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आत्मा का परमात्मा के साथ संबंध, अभिधेय और प्रयोजन क्या है?

Apr 13th, 2024 | 8 Min Read
Blog Thumnail

Category: Spirituality

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Language: Hindi

अज्ञानमेवास्य हि मूलकारणं तध्दानमेवात्र विधौ विधीयते ।
विद्यैव तन्नाशविधौ पटीयसी न कर्म तज्जं सविरोधमीरितम् ।।
(अध्यात्मरामायण, उत्तरकाण्ड)
दुःख का मूल कारण अज्ञान ही है और शास्त्रों में उसके नाश का ही उपाय बताया गया है। अज्ञान का नाश करने में ज्ञान ही समर्थ है, सकाम कर्म नहीं, क्योंकि अज्ञान से उत्पन्न होने वाला कर्म उसका विरोधी नहीं हो सकता। न्याय सूत्र के अनुसार अज्ञान से उत्पन्न कर्म से अज्ञान नष्ट नहीं हो सकता।

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में इस संसार को “दुःख-आलयम अशाश्वतम्” कहा है। अर्थात् यह संसार दुखों से भरा हुआ एवं अस्थाई है। दुःख से बने इस संसार में रहने वाले समस्त प्राणी सुख चाहते हैं और सुख को पाने के लिए जन्म से मृत्यु पर्यन्त प्रयत्नशील है फिर भी सुख का लवलेश तक नहीं मिला है। ऐसा क्यों? क्या हमारे प्रयत्नों में कमी रह गई या हमारे भाग्य में सुख नहीं है? केवल हम को सुख नहीं मिला होता और बाकी के प्राणी सुखी होते तो हम यह बोल सकते थे कि हमारे प्रयास में कमी है या हमारा भाग्य ही ख़राब है। परंतु ऐसा नहीं है। इस संसार में कोई भी सुखी नहीं है- चाहे वह कितना ही धनवान या प्रतिष्ठावान ही क्यों न हो।

वेदव्यास जी ने कहा है-
यत्पृथिव्यां व्रीहि यवं हिरण्यं पशवस्त्रियः। नालमेकस्य पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत्॥
“यदि किसी को विश्व के समस्त सुख प्राप्त हो जायें फिर भी उसकी इच्छाएँ ज्यों की त्यों बनी रहेंगीं”
शास्त्रों के अनुसार वास्तविक आनंद के निम्नलिखित लक्षण होते हैं : ​
  1. अनंत मात्रा का होता है
  2. अनंत काल के लिये मिल जाता है
  3. नित्य​ नवायमान होता है
  4. उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है
  5. यह जड़ नहीं अपितु चेतन होता है
  6. सर्वज्ञ होता है

जबकि संसार में मिलने वाले सुख के लक्षण निम्नलिखित हैं :
  1. सीमित होता है । जब हम को थोड़ा कम दुःख मिलता है, हम उसको सुख मान लेते हैं।
  2. क्षणिक होता है दुख उसके ऊपर पुनः अधिकार कर लेता है।
  3. प्रतिक्षण घटमान होता है। वस्तु का जैसे-जैसे उपभोग करते जाते हैं वैसे-वैसे उस वस्तु से मिलने वाला सुख​ कम होता जाता है। 

चिरकाल से, समस्त जीव, आनंद की खोज में लगे हुए हैं, हमारे पूर्वज, हमारे माता - पिता सब; पर विडंबना ये है कि, अज्ञानता के कारण, हम सब आनंद को संसार में ढूँढ़ते रहते हैं l हम सब माया के वशीभूत हैं, अतः हमारी बुद्धि और मन सब मायिक हैं। 

जैसे संत तुलसीदास जी कहते हैं -
गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ॥
"हमारी इन्द्रियां, मन, बुद्धि जहाँ तक पहुँच सकते हैं, सब माया का ही प्रदेश है" l
हमारा मन मायिक (माया से बना) है, अतः हम स्वभावतः मायिक लोग और मायिक वस्तुओं के प्रति आकर्षित होते हैं l माया के अधीन होने के कारण हम इसी अस्थाई एवम् दुख से भरे हुए संसार में ही सुख की खोज कर रहें हैं। इसी अज्ञान के कारण अनंत जन्म बीत जाने के पश्चात भी हम सुख से वंचित रहे। माया के वश में जीव अविद्या से ग्रस्त रहता है, जो अज्ञानता है l इसी अज्ञानतावश जीव ४ भ्रांतियों से युक्त रहता है l

