हर समय मनुष्य के सामने विभिन्न संभावनाएं होती हैं, हर समय हम चुनते जाते हैं, जैसा हम चुनते हैं वैसा हमारा कर्म बनाता जाता है और उससे हमारे भविष्य का निर्माण होता है। इसके बारे में दो पक्ष हैं, कुछ लोग मानते हैं कि हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता हैं और कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि जीव के हाथ में कुछ नहीं होता, विधाता उसका भाग्य लिखता है। उसके अनुसार उसका जीवन व्यतीत होता है। इस प्रकार दो विचार धाराएं बन गई, एक तो भाग्यवादी और एक पुरुषार्थवादी। भाग्यवादी के अनुसार जीव भाग्य से बंधा है, उसे किसी प्रकार का स्वतंत्र कर्म करने का अधिकार ही नहीं है। पुरुषार्थवादी इस सिद्धांत को नहीं मानते, उनके अनुसार इस प्रकार तो जीव आलसी हो जायेगा, कोई कर्म करेगा ही नहीं, भाग्य के भरोसे बैठे रहेगा।
दैव दैव आलसी पुकारा
ये विवाद संसार में सर्वत्र चलता है, इसमें सत्य क्या है क्या जीव को भाग्य के भरोसे रहना है या स्वतंत्र कर्म करना चाहिए। इसे भली प्रकार से समझने के लिए ये समझना आवश्यक है कि भाग्य होता क्या है? भाग्य मतलब जीव द्वारा पूर्व जन्म में किए गए कर्म ही होते हैं जो वर्तमान जन्म में भाग्य कहलाता है। यदि भाग्यवादी की माने तो जीव भाग्य से बंधा है और कर्म करने का अधिकार भी नही है, ऐसा तो हर जन्म में होगा। तो कौनसे जन्म में हमने कर्म किया वही इस जन्म में हमारा भाग्य बना, भाग्य तो कर्म करने से ही बनता है। किसी न किसी जन्म में पुरुषार्थ तो किया है यह सिद्ध हो गया और किसी जन्म में पुरुषार्थ किया तो इस जन्म में क्यों नहीं कर सकते। इसलिए शास्त्र कहते हैं कि ये भाग्य भाग्य का नारा लगा कर आलसी मत बनो। चौरासी लाख योनियों में मानव शरीर ही एकमात्र शरीर है, जिसमें पुरुषार्थ कर सकते हैं। स्वतंत्र कर्म करने का अधिकार प्राप्त है। फिर तो जैसा भाग्य बनाना चाहे मनुष्य बना लें। पुण्य करेगा स्वर्ग जायेगा, पाप करेगा नर्क जायेगा और पाप - पुण्य मिश्रित करेगा तो मृत्युलोक में आना पड़ेगा। ये स्वतंत्रता भगवान ने हम सबको दी है अर्थात हमको कर्म प्रधान बना दिया।
ऐसे मानव शरीर को पाकर भाग्य का नारा लगा कर बैठ जाए, इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता है। अनंत जन्मों में हमने जो कर्म किए हैं, उनको संचित कर्म कहते हैं, जो हर मनुष्य के साथ पहाड़ के समान जुड़े हुए हैं। भगवान जब हमको संसार में भेजते हैं, तब इन संचित कर्म में से एक भाग इस जन्म में जोड़ देते हैं,जो जीव को इस जन्म में भोगना पड़ता है, वह प्रारब्ध कहलाता है, जो जीव को जन्म पर मिल जाता है। प्रारब्ध निश्चित होता है,जिसको बदल नहीं सकते हैं। वर्तमान में सदा कर्म करने की स्वतंत्रता रहती है, जिसे क्रियमान कर्म कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अपनी स्वेच्छा से किया कर्म क्रियमान कर्म कहलाता है। भाग्य तो निर्धारित था, साथ में क्रियमान कर्म जुड़ता जाता है। उदाहरण से समझें, जैसे किसी के भाग्य में लिखा था कि उसकी लॉटरी खुलेगी और वह करोड़पति बन जायेगा और वह बना भी। लेकिन उसके बाद वह व्यक्ति चाहे तो १ करोड़ रुपए का सदुपयोग करके १० करोड़ बना लें या भगवत क्षेत्र में दान करें या बुरी संगत में पड़ कर गंवा दे। यह उसका क्रियमान कर्म कहलाएगा जिसको करने में वह स्वतंत्र है।
संचित कर्म, प्रारब्ध और क्रियमान कर्म
इस प्रकार तीन प्रकार के कर्म हो गए, नंबर एक संचित कर्म, नंबर दो प्रारब्ध और नंबर तीन क्रियमान कर्म। क्रियमान कर्म सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। हमारे शास्त्र कहते हैं कि क्रियमान को सुधारो, प्रारब्ध की चिंता मत करो। वो तो आता जाता रहेगा। जैसे साइकिल चलाते वक्त सामने पहाड़ी आ जाए तो अधिक परिश्रम कर साइकिल चलाना होगा। किंतु चढ़ाई सदा नहीं रहती, चढ़ाई के बाद उतराई आ जाती है। उतराई भी सदा नहीं रहती फिर समतल आ जाता है। उसी प्रकार जीवन में कभी कठिन प्रारब्ध आ जाता है तब जीवन कठिन हो जाता है, तब मनुष्य को वहा रुकना नहीं है वरन और अधिक परिश्रम करना है। चढ़ाई के बाद उतराई आना ही है और जीवन सरल हो जाता है यानि अब अच्छा भाग्य आ गया।
तात्पर्य यह कि भाग्य आता जाता रहेगा, उसकी चिंता नहीं करना है और उसको जानने का प्रयत्न भी नहीं करना है। यदि जाना कि भाग्य बढ़िया है तो आलसी हो गए, यदि जाना कि भाग्य खराब है तो चिंता लग जायेगी।तो हम ने यह समझा कि किसी व्यक्ति का भाग्य उसके पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर निश्चित होता है।व्यक्ति अपने कर्मों से अपना भाग्य बदल सकता है। कर्म करने से ही भाग्य का रास्ता खुलता है। अपने भाग्य का विधाता मनुष्य स्वयं है। बच्चा जब गर्भ में होता है तब से ही उसकी आयु, धन, विद्या और मृत्यु निश्चित हो जाती है। मनुष्य प्रारब्ध स्वीकार कर अच्छे कर्मों द्वारा अपना भाग्य बना सकता है।