भगवान अनंत हैं, जिसका वर्णन वाणी या किसी भी प्रकार से नहीं की जा सकती। उस ईश्वर को देखा या छुआ नहीं जा सकता है। केनोपनिषद में कहा गया-
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो
न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात्।
अर्थात्, भगवान वह है जहाँ न चक्षु जा सकता है, न वाणी, न ही मन। हम न 'उसे’ जानते हैं न यह जान पाते हैं कि ‘उसकी’ शिक्षा कैसे दी जाये।
भगवद्गीता के अध्याय ११ श्लोक ८ में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को अपना विश्वरूप का दर्शन कराने से पहले कहते हैं:
न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥
अर्थात्, “तुम अपनी आंखों से मेरे दिव्य ब्रह्माण्डीय स्वरूप को नहीं देख सकते हो। इसलिए मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ। अब मेरी दिव्य विभूतियों को देखो। ”
तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में कहा-
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।
मत हमार अस सुनहु भवानी।
भगवान शिव माता पार्वती को कह रहें हैं, “हे पार्वती! सुनो, हमारा मत तो यह है कि बुद्धि, मन और वाणी से श्री रामचन्द्रजी की तर्कना नहीं की जा सकती। तथापि संत, मुनि, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा कुछ कहते हैं। ”
ऐसे में प्रश्न अता है की क्या भगवद् प्राप्ति से पहले भगवान का दर्शन संभव नहीं है? क्या ऐसा कोई माध्यम नहीं है जिससे उस ईश्वर को देखा या समझा जा सके? भगवान के दिव्य-चिन्मय स्वरूप का दर्शन जीव को भगवद् प्राप्ति पर गुरु की कृपा से होती है परंतु उससे पहले भी साधन भक्ति के समय पर भगवान की मूर्ति का आधार लेकर मन को भगवान में लगाया जा सकता है। शास्त्रों में आठ प्रकार की मूर्तियों का वर्णन किया गया है:
शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सैकती।
मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्टविधा स्मृता ॥
अर्थ- “मेरी (भगवान की) मूर्ति आठ प्रकारकी होती है—पत्थरकी, लकड़ीकी, धातुकी, मिट्टी और चन्दन आदिकी, चित्रमयी, बालुकामयी, मनोमयी और मणिमयी।”
इसमें सबसे महत्वपूर्ण है मनोमयी मूर्ती अर्थात् मन से बनायी हुई भगवान की छवि और इसी मनोमयी छवि का ध्यान करने को ही रूपध्यान कहा गया है। हम आंख बंद करके अपने पिताजी का ध्यान करें, पायेंगे कि अनेक प्रयास के बाद भी सही ध्यान नहीं बना पाएंगे लेकिन भगवान ने बहुत बड़ी कृपा की है कि आप जैसा भी रूपपध्यान बनाएं, वे उसको सही मान लेते हैं और फल भी देते हैं। क्योंकि भगवान भावग्राही है, वे हमारा भाव देखते हैं। हम जैसा चाहे वैसा रूप बना सकते हैं। सुंदर, कुरूप, छोटा, मोटा, नाटा, बुढा, बच्चा जैसे आप की रुचि हो। ऐसा नहीं है कि एक कलाकार है,वो सुंदर श्रीकृष्ण बनाएगा तो उसे सुंदर श्रीकृष्ण मिलेंगे और साधारण व्यक्ति साधारण से श्रीकृष्ण बनाएगा ध्यान में तो उसे साधारण श्रीकृष्ण मिलेंगे। श्रीकृष्ण तो सबको एक से असली वाले ही मिलेंगे क्योंकि भगवान तो भाव देखते हैं।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने
गीता (९-२६)में कहा की यदि कोई मुझे श्रद्धा भक्ति के साथ पत्र, पुष्प, फल या जल ही अर्पित करता है तब मैं प्रसन्नतापूर्वक अपने भक्त द्वारा प्रेमपूर्वक और शुद्ध मानसिक चेतना के साथ अर्पित वस्तु को स्वीकार करता हूँ।
गीता (९-२६)में कहा की यदि कोई मुझे श्रद्धा भक्ति के साथ पत्र, पुष्प, फल या जल ही अर्पित करता है तब मैं प्रसन्नतापूर्वक अपने भक्त द्वारा प्रेमपूर्वक और शुद्ध मानसिक चेतना के साथ अर्पित वस्तु को स्वीकार करता हूँ।
