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7- अश्वत्थामा की क्रूरता एवं भीष्म की श्रीकृष्ण भक्ति

Jul 2nd, 2024 | 12 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

महाभारत युद्ध के समय, भीम द्वारा घायल दुर्योधन को रिझाने के लिए अश्वत्थामा ने द्रौपदी के सोते हुए पाँच पुत्रों के सिर काटकर भेंट किया। अपना कुल विनाश होता देख, दुर्योधन को भी यह कार्य अच्छा नहीं लगा। उधर रोती हुई द्रौपदी को समझाते हुए अर्जुन ने कहा कि अश्वत्थामा का कटा सिर तुमको लाकर दूँगा। ऐसा कहकर, श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर वह अश्वत्थामा के पीछे भागा। अश्वत्थामा भी अर्जुन को अपने पीछे आता देख डर के मारे भागने लगा। जब वह थक-हार गया, तो उसने अपनी रक्षा के लिए ब्रह्मास्त्र का सन्धान किया। उसको ब्रह्मास्त्र चलाना आता था लेकिन वापस बुलाना नहीं। ब्रह्मास्त्र से सारी दिशाओं में प्रचंड तेज फैल गया। अर्जुन ने देखा कि अब उसकी भी प्राण खतरे में है, तो श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हुए इस संकट से निकालने को कहा। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि इस ब्रह्मास्त्र को काटने के लिए तुम भी ब्रह्मास्त्र चलाओ। अर्जुन ने वैसा ही किया।

इसके बाद, अश्वत्थामा को बलपूर्वक बाँधकर जब अर्जुन शिविर की ओर ले जाने लगा, तब श्रीकृष्ण ने कुपित होकर कहा, ‘अर्जुन! इसको छोड़ना ठीक नहीं है, इसको तो मार ही डालो। इसने रात में सोए हुए निरपराध बालकों की हत्या की है। धर्मवेत्ता पुरुष, असावधान, मतवाले, पागल, सोए हुए, बालक, स्त्री, विवेकज्ञानशून्य, शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रु को कभी नहीं मारते। परंतु जो दुष्ट और क्रूर पुरुष दूसरों को मारकर अपने प्राणों का पोषण करता है, उसका वध ही उसके लिए कल्याणकारी है; क्योंकि वैसी आदत लेकर यदि वह जीता है, तो और भी पाप करता है और उन पापों के कारण नरकगामी होता है। फिर मेरे सामने ही तुमने द्रौपदी से प्रतिज्ञा की थी कि जिसने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है, उसका सिर मैं उतार लाऊँगा। इस पापी कुलंगार आततायी ने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है और अपने स्वामी दुर्योधन को भी दुःख पहुँचाया है। इसलिये अर्जुन! इसे मार ही डालो।'

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के धर्म की परीक्षा लेने के लिए ऐसा कहा था। परंतु अर्जुन का हृदय महान था। गुरुपुत्र की हत्या करना उसको ठीक नहीं लगा। अश्वत्थामा को बाँधकर द्रौपदी के सामने लाकर खड़ा कर दिया। द्रौपदी ने सिर झुकाए हुए उसे देखा तो उसका हृदय भी पिघल गया। उसने कहा कि इनको छोड़ दो। इनके पिता आप सबके गुरु हैं और उनकी कृपा से ही आप महान बने हो। पुत्र वियोग का दुख में इनकी माता को नहीं देना चाहती। इसीलिए इन्हें छोड़ दो। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि पतित से पतित ब्राह्मण का वध भी मना किया गया है, परंतु आततायी को मारने के लिए कहा गया है। तुमने द्रौपदी को वचन दिया था, उसे भी पूरा करो और मुझे भी खुश करो। अर्जुन समझ गए। उन्होंने तुरंत तलवार से अश्वत्थामा के माथे की मणि उतार ली और उसका सिर मुंडवा दिया। सिर मूड़ देना, धन छीन लेना और स्थान से बाहर निकाल देना, यह ब्राह्मणों के लिए मृत्युदंड के समान माना गया है। इस प्रकार अश्वत्थामा को शिविर से बाहर निकाल दिया और मारे गए पुत्रों का अंतिम संस्कार किया।

