श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 5 अध्याय: 9-10
भगवान ऋषभदेव के पुत्र महाराज भरत, जिनके नाम पर इस क्षेत्र का नाम भारतवर्ष पड़ा, भगवान के बड़े भक्त थे। एक करोड़ वर्ष राज्य करने के बाद राज्य और सब भोग-विलास, धन, ऐश्वर्य, पत्नी, पुत्र-पुत्री और कुटुंब छोड़कर, वे गंडकी तट पर पुलह आश्रम के निकट भक्ति साधना में लगे। परंतु एक हिरणी के बच्चे को बचाने के बाद, वे उससे आसक्त हो गए और भक्ति से ध्यान भटक गया। मरते समय उसी हिरण को याद करने के कारण वे अगले जन्म में हिरण बने। पिछले जन्म की भक्ति के प्रभाव से उन्हें अपना पूर्व जन्म याद रहा, अपनी भूल का पश्चाताप किया, और हिरण शरीर छोड़ दिया।
इसके आगे की कथा सुनाते हुए श्री शुकदेवजी कहते हैं, "आंगिरस गोत्र मे एक महान ब्राह्मण थे, जो शम, दम, तप, स्वाध्याय, वेदाध्ययन, त्याग, संतोष, तितिक्षा, विनम्रता, विद्या, अनसूया, आत्मज्ञान और आनंद जैसे सभी गुणों से पूर्ण थे। उनकी बड़ी पत्नी से नौ गुणवान पुत्र हुए, और छोटी पत्नी से एक पुत्र व एक पुत्री का जन्म हुआ। इनमें जो पुत्र था, वही परम भक्त और राजर्षि भरतजी थे। पहले मृग के रूप में जन्मे थे और अब ब्राह्मण के रूप में जन्म लिया।
भरतजी भगवान के चरणों का स्मरण करते हुए संसार से दूर रहते थे। वे लोगों की नजरों में पागल, अंधे और बहरे जैसे लगते, लेकिन हर समय भगवान का ध्यान करते थे। उनके पिता ने शास्त्रों के अनुसार उनका उपनयन संस्कार किया और शिक्षा देने का प्रयास किया, लेकिन भरतजी ने पिता के निर्देशों का पालन नहीं किया। चार महीने की शिक्षा के बाद भी वे त्रिपदा गायत्री को सही से नहीं सीख सके।
पिता को अपने पुत्र से अत्यधिक स्नेह था। भरतजी की रुचि न होने पर भी वे उन्हें शौच, वेदाध्ययन, व्रत, नियम, गुरु और अग्नि की सेवा जैसे ब्रह्मचर्य के नियम सिखाने का प्रयास करते रहे। लेकिन उनका यह प्रयास अधूरा रह गया। पिता स्वयं भी भगवद्भजन के मुख्य कर्तव्य को छोड़कर घर के कार्यों में ही व्यस्त रहते थे। अंततः काल ने उनका अंत कर दिया। उनकी छोटी पत्नी अपने दोनों बच्चों को सौंपकर सती हो गईं। भरतजी के भाई केवल कर्मकांड को ही श्रेष्ठ मानते थे और ब्रह्मज्ञान से अनजान थे। इसलिए वे भरतजी को मूर्ख समझते और पिताजी के निधन के बाद उन्हें पढ़ाने-लिखाने का प्रयास भी छोड़ दिया।
भरतजी को मान-सम्मान या अपमान की कोई परवाह नहीं थी। जब लोग उन्हें पागल, मूर्ख या बहरा कहकर बुलाते, तो वे भी उनके अनुरूप व्यवहार करते। जो उनसे कोई काम कराना चाहते, वे बिना किसी विरोध के उनकी इच्छा पूरी कर देते। उन्हें जो भी अच्छा-बुरा अन्न मिलता, बिना स्वाद पर ध्यान दिए वे उसे ग्रहण कर लेते। भरतजी को आत्मज्ञान प्राप्त हो चुका था, जिससे उन्हें शीत-गर्मी, मान-अपमान जैसे द्वंद्वों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट था, लेकिन उन्होंने न कभी तेल लगाया, न स्नान किया, जिससे उनके शरीर पर मैल जम गई थी। उनका ब्रह्मतेज धूल में छिपा हुआ अनमोल मणि जैसा लगने लगा। वे कमर में मैला कपड़ा लपेटे रहते और उनका यज्ञोपवीत भी गंदा हो चुका था। अज्ञानी लोग उन्हें तुच्छ समझकर उनका अपमान करते, लेकिन वे उन सब से अछूते रहते। अपने पेट पालने के लिए वे मजदूरी करते थे। उनके भाइयों ने उन्हें खेत की क्यारियाँ ठीक करने में लगा दिया। भरतजी को इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि क्यारियाँ समतल हैं या ऊँची-नीची। उनके भाई जो भी बचा-खुचा खाना—जैसे चावल की कनी, खली, भूसी, जले अन्न की खुरचन—देते, भरतजी उसे अमृत के समान स्वीकार कर लेते।
