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27- अष्टांगयोग की विधि, भक्ति का मर्म और काल की महिमा

Oct 8th, 2024 | 12 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 3 अध्याय: 28 और 29

संख्या दर्शन- अष्टांगयोग की विधि, भक्ति का मर्म और काल की महिमा

भगवान कपिल माता देवहूति को बताते हैं कि- अब मैं तुम्हें सबीज (ध्यान के लिए किसी वस्तुके आलम्बनसे युक्त) योगका लक्षण बताता हूँ, जिसके द्वारा चित्त शुद्ध एवं प्रसन्न होकर परमात्माके मार्गमें प्रवृत्त हो जाता है।
स्वधर्माचरणं शक्त्या विधर्माच्च निवर्तनम् ।
दैवाल्लब्धेन सन्तोष आत्मवित् चरणार्चनम् ॥

ग्राम्यधर्मनिवृत्तिश्च मोक्षधर्मरतिस्तथा ।
मितमेध्यादनं शश्वद् विविक्तक्षेमसेवनम् ॥

अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रहः ।
ब्रह्मचर्यं तपः शौचं स्वाध्यायः पुरुषार्चनम् ॥

मौनं सदाऽऽसनजयः स्थैर्यं प्राणजयः शनैः ।
प्रत्याहारश्चेन्द्रियाणां विषयान्मनसा हृदि ॥ 
यथाशक्ति शास्त्रविहित स्वधर्मका पालन करना तथा शास्त्रविरुद्ध आचरणका परित्याग करना, प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाय उसीमें सन्तुष्ट रहना, आत्मज्ञानियोंके चरणोंकी पूजा करना, विषय-वासनाओंको बढ़ानेवाले कर्मोंसे दूर रहना, संसारबन्धनसे छुड़ानेवाले धर्मों में प्रेम करना, पवित्र और परिमित भोजन करना, निरन्तर एकान्त और निर्भय स्थानमें रहना, मन, वाणी और शरीरसे किसी जीवको न सताना, सत्य बोलना, चोरी न करना, आवश्यकतासे अधिक वस्तुओंका संग्रह न करना, ब्रह्मचर्यका पालन करना, तपस्या करना (धर्मपालनके लिये कष्ट सहना), बाहर-भीतरसे पवित्र रहना, शास्त्रोंका अध्ययन करना, भगवान्की पूजा करना, वाणीका संयम करना, उत्तम आसनोंका अभ्यास करके स्थिरतापूर्वक बैठना, धीरे-धीरे प्राणायामके द्वारा श्वासको जीतना, इन्द्रियोंको मनके द्वारा विषयोंसे हटाकर अपने हृदयमें ले जाना। (भागवत 3.28.2-3-4-5)

मूलाधार आदि किसी एक केन्द्रमें मनके सहित प्राणोंको स्थिर करना, निरन्तर भगवानकी लीलाओंका चिन्तन और चित्तको समाहित करना। इनसे तथा व्रत-दानादि दसरे साधनोंसे भी सावधानीके साथ प्राणोंको जीतकर बुद्धिके द्वारा अपने कुमार्गगामी दुष्ट चित्तको धीरे-धीरे एकाग्र करे, परमात्माके ध्यानमें लगावे। सबसे पहले आसन का अभ्यास करना चाहिए। पवित्र स्थान में कुशा, मृगचर्म आदि बिछाकर आसन तैयार करें। शरीर को सीधा और स्थिर रखते हुए सुखपूर्वक बैठें। प्राणवायु के मार्ग की शुद्धि के लिए पूरक (श्वास लेना), कुम्भक (श्वास रोकना), और रेचक (श्वास छोड़ना) का अभ्यास करें। प्रारंभ में बायीं नासिका से प्राणायाम करें और फिर दायीं नासिका से। यह चित्त को स्थिर और अचल करता है। जैसे वायु और अग्नि द्वारा तपाया हुआ सोना मल त्याग देता है, वैसे ही प्राणायाम के अभ्यास से योगी का मन शीघ्र शुद्ध हो जाता है। प्राणायाम वात-पित्तादि दोषों को समाप्त करता है। धारणासे पापोंको, प्रत्याहारसे विषयोंके सम्बन्धको और ध्यानसे भगवद् विमुख करनेवाले राग-द्वेषादि दुर्गुणोंको दूर करें। 

