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42- रहूगण का प्रश्न और जडभरत का समाधान- परम सत्य का साक्षात्कार सच्चे भक्त के चरणों में समर्पण से होता है

Jan 19th, 2025 | 10 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 5 अध्याय: 10-12

एक बार सिन्धुसौवीर देशका स्वामी राजा रहूगण पालकीपर चढ़कर जा रहा था। इक्षुमती नदी के किनारे पालकी उठाने के लिए एक कहार की आवश्यकता पड़ी। संयोग से जड़ भरत वहां मिले। उन्हें हृष्ट-पुष्ट देखकर उन्हें पालकी उठाने में लगा दिया गया।

भरतजी चलते समय भूमि पर किसी जीव के दबने की चिंता में धीरे-धीरे चलते थे, जिससे पालकी डगमगाने लगी। राजा ने कहा, "कहारो, सही ढंग से पालकी उठाओ।" कहारों ने बताया कि नया कहार ठीक से नहीं चल रहा। राजा ने व्यंग्य करते हुए भरतजी से कहा, ‘अरे भैया! बड़े दुःखकी बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। ज्ञात होता है, तुम्हारे इन साथियोंने तुम्हें तनिक भी सहारा नहीं लगाया। इतनी दूरसे तुम अकेले ही बड़ी देरसे पालकी ढोते चले आ रहे हो। तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-कट्टा नहीं है और मित्र! बुढ़ापेने अलग तुम्हें दबा रखा है।’  भरतजी ने इसका बुरा नहीं माना। जब पालकी अब भी सही नहीं चल रही थी, तो राजा क्रोध में भरतजी को दंड देने की धमकी देने लगे। अपने राजा होने के अहंकार में रहूगण ने जड़ भरत जैसे महापुरुष का अपमान कर दिया।

राजाकी ऐसी कच्ची बुद्धि देखकर भरतजी मुसकराये और बिना किसी प्रकारका अभिमान किये उनको कहने लगे- ‘राजन, आपने जो कहा, वह सत्य है और उसमें कोई शिकायत नहीं है। शरीर की मोटाई, पतलापन, रोग, भूख-प्यास, भय, क्रोध आदि सब देहाभिमान से जुड़े हैं, आत्मा से नहीं। ज्ञानी लोग ऐसी बातों में नहीं उलझते। जीव में ये सारे भाव देह के कारण होते हैं, लेकिन मुझमें इनका कोई प्रभाव नहीं। जीवन और मृत्यु हर वस्तु के स्वाभाविक गुण हैं क्योंकि हर चीज का आरंभ और अंत होता है। आपने स्वामी और सेवक की बात की, लेकिन परमार्थ दृष्टि से कौन स्वामी है और कौन सेवक? फिर भी यदि आप मुझे अपना सेवक मानते हैं, तो बताइए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? मैं अपनी स्थिति में मस्त और निश्चल रहता हूँ। मुझे सुधारने की कोशिश करना व्यर्थ है, क्योंकि यदि मैं जड़ ही हूँ, तो शिक्षा देना भी बेकार है।’

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित! मुनि जडभरत ने तत्त्वज्ञान का उपदेश देकर मौन धारण कर लिया। उनका अज्ञान, जो देहात्मबुद्धि का कारण था, समाप्त हो चुका था। वे पूर्ण शांति में स्थित हो गए और प्रारब्ध भोगने के लिए पहले की तरह पालकी उठाकर चलने लगे। राजा रहूगण भी अपने श्रद्धा और जिज्ञासा के कारण तत्त्वज्ञान के अधिकारी थे। जब उन्होंने जडभरत के गूढ़ उपदेश सुने, तो उनका अभिमान नष्ट हो गया। वह पालकी से उतरकर मुनि के चरणों में गिर पड़े और अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगने लगे।

