श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 4 अध्याय: 14 से 18
अंगकी पत्नी सुनीथाने क्रूरकर्मा वेनको जन्म दिया, जिसकी दुष्टतासे उद्विग्न होकर राजर्षि अंग नगर छोड़कर चले गये थे। भृगु आदि मुनियोंने देखा कि अंगके चले जानेसे अब पृथ्वीकी रक्षा करनेवाला कोई नहीं रह गया है, सब लोग पशुओंके समान उच्छंखल होते जा रहे हैं।तब उन्होंने सुनीथाकी सम्मतिसे, मन्त्रियोंके सहमत न होनेपर भी वेनको राजा बना दिया।वेन बड़ा कठोर शासक था। जब चोर-डाकुओंने सुना कि वही राजसिंहासनपर बैठा है, तब सर्पसे डरे हुए चूहोंके समान वे सब तुरंत ही जहाँ-तहाँ छिप गये।ऋषि-मुनि उसकी इस अराजकता पर चिंतित होकर उसे समझाने का प्रयास करते हैं। वे उसे धर्म पालन का महत्व के बारे में बताते हुए कहते हैं कि धर्म का पालन करने से राजा और प्रजा, दोनों को सुख-शांति मिलती है।
वेन, अपने अहंकार में, सभी देवताओं को अपने से तुच्छ मानता है और कहता है कि वह ही सर्वदेवमय है। वह ब्राह्मणों और प्रजा से केवल अपनी पूजा करने का आदेश देता है, जिससे ऋषि-मुनि और भी अधिक क्षुब्ध हो जाते हैं। वेन की बुद्धि विपरीत हो चुकी थी, और वह पाप और कुमार्ग पर चल पड़ा था। मुनियों की विनम्र प्रार्थनाओं का भी उस पर कोई असर नहीं हुआ। जब उसने स्वयं को बड़ा समझते हुए मुनियों का अपमान किया, तो वे क्रोधित हो गए और बोले, "इस दुष्ट को मार डालो! यदि यह जीवित रहा, तो संसार का विनाश कर देगा। यह श्रीहरि की निंदा करने वाला, राजसिंहासन के योग्य नहीं है।" वेन तो भगवान की निंदा के कारण पहले ही मृतप्राय था; मुनियों ने केवल हुंकार भरकर उसका अंत कर दिया।
वेन के शरीर का मंथन और महाराज पृथुका आविर्भाव
वेन की मृत्यु के बाद उसकी मां सुनीथा ने मंत्र और अन्य उपायों से उसके शव की रक्षा की। इधर, मुनिगण सरस्वती नदी के किनारे हरि चर्चा कर रहे थे। उन्होंने देखा कि राजा के न होने से चोर-डाकुओं का आतंक बढ़ गया है और अराजकता फैल रही है। ऋषियों ने सोचा कि अंग वंश का नाश नहीं होना चाहिए क्योंकि उसमें कई महान राजा हुए हैं। उन्होंने वेन की जांघ मथी, जिससे एक बौना, काले रंग का व्यक्ति पैदा हुआ। उसके अंग छोटे और जबड़े बड़े थे। ऋषियों ने उसे "निषीद" (बैठने) को कहा, इसलिए वह "निषाद" कहलाया। उसने वेन के पाप अपने ऊपर ले लिए, और उसके वंशज जंगलों और पहाड़ों में रहकर हिंसा और लूटपाट करने लगे।
इसके बाद मुनियों ने बेन की भुजाओं को मथा, जिससे भगवान विष्णु के अंश स्वरूप महाराज पृथु और लक्ष्मीजी की अंशभूता रानी अर्चि प्रकट हुए। मुनियों ने पृथु का अभिषेक किया, और सभी देवताओं ने उन्हें उपहार भेंट किए।
राज्याभिषेक के बाद सूत, मागध, और वन्दीजन उनकी स्तुति करने आए। पृथु ने विनम्रता से कहा कि अभी उन्होंने ऐसा कोई कर्म नहीं किया जो स्तुति योग्य हो। उन्होंने आग्रह किया कि उनकी प्रशंसा तब की जाए जब उनके कार्य गुणवान और लोकहितकारी सिद्ध हो जाएं। उन्होंने श्रीहरि के गुणगान को सर्वोत्तम बताते हुए तुच्छ स्तुति को अनुचित बताया।