उसी समय एक डाकुओं का सरदार पुत्र प्राप्ति की कामना से भद्रकाली देवी को मनुष्य की बलि चढ़ाने का संकल्प करता है। परंतु बलि के लिए उनके द्वारा पकड़ा गया व्यक्ति भाग जाता है, और डाकुओं के सेवक उसे खोजने निकलते हैं। संयोगवश, उनकी नजर खेतों की रखवाली कर रहे ब्राह्मणकुमार भरतजी पर पड़ती है। उन्हें बलि के लिए उपयुक्त समझकर वे भरतजी को रस्सियों से बांधकर देवी के मंदिर में ले जाते हैं। विधि अनुसार स्नान, अभिषेक, नए वस्त्र, गहने, चंदन, माला आदि से उनका श्रृंगार करते हैं और उन्हें भोजन कराते हैं। इसके बाद, ढोल-नगाड़ों के साथ भद्रकाली की पूजा करते हुए भरतजी को देवी के सामने बलिदान के लिए बैठा देते हैं। डाकुओं का पुरोहित देवी मंत्रों का जाप कर तीव्र तलवार लेकर बलि देने के लिए आगे बढ़ता है।
डाकु स्वभावसे तो रजोगुणी-तमोगुणी थे ही, धनके मदसे उनका चित्त और भी उन्मत्त हो गया था। हिंसामें भी उनकी स्वाभाविक रुचि थी। इस समय तो वे भगवान्के अंशस्वरूप ब्राह्मणकुलका तिरस्कार करके स्वच्छन्दतासे कुमार्गकी ओर बढ़ रहे थे। आपत्तिकालमें भी जिस हिंसाका अनुमोदन किया गया है, उसमें भी ब्राह्मणवधका सर्वथा निषेध है, तो भी वे साक्षात् ब्रह्मभावको प्राप्त हुए वैरहीन तथा समस्त प्राणियोंके सुहृद एक ब्रह्मर्षि कुमारकी बलि देना चाहते थे।
यह भयंकर कुकर्म देखकर देवी भद्रकालीके शरीरमें अति दुःसह ब्रह्मतेजसे दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्तिको फोड़कर प्रकट हो गयीं।अत्यन्त असहनशीलता और क्रोधके कारण उनकी भौंहें चढ़ी हुई थीं तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल आँखोंके कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान पड़ता था। उनके उस विकराल वेषको देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो वे इस संसारका संहार कर डालेंगी। उन्होंने क्रोधसे तड़ककर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित खड़गसे ही उन सारे पापियोंके सिर उड़ा दिये और अपने गणोंके सहित उनके गलेसे बहता हुआ गरम-गरम रुधिररूप आसव पीकर अति उन्मत्त हो ऊँचे स्वरसे गाती और नाचती हई उन सिरोंको ही गेंद बनाकर खेलने लगीं ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं, "महापुरुषों पर अत्याचार का दुष्परिणाम हमेशा अत्याचारी पर ही लौटता है। परीक्षित! जिनकी देहाभिमान रूप हृदयग्रन्थि छूट गयी है, जो समस्त प्राणियोंके सुहृद् एवं आत्मा तथा वैरहीन हैं, साक्षात् भगवान् ही भद्रकाली आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपने कभी न चूकनेवाले कालचक्ररूप श्रेष्ठ शस्त्रसे जिनकी रक्षा करते हैं और जिन्होंने भगवानके निर्भय चरणकमलोंका आश्रय ले रखा है—उन भगवद्भक्त परमहंसोंके लिये अपना सिर कटनेका अवसर आनेपर भी किसी प्रकार व्याकुल न होना—यह कोई बड़े आश्चर्यकी बात नहीं है।
जड़ भरत एवम् राजा रहूगण भेंट
श्रीशुकदेवजी कहते हैं राजन्! एक बार सिन्धुसौवीर देशका स्वामी राजा रहूगण पालकीपर चढ़कर जा रहा था। जब वह इक्षुमती नदीके किनारे पहुँचा तब उसकी पालकी उठानेवाले कहारोंके जमादारको एक कहारकी आवश्यकता पड़ी। कहारकी खोज करते समय दैववश उसे ये ब्राह्मणदेवता मिल गये।
इन्हें देखकर उसने सोचा, ‘यह मनुष्य हृष्ट-पुष्ट, जवान और गठीले अंगोंवाला है। इसलिये यह तो बैल या गधेके समान अच्छी तरह बोझा ढो सकता है।’ यह सोचकर उसने बेगारमें पकड़े हए अन्य कहारों के साथ इन्हें भी बलात पकड़कर पालकीमें जोड़ दिया। महात्मा भरतजी यद्यपि किसी प्रकार इस कार्यके योग्य नहीं थे, तो भी वे बिना कुछ बोले चुपचाप पालकीको उठा ले चले । वे कोई जीव पैरोंतले दब न जाय—इस डरसे आगेकी एक बाण पथ्वी देखकर चलते थे। इसलिये दूसरे कहारोंके साथ उनकी चालका मेल नहीं खाता था; अतः जब पालकी टेढ़ी-सीधी होने लगी, तब यह देखकर राजा रहूगणने पालकी उठानेवालोंसे कहा –’अरे कहारो! अच्छी तरह चलो, पालकीको इस प्रकार ऊँची-नीची करके क्यों चलते हो?’
