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17- ब्रह्माजी ने तपस्या करके प्राप्त किया चतुः श्लोकी भागवत

Aug 20th, 2024 | 13 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 2 अध्याय: 7, 8 और 9

भगवान की लीलावतारों के बारे में बताने के बाद ब्रह्माजी नारदजी को कहते हैं- 

जब संसार की रचना होती है, तब भगवान:
  1. तपस्या,
  2. नौ प्रजापति, 
  3. मरीचि आदि ऋषियों और 
  4. स्वयं ब्रह्मा के रूप में प्रकट होते हैं और सृष्टि के निर्माण में योगदान करते हैं।
सृष्टि के संरक्षण के समय भगवान: 
  1. धर्म,
  2. विष्णु,
  3. मनु,
  4. देवता, और राजाओं के रूप में प्रकट होते हैं और सृष्टि की रक्षा और व्यवस्था बनाए रखते हैं।
और सृष्टि के प्रलय के समय भगवान: 
  1. अधर्म,
  2. रुद्र (शिव का रौद्र रूप), 
  3. क्रोधवश नाम के सर्प और दैत्य (राक्षस) आदि रूपों में प्रकट होते हैं और सृष्टि का विनाश करते हैं।
ब्रह्माजी आगे कहते हैं की अपनी प्रतिभाके बलसे पृथ्वीके एक-एक धूलिकणको गिन चुकनेपर भी जगत्‌में ऐसा कौन पुरुष है, जो भगवान्‌की शक्तियोंकी गणना कर सके⁠। जब वे त्रिविक्रम-अवतार लेकर त्रिलोकीको नाप रहे थे, उस समय उनके चरणोंके अदम्य वेगसे प्रकृतिरूप अन्तिम आवरणसे लेकर सत्यलोकतक सारा ब्रह्माण्ड काँपने लगा था⁠। तब उन्होंने ही अपनी शक्तिसे उसे स्थिर किया था। जगद्गुरु कृपालुजी महाराज लिखते हैं-
भूमि के परमाणु गोविंद राधे। गिन भी लो हरि गुण अमित बता दे।।
अगनित गुण गन गोविंद राधे। सुनि शुक ब्रह्म समाधि भुला दे।। 
जो लोग बिना किसी छल-कपट के अपना सब कुछ, यहाँ तक कि अपना स्वयं का अस्तित्व भी, भगवान के चरणों में समर्पित कर देते हैं, उन पर भगवान स्वयं कृपा करते हैं। उनकी दया से ही वे लोग भगवान की माया को समझ पाते हैं और उस माया से पार हो जाते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं-
बिनु विश्वास भगति नहीं, तेही बिनु द्रवहिं न राम।
राम-कृपा बिनु सपनेहुँ, जीव न लहि विश्राम ॥
भगवान के शरणागत महापुरुष 'यह मेरा है' और 'यह मैं हूँ' जैसी भावनाओं का त्याग कर देते हैं, चाहे वे अपने शरीर को देखें या अपने पुत्र आदि को। वे शरीर और सम्बन्धियों को अपनी सम्पत्ति नहीं मानते। ब्रह्माजी नारदजी का कहेते हैं, “नारद! परम पुरुषकी उस योगमायाको मैं जानता हूँ तथा तुमलोग, भगवान् शंकर, प्रह्लाद, शतरूपा, मनु, प्रियव्रत आदि, प्राचीनबर्हि, ऋभु और ध्रुव भी जानते हैं। इनके सिवा इक्ष्वाकु, पुरूरवा, मुचुकुन्द, जनक, गाधि, रघु, अम्बरीष, सगर, गय, ययाति आदि तथा मान्धाता, अलर्क, शतधन्वा, अनु, रन्तिदेव, भीष्म, बलि अमूर्त्तरय, दिलीप, सौभरि, उत्तंक, शिबि, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्धव, पराशर, भूरिषेण एवं विभीषण, हनुमान्, शुकदेव, अर्जुन, आर्ष्टिषेण, विदुर और श्रुतदेव आदि महात्मा भी जानते हैं। जिन लोगों ने भगवान के प्रेमी भक्तों की संगति की है, वे संसार में पिछड़ा या विपन्न वर्ग में पैदा होने के बावजूद, और यहां तक कि पशु-पक्षी जैसी निम्न योनियों में जन्म लेने के बावजूद, भगवान की माया का रहस्य समझ लेते हैं और संसारसागर से पार हो जाते हैं।”

