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49- भागवत के अनुसार – अजामिल केवल 'नारायण' नाम जपने से नहीं पहुँचा वैकुण्ठ!

Mar 8th, 2025 | 11 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 6 अध्याय: 1-2

राजा परीक्षित शुकदेवजी से कहते हैं- "आपने निवृत्ति मार्ग (द्वितीय स्कन्ध में) का वर्णन किया, जिससे जीव अर्चिरादि मार्ग से ब्रह्मलोक पहुँचता है और फिर ब्रह्म के साथ मुक्त हो जाता है। साथ ही, प्रवृत्ति मार्ग (तृतीय स्कन्ध में) भी बताया, जिसमें जीव स्वर्ग आदि लोकों को प्राप्त करता है, लेकिन प्रकृति के बंधन से मुक्त न होने के कारण बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में फँसता है। आपने समझाया कि अधर्म करने से जीव को नरकों की यातना सहनी पड़ती है और (पाँचवें स्कन्ध में) उनका विस्तार से वर्णन भी किया। इसके अलावा, (चौथे स्कन्ध में) पहले मन्वंतर के अधिपति स्वायम्भुव मनु का, प्रियव्रत और उत्तानपाद के वंशों का, तथा भू-मंडल, द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत, नदियों आदि का भी विस्तार से निरूपण किया। लेकिन भगवन्, अब मैं यह जानना चाहता हूँ— ऐसा कौन-सा उपाय है जिससे मनुष्य नरकों की यातना से बच सके? कृपा करके उसका उपदेश दीजिए।"

श्रीशुकदेवजी उत्तर देते हैं- "मनुष्य अपने मन, वाणी और शरीर से पाप करता है। यदि वह इन्हीं पापों का इसी जन्म में प्रायश्चित्त न कर ले, तो मरने के बाद भयंकर नरकों की यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। इसलिए, जैसे कोई कुशल वैद्य बीमारी का कारण जानकर तुरंत इलाज करता है, वैसे ही मनुष्य को भी शीघ्रता से अपने पापों का प्रायश्चित्त कर लेना चाहिए।"

राजा परीक्षित पूछते हैं- "भगवन्! मनुष्य जानता है कि पाप बुरा है, फिर भी वह बार-बार वही गलतियाँ दोहराता है। राजदण्ड, समाज का भय और नरक की यातनाएँ जानते हुए भी वह पाप करने से बच नहीं पाता। ऐसे में उसके पापों का प्रायश्चित्त कैसे संभव है? कभी वह प्रायश्चित्त करके पापों से बच जाता है, लेकिन बाद में फिर वही करने लगता है। यह तो वैसा ही हुआ जैसे हाथी स्नान करने के बाद फिर धूल में लोट जाए। अगर ऐसा ही चलता रहे, तो क्या प्रायश्चित्त करना व्यर्थ नहीं है?"

श्रीशुकदेवजी उत्तर देते हैं- "सिर्फ कर्म करने से पाप खत्म नहीं होते, क्योंकि जब तक अज्ञान बना रहेगा, पाप की आदत छूटेगी नहीं। इसलिए सच्चा प्रायश्चित्त तत्त्वज्ञान ही है। जैसे कोई सही खान-पान अपनाए तो बीमारियाँ पास नहीं आतीं, वैसे ही जो अच्छे नियमों का पालन करता है, वह धीरे-धीरे बुरी आदतों से मुक्त होकर तत्त्वज्ञान प्राप्त कर सकता है। जैसे आग पूरे जंगल को भस्म कर देती है, वैसे ही तपस्या, ब्रह्मचर्य, इन्द्रिय संयम, मन की स्थिरता, दान, सत्य, शुद्धता और अच्छे नियमों का पालन—इनसे मन, वाणी और शरीर से किए गए बड़े से बड़े पाप भी नष्ट हो सकते हैं।"
केचित्केवलया भक्त्या वासुदेवपरायणाः ।
अघं धुन्वन्ति कार्त्स्न्येन नीहारमिव भास्करः ॥
भगवानकी शरणमें रहनेवाले भक्तजन, जो बिरले ही होते हैं, केवल भक्तिके द्वारा अपने सारे पापोंको उसी प्रकार भस्म कर देते हैं, जैसे सूर्य कुहरेको। (भागवत 6.1.15)