इसके बाद, सब पांडव मरे हुए भाई-बंधुओं को तर्पण देने की इच्छा से द्रौपदी के साथ श्रीकृष्ण को आगे करके गंगा तट पर गए। युधिष्ठिर ने वहाँ मरे हुए को तर्पण दिया और उनके गुणों का स्मरण करके खूब विलाप किया। साथ में धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती भी थीं। श्रीकृष्ण ने उन सबको समझाया और सांत्वना दी कि संसार के सभी प्राणी काल के अधीन होते हैं। 

श्रीकृष्ण इसके पश्चात द्वारिका वापस जाने के लिए रथ पर बैठे ही होते हैं कि अर्जुन की पुत्रवधू, अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा भयभीत होकर दौड़ती हुई उनके सामने आती है। वह श्रीकृष्ण से रक्षा करने को कहती है कि यह एक दहकता हुआ लोहे का बाण मेरे पीछे आ रहा है। यह भले मुझे जला डाले, पर मेरे गर्भ के शिशु की रक्षा कीजिए। श्रीकृष्ण जान गए कि पांडवों के वंश का नाश करने के लिए अश्वत्थामा ने पुनः ब्रह्मास्त्र चलाया है। पांडवों ने भी देखा कि पाँच जलते हुए बाण उनकी तरफ़ आ रहे हैं। इसीलिए उन्होंने अपना-अपना अस्त्र उठा लिया। सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण ने अपने अनन्य प्रेमियों पर—शरणागत भक्तों पर बहुत बड़ी विपत्ति आ रही जानकर अपने निज अस्त्र सुदर्शन चक्र से उनकी रक्षा की। श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ को पांडवों की वंश परम्परा चलाने के लिए अपनी माया के कवच से ढक दिया। यद्यपि ब्रह्मास्त्र अमोघ है और उसके निवारण का कोई उपाय भी नहीं है, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण के तेज के सामने आकर वह शांत हो गया। इसे कोई आश्चर्यकी बात नहीं समझनी चाहिये; क्योंकि भगवान् तो सर्वाश्चर्यमय हैं, वे ही अपनी निज शक्ति मायासे स्वयं अजन्मा होकर भी इस संसारकी सृष्टि रक्षा और संहार करते हैं।

महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर को हुआ ग्लानि

जब भगवान श्रीकृष्ण जाने लगे, तब ब्रह्मास्त्र की ज्वाला से मुक्त अपने पुत्रों और द्रौपदी के साथ कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की। युधिष्ठिर भी उन्हें रोकने लगे। युद्ध में अपने भाइयों और सगे-संबंधियों की मृत्यु के लिए अपराध बोध से ग्रसित युधिष्ठिर ने उनके प्रस्थान को रोकने का प्रयास किया। वेद व्यास जैसे बुद्धिमान ऋषियों द्वारा उन्हें सांत्वना देने के प्रयासों के बावजूद, युधिष्ठिर पश्चाताप से ग्रस्त रहे। श्रीकृष्ण ने भी उन्हें सांत्वना दी, परंतु युधिष्ठिर का मन पश्चाताप में डूब गया। स्नेह और मोह के वश में होकर वे कहने लगे —"भला, मुझ दुरात्मा के हृदय में इस अज्ञान को तो देखो; मैंने सियार-कुत्तों के आहार इस अनात्मा शरीर के लिए अनेक अक्षौहिणी सेना का नाश कर डाला। मैंने बालक, ब्राह्मण, सम्बन्धी, मित्र, चाचा-ताऊ, भाई-बन्धु और गुरुजनों से द्रोह किया है। करोड़ों वर्षों से भी नरक से मेरा छुटकारा नहीं हो सकता। यद्यपि शास्त्र में कहा गया है कि राजा यदि प्रजा का पालन करने के लिए धर्मयुद्ध में शत्रुओं को मारे तो उसे पाप नहीं लगता। फिर भी इससे मुझे संतोष नहीं होता।” वह आगे कहते हैं की स्त्रियों के पति और भाई-बन्धुओं को मारने से उनके प्रति जो अपराध हुआ है, उसका मैं यज्ञादिकों के द्वारा धोनेमे में समर्थ नहीं हूँ। जैसे कीचड़ से गंदा जल स्वच्छ नहीं किया जा सकता, मदिरा से मदिरा की अपवित्रता नहीं मिटाई जा सकती, वैसे ही यज्ञों के द्वारा प्राणी हत्या का प्रायश्चित्त नहीं किया जा सकता। प्रजा क्या सोचेगी, उन्हें कैसे स्वीकारेगी, यह सोच कर वह विव्हल हो गये। तब श्रीकृष्ण के कहने पर धर्म का ज्ञान लेने वह बाकी के पांडव, व्यास, धौम्य आदि के साथ श्रीकृष्ण को आगे करके कुरुक्षेत्र में शरशैया में लेटे हुए भीष्म पितामह के पास गए। 