1. अनित्य को नित्य मानना

यह संसार एक दिन बना और एक दिन मिट जायेगा, इसी तरह इस संसार की प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर है l एक व्यक्ति या वस्तु कब तक अस्तित्व में रहेगी कोई नहीं जानता l फिर भी हम सांसारिक वस्तुओं को इकट्ठा करते हैं और जब एक दिन वह नष्ट होता है तब हम दुःखी होते हैं l इस कष्ट को भोगने का एक मात्र कारण है हमारी भ्रान्ति, कि सांसारिक वस्तुओं को इकठ्ठा करने से हमको सुख मिलेगा l

2. असत्य को सत्य मानना

समस्त जीव अपने माता,पिता, भाई, बहन, बेटा, बेटी इत्यादि से अभिन्न सम्बन्ध स्थापित करते हैं l इन शारीरिक सम्बन्धियों को हम अपना चिरकालिक सम्बन्धी मानते हैं l और जब वह अपना-अपना शरीर त्याग कर जाते हैं तब हमको घोर दुःख होता है l

3. अनात्म को आत्म मानना

इस भ्रान्ति का प्रमुख कारण है कि हम इस शरीर को 'मैं' मानते हैं l यह शरीर पंचभूत से बना है l असल में, 'मैं' आत्मा का सम्बोधन है, और शरीर मेरा है यानि आत्मा का चोला है l सारे शरीर के नातेदारों को 'मेरा' नातेदार समझना, और हर इन्द्रिय सुख प्रदान करने वाली वस्तु को 'मेरे' सुख का कारण समझना, और असली दिव्यानंद से अनभिज्ञ रहना भी एक भ्रम है जो दुःख का कारण है।

4. दुःख को सुख मानना

संसार में आनंद है, इससे हमारी बुद्धि इतनी भ्रमित है कि उस को विश्वास हो गया है कि संसार के वस्तुओं को पा लेने से हमको आनंद प्राप्ति हो जाएगी l परन्तु सच तो इसके विपरीत है, संसार और सांसारिक वस्तुओं की कामना ही सारे दुःख दर्द का कारण है l सांसारिक वस्तुओं की कामना पूर्ति से लोभ का जन्म होता है और यदि कामना पूरी न हुई तो क्रोध का जन्म होता है l इनसे आगे चल कर अनेक मन के रोग पैदा होते हैं जैसे, ईर्ष्या, कोप, अहंकार, मद, मात्सर्य इत्यादि l

पहले तो हम अपने आपको ही नहीं जानते- हम कौन हैं हमारा कौन है इसका ही हम को वास्तविक ज्ञान नहीं। हम प्रायः अपने को शरीर मानते हैं और इसी शरीर के संबंधियों को अपना मानते हैं। शरीर को सुख देने के लिए अनेक कर्म करते हैं। और उन्हीं कर्म के बंधन में बंधके इस संसार में भिन्न-भिन्न शरीर धारण करके आते हैं और अपने-अपने कर्मों के अनुसार सुख-दुख भोगते हैं और मर जाते हैं। इसी जन्म-मृत्यु के चक्कर में हम अनादि काल से फँसे हुए हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण में गोकर्ण अपने पिता को कहते हैं-
असारः खलु संसारो दुःखरूपी विमोहकः ⁠। सुतः कस्य धनं कस्य स्नेहवाञ्ज्वलतेऽनिशम् ⁠।⁠।⁠
“पिताजी! यह संसार असार है⁠। यह अत्यन्त दुःख रूप और मोह में डालनेवाला है⁠। पुत्र किसका? धन किसका? स्नेहवान् पुरुष रात-दिन दीपक के समान जलता रहता है। सुख न तो इन्द्र को है और न चक्रवर्ती राजा को ही। ‘यह मेरा पुत्र है’ इस अज्ञान को छोड़ दीजिये⁠। मोह से नरक की प्राप्ति होती है⁠।”
अपने को शरीर मानना और संसार में सुखों की कामना करना अगर अज्ञान हैं तो वास्तविक ज्ञान है क्या? बहुत से ऐसे प्रश्न उत्पन्न होते हैं जिनका उत्तर पाना हमारे लिए अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि इन प्रश्नों का समाधान किये बिना हमको ना तो इस दुखालय से मुक्ति मिलेगी ना सुख मिलेगा। वह प्रश्न हैं-

  1. अगर हम शरीर नहीं है तो हैं कौन?

  2. अगर संसार में सुख नहीं तो सुख है कहाँ?

