हमें शास्त्रों, वेदों द्वारा समझाया जाता है कि मनुष्य देह अनमोल है और मनुष्य देह में ही भगवत प्राप्ति संभव है। परंतु मनुष्य जीवन में विभिन्न प्रकार की विपरीत परिस्थितियां,कष्ट, परेशानी आती रहती है। मनुष्य उन्हीं में उलझा रहता है तो अपना लक्ष्य कैसे प्राप्त कर सकेगा। छांदोग्यो उपनिषद में भी प्रश्न किया गया है कि भगवान ने ऐसा त्रुटि पूर्ण संसार बनाया ही क्यों? परंतु इसके पीछे भी जीव का कल्याण ही छिपा है | हम विपरीत परिस्थितियों का सामना करके उत्थान के पथ पर बढ़ते हैं,कठिन परिस्थितियां हमारे कल्याण के लिए ही आती हैं।
इसे भागवत गीता से समझते हैं :
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परन्तप |
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह || (गीता 2.9)
दूरदर्शी संजय धृतराष्ट्र को महाभारत का प्रसंग सुना रहे हैं। अर्जुन शोक में डूब कर श्री कृष्ण के सामने अपना धनुष छोड़कर चुप होकर बैठ जाते हैं कि मैं युद्ध नहीं करूंगा। इस प्रसंग में संजय अर्जुन और श्री कृष्ण के लिए विशेष शब्दों का प्रयोग करते हैं अर्जुन को गुडाकेश कहकर संबोधित करते हैं जिसका अर्थ है निद्रा पर विजय पाने वाला और श्री कृष्ण को ऋषिकेश कहकर संबोधित करते हैं जिसका अर्थ है जो मन और इंद्रियों का स्वामी हो। ऐसे महान अर्जुन भी प्रतिकूल परिस्थिति में शोकाकुल होकर बैठे हैं। उसके विपरीत ज्ञान युक्त श्री कृष्ण मुस्कुरा रहे हैं। वह निश्चित ही इस समस्या का समाधान निकालेंगे।
तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच: || (गीता 2.10)
अर्जुन ने विषाद का समुद्र श्री कृष्ण के सामने रखा ।श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि ज्ञानी व्यक्ति किसी भी स्थिति में विषाद में नहीं डूबता, जो ज्ञानी पुरुष होता है ,वह विपरीत परिस्थिति का दृढ़तापूर्वक सामना करता है , जिससे उसके भौतिक , मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों का विकास होता है, वह परेशान नहीं होता। अनुकूल ,प्रतिकूल परिस्थितियां भगवान जीव के कल्याण के लिए भेजते हैं । हमें जो कष्ट होता है ,जो दुख मिलता है उसका कारण हमारा अंदर का संसार है। अज्ञानता वश हमारा अंदर वाला संसार कामना , आसक्ति, राग द्वेष आदि कर हमें दुखी कर रहा है। यदि अंदर वाला संसार नियंत्रण में है तो बाहरी परिस्थितियों विचलित नहीं कर सकती हैं।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं जीवन एक ऐसी यात्रा है जिसमें बार-बार ऐसी स्थितियां उत्पन्न होती है जो हमें नीचे दबाती है और हम उसका सामना करके ऊपर उठते हैं। भगवान ने ऐसा संसार बना दिया जिसमें बार-बार कठिनाई व परेशानी के रूप में परीक्षाएं देनी होगी जिसे पार करके हमारा कल्याण होगा। जैसे तितली का ही उदाहरण ले लें। शुरू में तितली एक कीड़े के रूप में होती है वह कीड़ा अपने चारों ओर एक घर बना लेता है जिसे कूकून कहते हैं। धीरे-धीरे समय के साथ वह कीड़ा अपार कष्ट सहन करके कुकून से बाहर निकलता है। कष्ट सहन करने के बाद ही उसके पंखों में शक्ति भरती है और वह उड़ने की क्षमता पा कर तितली बन विविध प्रकार के फूलों पर गुंजार करता है। यदि वह कीड़ा कुकून से बाहर निकलने का कष्ट नहीं उठाएगा तो जीवन में कभी भी उड़ नहीं पाएगा अर्थात कठिन परिस्थितियों का सामना करने में ही हमारी भलाई है, हमारा कल्याण है।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।। ( ईशोपनिषद 1)
वेद कहता है यह सारा संसार भगवान का ही स्वरुप है।
पुरुष एवेदं सर्वम् यद्भू॒तं यच्च भव्यम्। (ऋग्वेद 10.90.2)
भगवान सर्वत्र है तो जो भगवान परिपूर्ण है उससे त्रुटि पूर्ण संसार कभी नहीं बनेगा |यह संसार भी भगवान के समान ही परफेक्ट है और हमारे कल्याण के लिए है। चीन के टाओ धर्म के अनुसार बर्फ के टुकड़े धीरे-धीरे जमीन पर गिरते हैं हर टुकड़ा सही जगह पर ही गिरता है। इस तरह का सुव्यवस्थित कार्य भगवान के द्वारा ही होता है ।तात्पर्य यह कि हमें भले ही लगे कि संसार में गड़बड़ है , लेकिन वास्तव में संसार में कोई गड़बड़ नहीं है।
चित्तमेव हि संसारस् तत्प्रयत्नेन शोधयेत् । (मैत्रेय उपनिषद 6.34.3)
हमें अच्छी तरह से समझ जाना चाहिए कि हम जो दुख का कारण बाहर के संसार को मान रहे हैं उसका असली कारण हमारे अंदर के संसार में गड़बड़ होने से है।
सर्वा: सुखमया दिश: । (भागवत 9.19.15)
जिसका अंदर का संसार ठीक हो गया उसको सर्वत्र मंगल ही मंगल दिखाइ देगा और सर्वत्र आनंद का ही अनुभव होगा।