तो मन से ध्यान कर प्रतिमा बना लें और उसका ध्यान करें,ये मनोमयी रूपध्यान के अन्तर्गत आता है। भक्ति करने का यह सबसे बढ़िया तरीका है। घरों के मंदिरों में भी प्रतिमाएं होती हैं, उनके पूजन में हम प्रपंच में फंस सकते हैं। पूजन के लिए सामग्री चाहिए होती है हार, फूल, भोग इत्यादि। अब इनमें से कुछ न हो तो पूजन कैसे करें, बाहर तो बारिश हो रही है, अब समान कैसे लाएं। इसलिए सबसे बढ़िया मनोमयी ध्यान करना है। तुलसीदासजी कहते हैं:
एही कालिकाल न साधन दूजा, जोग, यज्ञ, जप,तप व्रत पूजा।
कलयुग में ये सब करना बहुत कठिन है। "रामहि सुमिरिय, गाईय रामाहि"। मन से ही सुमिरन करें, मन से ठाकुरजी को स्नान, श्रृंगार, भोग लगाएं। ये मानसी सेवा है, जो तीव्र फल देती है।
मानसी सेवा के फल के संबंध में एक कथा बहुत प्रचलित है। एक निर्धन ब्राह्मण था। ठाकुरजी की मानसी सेवा करता था। कई साल बीत गए। अभ्यास करते करते ऐसी अवस्था आ गई कि जिस जिस वस्तु से सेवा करता था, सब प्रत्यक्ष दिखाई देती थी मानो सब सच में हो रहा है। फूल,माला, श्रृंगार, भोग सब प्रत्यक्ष दिखाई देता था। एक दिन उसने खीर का भोग लगाने का सोचा, ध्यान में ही उसने खीर बनाई और कटोरी में डाली। उसने सोचा चेक किया जाय खीर गरम तो नही है वरना ठाकुर जी का मुंह जल जायेगा और उसने कटोरी में उंगली डाली। उधर भगवान को भी मज़ाक सुझा। भगवान ने उसकी वास्तविक उंगली जला दी। उंगली जलने से ध्यान भंग हुआ, वह भावविभोर हो गया। भगवान ने कृपा की,उसको बैकुंठ बुला लिया। वहां उसे साक्षात लक्ष्मी नारायण जी के दर्शन हुए।
तो मानसी सेवा तीव्र गति से फल देती है। यदि हम ध्यान करें कि हम श्रीकृष्ण की चरण सेवा कर रहे हैं,पंखा कर रहे हैं, माला पहना रहे हैं तो हमारा प्रेम शत प्रतिशत भगवान से बढ़ेगा। मानसी सेवा करने से प्रेम बढ़ता है, न बढ़े ऐसा हो ही नहीं सकता। मनोमयी सेवा में भगवत ध्यान के विषय में हमको ये स्वतंत्रता दी गई है कि हम स्वेच्छा से रूप बना सकते हैं। जैसा चाहे अपने पसंद का रूप बनाएं। भगवान भाव को देख कर उसकी पुष्टि करेंगे और अपनी शक्ति से उसको परिपूर्ण करेगें। हमारा काम है साधना कर के "मामेकम शरणम् ब्रज" की स्थिति तक आना। उसके आगे का काम भगवान का है। रूप ध्यान बिना भगवान को देखे भी हो सकता है। मंदिर की मूर्ति या तस्वीर का आधार बना कर चेतन भगवान का ध्यान करना है। जड़ ध्यान नहीं करना है। उसमे मन बोर हो जायेगा, ध्यान लगाना मुश्किल हो जायेगा। थोड़ी ही देर में नींद आने लगेगी क्योंकि रस नहीं मिलेगा। साधना रसमय होनी चाहिए। जब मन से जुड़ेंगे तो रस मिलेगा, आनंद आएगा। इसलिए साधना जीवंत होनी चाहिए। भगवान तो चेतन को चेतन करने वाले महा चेतन हैं। वे तो अनंत सौशिल्य, सौकुमार्य,सौरस्य, लीला माधुरी, प्रेम माधुरी, रूप माधुरी, मुरली माधुरी से युक्त हैं। ऐसा ही उनका ध्यान भी करें। वे चल रहे हैं, बोल रहे हैं, मुस्कुरा रहे हैं, खा रहे हैं कहने का तात्पर्य कि चेतन ध्यान करना है। मूर्ति से बाहर निकल कर। विभिन्न लीलाओं का ध्यान कर सकते हैं या स्वयं भी उन लीलाओं में सम्मिलित हो सकते हैं। जिससे मन को रस मिलेगा और लगा रहेगा। लीलाओं में भी कोई बंधन नहीं है। भगवान के अनादि काल से अनंत अवतार हुए हैं, तो लीलाएं भी अनंत हैं जिसकी संख्या रखना असम्भव है। उस अनंताअनंत भगवान ने हमको पूर्ण स्वतंत्रता दी है कि अपने मन में उनको लाने के लिए किसी भी रूप या लीला का ध्यान करें। इस प्रकार रूप ध्यान करते हुए अपने लक्ष्य को पाना ही मानव जीवन की सफलता है।