श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 2 अध्याय: 1 एवं 2
पहले स्कंध के अंत में, परीक्षित शुकदेवजी महाराज से निम्नलिखित प्रश्न पूछते हैं:
- जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उसको क्या करना चाहिये?
- मनुष्य किसका श्रवण, किसका जप, किसका स्मरण और किसका भजन करें तथा किसका त्याग करें?
दूसरे स्कंध में, व्यासनंदन श्री शुकदेवजी, जो सभी धर्मों में निपुण हैं, इन प्रश्नों के उत्तर देना शुरू करते हैं। उन्हें लगता है कि परीक्षित द्वारा पूछे गए प्रश्न जन कल्याण के लिए बहुत उचित हैं। प्रसन्न होकर, शुकदेवजी कहते हैं कि वे गृहस्थ लोग जो सांसारिक कार्यों में फंसे हुए हैं और अपने असली स्वभाव को नहीं जानते, उनके पास बात करने, सुनने, सोचने और करने के लिए अनगिनत विषय हैं। उनका पूरा जीवन इसी तरह बीतता है। उनकी रातें नींद में गुजरती हैं, और उनके दिन धन आर्जन या परिवार का पालन-पोषण करने में समाप्त होता हैं। इस संसार में, जो चीजें व्यक्ति की सबसे करीबी समझी जाती हैं, जैसे शरीर, बेटा-बेटी और पति-पत्नी, वे वास्तव में अस्थायी हैं; हालांकि, व्यक्ति इतनी गहरी आसक्ति में उलझा रहता है कि मृत्यु को दिन-रात देखकर भी वह जागरूक नहीं होता। इसलिए, जो व्यक्ति इन सब से अभय चाहता है, उसे भगवन् श्री कृष्ण की लीलाओं को सुनना, कीर्तन और स्मरण करना चाहिए।
एतावान् सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया ।
जन्मलाभः परः पुंसामन्ते नारायणस्मृतिः ।।
मनुष्य-जन्मका यही—इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो—ज्ञानसे, भक्तिसे अथवा अपने धर्मकी निष्ठासे जीवनको ऐसा बना लिया जाय कि मृत्युके समय भगवान्की स्मृति अवश्य बनी रहे । (भागवत 2-1-6)
शुकदेवजी कहते हैं की निर्गुण ब्रह्म के उपासक ऋषि-मुनि भी प्रायः भगवान्के अनन्त कल्याणमय गुणगणोंके वर्णनमें रमे रहते हैं। द्वापरके अन्तमें वेदतुल्य श्रीमद्भागवत महापुराणका अपने पिता वेद व्यास से मैंने अध्ययन किया था। मेरी निर्गुणस्वरूप परमात्मामें पूर्ण निष्ठा है। फिर भी भगवान् श्रीकृष्णकी मधुर लीलाओंने बलात् मेरे हृदयको अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यही कारण है कि मैंने इस पुराणका अध्ययन किया। तुम भगवान्के परमभक्त हो, इसलिये तुम्हें मैं इसे सुनाऊँगा।
भागवत किनको सुनना चाइए इसका निरूपण करते हुए शुकदेवजी ने कहा की जो इसके (भागवत) प्रति श्रद्धा रखते हैं, उनकी शुद्ध चित्तवृत्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्यप्रेमके साथ बहुत शीघ्र लग जाती है। जो लोग लोक या परलोककी किसी भी वस्तुकी इच्छा रखते हैं या संसारमें दुःखका अनुभव करके जो उससे विरक्त हो गये हैं और मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं, उन साधकोंके लिये तथा योगसम्पन्न सिद्ध ज्ञानियोंके लिये भी समस्त शास्त्रोंका यही कहना कि वे भगवान्के नामोंका प्रेमसे संकीर्तन करें ।
एक व्यक्ति जो अपनी आध्यात्मिक भलाई की ओर लापरवाह रहता है, वह भी कई वर्षों का जीवन अनजाने में बर्बाद कर देता है। इससे क्या लाभ होता है? ज्ञान और सतर्कता के साथ बिताए गए कुछ क्षण अधिक श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे व्यक्ति को उसकी आध्यात्मिक भलाई की ओर अग्रसर करते हैं।
ओरे मोरे मन राधिका रमन,
निशि दिन गुन गन गाये जा।
छिन छीन नेह बढ़ाये जा,
पल पल प्रेम बढ़ाये जा।
वह जीवन क्या जीवन जिसमें, जीवनधन से प्यार न हो।
है वह प्यार प्यार क्या जिसमें, पिय सुख में बलिहार न हो।
श्यामा श्याम मिलन हित नित प्रति, नैनन नीर बहाये जा।।
राजर्षि खट्वांग अपनी आयुकी समाप्तिका समय जानकर दो घड़ीमें ही सब कुछ त्यागकर भगवान्के अभयपदको प्राप्त हो गये। देवाअसुर संग्राम के समय राजा खट्वांग ने देवताओं के तरफ़ से युद्ध किया था। उस संग्राम में असुरों की पराजय तो हो जाती है परंतु राजा खट्वांग भी घायल होते हैं। जब वह इंद्रको पूछते हैं की मेरे पास कितना समय बचा है तब इंद्र बताता है की केवल दो घड़ी (लगभग २४ मिनट) बचा है। उन दो घड़ियों में ही राजा खट्वांग ने भक्ति करके भगवत् प्राप्ति कर ली। शुकदेवजी कहते हैं, “परीक्षित्! अभी तो तुम्हारे जीवनकी अवधि सात दिनकी है। इस बीचमें ही तुम अपने परम कल्याणके लिये जो कुछ करना चाहिये, सब कर लो।”
अन्तकाले तु पुरुष आगते गतसाध्वसः ।
छिन्द्यादसङ्गशस्त्रेण स्पृहां देहेऽनुये च तम् ।।
मृत्युका समय आनेपर मनुष्य घबराये नहीं। उसे चाहिये कि वह वैराग्यके शस्त्रसे शरीर और उससे सम्बन्ध रखनेवालोंके प्रति ममताको काट डाले । (भागवत 2-1-15)
मरणासन्न मनुस्य को क्या करना चाइए?
