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21- दो प्रकार की सृष्टि एवम् युग, मन्वन्तर, कल्प आदि का वर्णन

Sep 14th, 2024 | 13 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 3 अध्याय: 9 से 11

ब्रह्माजी ने अंधकार में अपने उत्पत्ति स्थल को खोजते हुए बहुत समय बिताया। अंततः विफलता के बाद, ब्रह्माजी ने अपने आधारभूत कमल पर लौटकर प्राणवायू को नियंत्रित किया और समाधि में स्थित हो गए। पूर्ण आयु (दिव्य सौ वर्ष) तक योगाभ्यास करने के बाद ब्रह्माजी को ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने अपने अंतःकरण में अपने अधिष्ठान को प्रकाशित होते देखा। ब्रह्माजी ने देखा कि प्रलयकालीन जल में भगवान शेषजी के कमलनाल सदृश विशाल शय्या पर अकेले लेटे हुए हैं। शेषजी के दस हजार फण छत्र के समान फैले हुए हैं और उनके मस्तकों पर कीरीट शोभायमान है। ब्रह्माजी ने देखा कि भगवान के नाभि सरोवर से प्रकट हुआ कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर केवल यही पाँच पदार्थ दिखायी दिए। इनसे अधिक कुछ नहीं दिखा। ब्रह्माजी ने प्रजाकी रचना के लिए इन पाँच पदार्थों को देख कर, भगवान की स्तुति की और लोकविधाता की रचना की इच्छाओं में मग्न हो गए। इसके बाद वह भगवान की स्तुति करने लगे।

ब्रह्माजी कहते हैं कि उन्होंने बहुत समय बाद भगवान को पहचाना है और उनका स्वरूप मायाके प्रभाव के कारण साधारण जीवों के लिए समझ पाना कठिन है। भगवान ही सत्य हैं, और उनका यह रूप, जिसमें नाभिकमल से ब्रह्माजी प्रकट हुए हैं, सभी अवतारों का मूल कारण है। ब्रह्माजी भगवान की महिमा गाते हुए कहते हैं कि भगवान का सत्य स्वरूप आनंदमय और अखंड है। जो भक्त भगवान के चरणकमलों की उपासना करते हैं, वे भय, शोक और लोभ से मुक्त हो जाते हैं। भगवान की कथा और गुणों के श्रवण-कीर्तन से ही मनुष्य उन्हें जान सकता है और यही संसार के दुखों से मुक्ति का मार्ग है। ब्रह्माजी कहते हैं कि भगवान ने उनका कल्याण करने के लिए अपना दिव्य रूप दिखाया है। संसार में रहने वाले पापी जीव भगवान के स्वरूप को नहीं समझ पाते और विषयासक्ति में फंसकर कष्ट उठाते हैं। जब तक जीव भगवान के चरणों का आश्रय नहीं लेता, तब तक उसे धन, परिवार और अन्य सांसारिक वस्तुओं के कारण दुख, भय और लोभ का सामना करना पड़ता है। ब्रह्माजी भगवान से प्रार्थना करते हैं कि संसार का रक्षण और पालन करने के लिए भगवान ने जो धर्म और मर्यादा स्थापित की है, उसी से मनुष्य कल्याण प्राप्त कर सकते हैं। वे बताते हैं कि भगवान काल के रूप में जीवों की जीवन-अवधि को समाप्त करते हैं और अपनी इच्छानुसार अलग-अलग अवतार लेते हैं। ब्रह्माजी अंत में भगवान से सृष्टि निर्माण के लिए कृपा और आशीर्वाद की याचना करते हैं।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं कि मन और वाणीकी शक्तिके अनुसार भगवान की स्तुति कर ब्रह्माजी थके-से होकर मौन हो गये। श्रीमधुसूदन भगवान ने देखा कि ब्रह्माजी प्रलय के जल से भयभीत और लोकरचना के विषय में अनिश्चितता के कारण परेशान हैं। उनके मन की स्थिति समझते हुए, भगवान ने अपनी गम्भीर वाणी से ब्रह्माजी का खेद शांत करने का प्रयास किया। श्रीभगवान ने ब्रह्माजी को सृष्टि निर्माण के लिए प्रेरित करते हुए कहा कि वह विषाद छोड़कर फिर से तप और भागवत-ज्ञान का अनुष्ठान करें। उन्होंने बताया कि जब ब्रह्माजी भक्ति और समाहित चित्त के साथ सभी लोकों को अपने अंतःकरण में देखेंगे, तब वे सम्पूर्ण जगत को भगवान में और भगवान को सम्पूर्ण जगत में व्याप्त देखेंगे। जीव जब भगवान को सभी भूतों में स्थित देखता है, तब वह अज्ञान से मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है। भगवान ने ब्रह्माजी की स्तुति और उनकी तपस्या को अपनी कृपा का फल बताया। उन्होंने कहा कि सृष्टि निर्माण करते समय ब्रह्माजी का चित्त मोहित नहीं होगा और पापमय रजोगुण उन्हें नहीं बाँध पाएगा। भगवान ने ब्रह्माजी को यह भी बताया कि वे उन्हें भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरण से रहित मानते हैं, जिससे उनकी मुक्ति सुनिश्चित है। अंत में, भगवान ने ब्रह्माजी को पूर्वकल्प के समान त्रिलोकी और प्रजा की सृष्टि करने का निर्देश दिया और स्वयं नारायण रूप में अदृश्य हो गए।

