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श्रद्धा और विश्वास: जनमेजय की कथा से मिली सीख

Jun 25th, 2024 | 5 Min Read
Blog Thumnail

Category: Spirituality

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Language: Hindi

अनादि काल से हम  संसार में आनंद ढूंढ रहे हैं, परंतु अभी तक मिला नहीं क्योंकि संसार में आनंद नहीं है। आनंद तो भगवान में है। उन आनंद स्वरूप भगवान को पाकर ही जीव भगवत प्राप्ति कर सदा सदा को आनंदमय हो सकता है। भगवान ईश्वर को पाने के लिए सबसे आवश्यक तत्व श्रद्धा है।
श्रद्धत्स्व  तात श्रद्धत्स्व |
वेद कहता है - अरे मनुष्यों श्रद्धा पैदा करो। 
गुरु वेदान्त वाक्येषु दृढ़ो विश्वासः श्रद्धा |
गुरु, वेदों और शास्त्रों की बातों पर शत प्रतिशत पक्का विश्वास श्रद्धा कहलाता है। साधारण भाषा में श्रद्धा शब्द का अर्थ है भगवान के दिव्यानंद की भूख होना। यह तब होगा जब संसार से अरूचि होगी और तब हम ईश्वरीय मार्ग की ओर चलेंगे। जिस प्रकार बहिरंग यात्रा करते समय रास्ते में  मील के पत्थर आते हैं उस प्रकार ईश्वर प्राप्ति यात्रा जो की अंदर की यात्रा है क्योंकि भगवान हमारे  हृदय में है, उसमें भी कई प्रकार के मील के पत्थर आते हैं। जिसका निरूपण भक्ति रसामृत सिंधु में किया गया है।
आदौ श्रद्धा ततः साधुसङ्गोऽथ भजन-क्रिया |
ततोऽनर्थ-निवृत्तिः स्यात् ततो निष्ठा रुचिस् ततः ||
अथासक्तिस् ततो भावः ततः प्रेमाभ्युदञ्चति |
साधकानाम् अयं प्रेम्नः प्रादुर्भावे भवेत् क्रमः ||
चैतन्य महाप्रभु के पट शिष्य श्री रूप गोस्वामी के अनुसार प्रेम प्राप्ति या आनंद प्राप्ति में 8 सोपान मिलेंगे। जिसके आधार पर हम यह जान सकते हैं कि हम ईश्वरीय प्रेम प्राप्ति मार्ग में कहां तक पहुंचे। इस मार्ग की शुरुआत श्रद्धा से होती है। जैसा कि पहले भी बताया गया कि श्रद्धा माने विश्वास। शास्त्रों वेदो के द्वारा गुरु  जो उपदेश और ज्ञान देते हैं उन पर शत प्रतिशत विश्वास करें। गुरुद्वारा बताई गई साधना के अनुसार अपने अंदर भगवत लीलाओं का चित्रण बनाकर रूप ध्यान पूर्वक भगवान के स्वरूप, उनकी छवि को सामने रखकर भक्ति की आधारशिला प्राप्त करके भगवत मार्ग में आगे चल सकते हैं। लेकिन यदि हम शास्त्रों और गुरु वाक्य पर शंका करेंगे तो इस मार्ग में आगे नहीं चल सकते इसलिए श्रद्धा नामक तत्व बहुत आवश्यक है । श्रद्धा की उत्पत्ति वैराग्य पर निर्भर होती है। साधारण भाषा में वैराग्य का मतलब होता है कि ना किसी से राग हो ना किसी से द्वेष हो अर्थात प्यार और दुश्मनी दोनों ही न हो, तब मन खाली होगा और भगवान की भूख पैदा होगी। अब  सही-सही श्रद्धा की उत्पत्ति होगी और गुरु वाक्य पर पूर्ण विश्वास भी होगा।श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता में यहां तक कह दिया 
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन |
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ||
यह उपदेश उन्हें कभी नहीं सुनाना चाहिए जो न तो संयमी है और न ही उन्हें जो भक्त नहीं हैं। इसे उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो आध्यात्मिक विषयों को सुनने के इच्छुक नहीं हैं और विशेष रूप से उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो भगवान के  प्रति द्वेष रखते हैं।

भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत का युद्ध को क्यों नहीं रोका?

