मनुष्य के दुख का कारण कामनाएं बनाना और उसका पूरा न होना है। शास्त्रों में कहा गया:
काममया एवायं पुरुष इति सा यथाकामो भवति तत्क्रतुर भवति।
यात्क्रतुर भवति तत कर्म कुरुते यत कर्म कुरुते तद अभिसम पद्यते॥
(बृहदारण्यक उपनिषद 4, 4.5)
भावार्थ: सर्व प्रथम हमारे मन में कमाना जागृत होती है, पश्चात बुद्धि मन के कामना की पूर्ति के लिए हमको कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती है। उसी प्रेरणा के अनुरूप हम कार्य करते हैं और जैसा हम कार्य करते हैं उसी के अनुरूप हमारा भाग्य का निर्माण होता है।
जब तक हमारे पास मन है तब तक हमारी कामनाओं का कभी अंत नही हो सकता। एक कामना बनती है, पूरी होती है, तुरंत ही दूसरी कामना बन जाती है।
यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः। न दुह्यन्ति मनः प्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते॥
भावार्थ: यदि विश्व के समस्त पदार्थ एक व्यक्ति को सहज में प्राप्त हो जायें तो भी वासनाओं का रोग उत्तरोत्तर बढ़ता ही जायेगा। कोई भी वस्तु उसको संतुष्ट नहीं कर सकती।
कामना ही मनुष्य के सारे दुखों की जड़ है
अपनी कमानों में जकड़ा हुआ मनुष्य उसकी पूर्ति के लिए किसी भी प्रकार का पाप कार्य कर लेता है। भगवान के पास भी मनुष्य अपनी कामना पूर्ति के लिए ही जाता है। कामना पूरी हुई तो श्रद्धा बढ़ गई नहीं हुई तो घट गई। जैसे किसी मंदिर में जाकर किसी कामना को लेकर मन्नत मानी, प्रारब्धवश वह पूरी हो गई, तो भगवान के प्रति हमारी श्रद्धा भक्ति बहुत बढ़ जाती है और यह भ्रम भी फैल जाता है कि अमुक मंदिर में जाने से इच्छा पूर्ण होती है और बिना कुछ समझे जाने लोग जुट जाते हैं। अब प्रारब्ध अनुसार यदि किसी की कामना पूर्ण नहीं हुई तो इसका बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है, हमारी भगवान के प्रति भक्ति कम हो सकती है और कई बार तो लोग नास्तिक तक हो जाते हैं।
इसमे समझने वाली बात यह है कि भगवान कर्म के विपरीत देते नहीं हैं। अगर हम कहे कि हमारा तो संबंध स्थापित हो गया है भगवान से, तो हम भगवान से संसार न मांगते हुए भगवान वाला आनंद ही मांगे और सदा सदा को आनंदमय हो जाएं।
पांच वर्ष के बालक प्रह्लाद के लिए जब नृसिंह अवतार हुआ था, तब भगवान ने उनसे वर मांगने के लिए कहा, उत्तर में प्रह्लाद ने कहा:
यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षम। कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम्॥
(भागवत 7.10.7)
भावार्थ: “मैं कुछ मांगूंगा तो आपका दास नहीं कहलाऊंगा, व्यापारी बन जाऊंगा, तो हे प्रभु मुझे अनंत काल के लिए ऐसा बना दीजिए कि आपसे कभी कुछ न मांगू , मेरी मांगने की बुद्धि ही मिटा दीजिए। भगवान से संसारी कामनाओं को मांगने में हम घाटे में रह जायेंगे।”
कामनाओं की पूर्ति, अपूर्ति अनुसार हमारी भक्ति में भी उतार चढ़ाव आएगा या यों कहे कि हमारी भक्ति छीन भी सकती है। भगवान ने हमारी कामनापूर्ति नहीं की इसका मतलब यह नही है कि भगवान गलत है या संसार गलत है। हो सकता है हमारी कामना ही गलत हो या वह हमारे भाग्य में न हो।
हमारा सुख हमारी सकारात्मक सोच पर निर्भर है
हमारे जीवन में जो उन्नति होगी या सुखानुभूति होगी, वह स्वयं को बदलने से होगी। अपने जीवन को मंगलमय बनाने के लिए संसार को नही, स्वयं को बदलना होगा। संतों-महापुरुषों ने कहा है कि तुम जो परोपकार के लिए भाग रहे हो, पहले खुद तो सुधरो फिर दूसरों को सुधारने की सोचना। कहा भी गया है "हम सुधरेंगे जग सुधरेगा" इसलिए अपनी विचारधारा को सकारात्मक बनाना होगा । यह जानते हुये भी हम नकारात्मक बन जाते हैं, इसके पीछे मुख्य रूप से हमारे भीतर का अहंकार नामक तत्व जिम्मेवार है, जो गड़बड़ करता है। अंदर वाला अहंकार हमको बताता है कि मैं इस संसार का मध्य केंद्र हूं, संसार में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्व मेरा है, ये संसार मेरी इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही बना है। मैं जो चाहूं वह होना ही चाहिए, वही संसार में सबसे महत्वपूर्ण है। लेकिन ऐसा होता नहीं है और निराशा, नकारात्मकता से घिर जाता है। मनुष्य भगवान द्वारा की गई कृपाओं को महसूस नहीं करता, यदि वह ऐसा करेगा तो प्रसन्न होने के हजारों कारण हैं। भगवान के द्वारा जीव पर की गई कृपाओं पर कई पन्नो का पुस्तक लिखी जा सकती है। हमें चाहिए उन्हीं कृपाओं को सोचें और स्वयं को सकारात्मक बनाएं। तो नतीजा यह होगा कि खुश रहने के लिए संसार पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा, हमारा सुख हमारी सकारात्मक सोच पर निर्भर होगा।