भीष्म पितामह ने मरते समय युधिष्ठिर को दिया धर्म का ज्ञान

वहाँ सब ने देखा कि भीष्म स्वर्ग से गिरे हुए देवता के समान पृथ्वी पर पड़े हुए थे। सब ने उन्हें प्रणाम किया। उस समय उनके दर्शन के लिए नारदजी के साथ अन्य ऋषि भी आए थे। पर्वत, नारद, धौम्य, व्यास, भरद्वाज, शिष्यों के साथ परशुरामजी, वसिष्ठ, गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, और शुकदेव आदि शुद्ध-हृदय महात्मागण एवं शिष्यों के सहित कश्यप, बृहस्पति आदि मुनि गण भी वहाँ पधारे। भीष्म पितामह धर्म को और देश-काल के विभाग को—कहाँ किस समय क्या करना चाहिए, इस बात को जानते थे। उन्होंने उन बड़भागी ऋषियों को सम्मिलित हुआ देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया। वे भगवान श्रीकृष्ण का प्रभाव भी जानते थे। अतः उन्होंने अपनी लीला से मनुष्य का वेष धारण करके वहाँ बैठे हुए तथा जगदीश्वर के रूप में हृदय में विराजमान भगवान श्रीकृष्ण की बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की।

पाण्डव बड़े विनय और प्रेम के साथ भीष्म पितामह के पास बैठ गये। उन्हें देखकर भीष्म पितामह की आँखें प्रेम के आँसुओं से भर गयीं। उन्होंने उनसे कहा—⁠"धर्मपुत्रो! यह बड़े कष्ट और अन्याय की बात है कि तुम लोगों को ब्राह्मण, धर्म और भगवान के आश्रित रहने पर भी इतने कष्ट के साथ जीना पड़ा, जिसके तुम कदापि योग्य नहीं थे। उन दिनों तुम्हारे लिये कुन्ती को और साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार बहुत से कष्ट झेलने पड़े। मैं समझता हूँ कि तुम लोगों के जीवन में ये जो अप्रिय घटनाएँ घटित हुई हैं, वे सब उन्हीं की लीला हैं। नहीं तो जहाँ साक्षात धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन रक्षा का काम कर रहे हों, गाण्डीव धनुष हो और स्वयं श्रीकृष्ण सुहृद् हों—भला, वहाँ भी विपत्ति की सम्भावना है? ये कालरूप श्रीकृष्ण कब क्या करना चाहते हैं, इस बात को कभी कोई नहीं जानता। बड़े-बड़े ज्ञानी भी इसे जानने की इच्छा करके मोहित हो जाते हैं।

युधिष्ठिर! संसार की ये सब घटनाएँ ईश्वरेच्छा के अधीन हैं। उसी का अनुसरण करके तुम इस अनाथ प्रजा का पालन करो; क्योंकि अब तुम ही इसके स्वामी और इसे पालन करने में समर्थ हो।"
एष वै भगवान् साक्षादाद्यो नारायणः पुमान् ⁠। मोहयन्मायया लोकं गूढश्चरति वृष्णिषु ⁠।⁠।⁠
ये श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् हैं⁠। ये सबके आदिकारण और परम पुरुष नारायण हैं⁠। अपनी मायासे लोगोंको मोहित करते हुए ये यदुवंशियोंमें छिपकर लीला कर रहे हैं ⁠।⁠ (भागवत 1-9-18)