परमात्मा का वास्तविक स्वरूप 

परमात्मा का वास्तविक स्वरूप एकरस, शान्त, अभय, और केवल ज्ञानमय होता है। वह मायाके मलसे मुक्त हैं और संसारकी विषमताएँ भी उसमें नहीं होतीं। परमात्मा सत् और असत् दोनोंसे परे हैं। वहाँ किसी भी वैदिक या लौकिक शब्दकी पहुँच नहीं है, और न ही कर्मोंके फल वहाँ पहुँच सकते हैं। औरों की क्या कहें माया भी परमात्माके सामने नहीं टिकती, लजाकर भाग जातीहै। जिसे महात्मा लोग शोकरहित, अनन्त आनन्दस्वरूप ब्रह्म के रूप में साक्षात्कार करते हैं।
भगवान सभी कर्मों के फल देते हैं। समस्त कर्मोंके फल भी भगवान् ही देते हैं⁠। इस शरीरमें रहनेवाले पंचभूतोंके अलग-अलग हो जानेपर जब—यह शरीर नष्ट हो जाता है, तब भी इसमें रहनेवाला अजन्मा पुरुष आकाशके समान नष्ट नहीं होता ⁠।⁠

ब्रह्माजी आगे कहते हैं- संकल्पसे विश्वकी रचना करनेवाले षडैश्वर्यसम्पन्न श्रीहरिका मैंने तुम्हारे सामने संक्षेपसे वर्णन किया⁠। जो कुछ कार्य-कारण अथवा भाव-अभाव है, वह सब भगवान्‌से भिन्न नहीं है⁠। फिर भी भगवान् तो इससे पृथक् भी हैं ही। भगवान्‌ने मुझे जो उपदेश किया था, वह यही ‘भागवत’ है⁠। इसमें भगवान्‌की विभूतियोंका संक्षिप्त वर्णन है⁠। तुम इसका विस्तार करो। 

जिस प्रकार सबका भगवान श्रीकृष्ण में प्रेममयी भक्ति हो, उस प्रकार इसका वर्णन करो। जो लोग भगवान की अचिन्त्य शक्ति माया का वर्णन करते हैं, उसे सुनते हैं, या किसी और के द्वारा वर्णित का अनुमोदन करते हैं, उनका चित्त माया से कभी मोहित नहीं होता।

राजा परीक्षित के शुकदेवजी को प्रश्न 

श्रीमद्भागवत के दूसरे स्कन्ध के आठवाँ अध्याय में राजा परीक्षित शुकदेवजी को निम्न प्रश करते हैं: 
  1. जब ब्रह्माजी ने नारदजी को निर्गुण भगवान् के गुणों का वर्णन करने का आदेश दिया, तब नारदजी ने किन-किन को किस रूप में उपदेश किया?
  2. भगवान् की अचिन्त्य शक्तियों से संबंधित कथाएँ जो लोगों का परम मंगल करती हैं, कृपया मुझे सुनाएँ।
  3. मैं अपने आसक्तिरहित मन को सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय करके शरीर कैसे छोड़ सकता हूँ?
  4. श्रीकृष्ण की लीलाओं का नित्य श्रवण और कथन करने से भक्तों के हृदय में भगवान् प्रकट होते हैं, यह कैसे होता है?
  5. श्रीकृष्ण कान के छिद्रों के माध्यम से भक्तों के हृदय में कैसे प्रवेश करते हैं और उनके मन के मल का नाश कैसे करते हैं?
  6. जिनका हृदय शुद्ध हो जाता है, वे श्रीकृष्ण के चरणकमलों को एक क्षण के लिए भी कैसे नहीं छोड़ते हैं?
  7. जीव का पंचभूतों से कोई स्वाभाविक संबंध नहीं है, फिर भी इसका शरीर पंचभूतों से कैसे बनता है?
  8. भगवान् की नाभि से प्रकट हुआ कमल, जिसमें लोकों की रचना हुई, इस प्रक्रिया का क्या अर्थ है?
  9. भगवान्, जिनकी कृपा से ब्रह्माजी प्राणियों की सृष्टि करते हैं, वे अपनी मायाका त्याग करके किसमें और किस रूप में शयन करते हैं?
  10. आपने बताया कि विराट् पुरुष के अंगों से लोक और लोकपालों की रचना हुई, और फिर बताया कि लोक और लोकपालों के रूप में उसके अंगों की कल्पना की गई, इसका क्या तात्पर्य है?
  11. महाकल्प और अवान्तर कल्प कितने होते हैं? काल का अनुमान कैसे किया जाता है?
  12. काल की सूक्ष्म गति और स्थूल गति कैसे जानी जाती है?
  13. विविध कर्मों से जीवों की कितनी और कैसी गतियाँ होती हैं?
  14. देव, मनुष्य आदि योनियाँ कैसे प्राप्त होती हैं, और जीव कौन-कौन से कर्म किस-किस योनि को प्राप्त करने के लिए करते हैं?
  15. पृथ्वी, पाताल, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप और उनमें रहने वाले जीवों की उत्पत्ति कैसे होती है?
  16. ब्रह्माण्ड का परिमाण भीतर और बाहर दोनों प्रकार से बतलाइये।
  17. युगों के भेद, उनके परिमाण और उनके धर्मों को समझाइए।
  18. मनुष्यों के साधारण और विशेष धर्म कौन-कौन से हैं?
  19. तत्त्वों की संख्या, स्वरूप और लक्षण क्या हैं?
  20. भगवान् की आराधना और अध्यात्म योग की विधि क्या है?
  21. योगेश्वरों को क्या-क्या ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं, और अंत में उन्हें कौन-सी गति मिलती है?
  22. योगियों का लिंगशरीर कैसे भंग होता है?
  23. वेद, उपवेद, धर्मशास्त्र, इतिहास और पुराणों का स्वरूप और तात्पर्य क्या है?
  24. प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कैसे होता है?
  25. आत्मा के बंध-मोक्ष का स्वरूप क्या है, और वह अपने स्वरूप में कैसे स्थित होता है?
  26. भगवान् अपनी माया से किस प्रकार क्रीड़ा करते हैं और उसे छोड़कर साक्षी के समान उदासीन कैसे हो जाते हैं?

सूतजी शौनकजी को कहते हैं की जब राजा परीक्षित्‌ने संतोंकी सभामें भगवान्‌की लीला-कथा सुनानेके लिये इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उन्हें वही वेदतुल्य श्रीमद्भागवत-महापुराण सुनाया, जो ब्राह्मकल्पके आरम्भमें स्वयं भगवान्‌ने ब्रह्माजीको सुनाया था। परीक्षित्‌ने उनसे जो-जो प्रश्न किये थे, वे उन सबका उत्तर देते हुए कहने लगे की जैसे स्वप्न में देखने वाले का वस्तुओं से कोई वास्तविक संबंध नहीं होता, वैसे ही आत्मा का मायाके बिना दृश्य पदार्थों से कोई संबंध नहीं होता। मायाके कारण आत्मा विविध रूप में प्रकट होता है और ‘मैं हूँ’ की भावना करता है, लेकिन जब आत्मा अपनी स्वाभाविक स्थिति में लौटता है, तब वह गुणों से परे हो जाता है और पूर्ण उदासीन हो जाता है।

