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81- श्रीकृष्ण अवतार की भूमिका: पृथ्वी की पुकार, देवताओं की याचना और कंस का अत्याचार

Oct 11th, 2025 | 12 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: English

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 10 अध्याय: 1-1

मृत्यु के मुख में उपस्थित परीक्षित महाराज ने शुकदेवजी के सामने केवल एक ही बात की जिज्ञासा की, “हे मुनिवर! अब कृपा कर हमें यदुवंश में अवतीर्ण हुए श्रीकृष्ण की पवित्र, मधुर और जीवन मुक्तिदायिनी लीलाएँ सुनाइये। 

जिन भगवान की कथाएँ मुक्त महापुरुष भी प्रेम से गाते हैं, जो मुमुक्षुजनों के लिए भवरोग की औषधि हैं और सामान्य श्रोताओं के लिए मन को आनन्द से भर देनेवाली हैं, उन श्रीकृष्ण की कथा से विमुख तो वही होगा जो आत्मघाती हो।
मेरे कुलदेव श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में पाण्डवों की रक्षा की। जिस समुद्र के समान विशाल कौरव सेना को पार करना असंभव था, मेरे पितामहों ने श्रीकृष्ण के चरणकमलों की नौका का आश्रय लेकर सहजता से पार कर लिया।

जब मैं अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से गर्भ में जल रहा था, तब मेरी माता ने श्रीकृष्ण की शरण ली और उन्होंने चक्र धारण कर गर्भ में प्रवेश कर मेरी रक्षा की। वे भीतर आत्मा रूप से अमृत प्रदान करते हैं और बाहर कालरूप से मृत्यु के स्वामी हैं। उनका मानव रूप प्रकट होना तो केवल उनकी लीला है।

अब आप कृपा करके बताइये की:
  • एक ही समय में बलरामजी दो माताओं के पुत्र कैसे हुए?
  • श्रीकृष्ण ने अपने वात्सल्य से भरे पितृगृह को छोड़कर व्रज क्यों गमन किया?
  • व्रज और मधुपुरी में उन्होंने कौन-कौन सी लीलाएँ कीं?
  • उन्होंने अपने मामा कंस का वध क्यों किया?
  • द्वारका में उन्होंने कितने वर्ष निवास किया और उनकी कितनी पत्नियाँ थीं?”
ऐसे सुन्दर और हृदयस्पर्शी प्रश्न सुनकर शुकदेवजी ने बड़ी प्रसन्नता से कहा, “राजन्! तुम्हारा प्रश्न अत्यन्त शुभ है। श्रीकृष्ण की कथा पूछने, कहने और सुनने से प्रश्नकर्ता, वक्ता और श्रोता यह तीनों ही पवित्र हो जाते हैं, जैसे गंगाजल या भगवान शालग्राम का चरणामृत।”

उस समय पृथ्वी पर अधर्म बढ़ गया था। असंख्य दैत्य, घमंडी राजाओं के रूप में अवतरित होकर पृथ्वी पर अत्याचार कर रहे थे। उनके असहनीय भार से पृथ्वी त्राहि-त्राहि कर उठी। वह गौ के रूप में अत्यन्त कृशकाय होकर, आँखों से आँसू बहाती, करुण स्वर में रँभाती हुई ब्रह्माजी की शरण में पहुँची और अपनी व्यथा सुनाई।

ब्रह्माजी ने करुणा से उसकी बात सुनी और उसे लेकर भगवान शंकर तथा अन्य देवताओं के साथ क्षीरसागर के तट पर गये। वहाँ सबने पुरुषसूक्त के द्वारा भगवान की स्तुति की। स्तुति करते-करते ब्रह्माजी समाधि में लीन हो गये और दिव्य आकाशवाणी सुनी।

ब्रह्माजी ने देवताओं से कहा, "भगवान को पृथ्वी के संकट का पहले से ही पता है। वे ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। वे अपनी कालशक्ति से पृथ्वी का भार उतारने के लिये अवतरित होने वाले हैं। तुम सब भी अपने-अपने अंशों सहित यदुवंश में जन्म लेकर उनकी दिव्य लीलाओं में सहयोग करो। 

वसुदेवजीके घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान् प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा (श्रीराधा) की सेवाके लिये देवांगनाएँ जन्म ग्रहण करें ⁠। अनन्त शेष भगवान उनके बड़े भाई बलरामजी के रूप में पहले अवतरित होंगे। योगमाया भी उनकी आज्ञा से अपनी भूमिका निभाने अवतरित होगी। ऐसा कहकर ब्रह्माजी ने पृथ्वी को ढाढ़स दिया और अपने धाम को लौट गये।”

भगवान कृष्ण के अवतार काल में कौन कौन था अपने पिछले जन्म में?