इस संदर्भ में महाभारत में एक कथा आती है। राजा परीक्षित जो अर्जुन के पोते थे जब तक्षक नाग द्वारा डसने पर मृत्यु को प्राप्त हुए तो उनका बेटा जनमेजय जो की मात्र 7 वर्ष के थे, वह राजा बने। जब वे बड़े हुए तो अपने पूर्वजों के बारे में सुना। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि साक्षात भगवान कृष्ण के होते हुए महाभारत का युद्ध कैसे और क्यों हुआ ? भगवान ने युद्ध को टाला क्यों नहीं ? वेदव्यास जी के पास गए और उनसे अपना प्रश्न किया। वेदव्यासजी ने  समझाया  होनी तो  होकर ही  रहती है। उसे कोई काट नहीं सकता । जनमेजय मानने को तैयार नहीं थे, उनका सोचना था कि  पुरुषार्थ से  प्रारब्ध को काटा जा सकता है। 

वेदव्यासजी ने उनकी चुनौती स्वीकार करते हुए उनके ही जीवन की एक होनी बताई और उससे उन्हें सावधान रहने के लिए कहा। उन्होंने कहा आज से 5 वर्ष बाद तुम घोड़े की सवारी मत करना वरना तुम्हारे जीवन में एक दुर्घटना घटेगा यह होनी होकर ही रहेगी। यदि घुड़सवारी करो भी तो सफेद घोड़े पर मत बैठना और उत्तर दिशा की ओर मत जाना। यदि उत्तर दिशा में चले भी गए तो प्यास लगने पर तालाब किनारे नवयुवती में आसक्त मत होना और उसे अपने साथ घोड़े पर बैठा कर महल मत लाना और विवाह करके पटरानी मत बनाना। किंतु यह सब तुम अवश्य ही करोगे। वह सब तो ठीक है लेकिन उसके कहने पर ब्राह्मणों की हत्या मत करना वरना ब्रह्महत्या के पाप के कारण तुम्हारे शरीर में कुष्ठ रोग हो जाएगा और वही तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा। जन्मेजय आश्चर्यचकित हो चुपचाप वहां से अपने महल आ गए और वेदव्यास ने जो कहा उसके प्रति सावधानी बरतते हुए उसी क्षण से घुड़सवारी छोड़ दी। 

जब 5 वर्ष की अवधि पूर्ण हुई तो  जनमेजय को घुड़सवारी करने की तीव्र इच्छा होने लगी। उन्होंने भूरे रंग के घोड़े पर सवारी करने का निश्चय किया किंतु भूरे रंग का घोड़ा उपलब्ध न होने के कारण सफेद घोड़ा ही सेनापति द्वारा तैयार कर दिया गया। आगे ना चाहते हुए भी घटनाक्रम ठीक वैसा ही होने लगा जैसा कि वेदव्यासजी ने बताया था। वे उस नवयुवती में आसक्त होकर  उसे महल में लेकर आ चुके थे। नवयुवती विवाह को जल्दी संपन्न कराने की जिद करने लगी। विवाह कराने वाले ब्राह्मण कुछ कार्य से बाहर गए हुए थे तो ब्राह्मण पुत्रों द्वारा विवाह संपन्न कराया गया । अब वह नवयुवती पटरानी बन चुकी थी। ब्राह्मण पुत्रों को दक्षिणा देते समय रानी के वस्त्र कुछ अव्यवस्थित से हो गए जिसके कारण ब्राह्मण पुत्रों को हंसी आ गई और रानी ने क्रोध में आकर ब्राह्मण पुत्रों की हत्या का आदेश दे दिया जो की जनमेजय को पूर्ण करना पड़ा। उस  दुष्कार्य के पाप से राजा का संपूर्ण शरीर कुष्ठ रोग से भर गया अब राजा को वेदव्यास की कही भविष्यवाणी  याद आई। वे वेदव्यासजी के पास पहुंचे और उनसे इससे बचने का उपाय पूछा। 

वेदव्यासजी ने  जनमेजय को उपचार स्वरूप संत वैशंपायन जी से श्रद्धायुक्त होकर बिना किसी प्रकार की शंका के महाभारत का कथा सुनने के लिए कहा। आगे वेदव्यासजी ने कहा यदि तुमने ऐसा किया तो तुम कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाओगे और यदि शंका किया तो उस कारण से तुम्हें अपने प्राण त्यागने पड़ेंगे। अंततः किसी प्रसंग पर जनमेजय को शंका हुई और वही उनके मृत्यु का कारण बना। 

तात्पर्य यह कि वेदों  पुराणों में कही गई बातों पर श्रद्धापूर्वक विश्वास करना होगा तभी हमें लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी।