श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 3 अध्याय: 12 से 14
मैत्रेयजी विदुरजी से कहते हैं की यहाँतक मैंने आपको भगवानकी कालरूप महिमा सुनायी। अब जिस प्रकार ब्रह्माजीने जगतकी रचना की, वह सुनिये। सबसे पहले उन्होंने अज्ञानकी पाँच वृत्तियाँ-तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), तामिस्र (द्वेष) और अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) रची। किन्तु इस अत्यन्त पापमयी सृष्टिको देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। तब उन्होंने अपने मनको भगवान्के ध्यानसे पवित्र कर उससे दूसरी सृष्टि रची।
सनकं च सनन्दं च सनातनमथात्मभूः ।
सनत्कुमारं च मुनीन् निष्क्रियान् ऊर्ध्वरेतसः ॥
इस बार ब्रह्माजीने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—ये चार निवृत्तिपरायण पूर्ण ब्रह्मचारीमुनि उत्पन्न किये। (भागवत 3.12.4)
अपने इन पुत्रोंसे ब्रह्माजीने कहा, ‘पुत्रो! तुमलोग सृष्टि उत्पन्न करो।’ किंतु वे जन्मसे ही मोक्षमार्ग का अनुसरण करनेवाले और भगवानके ध्यानमें तत्पर थे, इसलिये उन्होंने ऐसा करना नहीं चाहा। जब ब्रह्माजी ने देखा कि मेरी आज्ञा न मानकर ये मेरे पुत्र मेरा तिरस्कार कर रहे हैं, तब उन्हें असह्य क्रोध हुआ। उन्होंने उसे रोकनेका प्रयत्न किया। किंतु बुद्धि-द्वारा उनके बहुत रोकनेपर भी वह क्रोध तत्काल उनके भौंहोंके बीचमेंसे एक नीले और लाल रंगके बालकके रूपमें प्रकट हो गया।
स वै रुरोद देवानां पूर्वजो भगवान्भवः ।
नामानि कुरु मे धातः स्थानानि च जगद्गुरो ॥
वे देवताओंके पूर्वज भगवान् भव (रुद्र) रो-रोकर कहने लगे— 'जगत्पिता! विधाता! मेरे नाम और रहनेके स्थान बतलाइये’। (भागवत 3.12.8)
ब्रह्माजी ने बालक की प्रार्थना सुनकर कहा, "रोओ मत, मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगा। तुम रोए, इसलिए लोग तुम्हें 'रुद्र' नाम से जानेंगे।" तब ब्रह्माजी ने कहा कि उनके रहने के लिए हृदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और तप जैसे स्थान पहले ही बनाए गए हैं।
मन्युर्मनुर्महिनसो महान् शिव ऋतध्वजः ।
उग्ररेता भवः कालो वामदेवो धृतव्रतः ॥
तुम्हारे नाम मन्यू, मन, महिनस, महान्, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत होंगे । (भागवत 3.12.12)
धीर्धृतिरसलोमा च नियुत्सर्पिरिलाम्बिका ।
इरावती सुधा दीक्षा रुद्राण्यो रुद्र ते स्त्रियः ॥
तथा धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत्, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा और दीक्षा-ये ग्यारह रुद्राणियाँ
तुम्हारी पत्नियाँ होंगी । (भागवत 3.12.3)
तुम्हारी पत्नियाँ होंगी । (भागवत 3.12.3)
ब्रह्माजी ने कहा कि उपर्युक्त नाम, स्थान और स्त्रियोंको स्वीकार करके इनके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न करो; क्योंकि तुम प्रजापति हो। ब्रह्माजीसे ऐसी आज्ञा पाकर भगवान् नीललोहित बल, आकार और स्वभावमें अपने ही जैसी प्रजा उत्पन्न करने लगे। भगवान् रुद्रके द्वारा उत्पन्न हुए उन रुद्रोंको असंख्य यूथ बनाकर सारे संसारको भक्षण करते देख ब्रह्माजीको बड़ी शंका हई। उन्होंने रुद्र से कहा कि उनकी प्रजा सबकुछ नष्ट कर रही है, इसलिए ऐसी सृष्टि न बनाओ और तपस्या करो और बाद में संसार की रचना करो। रुद्र ने ब्रह्माजी की आज्ञा मानकर तपस्या करने के लिए वन की ओर प्रस्थान किया।
इसके पश्चात् जब भगवानकी शक्तिसे सम्पन्न ब्रह्माजीने सृष्टिके लिये संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोककी बहुत वृद्धि हुई।
मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥
उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृग, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे।(भागवत 3.12.22)
नारदजी प्रजापति ब्रह्माजीकी गोदसे, दक्ष अँगूठेसे, वसिष्ठ प्राणसे, भृगु त्वचासे, क्रतु हाथसे, पुलह नाभिसे, पुलस्त्य ऋषि कानोंसे, अंगिरा मुखसे, अत्रि नेत्रोंसे और मरीचि मनसे उत्पन्न हुए। फिर उनके दायें छाती से धर्म उत्पन्न हआ, जिसकी पत्नी मूर्तिसे स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठसे अधर्मका जन्म हुआ और उससे संसारको भयभीत करनेवाला मृत्यु उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार ब्रह्माजीके हृदयसे काम, भौंहोंसे क्रोध, नीचेके होठसे लोभ, मुखसे वाणीकी अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंगसे समुद्र, गुदासे पापका निवासस्थान (राक्षसोंका अधिपति) निर्ऋति। छायासे देवहूतिके पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्माजीके शरीर और मनसे उत्पन्न हुआ। इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा-इन चार ऋत्विजोंके कर्म, यज्ञोंका विस्तार, धर्मके चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ—ये सब भी ब्रह्माजीके मुखोंसे ही उत्पन्न हुए।
विदुरजी के पूछने पर मैत्रेयजीने कहा की ब्रह्माजी ने अपने पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तरके मुखसे क्रमशः ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेदोंको रचा। इसी प्रकार आयुर्वेद (चिकित्साशास्त्र), धनुर्वेद (शस्त्रविद्या), गान्धर्ववेद (संगीतशास्त्र) और स्थापत्यवेद (शिल्पविद्या)-इन चार उपवेदोंको भी क्रमशः उन पूर्वादि मुखोंसे ही उत्पन्न किया। ब्रह्माजी देख चुके थे कि मरीचि आदि महान् शक्तिशाली ऋषियोंसे भी सृष्टिका विस्तार अधिक नहीं हआ, अतः वे मन-ही-मन पुनः चिन्ता करने लगे की मेरे निरन्तर प्रयत्न करनेपर भी प्रजाकी वृद्धि नहीं हो रही है। मालूम होता है इसमें दैव ही कुछ विघ्न डाल रहा है। ब्रह्माजी इस प्रकार दैवके विषयमें विचार कर रहे थे उसी समय अकस्मात् उनके शरीरके दो भाग हो गये। ‘क’ ब्रह्माजीका नाम है (क इति ब्रह्मणो नाम), उन्हींसे विभक्त होनेके कारण शरीरको ‘काय’ कहते हैं। उन दोनों विभागोंसे एक स्त्री-पुरुषका जोड़ा प्रकट हुआ। उनमें जो पुरुष था वह स्वायम्भुव मनु हुए और जो स्त्री थी, वह उनकी महारानी शतरूपा हुईं। तबसे मिथुनधर्म से प्रजाकी वृद्धि होने लगी। ‘मनु’ के संतान होने कारण हमारा नाम ‘मानव’ और ‘मनुष्य’ पड़ा। महाराज स्वायम्भुव मनुने शतरूपासे पाँच सन्तानें उत्पन्न की। उनमें प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र थे तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति–तीन कन्याएँ थीं। मनुजीने आकूतिका विवाह रुचि प्रजापतिसे किया, मझली कन्या देवहूति कर्दमजीको दी और प्रसूति दक्ष प्रजापतिको। इन तीनों कन्याओंकी सन्ततिसे सारा संसारभर गया।
श्रीशुकदेवजीने परीक्षित से कहा की विदुरजीने फिर पूछा की ब्रह्माजीके प्रिय पुत्र महाराज स्वायम्भुव मनुने अपनी प्रिय पत्नी शतरूपाको पाकर फिर क्या किया? स्वायम्भुव मनुका पवित्र चरित्र सुनाइये। मैत्रेयजी बोले-जब अपनी भार्या शतरूपाके साथ स्वायम्भुव मनुका जन्म हुआ, तब उन्होंने बड़ी नम्रतासे हाथ जोड़कर ब्रह्माजीसे पूछा कि हम ऐसा कौन-सा कर्म करें, जिससे आपकी सेवा बन सके? ब्रह्माजीने कहा की तुम अपनी इस भार्यासे अपने ही समान गुणवती सन्तति उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पथ्वीका पालन करो और यज्ञोंद्वारा श्रीहरिकी आराधना करो। प्रजापालनसे मेरी बड़ी सेवा होगी और तुम्हें प्रजाका पालन करते देखकर भगवान श्रीहरि भी तुमसे प्रसन्न होंगे। जिनपर यज्ञमूर्ति जनार्दन भगवान प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही होता है; क्योंकि वे तो एक प्रकारसे अपने आत्माका ही अनादर करते हैं।