कश्यपजी – वसुदेव बने।
अदिति देवी – देवकी बनीं।
कालनेमि- कंस बना। 
प्राण नामक वसु – शूरसेन बने।
ध्रुव नामक वसु – देवक बने।
वसु नामक वसु– उद्धव बने।
दक्ष प्रजापति – अक्रूर बने।
वरुण देव – कृतवर्मा बने।
मरुत देवता – उग्रसेन बने।
राजा अम्बरीष – युयुधान बने।
प्रह्लाद भक्त – सात्यकि बने।

व्रज की गोपिकाएँ पूर्वजन्म में कौन थी?

वैकुंठ की रमादेवी की सहचरियाँ, श्वेतद्वीप की सखियाँ, ऊर्ध्व वैकुंठ की देवियाँ (भगवान अजित की चरणसेविकाएँ), श्रीलोकाचल पर्वत पर रहनेवाली समुद्र से उत्पन्न श्रीलक्ष्मी की सखियाँ, द्युलोक की देवाङ्गनाएँ (जिन्होंने भगवान् यज्ञ का दर्शन किया), जालंधर नगर की स्त्रियाँ (जिन्होंने हरि को देखकर आराधना की), समुद्र की कन्याएँ (जिन्होंने मत्स्यावतार को देखा), बर्हिष्मती नगर की स्त्रियाँ (राजा पृथु को देखकर मोहित हुईं), गन्धमादन पर्वत की अप्सराएँ (जो नारायण ऋषि को मोहित करने गईं), सुतल देश की स्त्रियाँ (जिन्होंने वामन भगवान की आराधना की), नागराज की कन्याएँ (जिन्होंने शेषावतार की पूजा की), वेद की ऋचाएँ , राम अवतार काल में मिथिला की स्त्रियाँ और दण्डक वन के मुनि।

ओषधियाँ (जो धन्वन्तरि के अन्तर्धान के बाद तपस्या करती हैं) – वृन्दावन में लता-गोपी बनीं।

देवकी की रक्षा के लिए वसुदेवजी का वचन

प्राचीन काल में यदुवंशी राजा शूरसेन मथुरा में राज्य करते थे। उनके शासनकाल से ही मथुरा यदुवंशी राजाओं की राजधानी बन गयी थी। भगवान श्रीहरि सदा वहीं विराजते हैं। शूरसेन के पुत्र वसुदेवजी ने देवक की पुत्री देवकी से विवाह किया। विवाह के बाद जब वे नववधू देवकी को लेकर रथ से घर लौट रहे थे, तो देवकी का चचेरा भाई और उग्रसेन का बेटा कंस स्वयं रथ के घोड़ों की रास पकड़कर प्रसन्नता से रथ हाँकने लगा। साथ में सैकड़ों स्वर्ण-रथ भी चल रहे थे। देवक ने अपनी प्रिय पुत्री को विदा करते समय दहेज में चार सौ हाथी, पंद्रह हजार घोड़े, अठारह सौ रथ, सुसज्जित दासियाँ, स्वर्ण हार और विविध वस्त्राभूषण दिया। संपूर्ण मथुरा में शंख, मृदंग, दुन्दुभी और तुरही एक साथ बज उठे, मंगलमय वातावरण छा गया।

इसी यात्रा के दौरान अचानक आकाशवाणी हुई, "अरे मूर्ख कंस! जिस देवकी को तू रथ में बैठाकर ले जा रहा है, उसकी आठवें गर्भ की संतान तेरा वध करेगी।"

कंस बड़ा पापी था। उसकी दुष्टताकी सीमा नहीं थी। वह पाप में लिप्त, क्रूर, निर्लज्ज और अपने वंश का कलंक था। आकाशवाणी सुनते ही उसने तलवार खींच ली और अपनी ही बहिन देवकी की चोटी पकड़कर उसे वहीं मारने को उद्यत हो गया।

तभी महात्मा वसुदेवजी ने बुद्धिमानी और शान्तचित्त से उसे रोकने के लिए मधुर वचनों में समझाना आरम्भ किया, “राजकुमार! आप भोजवंश के उज्ज्वल वंशधर हैं, अपने कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले हैं। बड़े-बड़े वीर आपके गुणों की प्रशंसा करते हैं। सामने एक तो स्त्री है, फिर आपकी अपनी बहन है और ऊपर से यह विवाह का शुभ अवसर है ऐसी स्थिति में आप इसे कैसे मार सकते हैं?

वीरवर! जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित होती है चाहे आज हो या सौ वर्ष बाद। जब शरीर का अंत होता है, तब जीव अपने कर्मों के अनुसार नया शरीर धारण करता है और पुराने शरीर को छोड़ देता है। यह प्रकृति का नियम है, इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता। इसलिए जो अपना कल्याण चाहता है, उसे किसी से वैर या द्रोह नहीं करना चाहिए।

कंस! यह तुम्हारी छोटी बहन है, अभी तो यह नवविवाहिता कन्या के समान है। इसके शरीर पर विवाह के मंगलचिह्न भी ताजे हैं। यह नादान और दीन है। तुम्हारे जैसे कुलीन और दयालु पुरुष को इस निर्दोष बहन को मारना शोभा नहीं देता।”

श्री शुकदेवजी कहते हैं की वसुदेवजी ने कंस को पहले प्रशंसा और मीठे वचनों से समझाया और फिर भय और तर्क से समझाने की कोशिश की। लेकिन कंस तो बहुत क्रूर था और राक्षसी प्रवृत्ति वाला हो गया था, इसलिए उसने अपने हठ को नहीं छोड़ा।

कंस का यह ज़िद्दी स्वभाव देखकर वसुदेवजी ने मन में विचार किया, "किसी तरह इस समय को अभी टाल देना चाहिए। बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि जहाँ तक उसकी समझ और शक्ति साथ दे, वह मृत्यु को टालने का पूरा प्रयास करे। अगर प्रयास के बाद भी मृत्यु को टाला न जा सके, तो उसका कोई दोष नहीं होता।

इसलिए मैं कंस को वचन दे दूँ कि जो भी देवकी के बच्चे होंगे, उन्हें मैं उसे सौंप दूँगा। इससे अभीके लिए देवकी की जान बच जाएगी। आगे क्या होगा, यह तो भाग्य पर निर्भर है। हो सकता है, बाद में परिस्थिति ही बदल जाए। शायद मेरा बेटा ही इस कंस का अंत कर दे! क्योंकि भगवान के विधान को कौन बदल सकता है? कभी-कभी सामने आई मृत्यु भी टल जाती है और कभी जो टल गई हो, वह लौट भी आती है।"

इस प्रकार सोचकर वसुदेवजी ने बड़ी सावधानी और सम्मान के साथ पापी कंस की प्रशंसा की। कंस बहुत क्रूर और निर्लज्ज था। इसलिए यह सब करते समय वसुदेवजी के मन में बहुत पीड़ा हो रही थी, लेकिन उन्होंने चेहरे पर मुस्कान रखते हुए शांत भाव से कहा, "हे सौम्य! तुम्हें देवकी से कोई भय नहीं होना चाहिए, जैसा कि आकाशवाणी में भी कहा गया है। भय तो उसके बच्चों से है। इसलिए उसके जो भी पुत्र होंगे, मैं उन्हें स्वयं तुम्हारे पास लाकर सौंप दूँगा।"

कंस जानता था कि वसुदेवजी कभी झूठ नहीं बोलते और जो कुछ उन्होंने कहा है वह पूरी तरह तर्कसंगत भी है। इसलिए उसने अपनी बहन देवकी को मारने का विचार छोड़ दिया। वसुदेवजी बहुत प्रसन्न हुए और देवकी को लेकर अपने घर लौट आये।

कंस का अत्याचार, देवकी-वसुदेवजी की कैद और पुत्रों का वध

देवकी बहुत सती-साध्वी थी। उसके शरीर में सभी देवताओं का निवास था। समय आने पर देवकी के गर्भ से हर वर्ष एक-एक करके आठ पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। पहले पुत्र का नाम कीर्तिमान् रखा गया। वसुदेवजी ने प्रतिज्ञा के अनुसार उसे कंस के पास पहुँचा दिया। ऐसा करते समय उन्हें दुख तो हुआ लेकिन वचन पालन उनके लिए सबसे बड़ा धर्म था।