विदुरजी ने मुनिवर मैत्रेयजी से भगवान नारायण के अंतर्धान होने के बाद ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न की गई सृष्टि के प्रकारों के बारे में पूछा। उन्होंने मुनिवर से यह भी निवेदन किया कि उनके अन्य सभी प्रश्नों का भी क्रमशः उत्तर देकर उनके संदेहों को दूर करें, क्योंकि मुनिवर सभी ज्ञानी व्यक्तियों में श्रेष्ठ हैं। शौनकजी को संबोधित करते हुए सूतजी ने कहा कि विदुरजी के प्रश्नों से मैत्रेयजी अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने उत्तर देना आरंभ किया। मैत्रेयजी ने कहा कि जैसे भगवान श्रीहरि ने निर्देश दिया था, उसी प्रकार ब्रह्माजी ने चित्त को भगवान श्रीनारायण में स्थिर करके सौ दिव्य वर्षों तक तप किया। ब्रह्माजीने देखा कि प्रलयकालीन प्रबल वायुके झकोरोंसे, जिससे वे उत्पन्न हुए हैं तथा जिसपर वे बैठे हुए हैं वह कमल तथा जल काँप रहे हैं । प्रबल तपस्या एवं हृदयमें स्थित आत्मज्ञानसे उनका विज्ञानबल बढ़ गया और उन्होंने जलके साथ वायुको पी लिया। फिर जिसपर स्वयं बैठे हुए थे, उस आकाशव्यापी कमलको देखकर उन्होंने विचार किया कि 'पूर्वकल्पमें लीन हुए लोकोंको मैं इसीसे रचूँगा’। ऐसा सोचकर उन्होंने उस कमल को तीन भागों में विभाजित किया - भुः, भुवः, स्वः। यद्यपि यह कमल चौदह भुवनों या उससे अधिक लोकों के लिए पर्याप्त था। ये तीन लोक जीवों के भोग स्थान के रूप में वर्णित हैं, जबकि निष्काम कर्म करने वालों को महः, तपः, जनः और सत्यलोक की प्राप्ति होती है।

विदुरजीने मैत्रेयजी से पूछा कि आपने अद्भुतकर्मा विश्वरूप श्रीहरिकी जिस काल नामक शक्तिकी बात कही थी उसका कृपया विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। श्रीमैत्रेयजीने कहा कि विषयों का रूपांतर (बदलना) ही काल का आकार है, और इसे माध्यम बनाकर भगवान अपनी सृष्टि को प्रकट करते हैं।