जब योगका अभ्यास करते-करते चित्त निर्मल और एकाग्र हो जाय, तब नासिकाके अग्रभागमें दृष्टि जमाकर भगवन की सम्पूर्ण अंगोंके रूपध्यान करें। भगवान्की लीलाएँ बड़ी दर्शनीय हैं; अतः अपनी रुचिके अनुसार खड़े हुए, चलते हुए, बैठे हुए, पौढ़े हुए अथवा अन्तर्यामीरूपमें स्थित हुए उनके स्वरूपका विशुद्ध भावयुक्त चित्तसे चिन्तन करें। इस प्रकार योगी जब यह अच्छी तरह देख ले कि भगवद्विग्रहमें चित्तकी स्थिति हो गयी, तब वह उनके समस्त अंगोंमें लगे हुए चित्तको विशेष रूपसे एक-एक अंगमें लगावे। रूपध्यानके अभ्याससे साधकका श्रीहरिमें प्रेम हो जाता है, उसका हृदय भक्तिसे द्रवित हो जाता है, शरीरमें आनन्दा के कारण रोमांच होने लगता है, उत्कण्ठाजनित प्रेमाश्रुओंकी धारामें वह बारंबार अपने शरीरको नहलाता है और फिर मछली पकड़नेके काँटेके समान श्रीहरिको अपनी ओर आकर्षित करनेके साधनरूप अपने चित्तको भी धीरे-धीरे ध्येय वस्तुसे हटा लेता है। जैसे दीपक का तेल खत्म हो जाने पर उसकी लौ बुझकर अपने स्रोत, यानी तेजस तत्व (प्रकाश तत्व) में लीन हो जाती है, वैसे ही जब मन अपने आधार (आश्रय), विषय, और राग से मुक्त हो जाता है, तब वह शांत होकर ब्रह्म का स्वरूप प्राप्त कर लेता है। इस स्थिति में व्यक्ति (जीव) जब अपने शरीर और गुणों से बंधनमुक्त हो जाता है, तब उसे ध्याता (जो ध्यान कर रहा है), ध्येय (जिस पर ध्यान किया जा रहा है) का कोई भेद नहीं दिखता। उसे हर जगह अखंड, एकमात्र परमात्मा ही दिखता है। 

योग के अभ्यास से, जब मन अज्ञान (अविद्या) से मुक्त होकर पूर्ण शांति प्राप्त कर लेता है, तब योगी को अपने ब्रह्म स्वरूप में स्थित होने का अनुभव होता है। इस अवस्था में उसे सुख-दुःख का अनुभव उसी अहंकार (अविद्या से उत्पन्न) में दिखता है, जिसे पहले वह अपने असली स्वरूप का हिस्सा मानता था। जैसे मदिरा पीने वाला व्यक्ति अपने वस्त्र के गिरने या लिपटे होने की चिंता नहीं करता, वैसे ही सिद्ध योगी, जो चरम अवस्था में होता है, अपने शरीर के बारे में नहीं सोचता। उसे यह भी पता नहीं होता कि वह बैठा है, उठा है, या कहीं गया है, क्योंकि वह परम आनंदमय स्थिति में रहता है। सिद्ध योगी का शरीर पिछले जन्म के कर्मों (संस्कारों) के कारण जीवित रहता है, और जब तक प्रारब्ध कर्म का फल समाप्त नहीं हो जाता, वह अपनी इंद्रियों के साथ जीता है। लेकिन जिसने योग की समाधि अवस्था और परमात्मा को जान लिया है, वह अपने शरीर को ऐसे देखता है जैसे स्वप्न में दिखाई देने वाले शरीर को। उसे अपने शरीर से कोई अहंकार या ममता का संबंध नहीं रह जाता, और वह फिर कभी इसे स्वीकार नहीं करता। जिस तरह साधारण जीव बहुत अधिक स्नेह के कारण अपने पुत्र, धन आदि में अपनापन महसूस करते हैं, परंतु जब थोड़ी देर के लिए वे सोचते हैं, तो यह साफ दिखाई देता है कि वे वस्तुएं (पुत्र, धन आदि) उनसे अलग हैं। उसी तरह, जो लोग शरीर और मन आदि को अपना आत्मा (स्वरूप) मान बैठते हैं, वे भी थोड़ी समझ से जान सकते हैं कि इन सबके साक्षी रूप में मौजूद आत्मा (पुरुष) इनसे अलग और स्वतंत्र है।
यथोल्मुकाद् विस्फुलिङ्गाद् धूमाद्वापि स्वसम्भवात् ।
अप्यात्मत्वेनाभिमताद् यथाग्निः पृथगुल्मुकात् ॥