जो लोग सत्य के प्रति दृढ़ होते हैं, वे सबसे बड़ा कष्ट भी सहन कर लेते हैं। ज्ञानी किसी अपेक्षा में नहीं रहते, दुष्ट व्यक्ति किसी भी सीमा तक बुरा काम कर सकता है, और जितेन्द्रिय सब कुछ त्याग सकते हैं।

जब कंस ने देखा कि वसुदेवजी अपने पुत्र के जीवन और मृत्यु के प्रति समान भाव रखते हैं और सत्य के प्रति पूर्ण निष्ठावान हैं, तो वह प्रसन्न होकर हँसते हुए बोला, “वसुदेव! आप इस नन्हें बालक को वापस ले जाइए। इससे मुझे कोई भय नहीं है, क्योंकि आकाशवाणी में तो यह कहा गया था कि देवकी के आठवें पुत्र से मेरी मृत्यु होगी।”

वसुदेवजी ने “ठीक है” कहकर बालक को वापस ले लिया, लेकिन मन में सतर्क रहे। वे जानते थे कि कंस बहुत दुष्ट है और उसका मन कभी भी बदल सकता है, इसलिए उन्होंने उसकी बात पर भरोसा नहीं किया।

इसी समय भगवान नारदजी कंस के पास आये। उन्होंने कंस से कहा, “कंस! व्रज के नन्द आदि गोप, उनकी स्त्रियाँ, वसुदेव और वृष्णिवंशी यदुवंशी, देवकी आदि यदुवंशी स्त्रियाँ ये सभी वास्तव में देवता हैं। नन्द और वसुदेव के सभी रिश्तेदार भी देवता हैं। जो लोग अभी तुम्हारी सेवा में लगे हैं, वे भी देवता ही हैं। पृथ्वी पर दैत्यों के कारण भार बढ़ गया है, इसलिए देवताओं की ओर से अब उनका संहार करने की तैयारी हो रही है।”

नारदजी की यह बातें सुनकर कंस को पक्का विश्वास हो गया कि यदुवंशी लोग देवता हैं और देवकी के गर्भ से स्वयं भगवान विष्णु जन्म लेंगे और वही उसे मारेंगे। इस विचार से उसने देवकी और वसुदेव दोनों को कैद में डाल दिया और उन पर हथकड़ियाँ-बेड़ियाँ लगवा दीं। इसके बाद देवकी से जो-जो पुत्र उत्पन्न हुए, कंस ने उन्हें एक-एक कर मार डाला। हर बार उसे यही डर लगा रहता था कि कहीं विष्णु इसी बालक के रूप में न आ गये हों।

यह बात संसार में अक्सर देखी जाती है कि अपने स्वार्थ के लिए लोभी और निर्दयी राजा अपने ही माता-पिता, भाई-बन्धु या हितैषी मित्रों की भी हत्या कर डालते हैं। कंस को यह भी याद था कि पूर्व जन्म में वह कालनेमि नाम का असुर था, जिसे भगवान विष्णु ने मारा था। इसीलिए उसने यदुवंशियों से घोर शत्रुता ठान ली। उसने यदु, भोज और अंधक वंश के अधिपति अपने पिता उग्रसेन को कैद में डाल दिया और स्वयं मथुरा का राजा बनकर शासन करने लगा।

श्री शुकदेवजी परीक्षित से कहते हैं की कंस स्वयं बहुत बलशाली था। साथ ही उसे मगध नरेश जरासन्ध का भी सहयोग मिला हुआ था। उसके साथ कई भयंकर असुर भी थे- प्रलम्बासुर, बकासुर, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्टासुर, द्विविद, पूतना, केशी, धेनकासुर, और साथ ही बाणासुर, भौमासुर जैसे अनेक दैत्यराज भी उसके सहयोगी बन गये थे। इन सबको साथ लेकर कंस ने यदुवंशियों को नष्ट करने का अभियान शुरू कर दिया। डर के कारण यदुवंशी लोग कुरु, पंचाल, केकय, शाल्व, विदर्भ, निषध, विदेह और कोसल जैसे विभिन्न राज्यों में जाकर बस गये। कुछ लोग ऊपर-ऊपर से कंस के अनुसार काम करते हुए उसकी सेवा में लगे रहे ताकि वह उन पर संदेह न करे।

