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29- अर्चि और धूम मार्ग से सत्यलोक, स्वर्ग और पितृलोक में जानेवाले जीव की गति

Oct 15th, 2024 | 8 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 3 अध्याय: 32 और 33

संख्या दर्शन- अर्चि मार्ग और धूम मार्ग से जाने वाले मनुष्य की गति

भगवान कपिल माता देवहूति को बताते हैं कि- जो व्यक्ति घर में रहते हुए गृहस्थ धर्म का पालन करता है, और उसके फलस्वरूप धन और विषयों का भोग करता है, वह उन्हीं कामनाओं में फंसा रहता है। इस कारण वह भगवान के धर्म से दूर हो जाता है और यज्ञों के द्वारा श्रद्धा से देवताओं और पितरों की ही पूजा करता है। उसकी बुद्धि उसी प्रकार की श्रद्धा से भरी रहती है, और देवता तथा पितर ही उसके उपास्य होते हैं। इसलिए वह चंद्रलोक जाकर उनके साथ सोमपान करता है, लेकिन जब उसके पुण्य समाप्त हो जाते हैं, तो वह फिर से इसी संसार में लौट आता है। जब प्रलयकाल में शेषशायी भगवान शेषनाग पर शयन करते हैं, उस समय सकाम भाव से गृहस्थ धर्म का पालन करने वालों को मिलने वाले ये सभी लोक भी नष्ट हो जाते हैं। लेकिन जो विवेकी पुरुष अपने धर्मों का उपयोग धन या भोग-विलास के लिए नहीं करते, बल्कि भगवान की प्रसन्नता के लिए ही उनका पालन करते हैं, वे अनासक्त, शांत, शुद्धचित्त, निवृत्ति धर्म परायण, ममता और अहंकार से रहित हो जाते हैं। ऐसे पुरुष अपने धर्म के पालन से उत्पन्न सत्त्वगुण के द्वारा पूरी तरह से शुद्धचित्त हो जाते हैं।

अर्चि मार्ग से जाने वालों की गति

शुद्धचित्त जीव अंत में सूर्य मार्ग (अर्चिमार्ग या देवयान) से सर्वव्यापी पूर्ण पुरुष श्रीहरि को प्राप्त होते हैं, जो इस संसार के नियंता, और जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाले हैं। जो लोग हिरण्यगर्भ की उपासना करते हैं, वे ब्रह्माजी के प्रलय तक उनके सत्यलोक में रहते हैं। जब ब्रह्माजी अपनी आयु समाप्त करके पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, इन्द्रियों और उनके विषयों तथा अहंकार के साथ सम्पूर्ण विश्व का संहार करने की इच्छा से त्रिगुणात्मिका प्रकृति के साथ एकरूप होकर निर्विशेष परमात्मा में लीन हो जाते हैं, तब वे योगी, जो प्राण और मन को जीत चुके हैं और जिन्होंने शरीर का त्याग कर दिया है, वे भी ब्रह्माजी में प्रवेश कर उन्हीं के साथ परमानंद स्वरूप पुराणपुरुष परब्रह्म में लीन हो जाते हैं। इससे पहले वे भगवान में लीन नहीं होते, क्योंकि तब तक उनमें अहंकार शेष होता है। ब्रह्माजी, मरीचि आदि ऋषियों, योगेश्वरों, सनकादिकों और सिद्धों के साथ निष्काम कर्म के द्वारा आदिपुरुष सगुण ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। फिर भी, भेद दृष्टि और कर्तृत्व का अभिमान होने के कारण, जब सृष्टिकाल आता है, तो वे भगवदिच्छा से गुणों में हलचल के कारण कालरूप ईश्वर की प्रेरणा से पहले की तरह प्रकट हो जाते हैं।

धूम मार्ग से जाने वाले कर्म में आसक्त मनुष्य की गति

जिनका मन इस लोक में आसक्त होता है और जो कर्मों में श्रद्धा रखते हैं, वे वेद में बताए गए काम्य और नित्य कर्मों का पूरी विधि से अनुष्ठान करते रहते हैं। रजोगुण के प्रभाव से उनकी बुद्धि कमजोर हो जाती है, उनके हृदय में कामनाओं का जाल फैला रहता है और उनकी इन्द्रियाँ उनके वश में नहीं होतीं। वे अपने घरों में ही आसक्त होकर पितरों की पूजा में लगे रहते हैं। ये लोग अर्थ, धर्म और कामके ही परायण होते हैं; इसलिये जिनके महान् पराक्रम अत्यन्त कीर्तनीय हैं, उन भवभयहारी श्रीमधुसूदनभगवान्की कथा-वार्ताओंसे तो ये विमुख ही रहते हैं। 
नूनं दैवेन विहता ये चाच्युतकथासुधाम् ।
हित्वा शृण्वन्ति असद्‍गाथाः पुरीषमिव विड्भुजः ॥
“हाय! विष्ठाभोजी कूकर-सूकर आदि जीवोंके विष्ठा चाहनेके समान जो मनुष्य भगवत्कथामृतको छोड़कर निन्दित विषय-वार्ताओंको सुनते हैं—वे तो अवश्य ही विधाताके मारे हुए हैं, उनका बड़ा ही मन्द भाग्य है।” (भागवत 3.32.19)