श्रीमैत्रेयजी विदुरजी को कहते हैं इस प्रकार जब वन्दीजनने महाराज पृथुके गुण और कर्मोंका बखान करके उनकी प्रशंसा की, तब उन्होंने भी उनकी बड़ाई करके तथा उन्हें मनचाही वस्तुएँ देकर सन्तुष्ट किया। विदुरजी ने मैत्रेयजी से पूछा कि पृथ्वी ने गौ का रूप क्यों धारण किया, दुहने का पात्र और बछड़ा कौन बना, और पृथ्वी को समतल करने का उपाय क्या था। साथ ही, इंद्र ने यज्ञ का घोड़ा क्यों चुराया और राजर्षि पृथु ने सनत्कुमारजी से ज्ञान प्राप्त कर कौन-सी गति पाई। पृथुरूपसे सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने ही अवतार ग्रहण किया था; अतः पुण्यकीर्ति श्रीहरिके उस पृथु-अवतारसे सम्बन्ध रखनेवाले जो और भी पवित्र चरित्र हों, वे सभी आप मुझसे कहिये।
तब मैत्रेयजीने कहा-विदुरजी! ब्राह्मणोंने महाराज पृथुका राज्याभिषेक करके उन्हें प्रजाका रक्षक उदघोषित किया। इन दिनों पृथ्वी अन्नहीन हो गयी थी, इसलिये भूखके कारण प्रजाजनोंके शरीर सूखकर काँटे हो गये थे। वह अन्नहीन प्रजा भूख से त्रस्त होकर उनकी शरण में आई। प्रजाका करुणक्रन्दन सुनकर महाराज पृथु बहुत देरतक विचार करते रहे। अन्तमें उन्हें अन्नाभावका कारण मालूम हो गया ।
‘पृथ्वीने स्वयं ही अन्न एवं औषधादिको अपने भीतर छिपा लिया है’ अपनी बुद्धिसे इस बातका निश्चय करके उन्होंने अपना धनुष उठाया और अत्यन्त क्रोधित होकर पृथ्वीको लक्ष्य बनाकर बाण चढ़ाया। उन्हें शस्त्र उठाये देख पृथ्वी काँप उठी और जिस प्रकार व्याधके पीछा करनेपर हरिणी भागती है, उसी प्रकार वह डरकर गौका रूप धारण करके भागने लगी। यह देखकर महाराज पृथुकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। वे जहाँ-जहाँ पृथ्वी गयी, वहाँ-वहाँ धनुषपर बाण चढ़ाये उसके पीछे लगे रहे। दिशा, विदिशा, स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें जहाँ-जहाँ भी वह दौड़कर जाती, वहीं उसे महाराज पृथु हथियार उठाये अपने पीछे दिखायी देते। जिस प्रकार मनुष्यको मत्युसे कोई नहीं बचा सकता, उसी प्रकार उसे त्रिलोकीमें पृथुसे बचानेवाला कोई भी न मिला। तब वह अत्यन्त भयभीत होकर दुःखित चित्तसे पीछेकी ओर लौटी और पृथुजीसे कहने लगी-"मैं दीन और निरपराध हूँ, फिर आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं? आप धर्मज्ञ और दयालु हैं, तो स्त्री का वध कैसे कर सकते हैं? स्त्रियों को तो साधारण जीव भी नहीं मारते। मैं सुदृढ़ नौका के समान हूँ, जिस पर सारा संसार टिका है। यदि आप मुझे नष्ट कर देंगे, तो अपने और प्रजा का जीवन कैसे बचाएंगे?"
महाराज पृथु ने पृथ्वी देवी से कहा, "तू मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रही है। तू यज्ञों में भाग लेती है, लेकिन इसके बदले में हमें अन्न नहीं देती, और रोज़ हरी घास खाकर दूध नहीं देती। तुझे दण्ड देना मेरे लिए उचित है। तू नासमझ है, और तुमने ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न अन्न के बीजों को अपने में समाहित कर लिया है, फिर भी मुझे अपने गर्भ से बाहर नहीं निकालती। अब मैं अपने बाणों से तुझे नष्ट कर दूँगा, ताकि प्रजा के करुण क्रन्दन को शांत कर सकूँ। जो व्यक्ति केवल अपनी ही चिंता करता है और दूसरों के प्रति निर्दय होता है, उसे मारना राजा के लिए कोई अपराध नहीं है। तू गर्वीली है और माया से गौ का रूप धारण किए हुए है। अब मैं तुझे बाणों से टुकड़े-टुकड़े कर प्रजा की रक्षा करूंगा।"
पृथ्वी देवी ने विनम्रता से कहा, "आप साक्षात परमपुरुष हैं, और अपनी मायासे अनेक रूप धारण कर गुणों से परिपूर्ण हैं। आप आत्मानुभव से सर्वथा रहित हैं और त्रिगुणात्मक सृष्टि के रचनाकार हैं। आप ही इस जगत के विधाता हैं और मुझे जीवों का आश्रय बनाया है। यदि आप अस्त्र-शस्त्र लेकर मुझे मारने आ रहे हैं, तो मैं और किसकी शरण में जाऊँ?