डर के मारे कहारोंने राजासे कहा ‘महाराज! यह हमारा प्रमाद नहीं है, हम आपकी नियममर्यादाके अनुसार ठीक-ठीक ही पालकी ले चल रहे हैं। यह एक नया कहार अभी-अभी पालकीमें लगाया गया है, तो भी यह जल्दी-जल्दी नहीं चलता। हमलोग इसके साथ पालकी नहीं ले जा सकते’। कहारोंके ये दीन वचन सुनकर राजा रहगणने सोचा, ‘संसर्गसे उत्पन्न होनेवाला दोष एक व्यक्तिमें होनेपर भी उससे सम्बन्ध रखनेवाले सभी पुरुषोंमें आ सकता है। इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया गया तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़ लेंगे।’ ऐसा सोचकर राजा रहुगणको कुछ क्रोध हो आया। यद्यपि उसने महापुरुषोंका सेवन किया था, तथापि क्षत्रिय स्वभाववश बलात् उसकी बुद्धि रजोगुणसे व्याप्त हो गयी और वह उन द्विजश्रेष्ठसे इस प्रकार व्यंगसे भरे वचन कहने लगा।
‘अरे भैया! बड़े दुःखकी बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। ज्ञात होता है, तुम्हारे इन साथियोंने तुम्हें तनिक भी सहारा नहीं लगाया। इतनी दूरसे तुम अकेले ही बड़ी देरसे पालकी ढोते चले आ रहे हो। तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-कट्टा नहीं है और मित्र! बुढ़ापेने अलग तुम्हें दबा रखा है।’
इस प्रकार बहुत ताना मारनेपर भी वे पहलेकी ही भाँति चुपचाप पालकी उठाये चलते रहे! उन्होंने इसका कुछ भी बुरा न माना; क्योंकि उनकी दृष्टिमें तो पंचभूत, इन्द्रिय और अन्तःकरणका संघात यह अपना अन्तिम शरीर अविद्याका ही कार्य था। वह विविध अंगोंसे युक्त दिखायी देनेपर भी वस्तुतः था ही नहीं, इसलिये उसमें उनका मैं-मेरेपनका मिथ्या अध्यास सर्वथा निवृत्त हो गया था और वे ब्रह्मरूप हो गये थे।
किन्तु पालकी अब भी सीधी चालसे नहीं चल रही है-यह देखकर राजा रहूगण क्रोधसे आग-बबूला हो गया और कहने लगा, ‘अरे! यह क्या? क्या त जीता ही मर गया है? तू मेरा निरादर करके (मेरी) आज्ञाका उल्लंघन कर रहा है! मालूम होता है, तू सर्वथा प्रमादी है। अरे! जैसे दण्डपाणि यमराज जन-समुदायको उसके अपराधोंके लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी तेरा इलाज किये देता हूँ। तब तेरे होश ठिकाने आ जायँगे’। रहूगणको राजा होनेका अभिमान था, इसलिये वह इसी प्रकार बहुत-सी अनाप-शनाप बातें बोल गया। वह अपनेको बड़ा पण्डित समझता था, अतः रज-तमयुक्त अभिमानके वशीभूत होकर उसने भगवान्के अनन्य भक्त भरतजीका तिरस्कार कर डाला।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 13.01.2025