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भगवान की भक्ति कैसे करनी चाहिए?

May 15th, 2024 | 11 Min Read
Blog Thumnail

Category: Spirituality

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Language: Hindi

वेदों एवं शास्त्रों में बहुत प्रकार की भक्ति का निरूपण किया गया है। एक भागवत महापुराण को ही लिया जाये तो इसी में अलग-अलग स्थानों पर भक्ति के 1 प्रकार, 3 प्रकार, 5 प्रकार, 9 प्रकार से लेकर 30 प्रकार तक की भक्ति की व्याख्या की गई है। ऐसे में हम क्या करें? इसका उत्तर भागवत में ही मिलेगा। गुरुकुल से पढ़कर आये पुत्र प्रह्लाद को जब पिता हिरण्यकशिपुने पूछा, “चिरंजीव बेटा प्रह्लाद! इतने दिनों में तुमने गुरुजी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमें से कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ।” तब प्रह्लाद ने नवधा भक्ति के बारे में बताते हुए कहा- 
श्रवणं कीर्तनं विष्णुः स्मरणं पादसेवनम्। 
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
“पिताजी! भगवान की भक्ति के नौ भेद हैं—भगवान के गुण-लीला-नाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चना, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन⁠। यदि भगवान के प्रति समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाय, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ।”(भागवत 7-5-23)

भगवान राम ने भी शबरी को नवधा भक्ति का ज्ञान देते हुए कहा-
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥
(राम शबरी से) "मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम। तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें। मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना। सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना। नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो।" (रामचरितमानस- अरण्यकाण्ड) 

त्रिधा भक्ति क्या है?

परंतु कलिकाल के जीवों के कल्याण हेतु संतों ने नौ से छाँटकर तीन प्रकार की भक्ति का निरपुण किया है। भागवत में ही शुकदेव परमहंस राजा परीक्षित को कहते हैं- 
तस्माद्भारत सर्वात्मा भगवानीश्वरो हरिः ⁠। 
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताभयम् ॥
“हे परीक्षित्! जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण की ही लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये।”(भागवत 2-1-5)

जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज कहते है-
श्री कृष्णम स्मरणम् मनसा, वचसा सरस किर्तनम । 
श्रोत्रेन श्रवनम नित्यम, तृधा भक्ति गरियसी ॥
“मन से श्रीकृष्ण के रूप, लीला, गुण आदि का स्मरण करना। वचनों से उनका ही गुणगान करना, कानों से उनकी लीला-कथाओं को निरंतर सुनते रहना, इन तीन प्रकार की भक्ति को करते रहना चाइए।” 

कीर्तन भक्ति

भक्ति में केवल स्मरण की आवश्यकता है परंतु माया में जकड़ा हुआ हमारा मन केवल स्मरण नहीं कर सकता। अगर हम केवल भगवान का ध्यान लगाके बैठें तो संभावना है कि कुछ समय के पश्चात हमारा मन कहेगा कि अरे बहुत देर हो गई ध्यान किए हुए चलो अब सो जायें। और बुद्धि मन का समर्थन करते हुए कहेगी कि हाँ सो जाते हैं। और हम अंत में सो जाएँगे। ऐसे में स्मरण के साथ कीर्तन भक्ति की व्यवस्था की गई है।

कीर्तन भक्ति की विशिष्टता यह है कि जब हम कीर्तन गाते हैं तब उसकी पंक्तियों के माध्यम से भगवान के नाम, लीला, गुण आदि की मन में छवि बनाते हैं जिससे स्मरण भक्ति में सहायता मिलती है। परंतु कीर्तन भक्ति अकेले से काम नहीं बनेगा। केवल नाम लेने मात्र से भगवान नहीं मिलेंगे क्योंकि बिना स्मरण के भगवन्‌ नाम अक्षर मात्र है। 
यत्प्राणो ब्रह्म कं च तु खं च 
“प्राण ब्रह्म है, अक्षर क एवं ख भी ब्रह्म है।” (छान्दोग्योपनिषद् 4-10-5)