आपने अपनी अनिर्वचनीय मायासे यह सृष्टि बनाई और वही मायारूपी शक्ति आपके द्वारा जगत का पालन करती है। आप साक्षात सर्वेश्वर हैं, जिनकी लीलाओं को असंख्य जीव समझ नहीं सकते। आपने ब्रह्मा को रचकर सृष्टि की रचना कराई है। आपकी लीलाओं से मेरा चित्त मोहग्रस्त है, लेकिन आपके भक्तों के यज्ञ और साधना को मैं नमन करती हूँ। मेरे जैसे साधारण जीव आपकी क्रियाओं के उद्देश्य को नहीं समझ सकते, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। आप साक्षात परमपुरुष हैं, मेरी आपको बार-बार नमस्कार है।"
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! इस समय महाराज पृथुके होठ क्रोधसे काँप रहे थे। उनकी इस प्रकार स्तुति कर पृथ्वीने अपने हृदयको विचारपूर्वक समाहित किया और डरतेडरते उनसे कहा- प्रभो! आप अपना क्रोध शान्त कीजिये और मैं जो प्रार्थना करती हूँ, उसे ध्यान देकर सुनिये। पृथ्वी देवी ने विनम्रता से कहा, "प्रभु, आप अपना क्रोध शांत कीजिए और मेरी प्रार्थना सुनिए। बुद्धिमान लोग भ्रमर की तरह सभी जगह से सार ग्रहण करते हैं। प्राचीन मुनियों ने कृषि, अग्निहोत्र आदि उपायों से लोक और परलोक में मानव कल्याण के लिए मार्ग दिखाए हैं। जो व्यक्ति उन उपायों का पालन करता है, उसे उचित फल मिलता है, जबकि जो अपने मनमाने उपायों का अनुसरण करता है, वह विफल रहता है।"
"राजन्! पहले ब्रह्माजी ने जो धान्य उत्पन्न किया था, उन्हें अब उन लोगों ने खा लिया है जो यम-नियम का पालन नहीं करते। अब लोग चोरी करने लगे हैं, इसलिए मैंने उन धान्यों को अपने में छिपा लिया। समय के साथ वे अब जीर्ण हो गए हैं, आप उन्हें पुराने उपायों से निकाल लीजिए। यदि आपको समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए अन्न की आवश्यकता है, तो आप बछड़े, दूध और दुहने का उपाय करें, मैं उन उपायों से सभी आवश्यक वस्तुएं प्रदान करूंगी। राजन्, एक और बात है—आपको मुझे समतल करना होगा ताकि वर्षा के बाद भी मुझमें नमी बनी रहे और जल न सूखने पाए। यह आपके लिए बहुत मंगलकारी होगा।"
महाराज पृथु द्वारा पृथ्वी का दोहन
महाराज पृथु ने पृथ्वी के कहे हुए प्रिय और हितकारी वचन स्वीकार कर स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बना और अपने हाथों से सभी धान्य (अन्न) दुह लिया। अन्य ज्ञानी भी पृथ्वी से अपनी इच्छित वस्तुएँ प्राप्त करते हैं, जैसे पृथु ने किया।
- ऋषि: बहस्पति को बछड़ा बना कर इंद्रिय रूप पात्र में वेद रूप दूध दुहा।
- देवता: इन्द्र को बछड़ा बना कर अमृत, वीर्य और ओज रूप दूध दुहा।
- दैत्य और दानव: प्रह्लाद को बछड़ा बना कर मदिरा और आसव (ताड़ी) रूप दध दुहा।
- गन्धर्व और अप्सरा: विश्वावसु को बछड़ा बना कर संगीत और सौंदर्य रूप दूध दुहा।
- पितृगण: अर्यमा को बछड़ा बना कर मिट्टी के पात्र में श्रद्धापूर्वक कव्य रूप दूध दुहा।
- सिद्ध और विद्याधर: कपिल देव को बछड़ा बना कर आकाश रूप पात्र में सिद्धियाँ और विद्याएँ दुहा।
- मायावी और किम्पुरुष: मयादानव को बछड़ा बना कर मायाएँ दुहा।
- यक्ष, राक्षस, भूत: रुद्र को बछड़ा बना कर रक्त रूप दूध दुहा।
- विषैले जीव: तक्षक को बछड़ा बना कर विष रूप दूध दुहा।
- पशु और पक्षी: रुद्र के वाहन बैल और गरुड़ को बछड़ा बना कर तृण, मांसा, और फल रूप दूध दुहा।
- वृक्ष और पर्वत: वट और हिमालय को बछड़ा बना कर रस और धातु रूप दूध दुहा।
पृथ्वी सभी इच्छित वस्तुएँ देने वाली है और पृथु के अधीन थी, इसलिए सभी ने अपनी जाति के मुखियाओं को बछड़ा बना कर पृथ्वी से अपनी-अपनी इच्छित वस्तुएँ दुही। महाराज पृथु इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने पृथ्वी को अपनी बेटी के रूप में स्वीकार कर लिया और उसे पुत्री के समान स्नेह दिया। पृथु ने पर्वतों को तोड़कर भूमि को समतल किया और प्रजा के लिए निवास स्थानों का निर्माण किया। उन्होंने कई गाँव, कस्बे, नगर, दुर्ग, और बस्तियाँ बसाईं, ताकि सब लोग व्यवस्थित रूप से रह सकें। महाराज पृथुसे पहले इस पृथ्वीतलपर पुर-ग्रामादिका विभाग नहीं था; सब लोग अपनेअपने सुभीतेके अनुसार बेखटके जहाँ-तहाँ बस जाते थे।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 2.12.2024