भूतेन्द्रियान्तःकरणात् प्रधानात् जीवसंज्ञितात् ।
आत्मा तथा पृथग्द्रष्टा भगवान् ब्रह्मसंज्ञितः ॥
जिस तरह जलती हुई लकड़ी से निकलने वाले धुएं, चिनगारियों, और स्वयं जलती हुई लकड़ी को हम अग्नि मानते हैं, लेकिन वास्तव में अग्नि इन सबसे अलग होती है। इसी तरह, भूत (पांच तत्व), इंद्रियां, और अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) से आत्मा, जो उनका साक्षी है, अलग होता है। तथा जीव कहलानेवाले उस आत्मासे भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृतिसे उसके संचालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं। (भागवत 3.28.40-41)

जिस तरह शरीर के दृष्टिकोण से सभी जीव—जरायुज (जो माँ के गर्भ से पैदा होते हैं), अण्डज (जो अंडे से पैदा होते हैं), स्वेदज (जो पसीने या नमी से उत्पन्न होते हैं), और उद्भिज्ज (जो भूमि या पेड़-पौधों से उत्पन्न होते हैं)—ये चारों प्रकार के प्राणी केवल पंचभूत (पाँच तत्वों) से बने हैं, वैसे ही सभी जीवों में आत्मा को और आत्मा में सभी जीवों को बिना किसी भेदभाव के देखना चाहिए। जैसे एक ही अग्नि, अलग-अलग जगहों में होने के कारण उनके आकार और स्वरूप के आधार पर भिन्न-भिन्न दिखाई देती है, उसी प्रकार एक ही आत्मा, देवता, मनुष्य, आदि विभिन्न शरीरों में निवास करते हुए, उनके गुणों के अंतर के कारण अलग-अलग प्रतीत होती है।
तस्माद् इमां स्वां प्रकृतिं दैवीं सदसदात्मिकाम् ।
दुर्विभाव्यां पराभाव्य स्वरूपेणावतिष्ठते ॥ 
अतः भगवान्का भक्त जीवके स्वरूपको छिपा देनेवाली भगवन की इस अचिन्त्य शक्तिमयी मायाको भगवान्की कृपासे ही जीतकर अपने वास्तविक स्वरूप-ब्रह्मरूपमें स्थित होता है। (भागवत 3.28.44)
इसके पश्चात देवहूति ने भगवान कपिल से कहा कि अब कृपा करके भक्तियोगका मार्ग मुझे विस्तारपूर्वक बताइये। इसके सिवा जीवोंकी जन्म-मरणरूपा अनेक प्रकारकी गतियोंका भी वर्णन कीजिये; जिनके सुननेसे जीवको सब प्रकारकी वस्तुओंसे वैराग्य होता है। जिसके भयसे लोग शुभ कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं और जो ब्रह्मादिका भी शासन करनेवाला है, उस सर्वसमर्थ कालका स्वरूप भी आप मुझसे कहिये।