वेद के अनुसार यह जो अक्षर है- क, ख इत्यादि यह सब ब्रह्म अर्थात् भगवान ही है। इसीलिए संसार में जितनी भी भाषाएँ हैं, उनमें जितने भी अक्षर और शब्द है वह सब ब्रह्म ही हुए। ऐसे में हम सब सारा दिन जो भी बोलते हैं वह सब भगवान का ही नाम हुआ। परंतु इस तरह से लिए हुए नाम का हम को क्यों कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं मिलता? क्योंकि बिना नामी के चिंतन का लिया हुआ नाम केवल शब्दों का उच्चारण है, उससे ज़्यादा कुछ नहीं। नाम लेने का लाभ तब ही मिलेगा जब हम नाम में बैठे हुए नामी का मन में स्मरण करते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु ने शिक्षाष्टकं में कहा-
नाम्नामकारि बहुधा निज सर्व शक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।।
“हे प्रभु, आपने अपने अनेक नामों में अपनी शक्ति भर दी है, जिनका किसी समय भी स्मरण किया जा सकता है। हे भगवन्, आपकी इतनी कृपा है परन्तु मेरा इतना दुर्भाग्य है कि मुझे उन नामों से प्रेम ही नहीं है।”

तुलसीदासजी भगवान के नाम की शक्ति बताते हुए कहतें हैं- 
राम एक तापस तिय तारी | नाम कोटि खल कुमति सुधारि ||
“भगवान राम ने अपने अवतार काल में एक नारी अहिल्या का उद्धार किया। परंतु उनका नाम ऐसा प्रभावशाली है, जिसको जप-जप कर अनेकों पापात्माओं ने अपना उद्धार कर लिया है।” (रामचरितमानस- बालकाण्ड)

बिना स्मरण भक्ति के कीर्तन भक्ति अधूरी है। परंतु शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि जैसे भी हो भगवान का नाम-जप किया करो उससे कल्याण होगा। इसको हम इस तरह से समझ सकते हैं- जब हम छोटे थे तब हमारी माता हम को मंदिरों में, संतों के यहाँ ले जाती और उनको प्रणाम करने को बोलती थी। हम माँ के बताये अनुसार यंत्रवत् प्रणाम करते थे, उसका ना हमको ज्ञान था ना उसपर श्रद्धा। परंतु जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हम प्रश्न करने लगते हैं, फिर जानते हैं कि क्यों गुरु को और भगवान को प्रणाम करना चाइए, और जब ज्ञान होता है तब हम श्रद्धा से युक्त होकर वह कार्य करते हैं। अर्थात् माँ ने बाल्य अवस्था में हमारे अंदर जो बीज बोया था बाद में उसमें से श्रद्धा एवं भक्ति रूपी अंकुर उत्पन्न  हुआ। 

जब हम बिना स्मरण के भी दिन में 100 बार ‘राधे-श्याम’ करेंगे तो एक-दो बार तो राधे-श्याम का स्मरण कर ही लेंगे। एक बार भी हम ने भगवान का स्मरण कर लिया तो उसका हमारे मन में बहुत बड़ा प्रभाव पढ़ता है। आगे जाकर एक-एक करके कीर्तन के समय भगवन् नाम स्मरण करने का अभ्यास हो जाता है। इसीलिए शास्त्र वेद कहते हैं कि भगवान का नाम जैसे कैसे भी लेना चाहिए। परंतु याद रखे कि केवल नाम लेने मात्र से काम नहीं बनेगा। जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज कहते हैं- 
साधना है एक ही बस भक्ति हरि की प्यारे ।
श्रवण कीर्तन स्मरण ही है प्रमुख साधन प्यारे ।।
स्मरण ही को साधना का प्राण मानो प्यारे ।
स्मरण युत रोके माँगो प्रेम हरि का प्यारे ।।
“साधना केवल एक ही है और वह है हरि की भक्ति जो प्रमुखतः तीन प्रकार की हैं- श्रवण, कीर्तन और स्मरण। उनमे भी स्मरण को साधना का प्राण मानो और स्मरण युक्त होके रोकर दिव्य प्रेम पाने के लिए हरि को पुकारो।”