ब्रह्माजी ने किया एक हज़ार दिव्य वर्षों तक तपस्या

ब्रह्माजी अपने जन्मस्थान कमल पर बैठे हुए सृष्टि करनेकी इच्छासे विचार करने लगे⁠। परन्तु जिस ज्ञानदृष्टिसे सृष्टिका निर्माण हो सकता था वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई। एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलयके समुद्रमें उन्होंने व्यंजनोंके सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर ‘त’ तथा ‘प’ को—‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना⁠। यह सुनकर ब्रह्माजीने वक्ताको देखनेकी इच्छासे चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा⁠। वे अपने कमलपर बैठ गये और ‘मुझे तप करनेकी प्रत्यक्ष आज्ञा मिली है’ ऐसा निश्चयकर तपस्या में लीन हो गए। उन्होंने एक हजार दिव्य वर्षों तक एकाग्रचित्त होकर अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को वश में कर तपस्या की। उनकी इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें अपना वह लोक दिखाया जो सबसे श्रेष्ठ है और जहां तक कोई दूसरा लोक नहीं पहुंच सकता।

भगवान का दिव्य वैकुण्ठ लोक कैसा है?

वह हरि धाम तो गोविंद राधे। धामों में है सर्वश्रेष्ठ बता दे।।
उस दिव्य धाम में गोविंद राधे। काल कर्म माया जाये ना बता दे।।
वहाँ नहीं माया के गोविंद राधे। सत्व रज तम तीनों गुण भी बता दे।। 
वहाँ तो निवास करें गोविंद राधे। हरि के नित्य पार्षद ही बता दे।।
हरि का शरीर वहाँ गोविंद राधे। दिव्य तेज युक्त श्याम रंग का बता दे।।
कमल नेत्र पीतपट गोविंद राधे। रोम रोम रस सौन्दर्य बता दे।।
अंग अंग मणिमय गोविंद राधे। भूषण ते भूषित है बता दे।।
मूंगे वैदूर्य मणि गोविंद राधे। कमल तन्तु सी छवि है बता दे।।
सिर पै है मुकुट गोविंद राधे। कान में कुण्डल कनक बता दे।।
उस हरि धाम में गोविंद राधे। कमला करें पद सेवा बता दे।
ब्रह्मा ने देखा वहाँ गोविंद राधे। पार्षद करें परिचर्या बता दे।।
ब्रह्माजी ने उस दिव्य वैकुण्ठ लोक में एक सर्वोत्तम और बहुमूल्य आसनपर विराजमान भगवान को देखा जिनको चारों और पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, मन, दस इन्द्रिय, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पंचभूत—ये पचीस शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर खड़ी हैं⁠। वह भगवान समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य—इन छः नित्यसिद्ध स्वरूपभूत शक्तियोंसे सर्वदा युक्त रहते हैं⁠। उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूपसे निवास नहीं करतीं⁠। वे सर्वेश्वर प्रभु अपने नित्य आनन्दमय स्वरूपमें ही नित्य-निरन्तर निमग्न रहते हैं। 