  3. और उस सुख की प्राप्ति हम को कैसे होगी?

इन सब प्रश्नों के उत्तर हमको वेद शास्त्र में मिलते हैं।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुख राशि (रामायण)

ममैवांशो जीव लोके जीव भूत: सनातन: (गीता)
ये सब ग्रंथ कह रहे हैं कि हम भगवान के अंश हैं, आत्मा हैं और भगवान के अंश होने के कारण हम भी उनकी तरह सनातन हैं।

दूसरे प्रश्न का उत्तर है- वास्तविक सुख संसार (जो की माया से बना है) में नहीं भगवान (जो दिव्य हैं) में है। भगवान का नाम ही आनंद है। वेद-शास्त्र बार-बार कहते हैं-
​​आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् । (तैत्तिरीयोपनिषद्-3.6)
"भगवान को आनन्द मानो"

केवलानुभवानन्दस्वरुपः परमेश्वरः। (श्रीमद्भागवतम्-7.6.23)
"भगवान का स्वरूप वास्तविक आनंद से निर्मित है।"

आनन्द मात्र कर पाद मुखोदरादि। (पद्म पुराण)
"भगवान के हाथ, पैर, मुख और उदर आदि आनन्द से निर्मित हैं।"

जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥ (रामचरितमानस)
“ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम 'राम' है, जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है।”
यह तो स्थापित हो गया कि हम भगवान के अंश जीवात्मा हैं और भगवान सुख के सिंधु है। अब चलते हैं तीसरे प्रश्न की ओर - सुख की प्राप्ति हम को कैसे होगी?

इसका उत्तर सरल है। भगवान आनन्द स्वरूप हैं इसीलिए जिस क्षण हम को भगवान मिल जायेंगे उसी क्षण हम आनंदमय होंगे एंव हमारे दुख हमेशा के लिए चले जायेंगे। शास्त्र कहते हैं -
रसो वै स:।रसंह्वेयाम लब्ध्वा आनंदी भवति।
वह रस है उसको पाकर ही यह जीव आनंदमय होगा अर्थात भगवान श्रीकृष्ण ही आनंद हैं उनको पाकर ही जीव आनंदमय होगा।

अब प्रश्न उठता है कि हम को भगवान कब और कैसे मिलेंगे? इसके लिए संबंध (नाता), अभिधेय (पथ) और प्रयोजन (लक्ष्य) इन तीन तत्वों का पूर्ण ज्ञान अत्यंत आवश्यक है। इन तीन तत्वों को जानने के बाद, हम ईश्वर-प्राप्ति कर सकते है और अनंत काल के लिए दिव्य आनंद प्राप्त कर सकते है।
वेद शास्त्र कहे संबंध अभिधेय प्रयोजन।
कृष्ण, कृष्ण भक्ति, प्रेम,तिन महाधन।।

संबंध

सबसे पहले तो हम यह जाने कि भगवान के साथ हमारा वास्तविक संबंध क्या है? हम भगवान के अंश है, वह हमारे पिता, माता, सखा स्वामी है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा-
जीवेर स्वरूप होय कृष्णेर नित्य दास। (चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 20.108)
अर्थात्, जीव का यानी हमारा वास्तविक स्वरूप या संबंध यह है कि हम श्री कृष्ण के नित्य दास हैं और वह हमारे स्वामी है।

अभिधेय

भगवान तक पहुँचने के लिए हमको कौनसे मार्ग पर चलना है, यही है अभिधेय। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि कृष्ण भक्ति हमारा अभिधेय है अर्थात् भक्ति मार्ग में चलकर हम श्री कृष्ण को प्राप्त कर सकते हैं।

प्रयोजन

हमारा लक्ष्य क्या है, इसी को प्रयोजन कहते हैं। जैसे संसार में भी मनुष्य एक लक्ष्य या प्रयोजन को लेकर ही कर्म करते हैं वैसे ही अध्यात्म में भी साधक एक लक्ष्य को सामने रख कर साधना करता है। हमारा श्री कृष्ण से वास्तविक संबंध दासत्व का है इसीलिए हमारा प्रयोजन या लक्ष्य यह है कि हमको श्री कृष्ण की दिव्य सेवा चाहिए।

निष्कर्ष में कहा जाये तो- श्री कृष्ण की दिव्य सेवा हमारा प्रयोजन है। श्री कृष्ण की भक्ति हमारा अभिधेय है और श्री कृष्ण हमारे स्वामी है हम उनके नित्य दास है, यह हमारा संबंध है।