राजा रहूगण ने जडभरत से कहा—"देव! आपने यज्ञोपवीत धारण किया है, यह बताइये कि आप कौन हैं, जो इस प्रकार छिपकर विचरते हैं? क्या आप दत्तात्रेय या किसी अन्य अवधूत हैं? आप कहाँ से आए हैं और आपका जन्म कहाँ हुआ है? क्या आप साक्षात् सत्त्वस्वरूप भगवान कपिल हैं, जो हमारे कल्याण के लिए आए हैं? मुझे इन्द्र के वज्र, महादेवजी के त्रिशूल या यमराज के दण्ड से डर नहीं है। अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु और कुबेर के अस्त्र-शस्त्रों से भी भय नहीं है। लेकिन मैं ब्राह्मणों का अपमान करने से बहुत डरता हूँ। आपके ज्ञान और तपस्वरूप को देखकर मैं स्तब्ध हूँ। आप विषयों से सर्वथा विरक्त जान पड़ते हैं। आपकी बातों और योगयुक्त वचनों से मेरा संशय दूर नहीं हो रहा है। चूल्हे पर रखे बर्तन के तपने से उसका जल और चावल भी पकता है। यही नियम आत्मा पर भी लागू होता है, जब वह देह, इंद्रिय और मन के संपर्क में आता है तो उसका प्रभाव आत्मा पर भी पड़ता है।

आपने कहा कि दण्ड देना व्यर्थ है, लेकिन राजा प्रजा का सेवक और पालनकर्ता होता है। उन्मत्तों को दण्ड देना व्यर्थ नहीं, बल्कि धर्म का पालन करना भगवान की सेवा है। इससे पाप नष्ट हो जाते हैं। मैं अपने राजमद में चूर होकर आप जैसे साधु का अपमान कर बैठा। कृपया अपनी कृपादृष्टि से मुझे इस अपराध से मुक्त करें। आप देहाभिमानशून्य हैं और सच्चे भक्त हैं, इसीलिए आपमें मान-अपमान का कोई विकार नहीं है। फिर भी, महापुरुष का अपमान करने वाला चाहे कितना भी प्रभावशाली हो, वह शीघ्र नष्ट हो जाता है। कृपया मेरे अपराध को क्षमा करें।"

जडभरत ने राजा रहूगण से कहा—"राजन्! तुम तत्त्वज्ञान से अनभिज्ञ होकर भी पण्डितों जैसी तर्कपूर्ण बातें कर रहे हो, लेकिन यह ज्ञान की गहराई में नहीं उतरती। सच्चे तत्त्वज्ञानी इस स्वामी-सेवक जैसे भेद को तत्त्वविचार के समय सत्य नहीं मानते। जैसे लौकिक व्यवहार मिथ्या है, वैसे ही वैदिक कर्मकांड भी पूरी तरह सत्य नहीं हैं। वेदों में मुख्यतः गृहस्थ जीवन के यज्ञ-विधानों का वर्णन है, लेकिन राग-द्वेष से मुक्त शुद्ध तत्त्वज्ञान की पूर्ण अभिव्यक्ति उनमें भी नहीं मिलती। जो लोग गृहस्थ जीवन के यज्ञ और स्वर्ग सुख त्याज्य नहीं मानते, उन्हें तत्त्वज्ञान का उपदेश देना उपनिषद के लिए भी कठिन है।

जब तक मनुष्य का मन सत्त्व, रज और तमोगुणों के अधीन रहता है, तब तक यह मन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से शुभ-अशुभ कर्म करवाता रहता है। यह मन वासनामय, विषयासक्त और गुणों से प्रेरित होता है। यही मन भूत और इन्द्रियों की सोलह कलाओं में मुख्य होकर जीव की उत्तमता-अधमता का कारण बनता है।माया का बना मन संसारचक्र में जीव को भ्रमित करता है। देहाभिमानी जीव इसके प्रभाव से सुख-दुःख और मोह के बंधन में पड़ जाता है। यही मन संसार में जीव को उलझाने का मूल कारण है।"

