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25- भगवान कपिल द्वारा माता देवहूति को सांख्य दर्शन का ज्ञान एवं 25 तत्त्वों का वर्णन

Oct 1st, 2024 | 10 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 3 अध्याय: 25 और 26
संख्या दर्शन- भक्त के लक्षण, प्रकृति और प्रधान, और 25 तत्त्वों का वर्णन
 
कर्दम मुनि के वन में चले जाने के बाद भगवान कपिलजी अपनी माता देवहूति को संतुष्ट करने के लिए बिंदुसर तीर्थ में रहने लगते हैं। एक दिन भगवान कपिल ध्यान में बैठे होते हैं। उस समय माता देवहूति, ब्रह्माजी के वचनों का स्मरण करते हुए, उनसे कहती हैं कि, "हे प्रभु! मैं इन इन्द्रियों की विषयों की लालसा से बहुत परेशान हो चुकी हूँ। इन्हें संतुष्ट करने के कारण मैं अज्ञान के गहरे अंधकार में फँस गई हूँ। इस दुस्तर अज्ञानान्धकारसे पार लगानेके लिये आप मुझे प्राप्त हुए हैं। आप सम्पूर्ण जीवोंके स्वामी भगवान् आदिपुरुष हैं तथा अज्ञानान्धकारसे अन्धे पुरुषोंके लिये नेत्रस्वरूप सूर्यकी भाँति उदित हुए हैं। देव! यह शरीर, घर, और संसार में जो 'मैं और मेरा' का भाव है, वह भी आपकी लीला है। कृपया अब इस मोह को दूर करें। आप संसार रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी के समान हैं। मैं प्रकृति और पुरुष के रहस्य का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आपकी शरण में आई हूँ। आप भागवत धर्म को जानने वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं। मैं आपको प्रणाम करती हूँ।"

माता देवहूति की यह प्रार्थना बहुत पवित्र थी और मोक्ष की ओर ले जाने वाली थी। इसे सुनकर भगवान कपिल मन ही मन उनकी प्रशंसा करते हैं और मृदु मुस्कान के साथ उन्हें उत्तर देने के लिए तत्पर होते हैं। भगवान कपिलजी कहते हैं, "माता! यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि अध्यात्मयोग (आत्मा को परमात्मासे जोड़नेवाला योग) ही मनुष्यों के परम कल्याण का सर्वोत्तम साधन है। इस योग से दुख और सुख दोनों से पूरी तरह मुक्ति प्राप्त हो जाती है। संपूर्ण अंगों से युक्त इस आत्मयोग जो मैंने पहले नारदादि ऋषियोंके सामने वर्णन किया था अब मैं आपको सुनाता हूँ।"
चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् ।
गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये ॥
इस जीवके बन्धन और मोक्षका कारण मन ही माना गया है। विषयोंमें आसक्त होनेपर वह बन्धनका हेतु होता है और परमात्मामें अनुरक्त होनेपर वही मोक्षका कारण बन जाता है। (भागवत 3.25.15)

मन शुद्ध होने पर क्या होता है?
जिस समय यह मन मैं और मेरेपनके कारण होनेवाले काम-लोभ आदि विकारों से मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है, उस समय वह सुख-दुःखसे छूटकर सम अवस्थामें आ जाता है। तब जीव अपने ज्ञान-वैराग्य और भक्तिसे युक्त हृदयसे आत्माको प्रकृति (माया) से परे, एकमात्र (अद्वितीय), भेदरहित, स्वयंप्रकाश, सूक्ष्म, अखण्ड और उदासीन (सुख-दुःखशून्य) देखता है तथा प्रकृतिको (माया) शक्तिहीन अनुभव करता है। योगियों के लिए, भगवत्प्राप्ति के लिए श्रीहरि की भक्ति से बढ़कर कोई शुभ मार्ग नहीं है। विवेकीजन यह मानते हैं कि सांसारिक संगति और आसक्ति आत्मा को बंधन में डाल देती है। लेकिन जब यह आसक्ति संतों और महापुरुषों के प्रति हो जाती है, तो वही मोक्ष का मार्ग बन जाती है।

भक्त के लक्षण

तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ॥

मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढाम् ।
मत्कृते त्यक्तकर्माणः त्यक्तस्वजनबान्धवाः ॥

मदाश्रयाः कथा मृष्टाः शृण्वन्ति कथयन्ति च ।
तपन्ति विविधास्तापा नैतान् मद्‍गतचेतसः ॥
जो लोग सहनशील, दयालु, समस्त देहधारियोंके अकारण हितू, किसीके प्रति भी शत्रुभाव न रखनेवाले, शान्त, सरलस्वभाव और सत्पुरुषोंका सम्मान करनेवाले होते हैं, जो मुझमें अनन्यभावसे सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिये सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-सम्बन्धियोंको भी त्याग देते हैं, और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओंका श्रवण, कीर्तन करते हैं तथा मुझमें ही चित्त लगाये रहते हैं—उन भक्तोंको संसारके तरह-तरहके ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते हैं। (भागवत 3.25.21-22-23)
  • तितिक्षव- सहनशील
  • कारुणिका- दयालु
  • सुहृदः सर्वदेहिनाम्- सभी प्राणियों के सच्चे हितैषी
  • अजातशत्रव- शत्रुभाव न रखने वाला
  • शान्ता- शांत और स्थिर मन वाला
  • साधव- सज्जन और धर्मपरायण
  • साधुभूषणा- सज्जनों के आभूषण
आगे भक्त के अन्य गुण बताए गए हैं:
  • अनन्यभाव से दृढ़ भक्ति
  • •त्यक्तकर्माण- भगवान के लिए सभी सांसारिक कर्मों का त्याग कर देता है
  • •त्यक्तस्वजनबान्धवा- भगवान के लिए अपने सगे-सम्बन्धियों को भी त्याग देता है
  • मदाश्रया- एक मात्र भगवान पर आश्रित
  • कथा मृष्टाः शृण्वन्ति कथयन्ति च- भगवान की पवित्र कथाओं का श्रवण और कीर्तन करता है

सत्पुरुषों का संग करने से क्या होगा?

भगवान कपिल आगे कहते हैं कि जो महापुरुष सभी सांसारिक आसक्तियों का पूरी तरह से त्याग कर देते हैं, वही सच्चे साधु होते हैं। तुम्हें ऐसे ही साधुओं के संग की इच्छा करनी चाहिए, क्योंकि वे आसक्ति से उत्पन्न सभी दोषों को दूर कर देते हैं। सत्पुरुषों के संग से भगवान की लीलाओं का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है, और उनकी कथाएँ हृदय और कानों को प्रिय लगती हैं। इन कथाओं का सेवन करने से व्यक्ति के मोक्ष मार्ग पर श्रद्धा, प्रेम, और भक्ति का क्रमशः विकास होता है। जब व्यक्ति भगवान की सृष्टि और लीलाओं का ध्यान करता है और उससे भक्ति प्राप्त होती है, तब संसार और परलोक के सुखों में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। फिर वह भक्तियोग का सरल उपायों के माध्यम से मन को एकाग्र कर, ध्यानपूर्वक मन को नियंत्रित करने का प्रयास करता है। इस तरह, व्यक्ति जब संसार के विषयों (जैसे शब्द, रूप आदि) का त्याग करता है और वैराग्यपूर्ण ज्ञान, योग और भगवान की दृढ़ भक्ति के माध्यम से, अपने भीतर स्थित भगवान को इसी शरीर में ही प्राप्त कर लेता है। भगवान कपिल माता देवहूति से आगे कहते हैं कि जो महापुरुष सभी सांसारिक आसक्तियों का पूरी तरह से त्याग कर देते हैं, वही सच्चे साधु होते हैं। तुम्हें ऐसे ही साधुओं के संग की इच्छा करनी चाहिए, क्योंकि वे आसक्ति से उत्पन्न सभी दोषों को दूर कर देते हैं।
देवहूतिने पूछा:
  • भक्तिका स्वरूप क्या है? और मेरी-जैसी अबलाओंके लिये कैसी भक्ति ठीक है, जिससे कि मैं सहजमें ही कहा हुआ योग कैसा है और उसके कितने अंआपको प्राप्त कर सकूँ?
  • जिसके द्वारा तत्त्वज्ञान होता है और जो लक्ष्यको बेधनेवाले बाणके समान भगवान्की प्राप्ति करानेवाला है, वह आपका कहा हुआ योग कैसा है?