स्वभाव और गुण के अनुरूप भक्ति के प्रकार

माता के प्रश्नों का उत्तर देते हुये भगवान कपिल ने चार प्रकार के भक्तों का व्याख्या किया।
  1. तामस भक्त: जो भेददर्शी क्रोधी पुरुष हृदयमें हिंसा, दम्भ अथवा मात्सर्यका भाव रखकर मुझसे प्रेम करता है, वह मेरा तामस भक्त है।
  2. राजस भक्त: जो पुरुष विषय, यश और ऐश्वर्यकी कामनासे प्रतिमादिमें मेरा भेदभावसे पूजन करता है, वह राजस भक्त है।
  3. सात्त्विक भक्त: जो व्यक्ति पापोंका क्षय करनेके लिये, परमात्माको अर्पण करनेके लिये और पूजन करना कर्तव्य है-इस बुद्धिसे मेरा भेदभावसे पूजन करता है, वह सात्त्विक भक्त है।
  4. निर्गुण भक्ति:
लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतम् ।
अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥
जिस प्रकार गंगाका प्रवाह अखण्डरूपसे समुद्रकी ओर बहता रहता है, उसी प्रकार मेरे गुणोंके श्रवणमात्रसे मनकी गतिका तैलधारावत् अविच्छिन्नरूपसे मुझ सर्वान्तर्यामीके प्रति हो जाना तथा मुझ पुरुषोत्तममें निष्काम और अनन्य प्रेम होना—यह निर्गुण भक्तियोगका लक्षण कहा गया है।(भागवत 3.29.12)
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्य सारूप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥
ऐसे निष्काम भक्त, दिये जानेपर भी, मेरी सेवाको छोड़कर सालोक्य, सार्टि, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य मोक्षतक नहीं लेते– (भागवत 3.29.13)
स एव भक्तियोगाख्य आत्यन्तिक उदाहृतः ।
येनातिव्रज्य त्रिगुणं मद्‍भावायोपपद्यते ॥
भगवत् सेवाके लिये मुक्तिका तिरस्कार करनेवाला यह भक्तियोग ही परम पुरुषार्थ अथवा साध्यकहा गया है। इसके द्वारा पुरुष तीनों गुणोंको लाँघकर मेरे भावको–मेरे प्रेमरूप अप्राकृत स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। (3.29.14)

चित्त शुद्धि कैसे होगी?

भगवान कपिल कहते हैं- निष्कामभावसे श्रद्धापूर्वक अपने नित्य-नैमित्तिक कर्तव्योंका पालन कर, नित्यप्रति हिंसारहित उत्तम क्रियायोगका अनुष्ठान करने, मेरी (भगवानकी) प्रतिमाका दर्शन, स्पर्श, पूजा, स्तुति और वन्दना करने, प्राणियोंमें मेरी भावना करने, धैर्य और वैराग्यके अवलम्बन, महापुरुषोंका मान, दीनोंपर दया और समान स्थितिवालोंके प्रति मित्रताका व्यवहार करने, यम-नियमोंका पालन, अध्यात्मशास्त्रोंका श्रवण और मेरे नामोंका उच्चस्वरसे कीर्तन करनेसे तथा मनकी सरलता, सत्पुरुषोंके संग और अहंकारके त्यागसे मेरे धर्मोंका (भागवत धर्मोंका) अनुष्ठान करनेवाले भक्त पुरुषका चित्त अत्यन्त शुद्ध होकर मेरे गुणोंके श्रवणमात्रसे अनायास ही मुझमें लग जाता है। 
यथा वातरथो घ्राणं आवृङ्क्ते गन्ध आशयात् ।
एवं योगरतं चेत आत्मानं अविकारि यत् ॥
जिस प्रकार वायुके द्वारा उड़कर जानेवाला गन्ध अपने आश्रय पुष्पसे घ्राणेन्द्रियतक पहुँच जाता है, उसी प्रकार भक्तियोगमें तत्पर और राग-द्वेषादि विकारोंसे शून्य चित्त परमात्माको प्राप्त कर लेता है। (भागवत 3.29.20)
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा ।
तं अवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेऽर्चाविडम्बनम् ॥
मैं आत्मारूपसे सदा सभी जीवोंमें स्थित हूँ; इसलिये जो लोग मुझ सर्वभूतस्थित परमात्माका अनादर करके केवल प्रतिमामें ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वाँगमात्र है। (भागवत 3.29.21)
मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतोंमें स्थित हँ; (यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम्) ऐसी दशामें जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमाके पूजनमें ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्ममें ही हवन करता है।
द्विषतः परकाये मां मानिनो भिन्नदर्शिनः ।
भूतेषु बद्धवैरस्य न मनः शान्तिमृच्छति ॥
जो भेददर्शी और अभिमानी पुरुष दूसरे जीवोंके साथ वैर बाँधता है और इस प्रकार उनके शरीरोंमें विद्यमान मुझ आत्मासे ही द्वेष करता है, उसके मनको कभी शान्ति नहीं मिल सकती।(भागवत 3.29.23)
अहमुच्चावचैर्द्रव्यैः क्रिययोत्पन्नयानघे ।
नैव तुष्येऽर्चितोऽर्चायां भूतग्रामावमानिनः ॥
 