इनका प्रभाव अत्यन्त गूढ़ एवं रहस्यमय है⁠। युधिष्ठिर! उसे भगवान् शंकर, देवर्षि नारद और स्वयं भगवान् ही जानते हैं ⁠।⁠ जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूत और सारथितक बनानेमें संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा हैं। इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहंकार रहित और निष्पाप परमात्मामें कभी किसी प्रकारकी विषमता नहीं होती।युधिष्ठिर! इस प्रकार सर्वत्र सम होनेपर भी देखो तो सही, वे अपने अनन्यप्रेमी भक्तोंपर कितनी कृपा करते हैं⁠। यही कारण है कि ऐसे समयमें जबकि मैं अपने प्राणोंका त्याग करने जा रहा हूँ, इन भगवान् श्रीकृष्णने मुझे साक्षात् दर्शन दिया है।
भक्त्याऽऽवेश्य मनो यस्मिन् वाचा यन्नाम कीर्तयन् ⁠। त्यजन् कलेवरं योगी मुच्यते कामकर्मभिः।⁠।
भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभावसे इनमें अपना मन लगाकर और वाणीसे इनके नामका कीर्तन करते हुए शरीरका त्याग करते हैं और कामनाओंसे तथा कर्मके बन्धनसे छूट जाते हैं। (भागवत 1-9-23)
स देवदेवो भगवान् प्रतीक्षतां कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम् ⁠। प्रसन्नहासारुणलोचनोल्ल सन्मुखाम्बुजो ध्यानपथश्चतुर्भुजः ⁠।⁠।
वे ही देवों के देव भगवान् अपने प्रसन्न हास्य और रक्तकमलके समान अरुण नेत्रोंसे उल्लसित मुखवाले चतुर्भुजरूपसे, जिसका और लोगोंको केवल ध्यानमें दर्शन होता है, तबतक यहीं स्थित रहकर प्रतीक्षा करें जबतक मैं इस शरीरका त्याग न कर दूँ ⁠। (भागवत 1-9-24)

सूतजी कहते हैं—युधिष्ठिरने उनकी यह बात सुनकर शरशय्यापर सोये हुए भीष्मपितामहसे नाना प्रकारके धर्मोंके सम्बन्धमें अनेकों रहस्य पूछे। तब भीष्मपितामहने वर्ण और आश्रमके अनुसार धर्म और वैराग्य तथा निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप द्विविध धर्म, दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म और भगवद्धर्म—इन सबका अलग-अलग संक्षेप और विस्तारसे वर्णन किया⁠। इनके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थोंका तथा इनकी प्राप्तिके साधनोंका अनेकों उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए वर्णन किया। 

भीष्मपितामह इस प्रकार धर्मका प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायणका समय आ पहुँचा जिसे मृत्युको अपने अधीन रखनेवाले भगवत्परायण योगीलोग चाहा करते हैं। उस समय भीष्मपितामहने वाणीका संयम करके मनको सब ओरसे हटाकर अपने सामने स्थित भगवान् श्रीकृष्णमें लगा दिया⁠। भगवान् श्रीकृष्णके सुन्दर विग्रहपर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था⁠। भीष्मकी आँखें उसीपर एकटक लग गयीं ⁠।⁠ उनको शस्त्रोंकी चोटसे जो पीड़ा हो रही थी वह तो भगवान्‌के दर्शनमात्रसे ही तुरंत दूर हो गयी तथा भगवान्‌की विशुद्ध धारणासे उनके जो कुछ अशुभ शेष थे वे सभी नष्ट हो गये⁠। अब शरीर छोड़नेके समय उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियोंके वृत्तिविलासको रोक दिया और बड़े प्रेमसे भगवान्‌की स्तुति की। 

मरते समय भीष्म पितामह ने किया श्रीकृष्ण की भक्ति

भीष्मने कहा—अब मृत्युके समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकारके साधनोंका अनुष्ठान करनेसे अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंशशिरोमणि अनन्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरूपमें स्थित रहते हुए ही कभी लीला करनेकी इच्छासे प्रकृतिको स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टिपरम्परा चलती है। जिनका शरीर त्रिभुवन-सुन्दर एवं श्याम तमालके समान साँवला है, जिसपर सूर्यरश्मियोंके समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल-सदृश मुखपर घुँघराली अलकें लटकती रहती हैं उन अर्जुन-सखा श्रीकृष्णमें मेरी निष्कपट प्रीति हो।
युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक्- कचलुलितश्रमवार्यलङ्कृतास्ये ⁠।मम निशितशरैर्विभिद्यमान- त्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ⁠।⁠।
मुझे युद्धके समयकी उनकी वह विलक्षण छवि याद आती है⁠। उनके मुखपर लहराते हुए घुँघराले बाल घोड़ोंकी टॉपकी धूलसे मटमैले हो गये थे और पसीनेकी छोटी-छोटी बूँदें शोभायमान हो रही थीं⁠। मैं अपने तीखे बाणोंसे उनकी त्वचाको बींध रहा था⁠। उन सुन्दर कवचमण्डित भगवान् श्रीकृष्णके प्रति मेरा शरीर, अन्तःकरण और आत्मा समर्पित हो जायँ। (भागवत 1-9-34)