विषयों में आसक्त मन जीव को संसार के कष्टों में डालता है, जबकि विषयों से मुक्त मन उसे शांति और मोक्ष प्रदान करता है। जैसे घी लगी बत्ती जलते हुए धुएँ के साथ जलती है, लेकिन घी समाप्त होने पर अग्नि अपने तत्त्व में लीन हो जाती है, उसी प्रकार विषयों और कर्मों में उलझा मन विभिन्न वृत्तियों में फँसता है, लेकिन उनसे मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है।
एकादशासन्मनसो हि वृत्तय आकूतयः पञ्च धियोऽभिमानः ।
मात्राणि कर्माणि पुरं च तासां वदन्ति हैकादश वीर भूमीः ।।

गन्धाकृतिस्पर्शरसश्रवांसि विसर्गरत्यर्त्यभिजल्पशिल्पाः।
एकादशं स्वीकरणं ममेति शय्यामहं द्वादशमेक आहुः ।।
मन की ग्यारह प्रवृत्तियाँ होती हैं—पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और अहंकार। इनके आधार पर ग्यारह विषय होते हैं:
  • ज्ञानेन्द्रियाँ (आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा) जिनके विषय हैं—गंध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द।
  • कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुख, मलत्याग और जननेंद्रिय) जिनके कार्य हैं—मलत्याग, चलना, बोलना, लेना-देना और सम्भोग।
  • अहंकार का विषय है—शरीर को ‘यह मेरा है’ मानना।
कुछ लोग अहंकार को मन की बारहवीं प्रवृत्ति और शरीर को बारहवाँ विषय मानते हैं। (भागवत 5.11.9-10)

मन की ग्यारह प्रवृत्तियाँ (ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ और अहंकार) द्रव्य (वस्तुएं), स्वभाव (प्रकृति), संस्कार (अतीत के प्रभाव), कर्म और समय के कारण सैकड़ों, हजारों और करोड़ों रूपों में बदल जाती हैं। लेकिन इनका अस्तित्व आत्मा (क्षेत्रज्ञ) की शक्ति से ही है। ये स्वयं से या आपस में मिलकर स्वतंत्र रूप से नहीं चल सकतीं। 

ऐसा होनेपर भी क्षेत्रज्ञ (आत्मा) का मन से कोई सीधा संबंध नहीं है। मन तो जीव की माया से बनी हुई एक उपाधि (आवरण) है। यह ज्यादातर अशुद्ध कर्मों में लिप्त रहता है, जो संसार के बंधन का कारण बनते हैं। मन की वृत्तियाँ हमेशा प्रवाह की तरह चलती रहती हैं—जाग्रत और स्वप्न अवस्था में ये प्रकट होती हैं, जबकि सुषुप्ति (गहरी नींद) में ये छिप जाती हैं। लेकिन क्षेत्रज्ञ, जो पूर्णतः शुद्ध और चेतना स्वरूप है, हर समय इन वृत्तियों को साक्षी भाव से देखता रहता है, बिना उनसे प्रभावित हुए।
क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुषः पुराणः साक्षात्स्वयं ज्योतिरजः परेशः।
नारायणो भगवान्वासुदेवः स्वमाययात्मन्यवधीयमानः ।।
यह क्षेत्रज्ञ परमात्मा सर्वव्यापक, जगत का आदिकारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष, स्वयंप्रकाश, अजन्मा, ब्रह्मादिका भी नियन्ता और अपने अधीन रहनेवाली मायाके द्वारा सबके अन्तःकरणोंमें रहकर जीवोंको प्रेरित करनेवाला समस्त भूतोंका आश्रयरूप भगवान् वासुदेव है। (भागवत 5.11.13)
यथानिलः स्थावरजङ्गमानामात्मस्वरूपेण निविष्ट ईशेत् ।
एवं परो भगवान्वासुदेवः क्षेत्रज्ञ आत्मेदमनुप्रविष्टः ।।
जिस प्रकार वायु सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणियोंमें प्राणरूपसे प्रविष्ट होकर उन्हें प्रेरित करती है, उसी प्रकार वह परमेश्वर भगवान् वासुदेव सर्वसाक्षी आत्मस्वरूपसे इस सम्पूर्ण प्रपंचमें ओत-प्रोत है | (भागवत 5.11.14)
न यावदेतां तनुभृन्नेन्द्र विधूय मायां वयुनोदयेन ।
विमुक्तसङ्गो जितषट्सपत्नो वेदात्मतत्त्वं भ्रमतीह तावत् ।।