प्राकृत और वैकृत सृष्टि

सृष्टि नौ प्रकार की होती है, और प्राकृत (प्राकृतिक) और वैकृत (परिवर्तित) भेद से दसवीं सृष्टि होती है। प्रलय- काल, द्रव्य, और गुणों के माध्यम से तीन प्रकार से होता है। 

६ प्रकार की प्राकृत सृष्टियाँ:
श्रीहरि सृष्टि की इस पूरी प्रक्रिया के पीछे हैं। वे ही रजोगुण को धारण कर ब्रह्मा के रूप में सृष्टि की रचना करते हैं। सृष्टि की प्रक्रिया में छह प्रकार की "प्राकृत सृष्टियाँ" होती हैं, जो प्राकृतिक और मूलभूत रचनाएँ हैं।

  • पहली सृष्टि (महत्तत्त्व): भगवान की प्रेरणा से सत्त्व, रजस और तम गुणों में विषमता होना महत्तत्त्व की सृष्टि है।
  • दूसरी सृष्टि (अहंकार): अहंकार से पंचमहाभूत, ज्ञानेन्द्रिय, और कर्मेन्द्रिय उत्पन्न होते हैं।
  • तीसरी सृष्टि (भूतसर्ग): पंचमहाभूतों को उत्पन्न करने वाला तन्मात्र वर्ग इसमें होता है।
  • चौथी सृष्टि (इन्द्रियाँ): ज्ञान और क्रिया शक्तियों से युक्त इन्द्रियों की सृष्टि होती है।
  • पाँचवीं सृष्टि (देवता): सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न हुए इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं और मन की सृष्टि होती है।
  • छठी सृष्टि (अविद्या): अविद्या की सृष्टि में पाँच प्रकार की गाँठें होती हैं — तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह, और महामोह। यह जीवोंकी बुद्धिका आवरण और विक्षेप करनेवाली है।

चार प्रकार की वैकृत सृष्टि:
  • सातवीं सृष्टि "स्थावर" (अचल) वृक्षों की होती है। इसमें वनस्पतियाँ, ओषधियाँ, लताएँ, त्वक्सार (छाल से जुड़ी), वीरुध (लताएँ), और द्रुम (वृक्ष) आते हैं। इन जीवों में ज्ञानशक्ति प्रकट नहीं होती, ये केवल स्पर्श का अनुभव करते हैं और इनके प्रत्येक में कोई विशेष गुण होता है। 
  • आठवीं सृष्टि तिर्यक योनियों (पशु-पक्षियों) की होती है, जिनमें अट्ठाईस प्रकार के जीव शामिल हैं। इनमें काल का ज्ञान नहीं होता, और तमोगुण की अधिकता के कारण ये केवल भोजन, मैथुन, और सोने में लिप्त रहते हैं। इन जीवों में दूरदर्शिता और विचारशक्ति नहीं होती। 
इन तिर्यकोंमें दो खुरोंवाले, एक खुरवाले पशु कहलाते हैं। पाँच नखवाले पशु-पक्षि- कुत्ता, गीदड़, भेड़िया, बाघ, पशु हैं। बगुला, गिद्ध, बटेर, बाज, भास, भल्लूक, मोर, हंस, सारस, चकवा, कौआ और उल्लू आदि उड़नेवाले जीव पक्षी कहलाते हैं ⁠⁠।
  • नवीं सृष्टि मनुष्योंकी है⁠। यह एक ही प्रकारकी है⁠। इसके आहारका प्रवाह ऊपर (मुँह)-से नीचेकी ओर होता है⁠। मनुष्य रजोगुणप्रधान, कर्मपरायण और दुःखरूप विषयोंमें ही सुख माननेवाले होते हैं ⁠।⁠ 
  • दसवीं सृष्टि (देव सृष्टि): देवताओं, पितरों, असुरों, गन्धर्व-अप्सराओं, यक्षों-राक्षसों, और अन्य अदृश्य प्राणियों की सृष्टि होती है।