अर्जुनकी बात सुनकर, जो तुरंत ही पाण्डव-सेना और कौरव-सेनाके बीचमें अपना रथ ले आये और अर्जुनने जब अपने स्वजनोंके वधसे विमुख हो गया⁠ उस समय जिन्होंने गीताके रूपमें आत्मविद्याका उपदेश करके उसके अज्ञानका नाश कर दिया, उन परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरी प्रीति बनी रहे।
शितविशिखहतो विशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे ⁠।प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ⁠।⁠।
मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्णको शस्त्र ग्रहण कराकर छोड़ूँगा; उसे सत्य करनेके लिये उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करनेकी प्रतिज्ञा तोड़ दी⁠। उस समय वे रथसे नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथीको मारनेके लिये उसपर टूट पड़ता है, वैसे ही रथका पहिया लेकर मुझपर झपट पड़े⁠। उस समय वे इतने वेगसे दौड़े कि उनके कंधेका दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी काँपने लगी। मुझ आततायीने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीरका कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था, अर्जुनके रोकनेपर भी वे बलपूर्वक मुझे मारनेके लिये मेरी ओर दौड़े आ थे⁠। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलतासे परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति हों—आश्रय हों। (भागवत 1-9-38)

अर्जुनके रथकी रक्षामें सावधान जिन श्रीकृष्णके बायें हाथमें घोड़ोंकी रास थी और दाहिने हाथमें चाबुक, इन दोनोंकी शोभासे उस समय जिनकी अपूर्व छवि बन गयी थी, तथा महाभारतयुद्धमें मरनेवाले वीर जिनकी इस छविका दर्शन करते रहनेके कारण सारूप्य मोक्षको प्राप्त हो गये, उन्हीं पार्थसारथि भगवान् श्रीकृष्णमें मुझ मरणासन्नकी परम प्रीति हो। जिनकी लटकीली सुन्दर चाल, हाव-भावयुक्त चेष्टाएँ, मधुर मुसकान और प्रेमभरी चितवनसे अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीलामें उनके अन्तर्धान हो जानेपर प्रेमोन्मादसे मतवाली होकर। जिनकी लीलाओंका अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णमें मेरा परम प्रेम हो।जिस समय युधिष्ठिरका राजसूययज्ञ हो रहा था, मुनियों और बड़े-बड़े राजाओंसे भरी हुई सभामें सबसे पहले श्रीकृष्णकी मेरी आँखोंके सामने पूजा हुई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्युके समय मेरे सामने खड़े हैं।जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखोंसे अनेक रूपोंमें दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीरधारियोंके हृदयमें अनेक रूपसे जान पड़ते हैं; वास्तवमें तो वे एक और सबके हृदयमें विराजमान हैं ही⁠। उन्हीं इन भगवान् श्रीकृष्णको मैं भेद-भ्रमसे रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ।

सूतजी कहते हैं—इस प्रकार भीष्मपितामहने मन, वाणी और दृष्टिकी वृत्तियोंसे आत्मस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णमें अपने-आपको लीन कर दिया⁠। उनके प्राण वहीं विलीन हो गये और वे शान्त हो गये। सब लोग वैसे ही चुप हो गये, जैसे दिनके बीत जानेपर पक्षियोंका कलरव शान्त हो जाता है। उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे⁠। साधुस्वभावके राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। युधिष्ठिरने उनके मृत शरीरकी अन्त्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समयके लिये वे शोकमग्न हो गये। तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णके साथ युधिष्ठिर हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और गान्धारीको ढाढस बँधाया। फिर धृतराष्ट्रकी आज्ञा और भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमतिसे समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंशपरम्परागत साम्राज्यका धर्मपूर्वक शासन करने लगे।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद्भागवत कथा [हिंदी]- 01.07.2024