। 
  • अधिष्ठान (परमात्मा): जो इन तीनोंको जानता है, वह परमात्मा ही सबका अधिष्ठान ‘आश्रय’ तत्त्व है⁠। उसका आश्रय वह स्वयं ही है, दूसरा कोई नहीं।

नारायण कौन है?

जब विराट् पुरुष ब्रह्माण्डको फोड़कर निकले, तब वह अपने लिए स्थान की खोज करने लगे। उस शुद्ध-संकल्प पुरुष ने अत्यन्त पवित्र जल की सृष्टि की। क्योंकि वह जल 'नर' (विराट पुरुष) से उत्पन्न हुआ था, इसलिए उसे 'नार' कहा गया। और उस जल में उस पुरुष ने एक हजार वर्षों तक निवास किया, जिससे उनका नाम 'नारायण' पड़ा। भगवान नारायण की कृपा से ही द्रव्य (पदार्थ), कर्म, काल, स्वभाव, और जीव आदि की सत्ता है। अगर वे इनकी उपेक्षा कर दें, तो किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं रह सकता। फिर, जब भगवान नारायण योगनिद्रा से जागे, तो उन्होंने अनेक रूपों में प्रकट होने की इच्छा की। तब अपनी मायासे उन्होंने अखिल ब्रह्माण्डके बीजस्वरूप अपने सुवर्णमय वीर्यको तीन भागोंमें विभक्त कर दिया, अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत⁠।

अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत⁠ क्या है?

  1. अधिदैव: विराट पुरुष जो भगवान का समस्त भौतिक सृष्टि में व्याप्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्डीय स्वरूप है वह अधिदैव कहलाता हैं, क्योंकि सभी देवताओं पर उसका आधिपत्य है एवं जो ब्रह्माण्ड के विभिन्न कार्यों-विभागों के प्रशासक भी हैं।
  2. अध्यात्म: किसी मनुष्य की अपनी आत्मा को अध्यात्म कहा जाता है।
  3. अधिभूत⁠: निरन्तर परिवर्तित होने वाली प्राकृतिक के पांच तत्वों—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश— से बनी ब्रह्माण्ड को 'अधिभूत' कहा जाता है। 

विराट पुरुष के शरीर का विस्तार

शुकदेवजी परीक्षित को विराट पुरुष का एक ही वीर्य तीन भागों में कैसे विभाजित हुआ इसका विवरण देते हुए कहते हैं: 
  • जब विराट पुरुष हिले-डोले, तो उनके शरीर में स्थित आकाश से इन्द्रियबल, मनोबल, और शरीरबल उत्पन्न हुई। 
  • इन से इनसब का राजा प्राण का जन्म हुआ। जैसे सेवक अपने स्वामी राजा के पीछे-पीछे चलते हैं, वैसे ही जब प्राण सबके शरीरों में प्रबल रहता है, तो सभी इन्द्रियाँ भी प्रबल रहती हैं। और जब प्राण सुस्त पड़ जाता है, तो सभी इन्द्रियाँ भी निष्क्रिय हो जाती हैं।
  • जब प्राण (सांस) तेजी से आने-जाने लगा, तब विराट पुरुष को भूख और प्यास का अनुभव हुआ। खाने-पीने की इच्छा होते ही सबसे पहले उनके शरीर में मुख प्रकट हुआ। मुख से तालु और तालु से रसनेन्द्रिय (स्वाद ग्रहण करने की इन्द्रिय) प्रकट हुई।
  • इसके बाद कई प्रकार के रस (स्वाद) उत्पन्न हुए, जिन्हें रसना (जीभ) ग्रहण करती है। जब बोलने की इच्छा हुई, तब वाक्-इन्द्रिय (बोलने की शक्ति), उसके अधिष्ठातृ देवता अग्नि और उनका विषय (बोलना) प्रकट हुए। इसके बाद बहुत दिनोंतक उस जलमें ही वे रुके रहे।
  • जब श्वास का वेग बढ़ा, तो विराट पुरुष की नासिका (नाक) के छिद्र प्रकट हो गए।
  • सूँघने की इच्छा होने पर उनकी नाक में घ्राणेन्द्रिय (सूँघने की शक्ति) आ गई और उसके देवता वायुदेव प्रकट हुए।
  • पहले उनके शरीर में प्रकाश नहीं था, लेकिन जब उन्होंने अपने और दूसरी वस्तुओं को देखने की इच्छा की, तो नेत्र (आंखों) के छिद्र, सूर्य देव और नेत्रेन्द्रिय प्रकट हो गए।
  • वेदरूप ऋषियों द्वारा स्तुति करने पर उन्हें सुनने की इच्छा हुई, जिससे कान, दिशाओं के देवता और श्रोत्रेन्द्रिय (सुनने की शक्ति) प्रकट हो गए।
  • जब उन्होंने वस्तुओं की कोमलता, कठिनता, हलकापन, भारीपन, उष्णता और शीतलता आदि जानने की इच्छा की, तब उनके शरीर में चर्म (त्वचा) प्रकट हुई, जिसमें रोएँ पैदा हो गए और वायु भी प्रकट हो गया।
  • जब उन्होंने अनेकों प्रकार के कर्म करने की इच्छा की, तब उनके हाथ उग आए, जिनमें ग्रहण करने की शक्ति (हस्तेन्द्रिय) और उनके देवता इन्द्र प्रकट हुए। इससे ग्रहण करने का कर्म प्रकट हुआ।
इस प्रकार विराट पुरुष के इच्छा करने से उनके अनेक अंग, एवं उनसे संबंधी देवता प्रकट होते गये।
  • जब विराट पुरुष ने अपनी माया पर विचार करने की इच्छा की, तो उनके हृदय की उत्पत्ति हुई।
  • हृदय से मन रूपी इन्द्रिय की उत्पत्ति हुई, और मन से उसका देवता चन्द्रमा और विषय, कामना, तथा संकल्प प्रकट हुए।
  • विराट पुरुष के शरीर में पृथ्वी, जल, और तेज से सात धातुएँ प्रकट हुईं: त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा, और अस्थि। इसी प्रकार आकाश, जल, और वायु से प्राणों की उत्पत्ति हुई।
  • श्रोत्रादि सभी इन्द्रियाँ शब्द आदि विषयों को ग्रहण करती हैं, और ये विषय अहंकार से उत्पन्न हुए हैं। 
  • मन सभी विकारों का उत्पत्ति स्थल है और बुद्धि समस्त पदार्थों का बोध कराने वाली है।
शुकदेवजी कहते हैं, “मैंने भगवान्‌के इस स्थूलरूपका वर्णन तुम्हें सुनाया है⁠। यह बाहरकी ओरसे पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन आठ आवरणोंसे घिरा हुआ है।इससे परे भगवान्‌का अत्यन्त सूक्ष्मरूप है⁠। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि, मध्य और अन्तसे रहित एवं नित्य है⁠। वाणी और मनकी वहाँतक पहुँच नहीं है।”