भगवान कपिल द्वारा सांख्य शास्त्र का उपदेश देना

जिसके शरीरसे उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उस अपनी माताका ऐसा अभिप्राय जानकर कपिलजीके हृदयमें स्नेह उमड़ आया और उन्होंने प्रकति आदि तत्त्वोंका निरूपण करनेवाले शास्त्रका, जिसे सांख्य कहते हैं, उपदेश किया।
देवानां गुणलिङ्गानां आनुश्रविककर्मणाम् ।
सत्त्व एवैकमनसो वृत्तिः स्वाभाविकी तु या ॥

अनिमित्ता भागवती भक्तिः सिद्धेर्गरीयसी ।
जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलो यथा ॥
श्रीभगवान्ने कहा- जो व्यक्ति अपने चित्त (मन) को पूरी तरह भगवान में लगा देता है, उसकी इंद्रियों (कर्मेंद्रिय और ज्ञानेंद्रिय) की स्वाभाविक प्रवृत्ति श्रीहरि की ओर होती है। यही असली भक्ति है, जिसे भगवान की अहैतुकी (बिना किसी स्वार्थ के) भक्ति कहा जाता है। यह भक्ति मुक्ति (मोक्ष) से भी श्रेष्ठ है। इसका उदाहरण देते हुए कहा गया है कि जैसे जठरानल (पाचन अग्नि) खाने को पचाता है, वैसे ही यह भक्ति व्यक्ति के कर्मों और संस्कारों को (जो कि इस भौतिक शरीर में रहते हैं) तुरंत समाप्त कर देती है। (भागवत 3.25.32-33)

भक्त किसकी इच्छा नहीं करता?
भगवान कपिल कहते हैं की उनके:
  • प्रिय भक्त, जो मेरे चरणों की सेवा में प्रीति रखते हैं, वे मुझसे एकीभाव (सायुज्यमोक्ष) की इच्छा नहीं करते।
  • वे मेरे भोगसम्पत्ति, अष्टसिद्धियों, या वैकुण्ठलोक के ऐश्वर्य की भी लालसा नहीं रखते।
  • वे इहलोक और परलोक में धन, पशु, और गृह आदि भौतिक वस्तुओं की चाह नहीं करते।
भक्त क्या करते हैं और उन्हें क्या मिलता है?
  • मेरे भक्त मेरी चरणसेवा करते हैं और हमेशा मेरी प्रसन्नता के लिए अपने सभी कार्य करते हैं, जिससे मेरी कृपा उन पर बनी रहती है।
  • वे प्रेमपूर्वक एक-दूसरे के साथ मिलकर मेरे पराक्रमों की चर्चा करते हैं।
  • वे मेरे सुंदर और वरदायक रूपों का दर्शन करते हैं, जिसके लिए बड़े तपस्वी भी लालायित रहते हैं।
  • जब वे मेरे धाम में पहुँचते हैं, वाली अष्टसिद्धि अथवा वैकुण्ठलोकके भगवदीय ऐश्वर्य इच्छा नहीं होनेपर भी उन्हें ये सब स्वयं ही प्राप्त हो जाती हैं।
  • जो भक्त अनन्य भक्ति से मेरा भजन करते हैं, मैं उन्हें मृत्युरूप संसार सागर से पार कर देता हूँ।
नान्यत्र मद्‍भगवतः प्रधानपुरुषेश्वरात् ।
आत्मनः सर्वभूतानां भयं तीव्रं निवर्तते ॥
मैं साक्षात् भगवान् हूँ, प्रकृति और पुरुषका भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियोंका आत्मा हूँ; मेरे सिवा और किसीका आश्रय लेनेसे मृत्युरूप महाभयसे छुटकारा नहीं मिल सकता। (भागवत 3.25.41)
मेरे भयसे यह वायु चलती है, मेरे भयसे सूर्य तपता है, मेरे भयसे इन्द्र वर्षा करता और अग्नि जलाती है तथा मेरे ही भयसे मृत्यु अपने कार्यमें प्रवृत्त होता है।
ज्ञानवैराग्ययुक्तेन भक्तियोगेन योगिनः ।
क्षेमाय पादमूलं मे प्रविशन्ति अकुतोभयम् ॥
योगिजन ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्तियोगके द्वारा शान्ति प्राप्त करनेके लिये मेरे निर्भय चरणकमलोंका आश्रय लेते हैं। (भागवत 3.25.43)
एतावान् एव लोकेऽस्मिन् पुंसां निःश्रेयसोदयः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम् ॥
संसारमें मनुष्यके लिये सबसे बड़ी कल्याणप्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोगके द्वारा मुझमें लगकर स्थिर हो जाय। (भागवत 3.25.44)