माताजी! जो दूसरे जीवोंका अपमान करता है, वह बहुत-सी घटिया-बढ़िया सामग्रियोंसे अनेक प्रकारके विधि-विधानके साथ मेरी मूर्तिका पूजन भी करे तो भी मैं उससे प्रसन्न नहीं हो सकता। (भागवत 3.29.24)
मनुष्य अपने धर्मका अनुष्ठान करता हुआ तबतक मुझ ईश्वरकी प्रतिमा आदिमें पूजा करता रहे, जबतक उसे अपने हृदयमें एवं सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित परमात्माका अनुभव न हो जाय।
आत्मनश्च परस्यापि यः करोत्यन्तरोदरम् ।
तस्य भिन्नदृशो मृत्युः विदधे भयमुल्बणम् ॥
जो व्यक्ति आत्मा और परमात्माके बीचमें थोड़ा-सा भी अन्तर करता है, उस भेददर्शीको मैं मृत्युरूपसे महान् भय उपस्थित करता हूँ। (भागवत 3.29.26)
अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।
अर्हयेद् दानमानाभ्यां मैत्र्याभिन्नेन चक्षुषा ॥
अतः सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर घर बनाकर उन प्राणियोंके ही रूपमें स्थित मुझ परमात्माका यथायोग्य दान, मान, मित्रताके व्यवहार तथा समदृष्टिके द्वारा पूजन करना चाहिये। (भागवत 3.29.27)

विभिन्न प्रकार के जीव और उनकी श्रेष्ठता का क्रम

पाषाणादि अचेतनोंकी अपेक्षा वृक्षादि जीव श्रेष्ठ हैं, उनसे साँस लेनेवाले प्राणी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी मनवाले प्राणी उत्तम और उनसे इन्द्रियकी वृत्तियोंसे युक्त प्राणी श्रेष्ठ हैं। सेन्द्रिय प्राणियोंमें भी केवल स्पर्शका अनुभव करनेवालोंकी अपेक्षा रसका ग्रहण कर सकनेवाले मत्स्यादि उत्कृष्ट हैं तथा रसवेत्ताओंकी अपेक्षा गन्धका अनुभव करनेवाले (भ्रमरादि) और गन्धका ग्रहण करनेवालोंसे भी शब्दका ग्रहण करनेवाले (सर्पादि) श्रेष्ठ हैं। उनसे भी रूपका अनुभव करनेवाले (काकादि) उत्तम हैं और उनकी अपेक्षा जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँत होते हैं, वे जीव श्रेष्ठ हैं। उनमें भी बिना पैरवालोंसे बहुत-से चरणोंवाले श्रेष्ठ हैं तथा बहुत चरणोंवालोंसे चार चरणवाले और चार चरणवालोंसे भी दो चरणवाले मनुष्य श्रेष्ठ हैं।

मनुष्योंमें भी वेदको जाननेवाले उत्तम हैं और वेदज्ञोंमें भी वेदका तात्पर्य जाननेवाले श्रेष्ठ हैं। तात्पर्य जाननेवालोंसे संशय निवारण करनेवाले, उनसे भी अपने वर्णाश्रमोचित धर्मका पालन करनेवाले तथा उनसे भी आसक्तिका त्याग और अपने धर्मका निष्कामभावसे आचरण करनेवाले श्रेष्ठ हैं।
तस्मान्मय्यर्पिताशेष क्रियार्थात्मा निरन्तरः ।
मय्यर्पितात्मनः पुंसो मयि सन्न्यस्तकर्मणः ।

न पश्यामि परं भूतं अकर्तुः समदर्शनात् ॥
उनकी अपेक्षा भी जो लोग अपने सम्पूर्ण कर्म, उनके फल तथा अपने शरीरको भी मुझे ही अर्पण करके भेदभाव छोड़कर मेरी उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार मुझे ही चित्त और कर्म समर्पण करनेवाले अकर्ता और समदर्शी पुरुषसे बढ़कर मुझे कोई अन्य प्राणी नहीं दीखता। (भागवत 3.29.33)
मनसैतानि भूतानि प्रणमेद्‍बहुमानयन् ।
ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ॥
अतः यह मानकर कि जीवरूप अपने अंशसे साक्षात् भगवान् ही सबमें अनुगत हैं, इन समस्त प्राणियोंको बड़े आदरके साथ मनसे प्रणाम करे। (भागवत 3.29.34)
भक्तियोगश्च योगश्च मया मानव्युदीरितः ।
ययोरेकतरेणैव पुरुषः पुरुषं व्रजेत् ॥
माताजी! इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये भक्तियोग और अष्टांगयोगका वर्णन किया। इनमेंसे एकका भी साधन करनेसे जीव परमपुरुष भगवान्को प्राप्त कर सकता है। (भागवत 3.29.35)