स्थूल और सूक्ष्म रूप के परे भगवान श्रीकृष्ण 

भगवान के स्थूल और सूक्ष्म दो रूप होते हैं—एक व्यक्त (जो दिखाई देता है) और दूसरा अव्यक्त (जो दिखाई नहीं देता)। दोनों ही रूप भगवान की माया के द्वारा रचित हैं। विद्वान पुरुष इन दोनों रूपों को स्वीकार नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि भगवान वास्तव में इनसे परे हैं। भगवान स्वभाव से निष्क्रिय हैं, लेकिन अपनी शक्ति से सक्रिय हो जाते हैं और तब वे विराट रूप धारण करते हैं। भगवान वाच्य (शब्द) और वाचक (शब्द का अर्थ) के रूप में प्रकट होते हैं और अनेकों नाम, रूप और क्रियाएँ स्वीकार करते हैं। संसार में जितने भी नाम-रूप हैं, जैसे प्रजापति, देवता, ऋषि, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि, वे सभी भगवान के ही हैं। संसार में चर और अचर, जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज, आदि जीतने भी प्राणी हैं सब भगवान से ही उत्पन्न हुए हैं।

भगवान् जगत्‌के धारण-पोषणके लिये धर्ममय विष्णुरूप स्वीकार करके देवता, मनुष्य और पशु, पक्षी आदि रूपोंमें अवतार लेते हैं तथा विश्वका पालन-पोषण करते हैं। प्रलयका समय आनेपर वे ही भगवान् अपने बनाये हुए इस विश्वको कालाग्निस्वरूप रुद्रका रूप ग्रहण करके अपनेमें वैसे ही लीन कर लेते हैं, जैसे वायु मेघमालाको। महात्माओंने अचिन्त्यैश्वर्य भगवान्‌का इसी प्रकार वर्णन किया है⁠। परन्तु तत्त्वज्ञानी पुरुषोंको केवल इस सृष्टि, पालन और प्रलय करनेवाले रूपमें ही उनका दर्शन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे तो इससे परे भी हैं। सृष्टिकी रचना आदि कर्मोंका निरूपण करके पूर्ण परमात्मासे कर्म या कर्तापनका सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है⁠। वह तो मायासे आरोपित होनेके कारण कर्तृत्वका निषेध करनेके लिये ही है।

सब कल्पोंमें सृष्टि-क्रम एक-सा ही है⁠। अन्तर है तो केवल इतना ही कि महाकल्पके प्रारम्भमें प्रकृतिसे क्रमशः महत्तत्त्वादिकी उत्पत्ति होती है और कल्पोंके प्रारम्भमें प्राकृत सृष्टि तो ज्यों-की-त्यों रहती ही है, चराचर प्राणियोंकी वैकृत सृष्टि नवीन रूपसे होती है। सृष्टि की रचना के बारे में ब्रह्माजी के महाकल्प का वर्णन किया गया है। सभी कल्पों में सृष्टि का क्रम एक जैसा होता है, केवल अंतर इतना है कि महाकल्प के प्रारंभ में प्रकृति से महत्तत्त्व आदि की उत्पत्ति होती है, जबकि प्रत्येक कल्प के प्रारंभ में चराचर प्राणियों की वैकृत सृष्टि नए रूप में होती है।

श्रीमद्भागवत महापुराण के दूसरे स्कन्द के अंत में शौनकजीने सूतजी से पूछा, “सूतजी! आपने हमलोगोंसे कहा था कि भगवान्‌के परम भक्त विदुरजीने अपने कुटुम्बियोंको छोड़कर पृथ्वीके विभिन्न तीर्थोंमें विचरण किया था।  उस यात्रामें मैत्रेय ऋषिके साथ अध्यात्मके सम्बन्धमें उनकी बातचीत कहाँ हुई तथा मैत्रेयजीने उनके प्रश्न करनेपर किस तत्त्वका उपदेश किया? आप विदुरजीका वह चरित्र हमें सुनाइये⁠। उन्होंने अपने भाई-बन्धुओंको क्यों छोड़ा और फिर उनके पास क्यों लौट आये?” उत्तर में सूतजीने कहा की राजा परीक्षित्‌ने भी यही बात पूछी थी⁠। उनके प्रश्नोंके उत्तरमें श्रीशुकदेवजी महाराजने जो कुछ कहा था, वही मैं आपलोगोंसे कहता हूँ⁠। सावधान होकर सुनिये। 

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 22.08.2024