स्थावर, पशु-पक्षी और मनुष्य—ये तीनों प्रकारकी सृष्टियाँ तथा देवसर्ग वैकृत सृष्टि हैं तथा जो महत्तत्त्वादिरूप वैकारिक देवसर्ग है, उसकी गणना पहले प्राकृत सृष्टिमें की जा चुकी है⁠। इनके अतिरिक्त सनत्कुमार आदि ऋषियोंका जो कौमारसर्ग है, वह प्राकृत-वैकृत दोनों प्रकारका है।

मन्वन्तरादि कालविभागका वर्णन

श्रीमैत्रेय कहते हैं—विदुरजी! परमाणु पृथ्वी जैसी वस्तुओं का सबसे सूक्ष्म भाग है। इसे और विभाजित नहीं किया जा सकता, इसका कोई निश्चित रूप नहीं होता और यह अन्य परमाणुओं के साथ नहीं मिलती। जब कई परमाणु मिलते हैं, तो लोग गलती से उन्हें एक ही इकाई के रूप में मान लेते हैं। अपने शुद्ध रूप में न तो प्रलयादि अवस्थाभेदकी स्फूर्ति होती है, न नवीन-प्राचीन आदि कालभेदका भान होता है और न घट-पटादि वस्तुभेदकी ही कल्पना होती है । परमाणु के सूक्ष्म और विशाल रूप को समझकर हम समय (काल) की सूक्ष्मता और विशालता को भी समझ सकते हैं, जो अपनी सबसे सूक्ष्म अवस्था से लेकर सृष्टि और प्रलय तक के सभी रूपों में व्याप्त होता है।

  • दो परमाणु मिलकर एक ‘अणु’ होता है 
  • तीन अणुओं (६ परमाणु) के मिलने से एक ‘त्रसरेणु’ होता है जिसे सूर्य की किरणों से प्रकाशित होकर आकाश में उड़ते देखा जा सकता है।
  • ऐसे तीन त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य को जितना समय लगता है, उसे ‘टि’ कहते हैं। 'टि' का सौ गुना काल 'वेध' कहलाता है।
  • तीन वेध का एक ‘लव’ होता है। तीन लव को एक ‘निमेष’ और तीन निमेष को एक ‘क्षण’ कहते हैं। 
  • पाँच क्षण की एक ‘काष्ठा’ होती है।
  • पन्द्रह काष्ठा का एक ‘लघु’ होता है। पन्द्रह लघु की एक ‘नाडिका’ (दण्ड) कही जाती है।
  • दो नाडिकाओं का एक ‘मुहूर्त’ बनता है।
  • दिन के घटने-बढ़ने के अनुसार छः या सात नाडिकाओं का एक ‘प्रहर’ होता है। यह ‘याम’ कहलाता है, जो मनुष्य के दिन या रात का चौथा भाग होता है।
नाडिका की गणना कैसे करें? 
6 पल (48X6= 288 gm) ताँबे का एक ऐसा बरतन बनाया जाय जिसमें एक प्रस्थ जल (400 gm) आ सके। चार माशे (4 gm) सोने की चार अंगुल (approx. 8 cm) लंबी सलाई बनवाकर उसके द्वारा उस बरतन के पेंदे में छेद करके उसे जल में छोड़ दिया जाय जितने समय में एक प्रस्थ जल (400 gm) उस बरतन में भर जाए और वह बरतन जल में डूब जाए, उसे एक 'नाडिका' कहते हैं।
  • एक दिन और एक रात को चार-चार पहर होते हैं। पन्द्रह दिन-रात का एक ‘पक्ष’ होता है, जो शुक्ल और कृष्ण पक्ष के रूप में दो प्रकार का होता है।
  • शुक्ल और कृष्ण पक्ष को मिलाकर एक 'मास' (महीना) बनता है, जो पितरों का एक दिन-रात होता है।
  • दो मास का एक ‘ऋतु’ और छह मास का एक ‘अयन’ (अर्धवार्षिक काल) बनते हैं। अयन 'दक्षिणायन' और 'उत्तरायण' के रूप में दो प्रकार का होता है। दक्षिणायन और उत्तरायण मिलकर देवताओं का एक दिन-रात होता है। मनुष्यलोक में ये ‘वर्ष’ या बारह मास कहे जाते हैं। मनुष्यों की परम आयु सौ वर्षों की बताई गई है।
  • सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र और तारा-मंडल के अधिष्ठाता कालस्वरूप भगवान सूर्य परमाणु से लेकर संवत्सर तक द्वादश राशियों के रूप में सम्पूर्ण भुवनकोश की निरंतर परिक्रमा करते हैं। सूर्य, बृहस्पति, सवन, चंद्रमा और नक्षत्रों के महीनों के भेद से वर्ष को संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर कहा जाता है।
मैत्रेय मुनि कहते हैं, “विदुरजी! इन पाँच प्रकार के वर्षों को नियंत्रित करने वाले भगवान सूर्य की पूजा करिए और उन्हें उपहार अर्पित करें। ये सूर्यदेव पंचभूतों में तेजस्वरूप हैं और अपनी कालशक्ति से बीजादि पदार्थों की अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति प्रदान करते हैं। सूर्य पुरुषों की मोहवृत्ति के लिए उनकी आयु का क्षय करते हुए आकाश में विचरते हैं।” तब विदुरजी ने कहा की आपने देवता, पितर और मनुष्यों की परमायु का वर्णन तो किया। अब जो सनकादि ज्ञानी मुनिजन त्रिलोकी से बाहर कल्प से भी अधिक काल तक रहनेवाले हैं, उनकी भी आयु का वर्णन कीजियेआप भगवान काल की गति भलीभाँति जानते हैं; क्योंकि ज्ञानी लोग अपनी योगसिद्ध दिव्य दृष्टि से सारे संसार को देख लेते हैं। 