ब्रह्मा की आज्ञा सुनकर मनु ने कहा की मैं आपकी आज्ञाका पालन अवश्य करूँगा; किन्तु आप इस जगत में मेरे और मेरी भावी प्रजाके रहनेके लिये स्थान बतलाइये। सब जीवोंका निवासस्थान पृथ्वी इस समय प्रलयके जलमें डूबी हुई है। आप इस देवीके उद्धारका प्रयत्न कीजिये। पृथ्वीको इस प्रकार अथाह जलमें डूबी देखकर ब्रह्माजी बहुत देरतक मनमें यह सोचते रहे कि ‘इसे कैसे निकालूँ जिस समय मैं लोकरचनामें लगा हआ था, उस समय पथ्वी जलमें डूब जानेसे रसातलको चली गयी। वे सर्वशक्तिमान श्रीहरि ही मेरा यह काम पूरा करें’।
वराह अवतार
ब्रह्माजी ऐसा सोच ही रहे थे कि उनके नासाछिद्र से अचानक एक वराह-शिशु प्रकट हुआ, जो पहले अँगूठे के आकार का था लेकिन एक ही क्षण में हाथी के समान विशाल हो गया। वराह भगवान ने गरजते हुए दिशाओं को भर दिया और मुनियों ने उनकी स्तुति की। वराह भगवान ने जल में गिरकर पृथ्वी को रसातल से बाहर निकाला। रास्ते में हिरण्याक्ष ने उनका प्रतिरोध किया, जिसे भगवान ने पराजित किया। ब्रह्मा और अन्य मुनि वराह भगवान की स्तुति करते हुए उनके यज्ञस्वरूप का वर्णन किया और उनकी महिमा को सराहा। भगवान वराह ने पृथ्वी को अपने दांतों पर धारण कर जल से बाहर निकालाकर स्थिर कर दिया और अंतर्धान हो गए।
श्रीशुकदेवजी परीक्षित को बताते हैं कि विदुरजी ने पूछा कि जब भगवान वराह पृथ्वी को जल से निकाल रहे थे, तो हिरण्याक्ष का उनके साथ संघर्ष किस कारण हुआ। मुनि मैत्रेय ने उत्तर दिया कि उन्होंने कहा कि पहले भी, भगवान वराह और हिरण्याक्ष के बीच युद्ध की कथा देवताओं से पूछे जाने पर ब्रह्माजी ने सुनाई थी।
एकबार दिति ने अपने पति कश्यप ऋषि से पुत्रप्राप्ति की इच्छा से प्रार्थना की। वह कामदेव के वेग से परेशान थी और पति से कृपा की कामना कर रही थी। कश्यप ऋषि ने दिति को समझाया कि वह उसकी इच्छा पूरी करेंगे लेकिन कुछ समय के लिए उसे प्रतीक्षा करना होगा क्योंकि उस समय को भूतों का समय माना जाता है। उन्होंने दिति को समझाया कि वह मर्यादा से काम लें और शान्तिपूर्वक प्रतीक्षा करें। दिति ने कश्यप ऋषि के कपड़े पकड़कर अत्यधिक आग्रह किया, जिससे उन्होंने अंततः उसकी इच्छा को स्वीकार किया और उसके साथ समागम किया। दिति ने समागम के बाद लज्जा अनुभव की और भगवान रुद्र को प्रार्थना की कि वे उसके गर्भ को नष्ट न करें।
कश्यप ऋषि ने दिति को बताया कि उसके द्वारा किए गए कर्म और समय के प्रतिकूल प्रभाव के कारण, उसके कोखसे दो बड़े ही अमंगलमय और अधम पुत्र उत्पन्न होंगे। वे बार-बार सम्पूर्ण लोक और लोकपालोंको अपने अत्याचारोंसे रुलायेंगे। जब उनके हाथसे बहुत-से निरपराध और दीन प्राणी मारे जाने लगेंगे, स्त्रियोंपर अत्याचार होने लगेंगे और महात्माओंको क्षुब्ध किया जाने लगेगा, उस समय सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करनेवाले श्रीजगदीश्वर कुपित होकर अवतार लेंगे और उनका वध करेंगे ।कश्यप ऋषि ने यह भी कहा कि उनके दो पुत्रों में से किसी एक पुत्र का एक पुत्र ऐसा होगा, जिसे भक्तजन और महात्मा सम्मानित करेंगे। यह बालक भगवान के प्रति भक्ति में पूर्ण, उदार और विशुद्ध होगा। उसका आचरण और गुण उसे महान बनाएंगे, और वह संसार के दुखों को समाप्त करने वाला होगा। जब दिति ने सुना कि उसका एक पौत्र भगवान के भक्त होगा और उसके पुत्र भगवान श्री हरि के हाथों मारे जाएंगे, तो उसे बहुत खुशी और उत्साह हुआ।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 16.09.2024