उनका दर्शन करते ही ब्रह्माजीका हृदय आनन्द से लबालब भर गया⁠। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रोंमें प्रेमाश्रु छलक आये⁠। ब्रह्माजीने भगवान्‌के उन चरणकमलोंमें, जो परमहंसोंके निवृत्तिमार्गसे प्राप्त हो सकते हैं, सिर झुकाकर प्रणाम किया। भगवान् ब्रह्माको प्रेम और दर्शनके आनन्दमें निमग्न, शरणागत तथा प्रजा-सृष्टिके लिये आदेश देनेके योग्य देखकर बहुत प्रसन्न हुए⁠। उन्होंने ब्रह्माजीसे हाथ मिलाया तथा मन्द मुसकानसे अलंकृत वाणीमें कहा, "ब्रह्माजी! तुम्हारे हृदय में तो सभी वेदों का ज्ञान पहले से ही है। तुमने सृष्टि की रचना की इच्छा से लंबे समय तक तपस्या करके मुझे संतुष्ट कर दिया है। जो लोग मन में कपट रखकर योग साधना करते हैं, वे मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते। जो भी इच्छा तुम्हारे मन में हो, वह वर मुझसे मांग लो। तुमने मुझे देखे बिना ही, केवल मेरी वाणी सुनकर सूने जल में इतनी कठोर तपस्या की, इसीलिए मेरी इच्छा से तुम्हें मेरे लोक का दर्शन हुआ है। तुम उस समय सृष्टि की रचना के कार्य में दुविधा में थे, इसलिए मैंने तुम्हें तपस्या करने की आज्ञा दी थी। क्योंकि तपस्या मेरा हृदय है और मैं स्वयं तपस्या का आत्मा हूं। मैं तपस्या से ही इस संसार की सृष्टि करता हूं, पालन-पोषण करता हूं, और फिर तपस्या से ही इसे अपने में लीन कर लेता हूं। तपस्या मेरी एक अद्वितीय और शक्तिशाली शक्ति है।"

भगवान ने जब ब्रह्मा को वार माँगने को कहा तब उन्होंने माँगा:

  1. उन्होंने भगवान से अनुरोध किया कि वे उन्हें उनके निर्गुण और सगुण दोनों ही स्वरूपों का ज्ञान प्रदान करें।
  2. ब्रह्माजी ने भगवान से यह जानने की इच्छा व्यक्त की कि कैसे भगवान अपनी माया का आश्रय लेकर इस जगत् की उत्पत्ति, पालन, और संहार करते हैं।
  3. उन्होंने प्रार्थना की कि वे सृष्टि रचना करते समय कर्तापन (मैं ही कर रहा हूँ) के अभिमान से बंधे न रहें।
  4. ब्रह्माजी ने अनुरोध किया कि भगवान की आज्ञा का पालन करते समय वे सदैव सजग और सावधान रहें।
  5. उन्होंने भगवान से यह प्रार्थना की कि सृष्टि रचना के कार्य में संलग्न होते समय कहीं वे अहंकार में न फँस जाएं।

भगवान ने कहा, "अनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनोंसे युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरूपका ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ; तुम उसे ग्रहण करो। मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएँ हैं—मेरी कृपासे तुम उनका तत्त्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो।"

चतुः श्लोकी भागवत

ऐसा कह के भगवान ने ब्रह्माजी को चतुः श्लोकी भागवत का ज्ञान कराया:
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्‌ यत्‌ सदसत्‌ परम् ⁠।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ⁠।⁠।⁠

ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ⁠।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ⁠।⁠।⁠

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ⁠।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ⁠।⁠।⁠


एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः ⁠।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात्‌ सर्वत्र सर्वदा ⁠।⁠।⁠
भगवान कहते हैं कि सृष्टि के आरम्भ से पहले केवल वही थे। उनके अलावा कोई भी स्थूल (भौतिक) या सूक्ष्म (सूक्ष्म तत्त्व) वस्तु मौजूद नहीं थी, न ही इन दोनों का कारण (अज्ञान) उपस्थित था। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ भी केवल भगवान ही हैं। इस सृष्टि के रूप में जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह भी भगवान ही हैं। और जब सृष्टि का अंत हो जाएगा, तब भी जो कुछ बचेगा, वह केवल भगवान ही होंगे।(भागवत 2.9.32)

भगवान कहते हैं कि जो वस्तुएं वास्तव में नहीं हैं, लेकिन दिखती हैं, वे उनकी माया हैं। आकाश में स्थित सूर्य का प्रतिबिंब जल आदि में पड़ता है। वह प्रतिबिंब सूर्य से बाहर ही है। और यह प्रतिबिंब भी सूर्य के आश्रय से ही प्रकट होता है। वैसे ही माया भी अपने शक्तिमान भगवान् से बाहर ही रहती है। किंतु भगवान् की शक्ति के आश्रय से ही कार्य करती है।अंधकार सदा प्रकाश से दूर ही रहता है। किंतु प्रकाश के बिना अंधकार की प्रतीति भी नहीं हो सकती। चक्षु के प्रकाश से ही तो अंधकार का निर्णय हो सकता है।(भागवत 2.9.33)