कलियुग कितने वर्षों का होता है?

मैत्रेयजी ने कहा—सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि-ये चार युग अपनी संध्या और संध्यान्शों के सहित देवताओं के बारह सहस्र वर्ष तक रहते हैं। इन सत्यादि चारों युगों में क्रमशः चार, तीन, दो और एक सहस्र दिव्य वर्ष होते हैं। प्रत्येक युग में जितने सहस्र वर्ष होते हैं, उससे दुगुने सौ वर्ष उनकी संध्या और संध्यान्शों में होते हैं। युग की आदिमें संध्या होती है और अंत में संध्यान्श। इनकी वर्ष-गणना सैकड़ों की संख्या में बतलायी गयी है। इनके बीच का जो काल होता है, उसी को कालवेत्ताओं ने युग कहा है। 

अर्थात् सत्ययुगमें 4000 दिव्य वर्ष युगके और 800 सन्ध्या एवं सन्ध्यांशके—इस प्रकार 4800 वर्ष होते हैं⁠। इसी प्रकार त्रेतामें 3600, द्वापरमें 2400 और कलियुगमें 1200 दिव्य वर्ष होते हैं⁠। मनुष्योंका एक वर्ष देवताओंका एक दिन होता है, अतः देवताओंका एक वर्ष मनुष्योंके 360 वर्षके बराबर हुआ⁠। इस प्रकार मानवीय मानसे कलियुगमें 4,32,000 वर्ष हुए तथा इससे दुगुने द्वापरमें, तिगुने त्रेतामें और चौगुने सत्ययुगमें होते हैं⁠।

त्रिलोकी से बाहर महर्लोक से ब्रह्मलोक तक यहाँ की एक सहस्र चतुर्युगी का एक दिन होता है। उसका क्रम जब तक ब्रह्माजी का दिन रहता है तब तक चलता रहता है। उस एक कल्प में चौदह मनु हो जाते हैं। प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल (716 चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है। प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजा, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ ही अपना अधिकार भोगते हैं। यह ब्रह्माजी की प्रतिदिन की सृष्टि है, जिसमें तीनों लोकों की रचना होती है। उसमें अपने-अपने कर्मानुसार पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर और देवताओं की उत्पत्ति होती है। इन मन्वन्तरों में भगवान सत्त्वगुण का आश्रय लेकर, मनु आदि रूपों के माध्यम से अपनी शक्ति प्रकट करते हैं और इस विश्व का पालन करते हैं। जब ब्रह्माजी का दिन समाप्त होता है, तब वे तमोगुण को स्वीकार कर अपनी सृष्टि-रचना की शक्ति को स्थगित कर देते हैं और शांत हो जाते हैं। उस समय पूरा विश्व उन्हीं में विलीन हो जाता है।