गर्भाधानसे लेकर अन्त्येष्टितक सब संस्कारोंको विधिपूर्वक करनेवाले ये सकामकर्मी धूममार्गसे पित्रीश्वर अर्यमाके लोकमें जाते हैं और फिर अपनी ही सन्ततिके वंशमें उत्पन्न होते हैं। पितृलोकके भोग भोग लेनेपर जब उनके पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब देवतालोग उन्हें वहाँके ऐश्वर्यसे च्युत कर देते हैं और फिर उन्हें विवश होकर तुरन्त ही इस लोकमें गिरना पड़ता है।
तस्मात्त्वं सर्वभावेन भजस्व परमेष्ठिनम् ।
तद्‍गुणाश्रयया भक्त्या भजनीयपदाम्बुजम् ॥
इसलिये माताजी! जिनके चरणकमल सदा भजनेयोग्य हैं, उन भगवान्का तुम उन्हींके गुणोंका आश्रय लेनेवाली भक्तिके द्वारा सब प्रकारसे (मन, वाणी और शरीरसे) भजन करो। (भागवत 3.32.22)
वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यद्‍ब्रह्मदर्शनम् ॥
भगवान वासुदेवके प्रति किया हुआ भक्तियोग तुरंत ही संसारसे वैराग्य और ब्रह्मसाक्षात्काररूप ज्ञानकी प्राप्ति करा देता है। (भागवत 3.32.23)
वास्तव में, सभी विषय भगवान के रूप होने के कारण समान हैं। जब इन्द्रियों की गतिविधियों के द्वारा भगवान का भक्त का मन इन विषयों में प्रिय या अप्रिय रूप का अनुभव नहीं करता और वह सर्वत्र भगवान का ही दर्शन करता है, तब वह संयोग से रहित, सभी में समान रूप से स्थित, त्याग और ग्रहण करने योग्य, दोष और गुणों से मुक्त, अपनी महिमा में आरूढ़ अपने आत्मा का ब्रह्मरूप से अनुभव करता है। ब्रह्म एक है, ज्ञानस्वरूप और निर्गुण है, फिर भी वह इन्द्रियों की बाह्य गतिविधियों के द्वारा भ्रामक रूप से शब्द आदि धर्मों वाले विभिन्न पदार्थों के रूप में प्रकट हो रहा है। जिस तरह एक ही परब्रह्म महत्तत्त्व, वैकारिक, राजस और तामस—तीन प्रकार के अहंकार, पंचमहाभूत और ग्यारह इन्द्रियों के रूप में प्रकट होता है और फिर वही स्वयंप्रकाश इन सभी के संयोग से जीव कहलाता है, उसी तरह इस जीव का शरीररूप यह ब्रह्माण्ड भी वास्तव में ब्रह्म है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति ब्रह्म से हुई है। लेकिन इसे ब्रह्म के रूप में वही देख सकता है, जो श्रद्धा, भक्ति और वैराग्य के साथ निरंतर योगाभ्यास करके एकाग्रचित्त और असंगबुद्धि हो गया है।

भगवान कपिल कहते हैं, "पूजनीय माताजी! मैंने तुम्हें यह ब्रह्म साक्षात्कार का साधनरूप ज्ञान सुनाया। निर्गुण ब्रह्म के विषय में ज्ञानयोग और मेरे प्रति किया गया भक्तियोग—इन दोनों का फल एक ही है। जिस तरह रूप, रस, और गंध आदि अनेक गुणों का आश्रयभूत एक ही पदार्थ विभिन्न इन्द्रियों द्वारा भिन्न-भिन्न रूप से अनुभव किया जाता है, उसी तरह शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही भगवान की अनेक प्रकार से अनुभूति होती है।" वह कहते हैं कि उन्होंने जो ज्ञान दिया है, उसे दुष्ट, अशिष्ट, घमंडी और दुराचारी व्यक्तियों को नहीं बताना चाहिए। विषयों में लिप्त, गृहस्थी के मोह में, मेरे भक्तों से द्वेष रखने वालों को भी यह ज्ञान नहीं देना चाहिए। इसके बजाय, अत्यंत श्रद्धालु, विनम्र, दूसरों के प्रति दोषदृष्टि न रखने वाले, गुरु की सेवा में तत्पर, और मुझे प्रियतम मानने वाले व्यक्तियों को यह ज्ञान देना चाहिए। जो व्यक्ति मुझमें ध्यान लगाकर एक बार भी इस ज्ञान को सुनता या कहता है, वह मेरे परम पद को प्राप्त करेगा। कपिल भगवान के ये वचन सुनकर कर्दमजी की प्रिय पत्नी माता देवहूति का मोह का पर्दा हट गया, और उन्होंने सांख्य शास्त्र का उपदेश देने वाले भगवान श्री कपिलजी को प्रणाम करके उनकी स्तुति करना शुरू कर दिया।