श्रवण भक्ति

कुछ शाश्वत प्रश्न हैं- कृष्ण कौन हैं, हम कौन हैं, कृष्ण से हमारा संबंध क्या है, हम क्या चाहते हैं, वह कहाँ मिलेगा, इत्यादि। इन प्रश्नों का उत्तर पाना हमारे लिए बहुत आवश्यक है। इसके बिना हमारी आध्यात्मिक यात्रा आगे नहीं बढ़ेगी। जैसे हमें जीवित रहने के लिए भोजन आवश्यक है परंतु भोजन कैसे बनाया जाता है इसका ज्ञान होना उससे भी ज़्यादा आवश्यक है। बिना खाद्य विज्ञान एवं पाक शास्त्र के जानकारी के हम सही भोजन ग्रहण नहीं कर सकते। जहाँ मीठा डालना है वहाँ नमक डाल देंगे तो हम भूखे ही रह जाएँगे। संसार में भी किसी भी मामले में आगे बढ़कर उसमें पारंगत होने के लिए उसके सैद्धांतिक और व्यावहारिक ज्ञान का होना बहुत आवश्यक है। ऐसे में भगवान का विषय तो परोक्ष है। इसमें तो सिद्धांत का ज्ञान जिसको तत्त्वज्ञान भी कहा जाता है का होना परम आवश्यक है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा- 
सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस।
“भगवान संबंधी सिद्धांत को समझ ने में कभी भी आलस्य ना करना।”

हमको लगता है कि एक बार सुन लिया तो सब जान गये। यह अति आत्मविश्वास के कारण हम सिद्धांत का बार-बार श्रवण/मनन नहीं करते। हमारी स्मरण शक्ति बहुत कमजोर है, दो घंटा पहले बताई हुई बात तक हम को याद नहीं रहती। ऐसे में यह सोचना छोड़ना होगा कि वेद-शास्त्र जैसे गहन ज्ञान को हम एक बार सुनने मात्र से समझ जाएँगे। इसके लिए वेदान्त में एक सूत्र बना दिया- 
आवृत्तिर् असकृदुपदेशात् ।
“अध्ययन किए हुए उपदेश का आवर्तन करना चाहिए।” (ब्रह्मसूत्र 4-1-1)

यहाँ आवृत्ति का अर्थ श्रवण भक्ति अर्थात् बार बार सुनना है। जब हम बार- बार सुनेंगे, उसका बार-बार चिंतन करेंगे तभी ज्ञान पक्का होगा। तमाम जन्मों का बिगड़ा हमारा मन बहुत चंचल है, इसको संसार में भटकने का अभ्यास है। जब अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से कुरुक्षत्रे में कहा-
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलव ढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
“हे कृष्ण! क्योंकि मन अति चंचल, अशांत, हठी और बलवान है। मुझे वायु की अपेक्षा मन को वश में करना अत्यंत कठिन लगता है।”

तब श्री कृष्ण ने अर्जुन के इस वाक्य का समर्थन करते हुए कहा-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
“हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! जो तुमने कहा वह सत्य है, मन को नियंत्रित करना वास्तव में कठिन है। किन्तु अभ्यास और विरक्ति द्वारा इसे नियंत्रित किया जा सकता है।” (गीता 6-34/35)

ज्ञान के पक्का ना होने का सबसे बड़ा उदाहरण यह है- हमारे देश में 99% लोग कहते हैं, “हम जानते है भगवान सब के हृदय में रहता है। वह सर्व व्यापक है।” परंतु इस ज्ञान को व्यावहार में कितने लोग लाते है, कितने लोग ऐसे हैं जो 24 घण्टे इस ज्ञान को मानते हैं? शायद 100 भी नहीं। अगर ज्ञान पक्का होता तो हम मन में कोई पाप का विचार नहीं लाते, क्योंकि भगवान मन में बैठे देख रहें हैं। जितना पक्का हमारा यह ज्ञान है कि हम पुरुष या स्त्री हैं, हम बंगाल से या पंजाब से हैं, उतना पक्का हमारा यह ज्ञान नहीं है कि भगवान सर्वव्यापक है, वह सब देख रहें हैं। हमारे सामने ही बॉस बैठा है और हम मन में उसको गाली दे रहें होते है। यह ज्ञान तब हम भूल जाते हैं कि हृदय में भगवान बैठकर हमारी दुर्भावनाओं को नोट कर रहें हैं और बाद में इन्हीं का फल हमको भगवान देंगे। अगर ज्ञान पक्का होता तो हमेशा मानते कि भगवान अंदर बैठे हैं इसलिए ग़लत चिंतन करने से बचते। अपने हरेक चिंतन के प्रति सजग होते। किसी से राग, किसी से द्वेष, किसी से ईर्ष्या यह सब क्यों, कोई पाप क्यों? क्योंकि माना ही नहीं कि भगवान देख रहें हैं। हम भगवान से कृपा चाहते हैं परंतु कर्म ऐसे करते हैं कि कृपा के स्थान पर हम को दंड मिलता है।