परीक्षित! पापी मनुष्य की सच्ची शुद्धि केवल भगवान को आत्मसमर्पण करने और उनके भक्तों की सेवा करने से ही होती है। तपस्या आदि से वह शुद्धि नहीं मिल सकती। इस संसार में भक्ति का मार्ग ही सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि इसी मार्ग पर भगवान के भक्त और सज्जन लोग चलते हैं।
सकृन्मनः कृष्णपदारविन्दयोः र्निवेशितं तद्‍गुणरागि यैरिह ।
न ते यमं पाशभृतश्च तद्‍भटान् स्वन्स्वप्नेऽपि पश्यन्ति हि चीर्णनिष्कृताः ॥
जिन्होंने अपने भगवद्गुणानुरागी मन-मधुकरको भगवान् श्रीकृष्णके चरणारविन्द मकरन्दका एक बार पान करा दिया, उन्होंने सारे प्रायश्चित्त कर लिये। वे स्वप्नमें भी यमराज और उनके पाशधारी दूतोंको नहीं देखते। फिर नरककी तो बात ही क्या है। (भागवत 6.1.19)

अजामिल की वास्तविक कथा

भगवान् की भक्ति करने वालों की सारी पाप कैसे नष्ट हो जाती है इस संबंध में शुकदेवजी ने परीक्षित को अजामिल की कथा सुनाई। कान्यकुब्ज (कन्नौज) में अजामिल नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वह पहले महान शास्त्रज्ञ और सद्गुणों का भंडार था। वह ब्रह्मचारी, विनम्र, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ और पवित्र था। उसने अपने गुरु, अग्नि, अतिथि और वृद्धजनों की सेवा की थी। अहंकार उसमें लेशमात्र भी नहीं था, और वह सदा प्राणियों का हित चाहता था। वह आवश्यकता के अनुसार ही बोलता और कभी किसी के गुणों में दोष नहीं ढूँढ़ता था।
एक दिन जब वह अपने पिता के आदेश पर वन से समिधा, फल-फूल और कुश लेकर लौट रहा था, तो उसने मार्ग में एक कामी और निर्लज्ज व्यक्ति को, जिसने शराब पी रखी थी, एक वेश्या के साथ विहार करता देखा। वह वेश्या भी नशे में चूर होकर अर्धनग्न अवस्था में थी। दोनों हँसते, गाते और हास्यपूर्ण चेष्टाएँ करके एक-दूसरे को रिझा रहे थे।
अजामिल, जो कि अब तक एक निष्पाप और सदाचारी पुरुष था, इस दृष्य को देखकर सहसा मोहित हो गया। उसने अपने ज्ञान और धैर्य के बल पर अपने चंचल मन को रोकने की बहुत चेष्टा की, किंतु वासनाओं के प्रबल वेग के सामने वह टिक न सका। काम-वासना ने उसके मन को पूरी तरह से अपने वश में कर लिया, और उसकी शास्त्रीय चेतना लुप्त हो गई।