प्राणियों के शरीर में पंचभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) होते हैं, जो शरीर के निर्माण में शामिल होते हैं, लेकिन ये तत्व पहले से ही हर जगह मौजूद रहते हैं। इसी तरह, भगवान आत्मा के रूप में प्राणियों के शरीर में होते हैं, लेकिन आत्मा की दृष्टि से भगवान ही सब कुछ हैं और किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है। (भागवत 2.9.34)

शास्त्रों में कहा गया है कि 'यह ब्रह्म नहीं है, यह ब्रह्म नहीं है' (निषेध) और 'यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है' (अन्वय) इस प्रकार से समझा जाता है कि भगवान ही सर्वत्र और सदा विद्यमान हैं। वही वास्तविक तत्त्व हैं, और आत्मा का तत्त्व जानने के लिए केवल इस सच्चाई को समझने की आवश्यकता है। (भागवत 2.9.35)

इसके पश्चात भगवान ब्रह्माजी को निर्देश देते हैं कि वे अविचलित समाधि में स्थित होकर, उनके दिए हुए सिद्धांत में पूर्ण निष्ठा करें। ऐसा करने से, ब्रह्माजी कल्प-कल्प में विविध प्रकार की सृष्टि रचना करते रहने पर भी कभी मोह में नहीं पड़ेंगे। श्री शुकदेवजी कहते हैं कि इस प्रकार ब्रह्माजी को उपदेश देने के बाद, अजन्मा भगवान ने अपने उस रूप को ब्रह्माजी की दृष्टि से हटा लिया अर्थात् वह अन्तर्धान हो गये। पश्चात ब्रह्माजी अंजलि बांधकर उन्हें प्रणाम किया और फिर पहले कल्प में जैसे सृष्टि की थी, उसी रूप में इस विश्व की रचना की।

शुकदेवजी राजा परीक्षित को कहते हैं की एक बार ब्रह्माजी ने अपने इस (सृष्टि कार्य) कर्तव्य की पूर्ति के लिए विधिपूर्वक यम और नियमों का पालन किया। उस समय उनके पुत्रों में सबसे प्रिय और परम भक्त, देवर्षि नारदजी ने भगवान की माया का तत्त्व जानने की इच्छा से, बड़े संयम, विनय और सौम्यता से अनुगत होकर ब्रह्माजी की सेवा की और उनकी सेवा से ब्रह्माजी को अत्यंत संतुष्ट कर लिया।जब देवर्षि नारद ने देखा कि मेरे पिता ब्रह्माजी मुझ पर प्रसन्न हैं, तो उन्होंने उनसे वही प्रश्न किया जो राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से किया था।ब्रह्माजी नारदजी के प्रश्न से और भी प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने वही दस लक्षणों वाला भागवत पुराण अपने पुत्र नारदजी को सुनाया, जिसका स्वयं भगवान ने उन्हें उपदेश दिया था।

शुकदेवजी कहते हैं कि जिस समय मेरे परम तेजस्वी पिता (वेदव्यासजी) सरस्वती नदी के तट पर बैठकर परमात्मा के ध्यान में मग्न थे, उस समय देवर्षि नारदजी ने वही भागवत उन्हें सुनाया। शुकदेवजी कहते हैं कि राजा परीक्षित ने जो प्रश्न किया था कि विराट पुरुष से इस जगत की उत्पत्ति कैसे हुई, और अन्य जो बहुत से प्रश्न किए थे, उन सभी का उत्तर मैं उसी भागवत पुराण के रूप में दे रहा हूं। ऐसा कहते हुए शेकदेवजी आगे भागवत के दस लक्षणों का वर्णन करते हैं। 

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 19.08.2024