बलरामजी का जन्म और भगवान कृष्ण का योग माया को आदेश

इसी दौरान जब कंस ने देवकी के छः पुत्रों को एक-एक करके मार डाला, तब देवकी के सातवें गर्भ में भगवान के अंशस्वरूप शेषजी (अनन्त) पधारे। शेषजी आनंदस्वरूप हैं, इसलिए देवकी को गर्भ में उनके आने से स्वाभाविक रूप से हर्ष हुआ, लेकिन साथ ही यह भय भी था कि कहीं कंस इस गर्भ को भी न मार डाले।

जब भगवान ने देखा कि यदुवंशी, जो मुझे अपना सर्वस्व मानते हैं, कंस द्वारा बहुत सताये जा रहे हैं, तब उन्होंने अपनी योगमाया को आदेश दिया, “देवि! कल्याणी! तुम व्रज में जाओ। वह स्थान गायों और ग्वालों से सुशोभित है। वहाँ नन्दबाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी निवास करती हैं। वसुदेव की अन्य पत्नियाँ भी कंस के डर से गुप्त स्थानों में छिपकर रह रही हैं।

इस समय मेरा अंश शेष देवकी के गर्भ में स्थित है। तुम उसे देवकी के गर्भ से निकालकर रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दो। अब मैं स्वयं अपने समस्त ज्ञान, बल और ऐश्वर्य के साथ देवकी का पुत्र बनकर प्रकट होऊँगा, और तुम नन्दबाबा की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लोगी।

तुम मनुष्यों को मुँहमाँगे वरदान देने में समर्थ होगी। लोग तुम्हें अपनी समस्त इच्छाएँ पूर्ण करनेवाली मानकर धूप, दीप, नैवेद्य और विभिन्न प्रकार की सामग्रियों से तुम्हारी पूजा करेंगे।
पृथ्वी पर तुम्हारे लिए अनेक स्थान बनेंगे और तुम्हें दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा, अंबिका आदि अनेक नामों से पुकारा जायेगा।”

भगवान के आदेश से योगमाया ने देवकी के गर्भ से शेषजी को निकालकर रोहिणी के गर्भ में पहुँचा दिया। इसी कारण उन्हें "संकर्षण" कहा गया। वे लोकों का हृदय आनंदित करने के कारण "राम" कहलाये और बलवानों में श्रेष्ठ होने के कारण "बलभद्र" नाम से प्रसिद्ध हुए।
जब भगवान्ने इस प्रकार आदेश दिया, तब योगमायाने "जो आज्ञा"-ऐसा कहकर उनकी बात शिरोधार्य की और उनकी परिक्रमा करके वे पथ्वी-लोकमें चली आयीं तथा भगवान्ने जैसा कहा था, वैसे ही किया।

जब योगमायाने देवकीका गर्भ ले जाकर रोहिणीके उदरमें रख दिया, तब पुरवासी बड़े दुःखके साथ आपसमें कहने लगे-"हाय! बेचारी देवकीका यह गर्भ तो नष्ट ही हो गया।
भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयङ्करः
आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभेः 
भगवान् भक्तोंको अभय करनेवाले हैं। वे सर्वत्र सब रूपमें हैं, उन्हें कहीं आना-जाना नहीं है। इसलिये वे वसुदेवजीके मनमें अपनी समस्त कलाओंके साथ प्रकट हो गये । (भागवत  10-2-16)

सबके भीतर विद्यमान रहनेपर भी भगवान ने अपनेको अव्यक्तसे व्यक्त कर दिया। भगवान्की ज्योतिको धारण करनेके कारण वसुदेवजी सूर्यके समान तेजस्वी हो गये, उन्हें देखकर लोगोंकी आँखें चौंधिया जातीं। कोई भी अपने बल, वाणी या प्रभावसे उन्हें दबा नहीं सकता था ।
भगवान्के उस ज्योतिर्मय अंशको, वसुदेवजीके द्वारा आधान किये जानेपर देवी देवकीने ग्रहण किया। जैसे पूर्वदिशा चन्द्रदेवको धारण करती है, वैसे ही शुद्ध सत्त्वसे सम्पन्न देवी देवकीने विशुद्ध मनसे सर्वात्मा एवं आत्मस्वरूप भगवान्को धारण किया।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 10.10.2025