अब उसका सारा ध्यान केवल उसी वेश्या पर केंद्रित हो गया। वह उसे प्रसन्न करने के लिए सुंदर वस्त्र, आभूषण और विविध उपहार लाने लगा। धीरे-धीरे उसका पतन इस हद तक हो गया कि उसने अपनी कुलीन और विवाहिता पत्नी तक को छोड़ दिया। धर्म और सदाचार से विमुख होकर वह उस वेश्या के साथ रहने लगा। उसकी कामना इतनी बढ़ गई कि वह न्याय-अन्याय का विचार किए बिना धन एकत्र करने लगा। चोरी, छल, कपट और धोखाधड़ी से प्राप्त धन को भी वह उस वेश्या पर लुटाता रहा। उसका संपूर्ण जीवन अब वेश्यागमन, भोग-विलास और अधर्ममय कार्यों में ही बीतने लगा।
धीरे-धीरे उसका सारा जीवन इसी बुरे कर्म में बीतने लगा। 88 वर्ष की उम्र तक वह दासी के बच्चों का पालन-पोषण करता रहा। उसके 10 बेटे थे, और सबसे छोटे का नाम ‘नारायण’ था, जिसे वह बहुत प्यार करता था। अजामिल अपने छोटे बेटे नारायण के मोह में इस कदर बंध गया कि उसी के खेल-कूद और तोतली बोली में मग्न रहता। जब वह खाता, तो उसे भी खिलाता, जब पानी पीता, तो उसे भी पिलाता। उसे इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि अब उसकी मृत्यु निकट आ चुकी है।

जब मृत्यु का समय आया, तो उसने देखा कि तीन भयानक यमदूत उसके पास आ खड़े हुए। उनके हाथों में फांसी का फंदा था, चेहरे डरावने थे और शरीर के रोएँ खड़े हुए थे। अजामिल भय से कांप उठा। उस समय बालक नारायण वहाँसे कुछ दूरीपर खेल रहा था। यमदूतोंको देखकर अजामिल अत्यन्त व्याकुल हो गया और उसने बहुत ऊँचे स्वरसे पुकारा—'नारायण!'

भगवान्के पार्षदोंने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान् नारायणका नाम ले रहा है, उनके नामका कीर्तन कर रहा है; अतः वे बड़े वेगसे झटपट वहाँ आ पहँचे। उस समय यमराजके दूत अजामिलके शरीरमेंसे उसके सूक्ष्मशरीरको खींच रहे थे। विष्णुदूतोंने उन्हें बलपूर्वक रोक दिया।

यमदूतों ने नारायणदूतों को रोकते हुए पूछा— 'तुम कौन हो जो धर्मराज की आज्ञा का निषेध कर रहे हो? तुम किसके दूत हो, कहाँ से आए हो, और हमें इसे ले जाने से क्यों रोक रहे हो? क्या तुम देवता, उपदेवता या सिद्धश्रेष्ठ हो? तुम्हारे नेत्र कमलदल के समान कोमल हैं, पीले रेशमी वस्त्र धारण किए हुए हो, सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और गले में मालाएँ शोभित हो रही हैं। तुम्हारी चार सुंदर भुजाएँ हैं, जिनमें धनुष, तरकश, तलवार, गदा, शंख, चक्र और कमल सुशोभित हैं। हम धर्मराज के सेवक हैं, हमें क्यों रोक रहे हो?'

जब यमदूतों ने भगवान के पार्षदों से सवाल किया, तो भगवान के पार्षदों ने कहा, "यदि तुम सच में धर्मराज के आज्ञाकारी हो, तो हमें धर्म का लक्षण और तत्त्व समझाओ। दण्ड कैसे दिया जाता है, और दण्ड का पात्र कौन है? क्या सभी पापी दण्डनीय हैं, या कुछ ही?"

यमदूतों ने जवाब दिया कि वेदों द्वारा निर्धारित कर्म धर्म हैं, और जिनका निषेध किया गया है, वे अधर्म हैं। वेद भगवान के स्वरूप हैं, और वे जगत के रजोमय, सत्त्वमय और तमोमय पदार्थों को उनके गुणों के अनुसार विभाजित करते हैं। वेद के साक्षी सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियाँ, चन्द्रमा आदि होते हैं, और इन्हीं के द्वारा कर्मों का निर्धारण होता है। पाप करने वाले सभी मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार दण्डित होते हैं।