न यावदेतन्मन आत्मलिङ्गं संसारतापावपनं जनस्य।
 यच्छोकमोहामयरागलोभ वैरानुबन्धं ममतां विधत्ते ।।
राजन्! जबतक मनुष्य ज्ञानोदयके द्वारा इस मायाका तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़कर तथा काम-क्रोधादि छः शत्रुओंको जीतकर आत्मतत्त्वको नहीं जान लेता और जबतक वह आत्माके उपाधिरूप मनको संसार-दुःखका क्षेत्र नहीं समझता, तबतक वह इस लोकमें यों ही भटकता रहता है, क्योंकि यह चित्त उसके शोक, मोह, रोग, राग, लोभ और वैर आदिके संस्कार तथा ममताकी वृद्धि करता रहता है। (भागवत 5.11.15-16)
भ्रातृव्यमेनं तददभ्रवीर्यमुपेक्षयाध्येधितमप्रमत्तः ।
गुरोर्हरेश्चरणोपासनास्त्रो जहि व्यलीकं स्वयमात्ममोषम् ।।
यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान् शत्रु है। तुम्हारे उपेक्षा करनेसे इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी है। यह यद्यपि स्वयं तो सर्वथा मिथ्या है, तथापि इसने तुम्हारे आत्मस्वरूपको आच्छादित कर रखा है। इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरिके चरणोंकी उपासनाके अस्त्रसे इसे मार डालो।(भागवत 5.11.17)

राजा रहूगण ने जड़भरतजी को प्रणाम करते हुए कहा, "भगवन, आपने जगत के कल्याण के लिए यह शरीर धारण किया है और अपने आनंदमय ज्ञानस्वरूप को साधारण ब्राह्मण के वेष में छिपा रखा है। आपके वचन मेरे लिए अमृत के समान हैं, क्योंकि मेरा विवेक देहाभिमान के विष से ग्रस्त हो गया था। आपने जो अध्यात्म-योगमय उपदेश दिया है, उसे समझने की मेरी गहरी इच्छा है। विशेषकर, आपने कहा कि भार उठाने की क्रिया और उससे होने वाला श्रम केवल व्यवहारजन्य है और तत्त्वविचार के सामने सत्य नहीं है—इस बात का मर्म मेरी समझ में नहीं आ रहा, कृपया इसे सरल शब्दों में समझाइए।"