शुकदेवजी ने परक्षित को मरणासन्न मनुस्य को क्या करना चाइए बताते हुए कहा-
- यम, नियम, आसन- धैर्यके साथ घरसे निकलकर पवित्र तीर्थके जलमें स्नान करे और पवित्र तथा एकान्त स्थानमें विधिपूर्वक आसन लगाकर बैठ जाय । तत्पश्चात् परम पवित्र ‘अ उ म्’ इन तीन मात्राओंसे युक्त प्रणवका मन-ही-मन जप करे।
- प्राणायाम- प्राणवायुको वशमें करके मनका दमन करे और एक क्षणके लिये भी प्रणवको न भूले ।
- प्रत्याहार- बुद्धिकी सहायतासे मनके द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे हटा ले और कर्मकी वासनाओंसे चंचल हुए मनको विचारके द्वारा रोककर भगवान्के मंगलमय रूपमें लगाये ।
- धारणा, ध्यान- स्थिर चित्तसे भगवान्के श्रीविग्रहमेंसे किसी एक अंगका ध्यान करे।
- समाधि- इस प्रकार एक-एक अंगका ध्यान करते-करते विषय-वासनासे रहित मनको पूर्णरूपसे भगवान्में ऐसा तल्लीन कर दे कि फिर और किसी विषयका चिन्तन ही न हो। वही भगवानका परमपद है, जिसे प्राप्त करके मन भगवत्प्रेमरूप आनन्दसे भर जाता है ।
यदि ध्यान के समय मन रजोगुणसे विक्षिप्त या तमोगुणसे मूढ़ हो जाये तो चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। धैर्यपूर्वक, इसे योग धारणा के अभ्यास के माध्यम से नियंत्रित करना चाहिए, क्योंकि धारणा इन दोनों गुणों की दोषों को समाप्त करती है। धारणा स्थिर हो जानेपर ध्यानमें जब योगी अपने परम मंगलमय आश्रय भगवान को देखता है तब उसे तुरंत ही भक्तियोगकी प्राप्ति हो जाती है।
प्रत्याहार= हटाना
धारणा= स्थापित करना / लगाना (धारणा शब्द ‘धृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ होता है संभालना, थामना या सहारा देना। स्थिर हुए चित्त को एक ‘स्थान’ पर रोक लेना ही धारणा है)
परीक्षित फिर पूछते हैं कि एकाग्रता (धारणा) का अभ्यास कैसे किया जाता है, किन वस्तुओं पर, किस प्रकार, और इसका स्वभाव क्या है, जो जल्दी से मन को शुद्ध करता है। श्री शुकदेवजी समझाते हैं, “आसन, प्राणायाम, आसक्ति, और इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने के बाद, मन को बुद्धि की सहायता से भगवन् के स्थूल रूप पर स्थिर करना चाहिए।
जगत ते मन को हटा कर, लगा हरि में प्यारे।
इसी का अभ्यास पुनि पुनि, करु निरन्तर प्यारे।।
भगवान का विराट स्वरूप का वर्णन
यह सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था, है या होगा—सब-का-सब जिसमें दीख पड़ता है वही भगवान्का स्थूल-से-स्थूल और विराट् शरीर है । तत्त्वज्ञ पुरुष उनका इस प्रकार वर्णन करते हैं-
आण्डकोशे शरीरेऽस्मिन् सप्तावरणसंयुते ।
वैराजः पुरुषो योऽसौ भगवान् धारणाश्रयः ।।
जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन सात आवरणोंसे घिरे हुए इस ब्रह्माण्डशरीरमें जो विराट् पुरुष भगवान् हैं, वे ही धारणाके आश्रय हैं, उन्हींकी धारणा की जाती है। (भगवान 2-1-25)
- पाताल विराट पुरुषके तलवे हैं, उनकी एड़ियाँ और पंजे रसातल हैं, दोनों गुल्फ महातल हैं, उनके पैरके पिंडे तलातल हैं, दोनों घुटने सुतल हैं, जाँघें वितल और अतल हैं, पेड़ू भूतल है।
- नाभिरूप सरोवरको ही आकाश कहते हैं ।
- आदिपुरुष की छातीको स्वर्गलोक, गलेको महर्लोक, मुखको जनलोक और ललाटको तपोलोक कहते हैं।