देवहूतिजी कहती हैं कि ब्रह्माजी आपके नाभिकमल से प्रकट हुए थे। उन्होंने प्रलयकालीन जल में शयन करते समय आपके पंचभूत, इन्द्रिय, और मन के गुणों का ध्यान किया। आप निष्क्रिय, सत्यसंकल्प, और सम्पूर्ण जीवों के प्रभु हैं। अपनी शक्तियों को विभिन्न रूपों में विभक्त करके आप विश्व की रचना करते हैं। जो भगवान प्रलय के समय सब कुछ लीन कर देते हैं और कल्पान्त में अकेले वटवृक्ष के पत्ते पर शयन करते हैं, उन्हें मैंने गर्भ में धारण किया। आप भक्तों के कल्याण के लिए स्वयं देह धारण करते हैं। कपिलावतार भी मुमुक्षुओं को ज्ञान देने के लिए हुआ है। आपके नाम का श्रवण करने से, घोर पापी भी पूजनीय हो सकता है। आपके दर्शन से मनुष्य को बहुत बड़ा लाभ होता है। जो लोग आपके नाम का उच्चारण करते हैं, उन्होंने सभी धर्मों का पालन किया है। कपिलदेवजी, आप साक्षात् परब्रह्म हैं, और आपके तेज से मायाके गुणों का प्रवाह शांत होता है। में आपको प्रणाम करती हूँ, आपको विष्णु स्वरूप मानती हैं।

माताके इस प्रकार स्तुति करनेपर मातृवत्सल परमपुरुष भगवान् कपिलदेवजीने उनसे गम्भीर वाणीमें कहा- मैंने जो सुगम मार्ग तुम्हें बताया है, उसे अपनाने से तुम जल्दी ही परमपद पा लोगी। तुम मेरे इस विश्वास पर भरोसा करो। ब्रह्मवादी लोगों ने इसका पालन किया है, और इसी से तुम मेरे जन्म-मरण रहित स्वरूप को प्राप्त कर सकोगी। जो लोग मेरे इस मार्ग को नहीं जानते, वे जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसे रहते हैं। इस प्रकार अपने श्रेष्ठ आत्मज्ञानका उपदेश कर श्रीकपिलदेवजी अपनी ब्रह्मवादिनी जननीकी अनुमति लेकर वहाँसे चले गये । देवहूतिजी ने अपने आश्रम में योगाभ्यास करना शुरू किया। उनकी घुँघराली अलकें भूरी जटाओं में बदल गईं और तपस्या के कारण उनका शरीर कमजोर हो गया। उन्होंने प्रजापति कर्दम के द्वारा प्राप्त सुख, जिसमें सभी सुख-सुविधाएँ थीं, त्याग दिया। उन्होंने भगवान के उस सुंदर स्वरूप का ध्यान किया, जिसका वर्णन कपिलदेवजी ने किया था। उनका चित्त धीरे-धीरे शुद्ध हो गया, जिससे उनके सारे दुख मिट गए और वे परम आनंद में लीन हो गईं। अंततः देवहूतिजी ने कपिलदेवजी के बताए मार्ग से थोड़े समय में भगवद् प्राप्ति कर लिया। योगसाधनके द्वारा उनके शरीरके सारे दैहिक मल दूर हो गये थे। वह एक नदीके रूपमें परिणत हो गया, जो सिद्धगणसे सेवित और सब प्रकारकी सिद्धि देनेवाली है। महायोगी भगवान कपिलजी भी माताकी आज्ञा ले पिताके आश्रमसे ईशानकोणकी ओर चले गये। वहाँ स्वयं समुद्रने उनका पूजन करके उन्हें स्थान दिया। वे तीनों लोकोंको शान्ति प्रदान करनेके लिये योगमार्गका अवलम्बन कर समाधिमें स्थित हो गये हैं। 

जिस स्थानपर उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी, वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकीमें ‘सिद्धपद’ नामसे विख्यात हुआ। आज के समय वह स्थान गुजरात के पाटन से निकट सिद्धपुर से प्रसिद्ध है। इस स्थान को सिद्धपुर मातृगया तीर्थ भी कहा जाता है जहाँ प्रति वर्ष कार्तिक मास में माताओं के मुक्ति के लिए लोग श्राद्ध करने आते हैं। कहा जाता है की भगवान परशुराम ने भी अपनी माता का श्राद्ध उसी स्थान में किया था।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 14.10.2024