प्रकृति के लक्षण 

श्रीभगवान आगे प्रकृति आदि सब तत्त्वोंके अलग-अलग लक्षण बताते हैं जिन्हें जानकर मनुष्य प्रकृतिके गुणोंसे मुक्त हो जाता है। आत्मदर्शनरूप ज्ञान ही पुरुषके मोक्षका कारण है और वही उसकी अहंकाररूप हृदयग्रन्थिका छेदन करनेवाला है, उस ज्ञानका वर्णन करते हुए भगवान ने कहा-
अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुणः प्रकृतेः परः।
प्रत्यग्धामा स्वयंज्योतिः विश्वं येन समन्वितम् ॥
यह सारा जगत् जिससे व्याप्त होकर प्रकाशित होता है, वह आत्मा ही पुरुष है। वह अनादि, निर्गुण, प्रकृतिसे परे, अन्तःकरणमें स्फुरित होनेवाला और स्वयंप्रकाश है। (भागवत 3.26.3)
उस सर्वव्यापक पुरुषने त्रिगुणात्मिका वैष्णवी मायाको स्वेच्छासे स्वीकार कर लिया जो अपने गुणों (सत्त्व, रजस, तामस) के अनुसार जीवों का सृजन करने लगती है। माया के आवरण शक्ति द्वारा ज्ञान ढक जाता है जिससे जीव (प्रजा) मोहित हो जाता है और अपनी वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है। जीव अपने को माया से भिन्न समझने के बजाय माया को अपना मान लेता है और यह समझता है कि वह कर्मों का कर्ता है। कर्ता होने के इस गलत अहंकार से जन्म-मृत्यु का बंधन और परतन्त्रता उत्पन्न होती है। कार्यरूप शरीर, कारणरूप इन्द्रिय तथा कर्तारूप इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवताओं का मूल कारण माया ही है। इसे विद्वान लोग समझते हैं। वास्तव में, जो आत्मा प्रकृति से परे होकर भी प्रकृतिस्थ है, उसे सुख-दुख के अनुभव का कारण माना जाता है।
देवहूति आगे कहती हैं कि प्रकृति और पुरुष के लक्षणों के बारे में बताइए, उन दोनों के कारण क्या हैं और उनकी वास्तविकता क्या है।

प्रकृति और प्रधान 
यत्तत् त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् ।
प्रधानं प्रकृतिं प्राहुः अविशेषं विशेषवत् ॥
श्रीभगवान्ने कहा-जो त्रिगुणात्मक, अव्यक्त, नित्य और कार्य-कारणरूप है तथा स्वयं निर्विशेष होकर भी सम्पूर्ण विशेष धर्मोंका आश्रय है, उस प्रधान नामक तत्त्वको ही प्रकति कहते हैं। (भागवत 3.26.10)
  • प्रधान को मूल, अव्यक्त और शाश्वत प्रकृति के रूप में वर्णित किया गया है, जिससे सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न होती है। यह प्रकृति (माया) का सबसे सूक्ष्म रूप है, जो किसी विशेष गुण या रूप में व्यक्त होने से पहले विद्यमान रहती है।
  • प्रधान को अव्यक्त रूप में 'विद्यमान' कहा जा सकता है क्योंकि यह सारी भौतिक सृष्टि का स्रोत है, लेकिन यह 'अविद्यमान' भी है क्योंकि यह अभी तक प्रकट या विभक्त नहीं हुआ है, जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि आदि के रूप में।
  • प्रधान भौतिक संसार की आधारभूत प्रकृति है, लेकिन यह किसी विशेष गुण जैसे रंग, रूप, आकार आदि से मुक्त रहती है। यह सभी द्वैतों (जैसे गर्मी और ठंड, प्रकाश और अंधकार) से परे है। जब यह प्रकट होती है, तब यह तीन गुणों - सत्त्व (संतुलन), रज (क्रियाशीलता), और तम (जड़ता) - का निर्माण करती है, जो आगे भौतिक संसार की विविधता को जन्म देते हैं।