  • सत्ययुग= 1,728,000 मानव वर्ष 
  • त्रेतायुग= 1,296,000 मानव वर्ष 
  • द्वापर युग= 864000 मानव वर्ष
  • कलियुग= 4,32,000 मानव वर्ष
  • 1 महायुग= 4,320,000 मानव वर्ष
  • 71  महायुग= 1 मन्वन्तर 
  • 14 मन्वन्तर= 1 कल्प= ब्रह्माजी का एक दिन
  • 360 कल्प= ब्रह्माजी का एक वर्ष
  • ब्रह्माजी की आयु 100 वर्ष= 36,000 कल्प 
प्रलय की रात आने पर, जब सूर्य और चन्द्रमा का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तीनों लोक (भूः, भुवः, स्वः) ब्रह्माजी के शरीर में समा जाते हैं। उस समय, शेषजी के मुख से निकलने वाली भगवान की अग्निशक्ति से तीनों लोक जलने लगते हैं। इस ताप से परेशान होकर महर्षि जैसे भग आदि महात्मा महर्लोक से जनलोक चले जाते हैं। प्रलयकाल में सातों समुद्र प्रचंड हवा के कारण अपनी विशाल लहरों से त्रिलोकी को डुबो देते हैं।इस जल के भीतर भगवान शेषशायी योगनिद्रा में शयन करते हैं, और जनलोक के निवासी उनके गुणगान करते हैं। हजारों चतुर्युगी के दिन-रात के फेर के कारण, ब्रह्माजी की सौ वर्षों की आयु भी क्षणभर में बीतती हुई प्रतीत होती है। ब्रह्माजी की आयु के आधे हिस्से को परार्ध कहा जाता है। अभी पहला परार्ध समाप्त हो चुका है और दूसरा परार्ध अब चल रहा है। 
  • अर्थात् अभी ब्रह्माजी की आयु 51 वर्ष की है। अर्थात् उनकी आयु की पचास वर्ष याने 18,000 कल्प बीत चुके हैं। 
  • सबसे पहला कल्प का नाम ब्राह्म कल्प था। विद्वान उन्हें शब्दब्रह्म कहते हैं। 
  • इससे पहले का कल्प का नाम पाद्म कल्प था। 
  • इस समय जो कल्प चल रहा है, वह दूसरे परार्ध का आरंभ है और इसे श्वेत वराह कल्प कहा जाता है, जिसमें भगवान ने वराह रूप धारण किया था। 
  • अभी इस कल्प का सातवाँ मन्वन्तर चल रहा है जिसका नाम वैवस्वतर मन्वन्तर है। 
यह समय, परमाणु से लेकर पूरे द्विपरार्ध तक का समय, भगवान श्रीहरि के लिए मात्र एक क्षण के समान है। काल की यह शक्ति, जो परमाणु से लेकर विशाल परार्ध तक विस्तृत है, भगवान श्रीहरि पर कोई प्रभाव नहीं डालती। यह केवल उन जीवों पर शासन करती है जो शरीर और अहंकार में फंसे होते हैं। प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्र–इन आठ प्रकृतियोंके सहित दस इन्द्रियाँ, मन और पंचभूत-इन सोलह विकारोंसे मिलकर बना हुआ यह ब्रह्माण्डकोश भीतरसे 50 करोड़ योजन विस्तारवाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस-दस गुने सात आवरण हैं। ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड जिनके एक-एक रोम क्षिद्र से प्रकट होते हैं उसी को अक्षर ब्रह्म कहतें हैं। वह सभी कारणों का कारण है और यह भगवान श्रीविष्णु का श्रेष्ठ स्वरूप है जिन्हें प्रथम पुरुष, करणोदकशायी विष्णु या महा-विष्णु भी कहा जाता हैं। 

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 13.09.2024