जड़भरत ने राजा से कहा, "राजन, यह शरीर पृथ्वी का ही एक विकार है, जो पत्थर जैसी ही है। जब यह चलता है तो इसे भार उठाने वाले जैसे नाम मिल जाते हैं। इसके अंग जैसे टखने, घुटने, कमर, गर्दन और कंधे सब पृथ्वी के ही अंश हैं। कंधों पर जो पालकी रखी है, वह भी पृथ्वी का विकार है, और उसमें बैठा राजा भी इसी का हिस्सा है। तुम्हारा 'मैं राजा हूँ' का अहंकार तुम्हें अंधा बना रहा है, लेकिन इससे तुम्हारी श्रेष्ठता साबित नहीं होती। बल्कि तुमने इन गरीब कहारों को बेगार में लगाकर अन्याय किया है। खुद को लोक रक्षक कहने से यह व्यवहार उचित नहीं हो जाता। संसार की हर चीज़ पृथ्वी से उत्पन्न होती है और उसी में विलीन हो जाती है। इनके अलग-अलग नाम केवल व्यवहार के लिए हैं, असली नहीं। पृथ्वी, परमाणु और संसार के सभी रूप भगवान की माया का कार्य हैं, जिनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। सब कुछ माया का खेल है, जिसमें हर चीज़ केवल कल्पना और नाम मात्र है।"
ज्ञानं विशुद्धं परमार्थमेकमनन्तरं त्वबहिर्ब्रह्म सत्यम् ।
प्रत्यक्प्रशान्तं भगवच्छब्दसंज्ञं यद्वासुदेवं कवयो वदन्ति ।।
विशुद्ध परमार्थरूप, अद्वितीय तथा भीतर-बाहरके भेदसे रहित परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु है। वह सर्वान्तर्वर्ती और सर्वथा निर्विकार है। उसीका नाम ‘भगवान’ है और उसीको पण्डितजन ‘वासुदेव’ कहते हैं | (भागवत 5.12.11)
रहूगणैतत्तपसा न याति न चेज्यया निर्वपणाद् गृहाद्वा ⁠।
न च्छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यै- र्विना महत्पादरजोऽभिषेकम् ⁠।⁠।
मेरे प्रिय राजा रहूगण, परम सत्य का साक्षात्कार तब होता है जब कोई सच्चे निःस्वार्थ भक्तों के चरणों की धूल को अपने पूरे शरीर को अभिषिक्त करता है। परम सत्य का साक्षात्कार केवल बाह्य साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता, जैसे कठोर ब्रह्मचर्य का पालन, गृहस्थ जीवन के नियमों का का दृढ़ता से अनुसरण, वानप्रस्थ में घर का त्याग करना, सन्यास धारण करना, या कठोर तपस्या करना—जैसे सर्दियों में बर्फीले पानी में डूबना, या गर्मियों में अग्नि और प्रचंड सूर्य की तपिश सहन करना। यद्यपि परम सत्य को समझने के लिए कई मार्ग निर्धारित किए गए हैं, लेकिन यह केवल उसी को प्रकट होता है जिसने किसी महान भक्त की कृपा और अनुग्रह प्राप्त किया हो, क्योंकि उनका संग ही भगवद प्राप्ति का परम द्वार है। (भागवत 5.12.12)
अहं पुरा भरतो नाम राजा विमुक्तदृष्टश्रुतसङ्गबन्धः ।
आराधनं भगवत ईहमानो मृगोऽभवं मृगसङ्गाद्धतार्थः ।।
पूर्वजन्ममें मैं भरत नामका राजा था। ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकारके विषयोंसे विरक्त होकर भगवान्की आराधनामें ही लगा रहता था; तो भी एक मृगमें आसक्ति हो जानेसे मुझे परमार्थसे भ्रष्ट होकर अगले जन्ममें मग बनना पड़ा। (भागवत 5.12.14)
सा मां स्मृतिर्मृगदेहेऽपि वीर कृष्णार्चनप्रभवा नो जहाति ।
अथो अहं जनसङ्गादसङ्गो विशङ्कमानोऽविवृतश्चरामि ।।
किन्तु भगवान् श्रीकृष्णकी आराधनाके प्रभावसे उस मृगयोनिमें भी मेरी पूर्वजन्मकी स्मृति लुप्त नहीं हुई। इसीसे अब मैं जनसंसर्गसे डरकर सर्वदा असंगभावसे गुप्तरूपसे ही विचरता रहता हूँ। (भागवत 5.12.15)
तस्मान्नरोऽसङ्गसुसङ्गजात ज्ञानासिनेहैव विवृक्णमोहः ।
हरिं तदीहाकथनश्रुताभ्यां लब्धस्मृतिर्यात्यतिपारमध्वनः ।।
सारांश यह है कि विरक्त महापुरुषोंके सत्संगसे प्राप्त ज्ञानरूप खड्गके द्वारा मनुष्यको इस लोकमें ही अपने मोहबन्धनको काट डालना चाहिये। फिर श्रीहरिकी लीलाओंके कथन और श्रवणसे भगवत्स्मृति बनी रहनेके कारण वह सुगमतासे ही संसारमार्गको पार करके भगवान्को प्राप्त कर सकता है। (भागवत 5.12.16)

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 17.01.2025