यमदूतों ने यह भी कहा कि हर जीव का कर्म उसके गुणों से संबंधित होता है, और वह पाप और पुण्य दोनों करता है। किसी भी मनुष्य के लिए कर्मों से मुक्त होना संभव नहीं है। इस प्रकार, जो पापी कर्म करता है, वह उसके अगले जन्मों में फल भोगता है। भगवान यमराज सर्वज्ञ और अजन्मा हैं, और वे सभी जीवों के पूर्व और भविष्य के रूपों को अपने मन से देख सकते हैं। जैसे एक व्यक्ति स्वप्न में अपने शरीर को वास्तविक मानता है, वैसे ही जीव अपने पूर्वजन्मों को भूल जाता है। इस संसार में जीव अपने कर्मों का अनुभव करता है और यह शरीर, मन, इन्द्रियाँ और कर्मों का संगम है, जो उसे जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालता है। जो जीव अज्ञानवश अपने शत्रुओं जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पर विजय प्राप्त नहीं कर पाता, वह अपने कर्मों में फंस जाता है और मोह का शिकार बनता है, जैसे रेशम का कीड़ा अपने जाल में फंसता है।
न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म गुणैः स्वाभाविकैर्बलात् ॥
"कोई भी मनुष्य एक क्षण के लिए अकर्मा नहीं रह सकता। सभी जीव अपने प्राकृतिक गुणों द्वारा कर्म करने के लिए बाध्य होते हैं।" (भागवत 6.1.53)

जीव अपने पूर्वजन्मोंके पाप-पुण्यमय संस्कारों के अनुसार स्थूल और सूक्ष्म शरीर प्राप्त करता है।प्रकृतिका (माया) संसर्ग होनेसे ही पुरुष (जीव) अपनेको अपने वास्तविक स्वरूपके विपरीत शरीर मान बैठा है। यह विपर्यय भगवान्के भजनसे शीघ्र ही दूर हो जाता है। इस पापी अजामिलने शास्त्राज्ञाका उल्लंघन करके स्वच्छन्द आचरण किया है। इसने अबतक अपने पापोंका कोई प्रायश्चित्त भी नहीं किया है। इसलिये अब हम इस पापीको यमराजके पास ले जायेंगे। वहाँ यह अपने पापोंका दण्ड भोगकर शुद्ध हो जायगा।

भगवान के पार्षदों ने यमदूतों से कहा कि यह आश्चर्यजनक और खेदजनक है कि धर्मज्ञों के बीच अधर्म प्रवेश कर रहा है, और निर्दोष लोगों को व्यर्थ दण्ड दिया जा रहा है। यदि शासक और रक्षक ही विषमता का व्यवहार करने लगे, तो प्रजा किसके पास जाएगी? साधारण लोग सत्पुरुषों का अनुसरण करते हैं, और उनका विश्वास अधर्म को भी धर्म मानने में होता है। अज्ञानी व्यक्ति ने भगवान के नाम का उच्चारण किया और समस्त पापों का प्रायश्चित्त कर लिया। यह बात सत्य है कि भगवान के नाम का उच्चारण करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, चाहे वह अज्ञानवश हो या जान-बूझकर। इसीलिए यमदूतों, अजामिल को ले जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उसने भगवान के नाम का उच्चारण किया है और सारे पापों का प्रायश्चित्त कर लिया है।