सांख्य दर्शन के 25 तत्त्वों का वर्णन

पञ्चभिः पञ्चभिर्ब्रह्म चतुर्भिर्दशभिस्तथा ।
एतत् चतुर्विंशतिकं गणं प्राधानिकं विदुः ॥

महाभूतानि पञ्चैव भूरापोऽग्निर्मरुन्नभः ।
तन्मात्राणि च तावन्ति गन्धादीनि मतानि मे ॥

इन्द्रियाणि दश श्रोत्रं त्वग् दृक् रसननासिकाः ।
वाक्करौ चरणौ मेढ्रं पायुर्दशम उच्यते ॥

मनो बुद्धिरहङ्कारः चित्तमित्यन्तरात्मकम् ।
चतुर्धा लक्ष्यते भेदो वृत्त्या लक्षणरूपया ॥

एतावानेव सङ्ख्यातो ब्रह्मणः सगुणस्य ह ।
सन्निवेशो मया प्रोक्तो यः कालः पञ्चविंशकः ॥

(3.26.11-15)
  • पाँच महाभूत- पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश।
  • पाँच तन्मात्रा- गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द।
  • दस इंद्रियाँ: इनमें पाँच ज्ञानेंद्रियाँ श्रोत्र (कान), त्वचा (स्पर्श), चक्षु (आँखे), रसना (जिह्वा) और नासिका (नाक) और पाँच कर्मेंद्रियाँ वाक् (बोलने के लिए) पाणि/हाथ (कर्म करने के लिए), पाद/पैर (चलने के लिए), उपस्थ/जननेंद्रिय (संतानोत्पत्ति के लिए) और पायु/गुदा (त्याग के लिए)।
  • चार अन्तःकरण:  मन (संकल्प), बुद्धि (निश्चय), चित्त (स्मरण, सोचने की क्षमता) और अहंकार ('मैं' की भावना)
इस प्रकार ये चौबीस तत्त्व मिलकर प्रकृति की संपूर्ण संरचना का निर्माण करते हैं। इनके अलावा, काल को पचीसवाँ तत्त्व माना जाता है, जो इन सबका संचालन करता है। 

पच्चीसवाँ तत्व काल कौन है?
जब प्रकृति अपने संतुलित और अव्यक्त रूप में होती है, तो उसकी गतिविधियाँ भगवान की प्रेरणा से शुरू होती हैं। भगवान को यहाँ काल के रूप में माना गया है, क्योंकि काल ही वह शक्ति है जो प्रकृति की निष्क्रिय अवस्था को क्रियाशील बनाता है और सृष्टि के सभी कार्यों को संचालित करता है। भगवान कपिल कहते हैं-
अन्तः पुरुषरूपेण कालरूपेण यो बहिः ।
समन्वेत्येष सत्त्वानां भगवान् आत्ममायया ॥
इस प्रकार जो अपनी मायाके द्वारा सब प्राणियों के भीतर जीवरूपसे और बाहर कालरूपसे व्याप्त हैं, वे भगवान् ही पचीसवें तत्त्व हैं । (भागवत 3.26.18)
प्रकृति, जो अपनी शांत और संतुलित अवस्था में होती है, परम पुरुष की इच्छा से दैविक प्रेरणा से उद्वेलित होती है।परम पुरुष (भगवान) अपनी स्व-शक्ति (माया या प्रकृति) में चित्त-शक्तिरूप वीर्य स्थापित करते हैं, जिससे सृष्टि का प्रारंभ होता है। इस तरह प्रकृति में हलचल प्रारंभ होती है और सृजन की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 30.09.2024