इसीलिए श्रवण भक्ति आवश्यक है। भगवान की लीला कथा, तत्वज्ञान इत्यादि का बार बार सुनना और चिंतन करना आवश्यक है। चिंतन में इतनी शक्ति है कि उसके माध्यम से जीव या तो भगवत प्राप्ति करलें या आत्महत्या करलें। भारत में प्रति वर्ष हज़ारों बच्चे परीक्षा में अनुतीर्ण होते हैं। उनमे से कुछ बच्चे अनुतीर्ण होने का इतना नकारात्मक चिंतन करते हैं कि आत्महत्या तक कर बैठते हैं। हम जिस भी विषय के बारे में जैसा भी चिंतन करें- चाहे प्यार का चाहे खार का, वह विषय हमारे मन-मस्तिष्क में आके घर कर जाता है। जिस मन में हरि-गुरु को बिठाना है उसी में वह विषय बैठ जाता है। इसीलिए मन के चिंतन का विषय सदा दिव्य रखना चाइए। 

ब्रज की गोपियों की स्थिति ऐसी थी कि उनको सब जगह श्रीकृष्ण ही दिखते थे। 
बाटन में घाटन में, वीथिन में बागन में, वृक्षन में बेलिन में, वाटिका में वन में । 
दरन में दिवारन में, देहरी दरीचन में, हीरन में हारन में, भूषन में तन में । 
गोकुल में गायन में... 
याही बृजमण्डल के रेनू में कन में । 
जहाँ जहाँ देखू तहाँ श्याम ही दिखाई देत, मेरो श्याम छाय रह्यो नैनन में मन में ।
जब हमारी स्थिति ऐसी हो जाये कि हम एक सेकेंड को भी यह ना भूलें कि भगवान हमारे हृदय में बैठे हैं, जब हम को सब जगह भगवान दिखे तभी हम पूर्ण विश्वास के साथ यह कह सकते हैं, “हम सब जानते हैं।” उससे पहले तो हम सब अज्ञानी ही हैं। इसीलिए बार-बार श्रवण भक्ति करनी चाइए। श्रवण भक्ति से तत्त्व ज्ञान पक्का होता है और ज्ञान से श्रद्धा। भक्ति में श्रद्धा का क्या महत्त्व है इसके लिए श्री रूप गोस्वामी ने कहा- 
आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोऽथ भजनक्रिया। ततोऽनर्थनिवृत्तिः स्यात्तत्तो निष्ठा रुचिस्ततः।। 
अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाऽभ्युदञ्चति। साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत् क्रमः।।
“सर्वप्रथम श्रद्धा अर्थात शास्त्र वचनों में विश्वास होता है, उसके बाद साधु-संग होता है, फिर भजन क्रिया प्रारम्भ होती है, भजन क्रिया के बाद अनर्थ-निवृति, फिर निष्ठा, फिर रूचि, तदनन्तर आसक्ति और फिर भाव का उदय होता है । उसके बाद प्रेम प्राप्त होता है रसिक गुरु की शरण में रहकर, तदनन्तर जीव कृत कृत्य हो जाता है, एवं श्री भगवान् के धाम पहुँचता है।” (भक्ति रसामृत सिंधु- 1-4-15/16)

अतः अनेका-अनेक प्रकार की साधन भक्तियों में से आचार्यों एवं संतों ने तीन प्रकार की भक्ति- श्रवण, कीर्तन एवं स्मरण को प्रमुख माना जिसके माध्यम से जीव अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।