पार्षदों ने यह भी कहा कि भगवान के नाम का उच्चारण, चाहे वह जानबूझकर किया जाए या अनजाने में, चाहे वह किसी हंसी मजाक में, तान अलापने में, या किसी की अवहेलना करने में हो, सभी परिस्थितियों में व्यक्ति के पापों का नाश कर देता है। अगर कोई व्यक्ति गिरते समय, चोट लगते समय, साँप के डंसे या आग में जलने की स्थिति में 'हरि-हरि' कहकर भगवान का नाम उच्चारण करता है, तो वह यमदूतों की पकड़ से बच जाता है। महर्षियोंने जान-बूझकर बड़े पापोंके लिये बड़े और छोटे पापोंके लिये छोटे प्रायश्चित्त बतलाये हैं। इसमें सन्देह नहीं कि उन तपस्या, दान, जप आदि प्रायश्चित्तोंके द्वारा वे पाप नष्ट हो जाते हैं। परन्तु उन पापोंसे मलिन हुआ उसका हृदय शुद्ध नहीं होता। भगवान्के चरणोंकी सेवासे वह भी शुद्ध हो जाता है। जैसे आग से भस्म हो जाने पर वस्तु पूरी तरह से नष्ट हो जाती है, वैसे ही भगवान का नाम हर परिस्थिति में पापों को नष्ट करने वाला है। जैसे कोई बिना जानें भी अमृत पीने से अमर हो जाता है, वैसे ही वैसे ही अनजानमें उच्चारण करनेपर भी भगवान्का नाम अपना फल देकर ही रहता है।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं राजन्! इस प्रकार भगवान्के पार्षदोंने भागवत-धर्मका पूरापूरा निर्णय सुना दिया और अजामिलको यमदूतोंके पाशसे छुड़ाकर मृत्युके मुखसे बचा लिया। अजामिल यमदूतोंके फंदेसे छूटकर निर्भय और स्वस्थ हो गया। अजामिलने भगवान्के पार्षदोंसे विशुद्ध भागवत-धर्म और यमदूतोंके मुखसे वेदोक्त सगुण (प्रवृत्तिविषयक) धर्मका श्रवण किया था। सर्वपापापहारी भगवानकी महिमा सुननेसे अजामिलके हृदयमें शीघ्र ही भक्तिका उदय हो गया। अब उसे अपने पापोंको याद करके बडा पश्चात्ताप होने लगा।

अजामिल ने मन-ही-मन सोचा कि उसने अपनी इन्द्रियों के वश होकर बहुत पाप किए। यद्यपि मैं इस जन्मका महापापी हूँ, फिर भी मैंने पूर्वजन्मोंमें अवश्य ही शुभकर्म किये होंगे नहीं तो मरनेके समय मेरी जीभ भगवान्के मनोमोहक नामका उच्चारण कैसे कर पाती? अब मैं अपने मन, इन्द्रिय और प्राणोंको वशमें करके ऐसा प्रयत्न करूँगा कि फिर अपनेको घोर अन्धकारमय नरकमें न डालूँ। अज्ञानवश मैंने अपनेको शरीर समझकर उसके लिये बड़ी-बड़ी कामनाएँ की और उनकी पूर्तिके लिये अनेकों कर्म किये। उन्हींका फल है यह बन्धन! अब मैं इसे काटकर समस्त प्राणियोंका हित करूँगा, वासनाओंको शान्त कर दूंगा। अब मैं अपने-आपको उस मायासे मुक्त करूँगा । मैंने सत्य वस्तु परमात्माको पहचान लिया है; अतः अब मैं शरीर आदिमें ‘मैं’ तथा ‘मेरे’ का भाव छोड़कर भगवन्नामके कीर्तन आदिसे अपने मनको शुद्ध करूँगा और उसे भगवान्में लगाऊँगा ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! उन भगवान्के पार्षद महात्माओंका केवल थोड़ी ही देरके लिये सत्संग हआ था। इतनेसे ही अजामिलके चित्तमें संसारके प्रति तीव्र वैराग्य हो गया। वे सबके सम्बन्ध और मोहको छोड़कर हरिद्वार चला गया और वहाँ पर भगवान की नवधा भक्ति किया। इस प्रकार जब अजामिलकी बुद्धि त्रिगुणमयी प्रकृतिसे ऊपर उठकर भगवान्के स्वरूपमें स्थित हो गयी, तब उन्होंने देखा कि उनके सामने वे ही चारों पार्षद, जिन्हें उन्होंने पहले देखा था, खड़े हैं। अजामिलने सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया। उनका दर्शन पानेके बाद उन्होंने उस तीर्थस्थानमें गंगाके तटपर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवानके पार्षदोंका स्वरूप प्राप्त कर लिया। अजामिल भगवान्के पार्षदोंके साथ स्वर्णमय विमानपर आरूढ़ होकर आकाशमार्गसे भगवान् लक्ष्मीपतिके निवासस्थान वैकुण्ठको चले गये।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 07.03.2025