- उन सहस्र सिरवाले भगवान्का मस्तकसमूह ही सत्यलोक है।
- इन्द्रादि देवता उनकी भुजाएँ हैं। दिशाएँ कान और शब्द श्रवणेन्द्रिय हैं।
- दोनों अश्विनीकुमार उनकी नासिकाके छिद्र हैं; गन्ध घ्राणेन्द्रिय है और धधकती हुई आग उनका मुख है ।
- भगवान् विष्णुके नेत्र अन्तरिक्ष हैं, उनमें देखनेकी शक्ति सूर्य है, दोनों पलकें रात और दिन हैं, उनका भ्रूविलास ब्रह्मलोक है और मायाको ही उनकी मुसकान कहते हैं। यह अनन्त सृष्टि उसी मायाका कटाक्ष-विक्षेप है ।
- घोड़े, खच्चर, ऊँट और हाथी उनके नख हैं। वनमें रहनेवाले सारे मृग और पशु उनके कटिप्रेदशमें स्थित हैं । स्वायम्भुव मनु उनकी बुद्धि हैं और मनुकी सन्तान मनुष्य उनके निवासस्थान हैं।
शुकदेवजी बताते हैं कि मुक्ति की खोज में लगे साधक अपनी बुद्धि के माध्यम से भगवन् के स्थूल रूप पर ध्यान केंद्रित करते हैं, क्योंकि उनके अलावा कुछ भी नहीं है। जैसे एक स्वप्न में स्वप्नकर्ता विभिन्न रूपों को अनुभव करता है, वैसे ही, जो परम सत्ता है, जो सभी की आंतरिक नियंत्रक और अनुभवकर्ता है, वही एक है। इस परम सत्य की ही भजन करनी चाहिए, क्योंकि इसके अतिरिक्त अन्य किसी संसारी व्यक्ति या विषय में आसक्ति आत्मा के पतन का कारण बनती है।
तेरा अंत न पायो कोऊ अनन्त।
हारे सारे वेद, सारे शास्त्र, सारे संत।
शरण शरण में हूँ शरण अनन्त।
सृष्टि की शुरुआत में, ब्रह्माजी ने भगवन् से सृष्टि का ज्ञान प्राप्त किया, जो पिछले ब्रह्मा के काल में समाप्त हो गया था। इस दिव्य ज्ञान ने उनके दृष्टिकोण को त्रुटिहीन और उनकी बुद्धि को निर्णायक बना दिया, जिससे वे सृष्टि को पूर्ववत पुनः रचना कर सके।
वेद में ऐसी कहीं बातें हैं जिससे लोगों की बुद्धि स्वर्ग, सिद्धि जैसी निरर्थक एवं नश्वर विषयों को प्राप्त करने की कोशिश में भटकने लगती है। हालांकि, सच्ची खुशी इन क्षणिक वस्तुओं में कभी नहीं मिलती। इसलिए, एक ज्ञानी व्यक्ति को भौतिक चीजों के साथ केवल उतना ही जुड़ाव रखना चाहिए जितना कि व्यावहारिक प्रयोजनों के लिए आवश्यक हो।
यदि पूर्व कर्म के कारण, बिना प्रयास के भौतिक वस्तुएं प्राप्त होती हैं, तो अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है, इसे अनावश्यक श्रम मानते हुए। इसके बजाय, मनुस्य को भगवान की प्रेमपूर्वक भक्ति करनी चाहिए, क्योंकि उनकी भक्ति उस अज्ञानता को नष्ट करती है जो जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसा देती है।
रूपध्यान पद्धति
भुक्ति ना दे मुक्ति ना दे बैकुण्ठ ना दे, नाम गुन गाते रूपध्यान करा दे।
व्यक्ति को भगवन् के प्रत्येक अंग पर, उनके चरणों से लेकर उनके मुस्कुराते हुए मुखकमल तक, एकाग्र ध्यान के माध्यम से बुद्धि को केंद्रित करना चाहिए। जैसे-जैसे बुद्धि शुद्ध होती जायगी, वैसे-वैसे चित्त स्थिर होता जायगा। जब एक अंगका ध्यान ठीक-ठीक होने लगे, तब उसे छोड़कर दूसरे अंगका ध्यान करना चाहिये । भगवन् का रूप दोनों ही सगुण (गुणों से युक्त) और निर्गुण (गुणों से रहित) है। जबतक इनमें अनन्य प्रेममय भक्तियोग न हो जाय तबतक साधकको अपने दैनिक और आकस्मिक कर्तव्यों के बाद, भगवान के उपर्युक्त स्थूल रूप पर का ही चिंतन करते रहना चाहिए।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 02.08.2024