काल की महिमा

एतद्‍भगवतो रूपं ब्रह्मणः परमात्मनः ।
परं प्रधानं पुरुषं दैवं कर्मविचेष्टितम् ॥

रूपभेदास्पदं दिव्यं काल इत्यभिधीयते ।
भूतानां महदादीनां यतो भिन्नदृशां भयम् ॥
भगवान् परमात्मा परब्रह्मका अद्भुत प्रभाव सम्पन्न तथा जागतिक पदार्थों के नानाविध वैचित्र्यका हेतुभूत स्वरूपविशेष (इसका तात्पर्य यह है कि समय के कारण विभिन्न रूपों और अवस्थाओं का निर्माण होता है, जिससे संसार में विविधता उत्पन्न होती है) ही ‘काल’ नामसे विख्यात है। प्रकृति और पुरुष इसीके रूप हैं तथा इनसे यह पृथक् भी है। नाना प्रकारके कर्मोंका मूल अदृष्ट भी यही है तथा इसीसे महत्तत्त्वादिके अभिमानी भेददर्शी प्राणियोंको सदा भय लगा रहता है। (भागवत 3.29.36-37)

जो सबका आश्रय होनेके कारण समस्त प्राणियों में अनु प्रविष्ट होकर (अंदर रहकर) भूतोंद्वारा ही उनका संहार करता है, वह जगतका शासन करनेवाले ब्रह्मादिका भी प्रभु भगवान् काल ही यज्ञोंका फल देनेवाला विष्णु है। इसका न तो कोई मित्र है न कोई शत्रु और न तो कोई सगा-सम्बन्धी ही है। यह सर्वदा सजग रहता है और भगवान को भूलकर भोगरूप प्रमादमें पड़े हुए प्राणियों पर आक्रमण करके उनका संहार करता है। इसीके भयसे वायु चलता है, इसीके भयसे सूर्य तपता है, इसीके भयसे इन्द्र वर्षा करते हैं और इसीके भयसे तारे चमकते हैं। इसीसे भयभीत होकर ओषधियोंके सहित लताएँ और सारी वनस्पतियाँ समय-समयपर फल-फूल धारण करती हैं। इसीके डरसे नदियाँ बहती हैं और समुद्र अपनी मर्यादासे बाहर नहीं जाता। इसीके भयसे अग्नि प्रज्वलित होती है और पर्वतोंके सहित पृथ्वी जलमें नहीं डूबती। इसीके शासनसे यह आकाश जीवित प्राणियोंको श्वास-प्रश्वासके लिये अवकाश देता है और महत्तत्त्व अहंकाररूप शरीरका सात आवरणोंसे युक्त ब्रह्माण्डके रूपमें विस्तार करता है। इस कालके ही भयसे सत्त्वादि गुणोंके नियामक विष्णु आदि देवगण, जिनके अधीन यह सारा चराचर जगत् है, अपने जगत्-रचना आदि कार्यों में युगक्रमसे तत्पर रहते हैं। 
सोऽनन्तोऽन्तकरः कालो अनादिरादिकृदव्ययः ।
जनं जनेन जनयन् मारयन् मृत्युनान्तकम् ॥ 
यह अविनाशी काल स्वयं अनादि किन्तु दूसरोंका आदिकर्ता (उत्पादक) है तथा स्वयं अनन्त होकर भी दूसरोंका अन्त करनेवाला है। यह पितासे पुत्रकी उत्पत्ति कराता हुआ सारे जगत्की रचना करता है और अपनी संहारशक्ति मृत्युके द्वारा यमराजको भी मरवाकर इसका अन्त कर देता है। (भागवत 3.29.45)

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 07.10.2024